Shri Chaitanya Mahaprabhu - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

श्री चैतन्य महाप्रभु - 2

जन्म-लीला

नवद्वीप नगर में समस्त गुणों से विभूषित परम भक्तिमान एक ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम श्री जगन्नाथ मिश्र था। उनकी पत्नी का नाम श्री शचीदेवी था। वे भी परम भक्तिमती और पतिव्रता नारी थी। उनके गर्भ से क्रमशः आठ कन्याओं ने जन्म ग्रहण किया, परन्तु वे सभी जन्म के थोड़े-थोड़े समय पश्चात् ही मर गयीं। इससे वे दोनों पति पत्नी बहुत ही दुःखी रहते थे। कालक्रम से श्रीशचीदेवी ने नौवीं बार एक बालक को जन्म दिया। बालक बहुत ही सुन्दर था। उसके शरीर से अद्भुत तेज निकल रहा था। वह स्वयं बलदेव जी का अंश था। एक बार जो उस बालक का दर्शन कर लेता वह उसके चित्त एवं मनको हरण कर उसे मुग्ध कर देता था। बालक के सुलक्षणों को देखकर ज्योतिषी ने उसका नाम विश्वरूप रखा। विश्वरूप बाल्यावस्था से ही संसार से विरक्त रहते थे। खेलकूद में उनकी लेशमात्र भी रुचि नहीं थी। वे अपना सारा समय विद्या अध्ययन में ही व्यतीत करते थे। उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि एक बार सुनने मात्र से ही कठिन से कठिन विषय को याद कर लेते थे। जहाँ कहीं भी भगवान् की कथाओं की चर्चा होती, वे तुरन्त वहाँ पहुँच जाते तथा ध्यान पूर्वक उन कथाओं को श्रवण करते। यहाँ तक कि वे खाना-पीना तथा घर जाना भी भूल जाते थे। उन्हें घर से बुलाने के लिए किसी को भेजना पड़ता था। विश्वरूप के इन गुणों तथा भक्ति के प्रति उनकी रुचि देखकर सभी वैष्णव-गण उन्हें बहुत ही स्नेह करते थे। वे सभी वैष्णव भगवान से प्रार्थना करते “हे प्रभो! इस बालक पर कृपा कीजिये, जिससे कि यह कभी भी आपको भूल न पाये।” इस प्रकार विश्वरूप धीरे-धीरे बड़े होने लगे। कुछ समय पश्चात् (तदानुसार 18 फरवरी वर्ष 1486 में) फाल्गुन मास‌ की पूर्णिमा तिथि अर्थात् होली के दिन सन्ध्या के समय श्रीशचीदेवी के गर्भ से उनकी दसवीं सन्तान के रूप‌ में स्वयं भगवान् अवतरित हुए। उस पूर्णिमा के दिन चन्द्रग्रहण भी लगा हुआ था। मानो राहू कह रहा था “अरे चन्द्र तुझ पर कलङ्क (दाग) लगा हुआ है। आज इस जगत्‌ में एक निर्मल और बेदाग चन्द्र अर्थात् गौरचन्द्र उदित हुए हैं। अतः अब तेरी आवश्यकता नहीं है।”
ग्रहण के कारण सभी लोग यहाँ तक कि नास्तिक लोग भी 'हरि-हरि' बोलते हुए गङ्गा स्नान करने लगे। चारों ओर उच्चस्वर से हरि नाम का कोलाहल होने लगा। इस प्रकार जन्म लेते ही प्रभु जिस कार्य के लिए अवतरित हुए थे, उसे आरम्भ कर दिया। अर्थात् प्रभु ने ग्रहण के छल से सभी के मुख से हरिनाम का उच्चारण करवा दिया।
अब सारे नवद्वीप में समाचार फैल गया कि श्रीशचीमाता ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया है। यह सुनकर सभी लोग श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर आकर बालक का दर्शन करने लगे। जो भी एक बार प्रभु के मनोहर रूप का दर्शन कर लेता, वह मन्त्रमुग्ध हो जाता। प्रभु का दर्शन करने के लिए देवता तथा उनकी स्त्रियाँ भी ब्राह्मण एवं ब्राह्मणी का वेश धारणकर आने लगीं। श्रीशची माता के पिता श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती बहुत बड़े ज्योतिषी थे। उन्होंने बालक के लक्षणों को देखकर बतला दिया था कि यह कोई साधारण बालक नहीं है। ऐसा लगता है कि यह भगवान् का अवतार ही है। यह समस्त संसार का भरण-पोषण करेगा। अतः इसका नाम विश्वम्भर होगा। बालक के शरीर का रङ्ग गोरा होने के कारण किसी ने उसका नाम गौर रखा, तो स्त्रियों ने उस बालक का नाम निमाइ रखा। इसका कारण था कि उनसे पहले शची माता की आठ कन्याओं को काल ने ग्रास कर लिया था, उन्होंने विचार किया कि नीम कड़वा होता है, अतः इसका नाम निमाइ रखने से काल इसे ग्रास नहीं कर पायेगा। शिशु अवस्था से ही प्रभु छल-बल से सभी के मुख से हरिनाम का उच्चारण करवाने लगे थे। जब प्रभु रोने लगते तो किसी भी उपाय से चुप नहीं होते थे। यदि सभी लोग मिलकर हाथों से तालियाँ बजाते हुए 'हरिबोल-हरिबोल' कीर्त्तन करते, तो वे खिलखिलाकर हँसते हुए स्वयं भी धीरे-धीरे ताली बजाने लगते। यह देखकर लोगों को बहुत आश्चर्य होता था। कभी-कभी देवतागण भी अलक्षित रूप से प्रभु का दर्शन कर धन्य होने के लिए आते थे। उस समय वहाँ पर उपस्थित लोग उन्हें स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते थे। उन्हें बालक के समीप मात्र कुछ परछाइयाँ-सी दिखायी पड़ती थीं, जिससे वे समझते थे कि ये कोई भूत-प्रेत हैं जो बालक का अनिष्ट करने के लिए आये हैं। अतः सभी लोग भयभीत होकर भगवान् के नामों का उच्चारण करते हुए भगवान् को पुकारने लगते। यह देखकर देवतागण प्रसन्न होकर वहाँ से चले जाते।
अब धीरे-धीरे श्रीशची माता एवं श्रीजगन्नाथ मिश्र के समक्ष अनेक प्रकार की अद्भुत एवं आश्चर्यजनक घटनाएँ घटने लगीं। कभी-कभी अकस्मात् उनका घर दिव्य प्रकाश से भर जाता था। कभी उन्हें घर के भीतर से नूपुरों की मधुर ध्वनि सुनायी पड़ती थी, जब कि घर में निमाइ के अतिरिक्त और कोई नहीं होता था तथा उसके चरणों में भी नूपुर नहीं होते थे। कभी सारे घर में सुन्दर चरण चिह्न दिखायी पड़ते, जिनमें ध्वज, वज्र, अंकुश इत्यादि चिह्न अङ्कित होते थे। इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं को देखकर वे दोनों आश्चर्यचकित हो जाते। वे सोचते कि हमारे घर में जो दामोदर शालग्राम हैं, वे ही घर में इधर-उधर घूमते हैं। इस प्रकार प्रभु धीरे धीरे अपना ऐश्वर्य प्रकट करने लगे।

जैसे-जैसे प्रभु थोड़े बड़े होते जा रहे थे, उनकी चञ्चलता भी उतनी ही बड़ रही थी। श्रीशचीमाता के लिए उन्हें सम्भालना ही कठिन हो जाता था। कभी वे आग की ओर जाने लगते तथा कभी कुत्ते को पकड़कर उसका मुख खोलकर उसके मुख में हाथ डाल देते और कुत्ता चुपचाप बैठा रहता। एक दिन प्रभु आङ्गन में खेल रहे थे। श्रीशची माता घर के भीतर विभिन्न कार्यों में व्यस्त थीं। उसी समय कहीं से एक भयङ्कर काला सर्प रेंगता हुआ आङ्गन में आ गया। जैसे ही प्रभु की नजर उस पर पड़ी, तो वे घुटनों के बल तेजी से चलते हुए उसके पास पहुँच गये। सर्प चुपचाप कुण्डली मारकर तथा फन उठाकर बैठ गया। प्रभु झट से उसके ऊपर बैठ गये तथा अपने एक हाथ से उसका फन पकड़कर हिलाने लगे। उसी समय श्रीशची माता अपने नटखट बालक को देखने के लिए बाहर आयीं। जैसे ही उनकी नजर सर्प पर बैठे बालक पर पड़ी तो वे भय से व्याकुल हो गयीं और उनका चेहरा पीला पड़ गया। वे अपने लाड़ले पुत्र को बचाने के लिए चिल्लाते हुए सर्प की ओर दौड़ी। वास्तव में वह सर्प कोई साधारण सर्प नहीं बल्कि स्वयं शेषनाग जी थे। वे अपने प्रभु का दर्शन एवं उनकी सेवा के लिए ही वहाँ आये थे। अतः जब उन्होंने श्रीशची माता को भयभीत देखा तो वे धीरे-धीरे सरकते हुए वहाँ से चल दिये। यह देखकर श्रीशची माता ने राहत की साँस ली। परन्तु प्रभु फिर से उसी ओर जाने लगे, जिस ओर सर्प गया था। तब शची माता ने दौड़कर उन्हें अपनी गोदी में ले लिया और रोते-रोते उनका मुख चूमने लगीं।