Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 20

[ महालनोबीस से भेंट और ‘लॉउवेन स्ट्रीट प्रॉब्लम’ पहेली ]

हम भारतवासियों के लिए प्रो. प्रशांत चंद्र महालनोबीस का नाम सुपरिचित है। उन्होंने कलकत्ता में इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी। पं. जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ही सर्वप्रथम योजना आयोग का कार्य सौंपा था। रामानुजन के समय में प्रो. प्रशांत चंद्र महालनोबीस इंग्लैंड में किंग्स कॉलेज में विद्यार्थी थे। बाद में वह रॉयल सोसाइटी के फेलो भी मनोनीत हुए थे।
एक रविवार को प्रातः वे रामानुजन के व्हेवैल कोर्ट के कमरे में बैठे थे। रामानुजन पिछले कमरे में सब्जी पका रहे थे। उन्होंने रामानुजन के सामने पत्रिका ‘स्ट्रंड’ में छपी गणित की एक पहेली रखी और उसका हल बताने के लिए कहा।
‘लॉउवेन स्ट्रीट प्रॉब्लम’ नाम से प्रसिद्ध पहेली इस प्रकार थी—लॉउवेन नगर में बेल्जियम का मेरा एक मित्र रहता था। इस नगर को जर्मनी ने जलाकर राख कर दिया। मेरा मित्र जिस सड़क पर रहता था, वह काफी लंबी थी। उसपर पचास से अधिक घर थे, लेकिन पाँच सौ से कम ही थे। मित्र के घर के एक ओर के घरों के नंबर 1, 2, 3. . . आदि थे। मेरे मित्र के घर के दोनों ओर बने घरों के नंबरों का योग समान था। बताओ, मेरे मित्र के घर का नंबर क्या था?
श्री महालनोबीस ने इसका उत्तर निकाल लिया था। इसका एक ही उत्तर था, मित्र के घर का नंबर था 204 और कुल 288 घर उस गली में थे,
क्योंकि 1 2 3 203 = 205 206 . . 288
महालनोबीस ने रामानुजन से कहा कि तुरंत उत्तर लिखो। और रामानुजन ने उत्तर एक निरंतर लँगड़ीभिन्न (continued fraction) के रूप में लिख दिया। उनका उत्तर केवल उस पहेली का ही उत्तर नहीं था, बल्कि उसमें सम्मिलित उन सभी समस्याओं का उत्तर था, जिनमें बंधन केवल 50 तथा 500 के बीच रहने के स्थान पर अन्य कुछ भी हो सकता था। उदाहरण के लिए, यदि सड़क पर 8 घर रहें तो मित्र के घर का नंबर 6 सही उत्तर होगा, क्योंकि 1 2 3 4 5 = 7 8।
महालनोबीस ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, “इतनी शीघ्रता से आपने कैसे यह सर्वमान्य (general) फल निकाल दिया?”
रामानुजन का उत्तर था “जैसे ही मैंने पहेली सुनी, मुझे सूझा कि इसका उत्तर एक निरंतर लँगड़ी भिन्न ही होना चाहिए। फिर मैंने सोचा, कौन सी निरंतर लँगड़ीभिन्न? और तत्काल ही मेरे मस्तिष्क में अपने आप फिर उत्तर स्वयं आ गया।”


[ प्रो. हार्डी के साथ कार्य आरंभ ]
कैंब्रिज पहुँचने पर रामानुजन लगभग प्रतिदिन प्रो. हार्डी से मिलने लगे। अब रामानुजन की नोट-बुक्स हार्डी के पास थीं। उनमें दिए गए निष्कर्षों की संख्या लगभग 4 हजार थी। उन्होंने उन नोट बुक्स को ध्यान से पढ़ा और उन पर रामानुजन से समय-समय पर अच्छी चर्चा भी की।
हार्डी ने पाया कि रामानुजन द्वारा निकाले गए निष्कर्षों को मोटे तौर पर चार भागों में बाँटा जा सकता है—
1. लगभग एक-तिहाई वे निष्कर्ष, जो नए हैं और महत्त्व के हैं।
2. कुछ निष्कर्ष नए तो हैं, मगर उनकी दृष्टि में साधारण हैं।
3. कुछ ऐसे निष्कर्ष हैं, जो पहले से पता थे और रामानुजन ने उन्हें स्वतंत्र रूप से स्वयं निकाला है।
4. कुछ निष्कर्षों में त्रुटियाँ हैं और वे ठीक नहीं हैं।
परंतु उनका यह मत भी था कि सभी को ठीक से सिद्ध नहीं किया गया है। उनकी विधिवत् उपपत्तियाँ (proofs) देना सरल नहीं था। यह कार्य कितना बड़ा था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सात वर्षों बाद सन् 1921 में रामानुजन की मृत्यु के एक वर्ष बाद प्रो. हार्डी ने लिखा था— “एक अप्रकाशित सामग्री का ढेर अब भी विवेचन के लिए बाकी है।” दो वर्ष बाद रामानुजन की पहली नोट बुक के अध्याय बारह एवं तेरह पर आधारित उन्होंने ‘हाइपर ज्योमेट्रिक सीरीज’ पर एक पेपर तैयार करते समय लिखा था— “ये वे दो अध्याय हैं जिन पर मैं अब तक गहराई से विवेचन कर पाया हूँ।”
रामानुजन ने कैंब्रिज आने के तुरंत बाद अपनी नोट-बुक्स के आधार पर, हार्डी की बताई विधि के अनुसार, कुछ शोध-लेख तैयार किए। प्रत्येक माह के दूसरे बृहस्पतिवार को ‘लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ की बैठकें हुआ करती थीं, जिनमें शोधपत्र प्रस्तुत किए जाते थे। 11 जून, 1914 को प्रो. हार्डी द्वारा ‘लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ की बैठक में रामानुजन का एक शोधपत्र प्रस्तुत किया गया। उस बैठक में हॉब्सन, जिन्हें लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व रामानुजन ने भारत से पत्र लिखा था, उपस्थित थे। प्रो. ब्राउनविच, जिनकी पुस्तक रामानुजन को पढ़ने के लिए सुझाई गई थी, भी वहाँ पर उपस्थित थे। इनके अतिरिक्त अन्य मान्य विद्वानों के साथ वहाँ हार्डी के विद्यार्थी-काल के निदेशक प्रो.लोव एवं प्रो. लिटिलवुड भी उपस्थित थे। हाँ, रामानुजन स्वयं इस बैठक में नहीं थे।
प्रो. हार्डी के प्रत्येक निष्कर्ष को विधिवत् सिद्ध करने का आग्रह कितने महत्त्व का था, यह सभी गणितज्ञ, विशेष रूप से वे, जो शोध कार्य से परिचित हैं, भली-भाँति समझ सकते हैं। धीरे-धीरे रामानुजन भी इस बात का महत्त्व समझने लगे थे। उनके सामने समस्या यह थी कि रामानुजन मस्तिष्क में उग रहे नए निष्कर्षों को समय दें या पुरानों की उपपत्तियाँ देने में अपने को लगाएँ। वह चाहकर भी नए वेग को रोक नहीं पाए, अतः उनके बहुत से निष्कर्ष बाद में अन्य शोधकर्ताओं के विवेचन के लिए बचे रहे और रामानुजन आगे बढ़ते गए।
जनवरी 1915 में रामानुजन ने भारत में स्थित अपने एक मित्र को लिखा था— “मेरी नोट-बुक्स पिछले चार-पाँच महीने से एक कोने में सुषुप्त पड़ी है। मैं नए शोधों पर लेख तैयार करने में सफल हुआ हूँ।”
वास्तव में विशद प्रमाण देने के प्रो. हार्डी के आग्रह ने ब्रिटिश गणित में एक नई लहर ही नहीं एक नई जीवन-शक्ति सी ला दी थी। उन्होंने एक पुस्तक 'प्योर मैथेमेटिक्स' इसी आधार पर लिखी, जो आज भी इस क्षेत्र में मानक पुस्तक मानी जाती है। उन्होंने वर्षों से चले आ रहे ‘ट्राइपॉस’ की आलोचना की, क्योंकि वह परीक्षा के विशद विवेचन पर बल नहीं देती थी और वहाँ के मेधावी गणितज्ञ ट्राइपॉस की तैयारी व परीक्षा से बने संस्कारों से आगे आए थे।
कैलकुलस का आविष्कार न्यूटन ने किया अथवा लेब्निजिथ ने, यह विवाद ब्रिटेन में राष्ट्र प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। ब्रिटेन के लोग गणित पाठ्यक्रम में तब वहाँ लेब्निजिथ की विधि का बहिष्कार कर न्यूटन की बहुत अस्पष्ट एवं क्लिष्ट विधि को अपना रहे थे, जिससे गणित के कई क्षेत्रों में ब्रिटेन अन्य देशों से पिछड़ गया था।
रामानुजन और हार्डी एक-दूसरे के पूरक थे। केनिगल ने उन्हें क्रमशः ‘अंतःप्रज्ञा का अवतार’ (Intuition Incarnate) और 'प्रमाणों का प्रचारक' (Apostle of proofs) की संज्ञा दी है। रामानुजन को दी गई ये उपाधियाँ सटीक हैं। उन जैसा अंतःप्रज्ञा से एक के बाद एक लगातार नए निष्कर्ष देने वाला आधुनिक गणित के इतिहास में दूसरा कोई व्यक्ति विश्व भर में नहीं दिखा। लिटिलवुड ने उनकी तुलना जैकोबी से करते हुए कहा था, “मेरा विश्वास है कि वह कम-से-कम जैकोबी है।” और बाद में हार्डी ने कहा था, “सबसे आश्चर्यचकित करने वाली बात उसकी वह अंतर्दृष्टि है, जो सूत्रों, अनंत श्रेणियों के रूपांतरण आदि में दिखती है। मैं आज तक उसके समान किसी व्यक्ति से नहीं मिला और मैं उसकी तुलना ऑयलर तथा जैकोबी से कर सकता हूँ।”
यहाँ यह बता देना उचित होगा कि लिओन्हार्ड ऑयलर को अठारहवीं शताब्दी का गणित का सबसे बड़ा सृजनकर्ता माना जाता है। उन्होंने लगभग 800 लेख अथवा पुस्तकें लिखीं। उनके नाम गणित के बहुत से सूत्र जुड़े हैं और उन्होंने गणित के कई नए विषयों का सूत्रपात किया है। उधर कार्ल गुस्तव जैकब जैकोबी का कार्य भी उनकी अनुपम प्रतिभा से उद्भाषित है। उन्होंने 'इलिप्टिक फंक्शंस' पर श्रेष्ठ कार्य किया है, जो रामानुजन के भी शोध का एक विषय रहा है। वास्तव में रामानुजन के कार्यक्षेत्र में ऑयलर और जैकोबी— दोनों का ही कार्य पहले रहा है।
अपनी इस अंतःप्रज्ञा के कारण ही रामानुजन गणिताकाश में अद्वितीय नक्षत्र बनें हैं। वह अपने किए कार्य में इतने सूत्र लिखकर छोड़ गए हैं कि उन्हें विधिवत् पूरी उपपत्तियों के साथ प्रस्तुत करने का विशद कार्य आज भी अधूरा है। वह जिस ओर भी पढ़ना सोचना शुरू करते थे, उनके विस्तारीकरण के विविध विचार भी उनके मन में आने लगते थे। विस्मय की बात यह थी कि उससे उठे प्रश्नों के उत्तर अनायास ही उन्हें मिल जाते थे, जिसको वे देवी नामगिरी की कृपा मानते थे। केनगिल ने लिखा है, “नास्तिक विचारों के हार्डी के लिए इस दिव्य शक्ति का चमत्कार स्वीकार करने में स्पष्ट रूप से कमी थी। संभव है कि हार्डी के नास्तिक विचारों को जानकर रामानुजन देवी नामगिरी की कृपा की चर्चा हार्डी से नहीं करते हों।”
चूँकि हार्डी बहुत ही अल्पभाषी व्यक्ति थे, अतः उन्हें रामानुजन की बहुत सी व्यक्तिगत बातों का ज्ञान नहीं था। यह ज्ञान यहाँ तक सीमित था कि वह रामानुजन का पहला नाम श्रीनिवास (जो उनके पिता का नाम था) मानते थे और रामानुजन, जो वास्तव में उनका वास्तविक नाम था, को उनका 'सरनेम'। हाँ, रामानुजन की विधिवत् शिक्षा की कमी उन्हें सदा अखरती रही। बहुत प्रयत्न करने पर भी जिस मानसिक-बौद्धिक स्थिति में रामानुजन थे, उसके कारण वह उन्हें वहाँ रहते हुए चाहकर भी उस कमी को दूर नहीं कर पाए। इस बारे में उनके कुछ शब्द बड़े सटीक है—
“उसके ज्ञान की कमी भी उतनी ही विस्मय कर देने वाली थी जितनी उसके विचार की गहनता। वह एक ऐसा व्यक्ति था, जो उस स्तर के मौडुलर समीकरण पर कार्य कर सकता था या कंपैल्क्स-गुणा कर सकता था, जिसके बारे में किसी ने सुना तक न हो । निरंतर लँगड़ीभिन्न पर उसका इतना अधिकार था जितना विश्व में कदाचित् किसी भी गणितज्ञ को नहीं था। उसने स्वयं जीटा-फंक्शन के समीकरण का पता लगा लिया था। उसने कभी ‘डबली पीरि आइडिक फंक्शन’ या काँची थ्योरम का नाम भी नहीं सुना था, परंतु ‘एनालीटिक नंबर थ्योरी’ की विशाल राशियो से वह खेलता रहता था। उसके समस्त निष्कर्ष, चाहे वे नए हों अथवा पुराने, सही हों अथवा गलत, एक अस्पष्ट तर्क-वितर्क, अंतर्दृष्टि और 'इंडक्शन' पर आधारित रहते थे। उन्हें वह तर्कसंगत तरीके से समझाने अथवा व्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ रहा।”
रामानुजन की मृत्यु के कई वर्ष पश्चात् जी. एन. वाटसन, जो बर्मिंघम विश्वविद्यालय में शुद्ध गणित के प्रोफेसर थे और बी.एम. विल्सन, जो रामानुजन को कैंब्रिज से जानते थे और बाद में लिवरपूल विश्वविद्यालय में रहे, ने रामानुजन की नोट-बुक्स का संपादन का कार्य मिलकर आरंभ किया। वास्तव में कैंब्रिज में रामानुजन के रहने के समय से ही उन्होंने यह कार्य आरंभ कर दिया था। सन् 1929 में वाटसन का अनुमान था कि इसमें कम-से-कम पाँच वर्ष का समय और लगेगा। परंतु दुर्भाग्य से बारह तेरह वर्ष लगातार इस पर लगे रहने के पश्चात् जब सन् 1935 में उनकी मृत्यु हुई, तब तक वह बहुत कुछ नहीं हो पाया था।
अमेरिका के प्रो. ब्रूस बरनेट ने वाटसन एवं विल्सन के कार्य को आगे बढ़ाया है और तीन खंडों में रामानुजन की नोट-बुक्स की सामग्री का संपादित प्रकाशन करने के पश्चात् भी अभी कार्य पूरा नहीं हुआ है।