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हाशिएपर

डॉ प्रभात समीर

कश्यप चाचा के बेटे काव्य के एक्सीडेंट की खबर शहर में हवा की तरह फैल गई। काव्य अकेला नहीं था, उसके साथ उसकी पत्नी रीमा, बेटा करतल और ड्राइवर भी थे। मंदिर में अपनी मुरादों के लिए मन्नतें मानकर वे अपनी कार में बैठे और पल भर में ही सामने से आते ट्रक से टकरा गए । 

करतल का जन्मदिन था । अपनी बात मनवाने के लिए आज उसे ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी । पीछे की सीट से कूद कर वह आगे जा बैठा और अपने वीडियो गेम में किसी ड्रैगन को मार गिराने की खुशी में खूब उछलकूद मचाने लगा । काव्य और रीमा भविष्य की योजनाएँ बनाने में इतने व्यस्त थे कि उन्होंने न ट्रक को देखा और न ही असंतुलित होते ड्राइवर को । टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी कि करतल और ड्राइवर को तो दोबारा साँस लेने की इजाज़त ही नहीं मिली। काव्य और रीमा की सांसें चल रही थीं। काव्य के शरीर पर तो एक खरोंच भी नहीं थी । उसकी बन्द मुटठी में प्रसाद और फूलमालाओं के साथ बहुत से सपने भी क़ैद थे। सबसे दुखद यह रहा कि चाचा को देखकर वह कुछ कहने को हुआ और तभी उसकी साँसें थम गईं । 

रीमा के साथ जब काव्य अंतिम बार अपने मां- बाप के घर से निकला था, तब गालियों की बौछार के साथ चाचा ने आख़िरी वाक्य यही बोला था - ’अब कभी मिल भी जाए तो मुझसे दुआ सलाम भी मत करना । ’ मरते हुए शायद उसने पिता की बात का ही मान रख लिया होगा । 

एक अकेली रीमा ज़िन्दगी और मौत के बीच में झूल रही थी । चाचा ने आई. सी. यू. के शीशे से झाँका, उसे देखा और ठगे से खड़े रह गए। 

असल में कश्यप चाचा को काव्य की गाड़ी के हल्के-फुल्के एक्सीडेंट की सूचना दी गई थी । पूरी सच्चाई बताने के लिए ही काव्य ने शायद मुझे फ़ोन करवाया था, लेकिन ’हैलो जीजी’ से आगे वह कुछ कह नहीं पाया । 

मैं चाचा के घर पहुंच चुकी थी। परिचित - अपरिचितों की भीड़ को चीरकर घर में घुसते हुए मुझे कई आवाज़ें सुनाई दीं-

-’काव्य को तो कब से यहाँ आते हुए ही नहीं देखा । ’

-’देखेंगे कैसे ? कश्यपजी ने खुद तो उसे घर से निकाला था । ’

-’लड़का तो वैसे ठीक ही है । ’

-’क्या ठीक है, अपनी मर्ज़ी से गुपचुप विवाह कर लिया, वह भी कुजात से!’

मुसलमान, ईसाई, सिंधी, पंजाबी…’ लोग काव्य की पत्नी की जाति और धर्म की चीरफाड़ करने में लगे हुए थे। ’- ’कश्यपजी के ख़ानदान को तो दाग दे दिया । ’

इतना सब सुनते हुए भीड़ को चीरकर मैं घर के अन्दर पहुंची । 

मुझे देखते ही चाची पगलाई सी पूछने लगीं-

-’क्या कहती है, मेरा काव्य और करतल ठीक तो होंगे ?’ काव्य, करतल रीमा और ड्राइवर…..चार ज़िदगियां…...मैं तो ख़ुद ही बहुत बेचैन थी, लेकिन किसी बड़े पहुँचे हुए ज्योतिषी की तरह मैंने कहा- ’इसमें भी कोई शक़ है क्या, चाची ? देखना, चाचा सबको लेकर आते ही होंगे’ । वह धीरे से बोलीं-

- ’बिन्नो, उस कुलच्छनी की वजह से कब से अपने काव्य की शक्ल भी नहीं देख पाई। ’

उनके मुंह से दो – चार गालियां छिटक गईं। ऐसी जानलेवा स्थिति में भी चाची का रीमा को कोसना कम नहीं हुआ था । मैं कहना चाहती थी कि अभी तो सबके ठीक-ठाक लौट आने की प्रार्थना करो कि तभी वह बेढंगा सा बोलीं-

-’ आज देखूंगी कैसी सती-सावित्री लेके आया है ? अगर है तो मेरे काव्य की सारी अला -बला अपने सिर लेकर दिखा दे । ’

रीमा को लेकर चाची के क्रोध,घृणा और क्रूर संवादों में आज भी कोई कमी नहीं थी । 

कश्यप चाचा के घर में बचपन से ही मेरा आना-जाना रहा है । दोनों परिवारों के घर की दीवारें आपस में मिलती थीं । कौन सा आँगन अपना और कौन सा पराया, हम बच्चों को कभी इसकी समझ नहीं आई । कहीं उठे-बैठे, खाया-पीया, पढ़े-लिखे और कहीं खेले-कूदे, कोई रोक-रुकावट हम पर थी ही नहीं । एक दूसरे के सुख-दुख एकदम साझा थे। चाचा की बड़ी बेटी सलोनी मेरी पक्की सहेली थी, एक दूसरे की छत की मुंडेर पर बैठकर हमने न जाने कितने कहानी-किस्से सुने और सुनाए। कितने तो रहस्य ऐसे रहे जो आज भी मेरे और उसके बीच ही दफ़्न होकर रह गए। उनका कोई भी और गवाह नहीं है। 

मेरा अपना कोई सगा भाई न होने से काव्य का स्नेह मुझ पर कुछ अधिक था ही । रीमा से शादी के बाद वह मेरे और भी निकट आ गया। एक मैं ही तो थी जो उसकी तकलीफ़, टूटन को समझ पा रही थी । उसकी कलाई पर सलोनी और वैशाली की राखियों से कहीं ज़्यादा मेरी राखियां बँधी हैं । जब चाचा – चाची के साथ ही सलोनी और वैशाली ने भी उससे रिश्ता खत्म कर लिया, तब एक मैं ही थी जिसने उसकी कलाई कभी सूनी नहीं रहने दी । 

आज काव्य के दो शब्द ’हैलो जीजी’ बार-बार मेरे कानों में गूँज रहे थे । चाचा थे कि किसीके फोन का उत्तर ही नहीं दे रहे थे। सबकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी । काव्य के बचपन से लेकर अब तक का एक -एक दृश्य मेरी आँखों के सामने से गुज़रने लग गया । 

चाचा हों या चाची, उनको तो काव्य में ढूंढे से भी कोई कमी कभी दिखाई नहीं देती थी । बेटे के वर्चस्व के आगे बेटियों की पात्रता और योग्यता चाचा के घर में हमेशा कम ही आंकी गई । बड़े भाग्य से काव्य जैसा बेटा पाने की बात करती हुई चाची अघाती ही नहीं थीं। लेकिन अपनी मर्ज़ी से शादी करके रीमा को घर ले आना….. वह भी विजातीय, विधर्मी, अनाथ, बिना दान दहेज वाली लड़की से! यानी अवगुणों की खान, उनके परिवार का कलंक, बिरादरी और समाज में एक काला धब्बा रीमा…पूरे परिवार की सत्ता समूल हिलती हुई दिखाई देने लगी । उनका दुख, उनकी पीड़ा, उनका क्रोध सभी कुछ उनकी गालियों में समाहित होकर बुरी तरह से रीमा पर बरसा । 

काव्य भी जानता था कि घर के लोग उसे रीमा से शादी करने की इजाज़त कभी देंगे ही नहीं, इसीलिए उसने चुपचाप शादी कर लेने का फ़ैसला इस भरोसे पर ले डाला कि उसका बड़े से बड़ा अपराध भी ज़्यादा समय तक कभी अक्षम्य नहीं रहा । 

असलियत का जब तक पता नहीं चला, चाचा और चाची रीमा को हाथों-हाथ उठाए रहे । अपनी बातों के पिटारे लिए देर तक सलोनी और वैशाली भी उसे घेर कर बैठी रहतीं । घर पकवानों की गंध से महकने लगा, हंसी ठट्ठे ने घर में रौनक ला दी,। भाव विभोर हुई चाची रीमा पर निहाल हुई जा रही थीं। तब न किसी ने उसकी जाति पूछी, न धर्म और न घर-बार। काव्य की सहकर्मी होना ही उसकी पहचान थी । सबकी एक ही चिंता थी कि रीमा के आदर- सत्कार, प्यार में कोई कमी न रह जाए । काव्य भी मन ही मन सब कुछ तौलता रहा। जब पलड़े में रीमा के गुणों का वज़न भरपूर हो गया, तब काव्य ने ’अम्मा, रीमा अगर तुम्हारी बहू बनके आ जाए तो .....?’ कहकर विस्फोट कर दिया। अम्मा की आँखें फटी और मुँह खुला का खुला रह गया । उन्होंने पहली बार काव्य को गाली दे डाली, उसकी बुरी नीयत के लिए उसे खूब कोसा और मन में एक खटका लिए यहाँ-वहाँ घूमती रहीं । उनकी जीभ और हाथ दोनों खूब तेज़ी से चलने लगे । रीमा के प्रति चाची के सभी भाव पल भर में काफूर हो गये-

’कौन सी जात की है ?’ पूछते हुए ही उनके शब्द हिंसक हो गये। काव्य के सच बोलने का समय आ गया था। 

- ' तुम्हारी बहू है । ’काव्य ने कहकर बात समाप्त कर दी। 

काव्य को ठिठोली करके चाची को गुदगुदाते रहने की हमेशा से आदत रही है और चाची उसके किए मज़ाकों पर सदा शरीर हिला-हिलाकर हँसती रही हैं। … रीमा के लिए कहे गए एक-एक वाक्य को उन्होंने फूहड़ मज़ाक ही समझा, लेकिन जब काव्य कसम खाकर बार बार दोहराने लगा ‘रीमा तुम्हारी बहू है ‘तो चाची के लिए जी पक्का करके ऐलान करने का समय आ गया। दुरूह मौत के साधन अपना कर मरने के चाची के निर्णय के बाद भी काव्य ने ‘ रीमा ही तुम्हारी बहू है ….’की ही रट लगा रखी थी। 

घर में भूचाल आ चुका था... सारे रिश्ते उस भूचाल की गिरफ़़्त में आ गए थे। सभी सीमाएँ टूट चुकी थीं। न मंत्र, न फेरे, न बराती, न घराती, न दान-दहेज- चाचा-चाची के हिसाब से ऐसी शादी को तोड़ने और नकारने में कोई पाप नहीं लग सकता था। आक्रोश और उन्माद की चरम स्थिति में काव्य रीमा का हाथ पकड़े घर से निकला और दोबारा नहीं लौटा । 

परिवार के सदस्यों का गुस्सा समय के साथ काव्य से हटकर सिर्फ़ रीमा पर जाकर ठहर गया । घर परिवार में, मोहल्ले और समाज में भी कुछ गलत या बुरा दिखाई देता तो दूर बैठी रीमा को ही अपराधी मानकर दो-चार गालियाँ सुना दी जातीं । काव्य तो अब सबकी नज़र में निर्दोष था जो रीमा की चालाकियों और कुचालों का शिकार बन गया था । 

मेरा ध्यान चाची की ओर गया । वह कोई जाप कर रही थीं । कहने लगीं-

-’तू बता बिन्नो, कभी काव्य को एक खरोंच भी हमने लगने दी ? और ये रीमा क्या आई कि लड़के का एक्सीडेंट…’

बाहर के शोर और चाचा की हृदयविदारक चीखों के बीच चाची की बात अधूरी रह गई। एक खौफ़नाक आशंका अब दो मृत शरीरों के रूप में सच्चाई बन कर सामने खड़ी थी। चादर में लिपटे करतल को साफ़़ पहचाना जा सकता था । चाची काव्य के मरने की तो कल्पना ही नहीं कर सकती थीं । उन्होंने मान लिया कि दूसरा शव रीमा का ही होगा । उन्होंने चाचा से पूछा ‘काव्य को अस्पताल से छुटटी कब मिलेगी ?' चाचा ने रोते हुए चादर में लिपटी उसकी देह की ओर इशारा कर दिया । चाची शेरनी सी चाचा पर झपटीं -’ये नहीं, मेरा काव्य.....’ कहते हुए वह पछाड़ खाकर गिर पड़ीं और बेहोश हो गईं। होश आया तो मुझसे धीरे से बोलीं-’ पूछ,उस पनौती की देह उसके रिश्तेदार ले गए क्या ?’ इसके बाद वह रीमा को भूल ही गयीं । 

आघात बहुत भयंकर था । किसीको भी सँभालना मुश्किल था, चाची बार-बार अचेत हो जाती, होश आता तो तड़पने लगतीं। बेशक वह शोकग्रस्त थीं। ऐसे समय

में भी भगवान से ज्.यादा उन्हें रीमा पर गुस्सा था । 

अँधेरा हो चुका था । भीड़ छँट चुकी थी । चाचा निढाल पड़े थे । कोई किसी से बात नहीं कर पा रहा था कि तभी चाचा बड़ी थकी हुई, शिथिल आवाज़ में चाची से बोले-

-’तुम आज रीमा को क्यों कोसती चली जा रही थीं ?‘

- 'उस मरी के लिए इतनी ममता ?’ चाची की आवाज़ सुनाई दी। 

-‘वो ज़िन्दा अस्पताल में पड़ी है । ’

-’ज़िन्दा! ' चाची की निर्जीव देह में एकदम जान आ गई और फिर से उनका विलाप शुरु हो गया। 

-’मैं न कहती थी वो डायन है । इतने बड़े एक्सीडेंट के बाद भी बच गई !’

चाचा ने फटकार लगाई- ’बन्द करो ये नाटक। ’

काव्य के जीवित रहते मैंने चाचा, चाची, सलोनी, वैशाली को समझाया,मिन्नत, खुशामद कीं,लेकिन बेचारी रीमा को स्वीकार करना किसीको भी मंज़ूर नहीं था। 

आज चाचा के रीमा के प्रति बदले हुए रुख को देखकर हल्की सी आशा की किरण मेरे मन में जागी। न हों संवेदनाएं और स्नेह। मानवता के नाते ही सही । इस घर के लोगों को अब रीमा की देखभाल करनी ही चाहिए। 

रीमा के सिर से मौत का ख़तरा टल चुका था लेकिन शरीर के किस किस अंग को खोकर किस रूप में वह वापिस अपनी जिन्दगी में लौटेगी-यह देखना था । 

चाची के सारे शरीर की ताकत उनकी जीभ में आकर सिमट गई थी। तभी चाचा भी शब्दों से की जाती रीमा की तबाही में चाची के साथ में हो लिए। तूफ़ान थमा तो धमकाते हुए बोले-

- ’बस, अब बन्द कर दे ये सब । ’

चाची ने कटाक्ष किया -’क्यों, अब काव्य के बाद चुड़ैल तुम्हें खाएगी क्या?’

गुस्से और गालियों की बौछार करने के बाद निढाल पड़े हुए चाचा की आहिस्ता से आवाज़ निकली-’हाँ, यही समझ ले । ’ चाचा बहुत दयनीय हो गए थे। 

मेरी निगाहें चाचा के चेहरे पर जाकर अटक गईं । एक ऐसी अभिव्यक्ति जो उनके स्वभाव से मेल नहीं खा रही थी। वह क्या बड़बड़ा रहे थे, समझ में नहीं आ रहा था । एक ही रात में वह और भी बूढ़े लगने लगे थे । एक विकृत छाया उनके चेहरे को कभी ढँकती और कभी छँट जाती। 

-‘ गौर से सुन लो, कल से कोई बहू को नहीं कोसेगा । बीमार की सेवा करने का अपना धर्म निभाओ। ’चाचा की आवाज़ किसी गहरे कुएं से आती हुई लगी। 

सबको लगा कि श्मशान से ही चाचा के अंदर कोई दुष्ट आत्मा प्रवेश कर गई है। 

- ’अब मेरे काव्य की जगह पर भी रीमा ही तो बची है । उसी को बेटा मान लो । ’ चाचा अपनी धुन में थे। 

मेरे लिए सच और बनावट में फ़र्क करना मुश्किल हो रहा था । चाची ने सिर पीटना शुरु कर दिया। तभी चाचा ने हल्की, प्यार भरी डाँट चाची को लगाई - भागवान, उसे कोसने को काफी उम्र पड़ी है, अभी तो उसे दुलारने का टाइम है । ’

चाची ने अविश्वास और आश्चर्य से चाचा को देखा । मैं तो खुद हैरान थी । चाचा की ओंँखों में ऐसा कोई भाव नज़र नहीं आ रहा था जो उनके शब्दों की पैरवी कर सके। क्या यह सब समाज के भय से था! ऐसे में रीमा को अकेला, अनाथ छोड़ देने में उन्हें क्या समाज में थू - थू होने का डर था। अगर ऐसा भी है तो क्या बुरा है । रीमा को इस समय मानसिक और शारीरिक सम्बल की आवश्यकता है । न जाने कब तक उसे बिस्तर पर ही रहना पड़े । 

- ’काव्य के फंड, उसकी बीमा पालिसी, उसके बैंक बैलेंस, उसके शेयर्स, पेंशन, गाड़ी, कोठी .... कुछ समझ में आया?’

सुनते ही मेरे अन्तस में हूक उठने लगी। 

- ’उस सबका क्या करूंगी?’-कहकर चाची रोने लगीं’

-'कुछ नहीं करेगी तो ले जाने दे उस पराई औरत को। ‘ -'तुम्हारा मतलब रीमा से है?‘

-'और क्या वो पत्नी है, सब कुछ उसका है । ’

चाची के गले से बात नहीं उतरी -

’कैसी पत्नी?किसीने उसके फेरे देखे क्या? और मैं तो माँ हूं । उसकी सगी हूं। माँ की ममता से बड़ा कौन हो सकता है ?’

चाचा झल्ला उठे - ’तू यहां बैठी - बैठी उसे कोस। सारी संपत्ति हमारे अपने खून की और समेटेगा कौन?वो जो हमारी कुछ भी नहीं है!’

चाचा ने चाची की दुनिया में हलचल मचाकर रख दी थी। पहली बार उनकी आँखों में रीमा को लेकर एक डर उभर आया । कोसना, कलपना भूलकर वह किसी आज्ञाकारी, हुक्मबरदार बच्चे की तरह चाचा के अगले आदेश की प्रतीक्षा में हाथ बाँधे बैठ गईं । सबके मुँह सिल गए थे,कोई कुछ बोल नहीं पा रहा था। 

चाचा ने तो पूरी योजना बना ही ली थी…. सलोनी से बोले - -’ तुम अपने बेटे को उसकी झोली में डाल देना । मोह-ममता में बँधेगी, तभी तो इस घर में रह पाएगी । ’

रीमा को इतना भाव! - ‘हमसे नहीं होगा । कहाँ तो उसकी परछाईं से भी बचा रहे थे और कहाँ हमारा बेटा ही….?’अक्खड़ सलोनी की बेवकूफी से वैशाली को फ़ायदा हो गया । उसने सलोनी को पीछे किया और कहा-

-‘बाबूजी, हम अपनी बिटिया उसे गोद ही दे देंगे। करतल की कमी कोई तो पूरी करे! ’

अब तक दोनों दामाद भी इस योजना में शामिल हो चुके थे । त्याग की आड़ में छिपे वैशाली के लोभ को सलोनी के पति सहन नहीं कर सके। उन्होंने सुझाव दिया-

- ’ वंश चलाने को बेटी नहीं बेटा चाहिए,बाबूजी। हम दिल पर पत्थर रखके अपना छोटा बेटा,कमल, उसे गोद दे देंगे । ’ ऐसे मातमी वक्त में भी वह ‘हा,हा हा‘करते हुए अपनी मौलिक मुद्रा में आ गए और ‘करतल’ और ’कमल’ तो नाम भी एक जैसे से हैं, भाभी को तो ‘कमल‘अपना ‘करतल‘ही लगेगा‘-कहते हुए उन्होंने अपनी इस अद्भुत खोज के समर्थन के लिए सबकी और देखा। 

चाची एक बार फिर से अपने असली रूप में आगईं। उनसे रहा नहीं गया चाचा पर तंज़ कसके बोलीं - ’ वो तो अभी बिस्तर पर ही पड़ी रहेगी, तो मुझे उसकी चाकर बनाने की तुमने सोच ही डाली?‘ - -’तुम्हारे बेटे ने तुम्हें इसी लायक छोड़ा है । करो चाकरी । ’ चाचा के स्वर में कटुता थी। इतना कहने के साथ ही उनका छद्म परमार्थी, परोपकारी रूप सजग हो गया,बोले -

-'सेवा से डरती हो ? सुबह गाय को, काले कुत्ते को रोटी डालती हो । चिड़िया, कौए, चींटियों को दाना, आटा, पानी देती हो, भिखमंगों तक को बचा-खुचा देके खुश करती रहती हो तो इस औरत के लिए तुमसे दो रोटी नहीं थपेंगी ?’

इसके बाद पैसे का अभाव, अपना और चाची का बुढ़ापा, बेटियों के बच्चों तक की ज़रूरतों का ऐसा ख़ाका चाचा ने खींचा कि घर में विरोधी दल का निशान ही नहीं रहा। 

मौत अब चाचा के घर में गौण हो गई । योजनाओं, षड़यंत्रों और जोड़-तोड़ का माहौल गर्मा गया । परायेपन पर अपनापे का नकली मुलम्मा चढ़ गया। रीमा के लिए सबका अभिभावक रूप जाग गया। रीमा की देखभाल के लिए ड्यूटी बांध दी गईं दीं। ड्यूटी क्या थीं, रीमा पर पूरी निगरानी रखे जाने का एक लुभावना तरीका था । रीमा की पसन्द-नापसन्द और उसे खुश रखने के तरीके ढूंढे जाने लगे । 

दूसरे दिन से घर में शोक मनाने के तरीकों में थोड़ा सा शब्दों का हेर - फेर हो गया । घर के सभी सदस्यों के शोक में काव्य और करतल के चले जाने के दुख के साथ – साथ बहू के शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थनाएं जुड़ गईं । चाची को रीमा के सुख में ही अपने काव्य और करतल की आत्मा की शांति के दर्शन होने लगे। लोगों के बीच में बैठे हुए कभी चाचा और कभी चाची की आवाज़ गूंज जाती । कोई एक चिन्तित होकर सबको सुनाते हुए ज़ोर से पूछता -

-’बहू के पास कौन है इस समय? ’

जवाब मिलता -' सबने ड्यूटी बाँध ली हैं, जी । अकेली कैसे छोड़ेंगे ?’

रीमा की दवाई, जूस, उसकी नींद, आराम, डॉक्टर, नर्स.... किसी न किसी बहाने से चाचा - चाची रीमा को अपनी बातों में ले आने लगे । 

स्वार्थ की मिटटी में रोपे गए इस रिश्ते के बीज को आत्मीयता के जल से सींचने में सारे घर को बहुत श्रम करना पड़ रहा था । जिस विजातीय रीमा को विष मान कर चाचा के घर के सदस्य उसे छूने को तैयार नहीं थे, आज वही रीमा उनके लिए एक संजीवनी का काम कर रही थी । हरेक कोई उसे गटकने को तैयार था । 

यह रिश्ता आज भी हाशिए पर ही पड़ा था ओर वहाँ रहना ही उसकी नियति भी थी लेकिन माया के फेर में पड़ा कश्यप परिवार उसे मुखपृष्ठ पर ले आने के छद्म नाटक में जी जान से जुटा हुआ था ।