Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 163 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 163

जीवन सूत्र 501 अपने-अपने आराध्य

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।(7/21)।

अर्थात जो-जो भक्त जिस जिस देवता का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है,मैं उस उस देवता के प्रति उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ।

इस श्लोक से हम अपने-अपने देवताओं के पूजन, इस वाक्यांश को एक सूत्र की तरह लेते हैं।


जीवन सूत्र 502 अपने-अपने मत को लेकर झगड़े गलत


भगवान कृष्ण का यह श्लोक अपने मत और पंथ को लेकर झगड़े कर रहे लोगों के बीच प्रेम और समन्वय से कार्य करने का गहरा संदेश देता है। भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार होते हुए भी भगवान कृष्ण कभी भी किसी एक मत का ही प्रतिपादन नहीं करते हैं। गीता में अनेक स्थानों पर ब्रह्मांड के एकमात्र नियंता होने की ईश्वरीय सत्ता के रूप में उनकी घोषणा है, लेकिन स्वयं पारब्रह्म परमात्मा होते हुए भी उन्होंने किसी अन्य मत का खंडन या भर्त्सना नहीं की।कृष्ण जी अपने भक्तों का योग क्षेम वहन करते हैं।वे 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' कहते हैं अर्थात अन्य सभी कार्यों,मतों आदि में न उलझ कर मनुष्य को स्वयं की शरण में आने के लिए कहते हैं।


जीवन सूत्र 503 श्री कृष्ण की तरह ही करें हर मार्ग का सम्मान


वहीं जीवन पथ के सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक होने के बाद भी वे अन्य मतों व विचारों का सम्मान करते हैं।

झगड़े वही शुरू होते हैं, जब हम अपने पंथ और अपने मत को श्रेष्ठ बता कर अन्य की निंदा करने लगते हैं। अगर अपनी प्रगति के लिए मनुष्य ने कोई मार्ग निश्चित कर लिया है,तो सही जीवन जीने और आगे बढ़ने के लिए बार-बार मार्ग बदलने की जरूरत नहीं है।जीवन में आगे बढ़ने के लिए किसी एक रास्ते पर ही सभी का चलना अनिवार्य नहीं है।रास्ते ऐसे भी नहीं हैं कि बार-बार आपस में टकराव हो।ईश्वर ने सबके लिए अलग-अलग रास्ते बनाकर रखे हैं। दरअसल अपने मार्ग को सही बताने की कोशिश में ही मनुष्य अपना बहुत सारा श्रम,धन और ऊर्जा नष्ट कर देता है।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय