Kataasraj.. The Silent Witness - 50 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 50

भाग 50

कल्लन मियां के कमरे से बाहर जाते ही नाज़ ने पुरवा को जल्दी से खाने पीने की कहा।

दोनो ने साथ में खाया फिर नाज़ ने एक कढ़ाई दार सुंदर से थैले में चारो सलवार कमीज रख दिया और उसे पुरवा को दे दिया।

कुछ ही देर आरिफ आया और बोला,

"भाई मिलेगी तो मुझे बददुआ ही लेकिन क्या करूं..! मजबूर हूं। नाज़ बेगम जान..! अब अपनी प्यारी सहेली को इजाजत दीजिए…. जाने का समय हो गया है। बाहर सब इनका इंतजार कर रहे हैं।"

नाज़ ने आरिफ की बात सुन कर बड़े ही बेकरारी से पुरवा को देखा। जब तक पुरवा सिंधौली में थी, नाज़ और पुरवा दोनो को ये उम्मीद थी कि कभी कभी मुलाकात हो ही जाया करेगी। पर अब पुरवा इतनी दूर जा रही थी कि कब मिलना होगा पता नही।

आरिफ ने दोनो को बैठा देख कर मुस्कुराया और अपने दोनो हाथों से उठने का इशारा किया।

पुरवा आरिफ का इशारा समझ उठ खड़ी हुई। नाज़ उसे छोड़ने के लिए बाहर तक आई। फिर गले मिल कर दोनो की आंखे भर आई।

बाहर सारा सामान बग्घी पर रक्खा जा चुका था। सबसे विदा ले कर साजिद और अशोक बैठ गए थे। पुरवा के बाहर आते ही सलमा उठ खड़ी हुई। कलमा के गले मिली और बग्घी की ओर बढ़ गई। उर्मिला और पुरवा भी उसके साथ थी।

इतने लोगों के बैठने से बग्घी में अमन के लिए जगह नहीं बची तो आरिफ अमन से बोला,

"चलो हम तुमको एक बारी और अपने साथ रियाज करवा देते हैं। दोनो घोड़े पर सवार हो गए। अमन आगे बैठा घोड़े की लगाम संभाले हुए था। आरिफ पीछे बैठा हुआ ये देख रहा था कि अमन कोई गलती ना करे। अगर करे तो वो उसे संभाल ले।

सलमा आते वक्त जितनी खुश थी, अब जाते वक्त उतनी ही ज्यादा उदास थी। बड़ा दर्द होता है अपनों बीच कुछ दिन गुजार कर फिर उन्हें छोड़ कर जाने में। साजिद ने दुनिया जहान की सारी खुशियां उसके कदमों में रख दी थी। पर वो मायका कहां से लाते..! बस यही एक तकलीफ सलमा को थी। सब कुछ पीछे छूटा जा रहा था। बार बार अपनी आंखे पोंछ रही थी सलमा।

खुशी में रास्ता जल्दी कट जाता है, समय का कुछ पता ही नही चलता। पर जब मन उदास हो और वापस जाने का दिल ना करे तो वही रास्ता बहुत लंबा महसूस होने लगता है।

थोड़ी देर बाद रेलवे स्टेशन आ गया। आरिफ और अमन उनके आने के पहले ही पहुंच गए थे। शमशाद ने स्टेशन पहुंचते ही सामान उतारने लगा। वो और अशोक ऐसा कर पाते उसके पहले आरिफ और अमन आ गए। शमशाद और अशोक को रोक दिया।

खुद दोनो मिल कर गाड़ी रुकने की जहां संभावना थी वहीं सारा सामान व्यवस्थित कर के रख दिया।

फिर वहीं बने बेंच पर बैठ कर सब बात चीत में मशगूल हो गए।

पर इन सब से अलग थलग पुरवा चुप चाप दूर पेड़ पर बैठी चिड़िया को एक टक निहार रही थी। उसे किसी बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

ज्यादा इंतजार नही करना पड़ा। थोड़ी ही देर में गाड़ी के आने की घोषणा हो गई।

गाड़ी बस दो मिनट ही रुकती थी। इस लिए सब मुस्तैदी से खड़े हो गए। जो डिब्बा थोड़ा खाली दिखता उसी में चढ़ जाना था।

थोड़ी ही देर में छुक छुक करती हुई इतराती हुई गाड़ी आई और थमक कर एक झटके के साथ रुक गई।

शमशाद ने सबसे पहले सलमा उर्मिला और पुरवा को चढ़ा दिया। फिर साजिद और अमन चढ़ गए। नीचे से आरिफ ने जल्दी जल्दी कर के एक एक सामान गिन कर चढ़ा दिया। जब तक ये सब हुआ गार्ड ने हरी झंडी लहरा दी। इंजन ने तेजी से अपना भोंपू बजाया और धीरे धीरे प्लेट फार्म पर रेंगने लगी।

अमन अभी गाड़ी के दरवाजे पर ही खड़ा हुआ था। आरिफ ने हाथ मिलाया। शमशाद और वो कुछ दूर तक गाड़ी के साथ चले। विदाई के लिए हाथ हिलाते रहे।

शमशाद बोले,

"खाला खालू आप अपना वादा याद रखियेगा। अगले साल इसी समय फिर आपको आना है। हम अभी से ही दिन गिनेगे। आप भूलिएगा मत।"

साजिद बोले,

"हां भई शमशाद मियां..! याद रखेंगे। अब बेगम से भी तो मैने वादा किया है उन्हें ले कर आने का। वो ऐसे ही थोड़े ना मानेगी बिना आए।"

अब तक गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी।

हाथ हिलाते हुए शमशाद और आरिफ पीछे छूट गए।

जब वो दिखना बंद हो गए तो अमन गेट से वापस आ गया।

एक तरफ सबसे पहले आने के कारण खिड़की के पास पुरवा बैठी हुई थी, उसके बगल उर्मिला और सलमा। सामने की सीट पर साजिद बैठे हुए थे। अमन भी उनकी बगल में बैठ गया। सामान तो गाड़ी में घुसते ही सलमा और उर्मिला ने करीने से कुछ सीट के नीचे तो कुछ सामान ऊपर की सीट पर रख दिया था।

पुरवा के लिए घर से चलने के पहले इस यात्रा के लिए ना कोई उत्सुकता थी ना दिलचस्पी थी। पर सच बात ये थी कि पुरवा ने रेल गाड़ी का सिर्फ नाम भर ही सुना था कि ऐसी होती है, वैसे होती है। जब कभी साल दो साल में घर से निकलती थी तो अपने ममहर ही जाती थी। वहां के लिए छोटी बसें ही जाती थी। उसी से आना जाना होता था।

आज पहली बार रेल गाड़ी पर बैठी थी। बिलकुल नया अनुभव था उसके लिए। सब कुछ नया नया था। गाड़ी का आना, रुकना, खुलना सब कुछ ही तो नया था। जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी तो पेड़ पौधे, खंभे सब जैसे भागते हुए नजर आ रहे थे।

वो खिड़की पर हाथ से टेक लगाए सब कुछ अपलक निहार रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो झूले पर बैठी हुई हो।

पुरवा सोचने लगी काश..! चंदू नंदू या नाज़ ही साथ में होती तो कितना मजा आता। चंदू नंदू तो बहुत ही ज्यादा खुश होते। अम्मा जब हमको साथ ला रही थी तो उनको भी साथ ले कर आना था। अब वो बिचारे कब और कैसे भला रेल गाड़ी में बैठेंगे…! अब भाइयों के बारे में सोच कर उसे दुख होने लगा कि वो तो सब कुछ देख ले रही है, और उसके भाई बिचारे मामा के साथ पड़े हुए हैं। वो जब मिलेंगे तो उन्हे सब कुछ बताएगी। कैसे गाड़ी में बैठने पर लगता है।