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आँच - 12 - हिन्दुस्तान हमारा है !

अध्याय बारह
हिन्दुस्तान हमारा है !


किसी भी कीमत पर अँग्रेज दिल्ली पर कब्ज़ा करना चाहते थे। लार्ड कैनिंग ने कमांडर इन चीफ़ ऐनसन को आदेश दिया कि दिल्ली पर आक्रमण करो। वह शिमला से चला। रास्ते में उसे जनता का सहयोग नहीं मिला। पटियाला, नाभा और जींद की रियासतों ने अँग्रेजों का साथ दिया। ऐनसन पच्चीस मई को अम्बाला से दिल्ली की ओर चला। 27 मई को करनाल में हैज़े से उसकी मौत हो गई। सर हेनरी बर्नार्ड ने उसका स्थान लिया। बर्नार्ड की सेना आगे बढ़ी और मेरठ की गोरी सेना जो दस मई को कुछ नहीं कर पाई थी भी उसके साथ दिल्ली की ओर बढ़ी। 30 मई को हिंडन नदी के तट पर विद्रोही सेना ने रोका। दोनों में घमासान छिड़ा। विद्रोही सेना का बाईं ओर का भाग कुछ कमज़ोर पड़ा। उस ओर पाँच तोपें थीं। अँग्रेजों ने उस पर कब्ज़ा करना चाहा। विद्रोही सैनिक ने जब यह देखा, मैगज़ीन में आग लगा दी। कई अँग्रेज उस विद्रोही के साथ वहीं जल कर ख़ाक हो गए।
अगले दिन फिर अँग्रेजी और विद्रोही सेनाएँ भिड़ीं। दिनभर घमासान चलता रहा। एक जून को एक गोरखा सेना भी अँग्रेजों के साथ आ गई। सात जून को सिख सेना भी इसमें जुड़ गई। नाभा राज की ओर से भी सहायता पहुँची। यह विशाल संयुक्त सेना बर्नार्ड की कमान में धीरे धीरे दिल्ली के निकट अलीपुर तक पहुँच गई।
बुंदेले की सराय पर आठ जून को अँग्रेजी और विद्रोही सेना में भंयकर युद्ध हुआ। विद्रोही सेना का नेतृत्व बादशाह का पुत्र मिर्ज़ा मुग़ल कर रहा था। सायंकाल विद्रोही सेना दिल्ली लौटी। उसकी कई तोपें अँग्रेजों के हाथ लग गईं। कम्पनी की सेना दिल्ली की दीवार तक आ गई।
दिल्ली में हर तरफ से विद्रोही ख़ज़ाना लिए पहुँच रहे थे। सम्राट के प्रति वफ़ादारी के पत्र आ रहे थे। सम्राट बहादुर शाह भी हाथी पर बैठकर शहर में निकलते, लोगों को प्रोत्साहित करते। गोहत्या पर पाबन्दी लगा दी गई। सम्राट की ओर से अनेक ऐसे ऐलान जनता में प्रसारित हो रहे थे जिनसे जनता और विद्रोही सेना को बल मिल रहा था। आदमी भोंपा बजा कर बाज़ार में भी ऐलान सुनाते और पर्चा बाँटते। पर्चां का मजमून होता, ‘ऐ हिन्दुस्तान के फरजंदो अगर हम इरादा कर लें तो बात की बात में दुश्मन का ख़ात्मा कर सकते हैं। हम दुश्मन का नाश कर डालेंगे और अपने धर्म और अपने देश जो हमें जान से भी ज़्यादा प्यारा है, को ख़तरे से बचा लेंगे। हम महज अपना धर्म समझ कर जनता के साथ शामिल हुए हैं। इस मौक़े पर जो कोई कायरता दिखलाएगा या भोलेपन के कारण दग़ाबाज फिरंगियों के वायदों पर ऐतबार करेगा, वह जल्द ही शर्मिन्दा होगा और इंगलिस्तान के साथ अपनी वफ़ादारी का उसे वैसा ही इनाम मिलेगा जैसा लखनऊ के नवाबों को मिला। इसके अलावा इस बात की भी ज़रूरत है कि इस जंग में तमाम हिन्दू और मुसलमान मिलकर काम करें और किसी प्रतिष्ठित नेता की हिदायतों पर चलकर इस तरह का बर्ताव करें जिससे अमनों-आमान कायम रहे और गरीब लोग संतुष्ट रहें उनका अतबा और उनकी शान बढ़े। जहाँ तक मुमकिन हो सबको चाहिए कि इस ऐलान की नकलें करके आम जगहों पर लगा दें।’
दिल्ली विद्रोही सेना के कब्ज़े में थी। कम्पनी सेना ने बुन्देले की सराय की लड़ाई के बाद दिल्ली के पश्चिम एक पहाड़ी पर कब्ज़ा कर लिया था। पर इस पहाड़ी से दिल्ली पर आक्रमण करने का साहस न जुटा पाई। विद्रोही सेना ही रोज कम्पनी सेना पर आक्रमण करती। दिनभर युद्ध होता, शाम को दिल्ली लौट आती। एक दिन कम्पनी सेना का एक वफ़ादार हिन्दुस्तानी दस्ता विद्रोहियों की सेना से जा मिला। बर्नार्ड इस घटना से बहुत हतोत्साहित हुआ।
23 जून को प्लासी की लड़ाई की शतवार्षिकी थी। सबेरे से ही विद्रोही सेना कम्पनी सेना पर गोले बरसाने लगी। भीषण युद्ध शुरू हो गया। बारह बजे तक विद्रोही सेना कम्पनी सेना पर हावी हो गई। लगा कि कम्पनी सेना छितर बितर हो जायगी। ‘प्लासी का हम बदला लेंगे’ जैसे कोई बोलता विद्रोही सैनिक दूने उत्साह से आगे बढ़ने की कोशिश करते। ऐसा लगने लगा कि कम्पनी की संयुक्त सेना हार जायगी पर अँग्रेजों की सहायता में इसी समय एक नई सेना पंजाब से आ गई। दोनों ओर से फिर घमासान मच गया। शाम तक दोनों सेनाएँ एक दूसरे के सामने डटी रहीं।
जून का महीना, भयानक गर्मी, उसी के साथ हैज़ा। सैनिक और आमजन सभी हैज़े से भी कालकवलित होते रहे। दोनों तरफ की सेनाओं में नई टुकड़ियाँ जुड़ती रहीं। दो जूलाई को मुहम्मद बख़्त खाँ के नेतृत्व में रुहेलखण्ड की सेना ने दिल्ली में प्रवेश किया। नगर वासियों और सम्राट की ओर से इस सेना का विशेष स्वागत हुआ। बादशाह की ओर से रुहेलखण्ड में बँटा ऐलान का पर्चा भी बँटने लगा। ऐलान का मजमून था,‘हिन्दोस्तान के हिन्दुओ और मुसलमानो उठो, भाइयो उठो। खुदा ने जितनी बरकतें इंसान को अता की हैं, उनमें सबसे कीमती बरक़त आज़ादी है। क्या वह जालिम नाकस जिसने धोका दे दे कर यह बरक़त हमसे छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? क्या खुदा की मर्ज़ी के खि़लाफ़ इस तरह का काम हमेशा जारी रह सकेगा? नहीं नहीं, फिरंगियों ने इतने जु़ल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का प्याला लबरेज़ हो चुका है। यहाँ तक कि अब हमारे पाक मज़हब को नाश करने की नापाक ख़्वाहिश भी उनमें पैदा हो गई है। क्या तुम अब भी ख़ामोश बैठे रहोगे? खुदा अब यह नहीं चाहता कि तुम ख़ामोश रहो क्योंकि उसने हिन्दुओं और मुसलमानों के दिलों में अँग्रेजों को अपने मुल्क से बाहर निकालने की ख़्वाहिश पैदा कर दी है और खुदा के फ़ज़ल और तुम लोगों की बहादुरी के प्रताप से जल्दी ही अँग्रेजों को इतनी कामिल शिकस्त मिलेगी कि हमारे इस मुल्क हिन्दोस्तान में उनका ज़रा भी निशान न रह जाएगा। हमारी इस फ़ौज में छोटे और बडे़ की तमीज़ भुला दी जायगी और सबके साथ बराबरी का बर्ताव किया जायगा क्योंकि इस पाक जंग में अपने धर्म की रक्षा के लिए जितने लोग तलवार खींचेंगे वे सब एक समान यश के भागी होंगे। वे सब भाई भाई हैं, उनमें छोटे बडे़ का कोई भेद नहीं। इसलिए मैं फिर अपने तमाम हिन्दी भाइयों से कहता हूँ-उठो और ईश्वर के बताए हुए इस परम कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए मैदाने जंग में कूद पड़ो।’
इसी तरह के और भी पर्चे बँटते रहे। लोगों में उत्साह भर उठा। शहज़ादा मिर्ज़ा मुग़ल विद्रोही सेना को नहीं संभाल पा रहे थे। बादशाह को इसकी जानकारी हुई। उन्होंने मिर्ज़ा मुग़ल को हटाकर बख़्त खाँ को सभी सेनाओं का प्रधान सेनापति तथा दिल्ली का गवर्नर नियुक्त कर दिया। बख़्त खाँ अत्यन्त योग्य एवं अनुशासन प्रिय था। उसने सम्राट से वचन ले लिया कि कोई शहज़ादा भी प्रबन्ध में दख़ल नहीं करेगा। यदि कोई ऐसा करेगा तो उसे सज़ा दी जायगी।
बख़्त खाँ की नियुक्ति का ऐलान हो गया। उनके साथ चौदह हजार पैदल दो सवार पलटन और कई तोपें थीं। वह अपनी सेना को छह महीने का वेतन पेशगी दे चुका था। चार लाख रुपये नक़द सम्राट को भेंट किया। उसने प्रशासन को चुस्त किया। लोगों को हथियार उपलब्ध कराया। सम्राट, बेगम ज़ीनत महल और बख़्त खाँ ने विचार विमर्श किया। तीन जूलाई को सेना की परेड हुईं जिसमें बीस हज़ार लोग थे।
अँग्रेज भी परेशान थे। महीनों हो रहा था और वे दिल्ली पर आक्रमण करने का साहस भी नहीं कर पा रहे थे। बख़्त खाँ ने चार जूलाई को कम्पनी सेना पर आक्रमण किया। भयंकर लड़ाई हुई। बर्नार्ड हैज़े से तंग थे। पाँच को उनका देहान्त हो गया। जनरल रीड ने उनका स्थान लिया।
बख़्त खाँ अफगान युद्ध में अँग्रेजी फ़ौज में साधारण रिसालदार था। बाद में तरक्की पाकर तोपख़ाना अधिकारी और अन्त में नीमच में सूबेदार बना। विद्रोह होने पर वह बरेली में था जहाँ रुहेलखण्ड से अँग्रेजों को बाहर करने में नवाब बहादुर ख़ान की मदद की। बख़्त खाँ को मुख्य सेनापति बनाए जाने पर शाही ख़ानदान से सम्बद्ध लोग नाराज़ हो गए। वे लोग बख़्त खाँ के खि़लाफ़ षड्यंत्र करने लगे। इलाही बख़्श, मिर्ज़ा मुग़ल सहित सभी ख़ानदानी लोग षड्यंत्र में लग गए। इनका झुकाव अँग्रेजों की ओर हो गया। बख़्त खाँ और शहज़ादा मिर्ज़ा मुग़ल के बहाने यह लड़ाई ख़ानदान और सामान्य जन में बदल गई।
बख़्त खाँ के मुख्य सेनापति बनने पर प्रशासनिक कार्यो के लिए समिति बनाई गई जिसे दिल्ली दर्बार कहा गया। दिल्ली दर्बार के दस सदस्यों में पाँच हिन्दू रखे गए- जनरल गौरीशंकर, सूबेदार मेजर बहादुर जीवाराम, शिवकुमार मिश्र, बेतराम और बेनीराम। इस दर्बार में छह सदस्य सेना के रखे गए। इनमें पैदल के दो, घुड़सवार के दो और तोपखाने के दो सदस्य थे। बुद्धिमान, समझदार, सक्षम, अनुभवी एवं भरोसेमंद लोगों को ही दर्बार का सदस्य बनाया गया। दर्बार के दस सदस्यों में से एक सदरे-जलसा(अध्यक्ष) तथा एक नायब सदरे-जलसा(उपाध्यक्ष) चुना गया। सदर को दो मत देने का अधिकार दिया गया। दर्बार के हर सदस्य के पास राज्य के उस विभाग का प्रभार था जिससे वह चुनकर आया था। हर विभाग की सहायता के लिए एक समिति थी जिसमें चार सदस्य दर्बार के होते थे। समिति के बहुमत से पारित प्रस्ताव प्रभारी सदस्य द्वारा दर्बार को निर्णय के लिए भेजे जाते थे। उच्चतर सत्ता दर्बार में निहित थी। दर्बार का कोई भी निर्णय सम्राट के दस्तख़त के बिना लागू नहीं होता था। सम्राट द्वारा कोई प्रस्ताव बिना दस्तख़त के लौटा देने पर उस पर पुनर्विचार किया जाता था। दर्बार में दो तरह के सत्र होते थे-साधारण और विशेष। साधारण सत्र हर दिन पाँच घंटे के लिए लालकिले में होता था। विशेष सत्र किसी ज़रूरी काम के लिए दिन या रात कभी भी बुलाया जाता। सदस्यों की ज़िम्मेदारी सामूहिक थी। आठ अगस्त 1857 की बैठक में दिल्ली की समुचित व्यवस्था, रसद की आपूर्ति, सेना की कुशल देखरेख, डाक सुपुर्दगी की बेहतरी और महाजनों से ऋण लेने पर निर्णय लिए गए।
दर्बार सर्वोच्च न्यायिक सत्ता के रूप में भी कार्य करता था। उसने न्यायाधीशों तथा पुलिस एवं सिविल अधिकारियों की नियुक्ति की। इसतरह नियुक्त सभी अधिकारी दर्बार के प्रति उत्तरदायी थे। दर्बार ने रिश्वत और भ्रष्टाचार ख़त्म करने की कोशिश की। वित्तीय अधिकार भी दर्बार के ही पास थे। दर्बार के लोग किसान और सैनिक वर्ग से आए थे। उन्होंने आर्थिक तबाही से बचाने के लिए अनेक उपाय किए।
शहज़ादे, समधी इलाही बख्श तथा मुगल ख़ानदान के लोग बादशाह पर दबाव बनाते कि प्रशासन दर्बार द्वारा आम लोगों के हाथ आ गया है। दर्बार के सदस्य तथा प्रशासनिक अधिकारी ख़ानदानी लोगों को तवज्जो नहीं दे रहे हैं। बादशाह को कोई उपाय करना चाहिए। पर बादशाह दर्बार के विरोध में उतरना नहीं चाहते थे। उन्हें कहीं यह भी लगता कि बख़्त खाँ और दर्बार पूरी ईमानदारी से काम कर रहा है। उसे काम करने देना चाहिए।
विद्रोही सेना के अधिकांश लोग गाँव से आए थे। वे उत्साह में थे और शाही ख़ानदान के लोग जिस रस्मोरिवाज और आदर की उम्मीद उनसे करते थे, वह वे नहीं दे पाते थे। बादशाह भी इसे अनुभव करते थे। पर इस आपत्ति काल में विद्रोहियों से यह उम्मीद करना कि वे आते जाते सात बार कोरनिश करेंगे, व्यर्थ था।
बादशाह को इससे पहले अनेक आदर सूचक शब्दों जैसे पीरो मुर्शिद आदि से संबोधित किया जाता था। मलिका को भी लगता कि कर्मचारी, अघिकारी पहले वाला सम्मान नहीं देते हैं। ख़ानदानी लोगों का झुकाव अँग्रेजों की ओर होने पर विद्रोही अधिकारी और दर्बार के लोग बादशाह को सूचित करते कि वे इन लोगों को नियंत्रित करें पर बादशाह कुछ न कर पाते। वे विद्रोहियों और ख़ानदानी लोगों के बीच झूलते रहते। कभी कभी पेरशान होकर यह भी सोचते कि कोई दूसरा यदि नेतृत्व का काम अपने हाथ में ले ले तो भी ठीक है। वे कम से कम इत्मीनान से रह तो सकेंगे। पर एक बार आग में हाथ डाल देने पर इत्मीनान से रह पाना संभव नहीं था। फिर भी इसी उम्मीद से उन्होंने सभी राजाओं, तालुकेदारों को अपने हाथ से एक पत्र लिखा जिसका मजमून था-
‘मेरी दिली ख़्वाहिश है कि जिस जरिए से भी और जिस कीमत पर भी हो सके, फिरंगियों को हिन्दोस्तान से बाहर निकाल दिया जाए। मेरी यह ज़बरदस्त ख़्वाहिश है कि तमाम हिन्दोस्तान आज़ाद हो जाए। लेकिन इस मक़सद को पूरा करने के लिए जो क्रान्तिकारी युद्ध शुरू कर दिया गया है, वह उस समय तक फ़तहयाब नहीं हो सकता जिस समय तक कोई ऐसा शख़्स जो इस तमाम तहरीक़ के भार को अपने ऊपर उठा सके, जो क़ौम की मुख़्तलिफ़ ताकतों को संगठित करके एक ओर लगा सके और जो अपने तई तमाम क़ौम की नुमाइन्दगी कर सके, मैदान में आकर इस क्रान्ति का नेतृत्व अपने हाथों में न ले ले। अँग्रेजों को निकाल दिए जाने के बाद अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने की मुझमें ज़रा भी ख़्वाहिश बाकी नहीं है। अगर आप सब देशी नरेश दुश्मन को निकालने की ग़रज़ से अपनी अपनी तलवारें खींचने के लिए तैयार हों तो मैं इस बात के लिए राज़ी हूँ कि अपने तमाम शाही अख़्तियारात और हकूक देशी नरेशों के किसी ऐसे गिरोह को सौंप दूँ जिसे इस काम के लिए चुन लिया जाए।’
इस पत्र ने जहाँ विद्रोही नरेशों में उत्साह पैदा किया, वे सम्राट की सदाशयता के कायल हुए, वहीं अँग्रेजों की ओर झुके नरेशों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा बल्कि उन्होंने इसका मज़ाक उड़ाया।



अवध के विभिन्न जनपदों से विद्रोही सैनिक ही नहीं, आम जन भी लखनऊ की ओर आ रहे थे। विद्रोहियों को व्यवस्थित करना एक बड़ी समस्या हो रही थी। उन्हें भोजन आवास देकर कार्य में लगाने के लिए एक चुस्त प्रशासन अपेक्षित था। शहर में लूट पाट की घटनाएँ बढ़ने लगी। अँग्रेज अधिकारी अपने बचाव की योजनाओं में ही डूबे हुए थे। शाही समय में अलीरज़ा शहर कोतवाल थे। वे नवाब वाजिद अली शाह के विश्वास पात्र थे। सत्ता बदलते ही वे अँग्रेजों के कृपा पात्र हो गए थे। उन्हें डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया था। उन्हें क़ैसर बाग़ के शाही ख़ज़ाने की जानकरी थी। वित्तीय कमिश्नर गबिन्स को उन्होंने इसकी सूचना दे दी। गबिन्स ने मेज़र बैंक्स को भेज कर ख़ज़ाने को घिरवा लिया। उसमें तेइस बहुमूल्य शाही ताज, वेनिस और स्पेन के बने कीमती आभूषण , हीरे जवाहरात से भरे बाईस सन्दूक, रत्नजटित सिंहासन आदि अँग्रेजों को मिल गए। विद्रोह के बीच ख़ज़ाने की राशि ने अँग्रेजी प्रशासन में किंचित मुस्कराहट के क्षण उपलब्ध करा दिए। अँग्रेजों की डाक व्यवस्था भी ध्वस्त हो चुकी थी। अब जासूस और मुख़बिर ही अहम सूचनाएँ देने के लिए मुस्तैदी से जुटे थे।
विद्रोही सेनाओं ने 29 जून को शहर से दूर चिनहट में अपना अड्डा जमाया। सूचना मिलते ही हेनरी लारेन्स ने अपनी सेनाओं को भेजा। वे चाहते थे कि विद्रोही सेनाओं को चिनहट में ही परास्त कर लखनऊ पर कब्ज़ा बरक़रार रखा जाय। स्वदेशी विद्रोही सेना का नेतृत्व बरक़त अहमद कर रहे थे। विद्रोही सेनाएँ इनके नेतृत्व में बड़ी बहादुरी से लड़ीं। सूबेदार घमंडी सिंह और सूबेदार शहाबुद्दीन की सेनाओं ने भी पूरा साथ दिया। अँग्रेजों की सेना घिर गई। विद्रोही सेनाओं ने बहुतों का काम तमाम कर दिया। जो बचे, वे मैदान छोड़कर भागे। अँग्रेजों की चार तोपें और बहुत सा गोला बारूद विद्रोही सैनिकों के हाथ लगा। लोहे के पुल तक अँग्रेज भागते रहे और विद्रोही सैनिक खदेड़ते रहे। बेलीगारद के निकट पहुँचने पर वहाँ लगी तोपों का सामना करना पड़ा। अँग्रेज बेलीगारद और मच्छी भवन में क़ैद हो गए। पत्थर पुल के पास मच्छी भवन की तोपें आग बरसाती रहीं। विद्रोही सेना ने भी अपनी तोपों से जबाव दिया। इसी बीच विद्रोही सेनाएँ सारे नगर में फैल गईं। कोठी फरहत बख़्श, छतर मंज़िल, बादशाह बाग़, शाद मंज़िल, ख़ुर्शीद मंज़िल, मुबारक मंज़िल, हज़रत गंज, दिलकुशा, मुहम्मद बाग़, आफसी इमाम बाड़ा हर जगह विजय से प्रसन्न देशी सैनिक घूम रहे थे। कोठी फरहत बख़्श और छतरमंज़िल में बेगमें थीं। उनमें खलबली मची। देशी सैनिकों ने उन्हें आश्वस्त किया। बेलीगारद देशी सिपाहियों से घिर चुकी थी। उसके आसपास के घरों में विद्रोही सिपाहियों ने अपना अड्डा जमाया। वे मकान की दीवालों में छेदकर बेलीगारद पर गोलियाँ बरसाते रहे। चिनहट की हार से अँग्रेज घबड़ाए हुए थे। अपने प्राणों की सुरक्षा के लिए सभी बेचैन थे।
दूसरे दिन पहली जूलाई थी। सबेरे ही यह ख़बर फैली कि कोतवाली, इमामबाड़ा, मुसाफ़िरख़ाना आदि सरकारी भवनों पर तैनात सिपाही भाग गए हैं। सरकारी माल, अस्त्र शस्त्र सब खुले में पड़ा है। थोड़ी देर में ही जनता इन जगहों की ओर दौड़ पड़ी। लूटपाट, फेंकफाँक तोड़फोड़ शुरू हो गई।





हम्ज़ा, ईमान के साथियों ने लूटपाट से मना किया, कहा, ‘लूट पाट के बदले तोपों को मच्छीभवन पर लगाओ। नसरीन की टोली भी महिलाओं के बीच सक्रिय रही। बद्री, हम्ज़ा और ईमान के नेतृत्व में लड़कों ने रुई की गाँठें और बारूद इकट्ठा किया और मच्छीभवन के गेट पर लाकर रखने लगे। हेनरी लारेन्स को लगा कि बेलीगारद मच्छीभवन दो जगहों को सुरक्षित रखपाना कठिन होगा। उन्होंने एक हज़ार रुपये देकर एक आदमी को मच्छीभवन भेजा। पर वह गोले की चपेट में आ गया। सेमाफोर द्वारा बार बार कहा जाता रहा कि आधीरात में आवश्यक सामान, ख़ज़ाना, स्त्री, बच्चे, क़ैदी लेकर तथा बारूद भंडार में आग लगा कर बेलीगारद में आ जाओ। लारेन्स को उम्मीद थी कि यह सन्देश मच्छी भवन नहीं पहुँचेगा पर मच्छीभवन में पामर को यह संदेश मिल गया। उन्होंने मच्छीभवन में क़ैद राजा दृगनारायण सिंह सहित अन्य क़ैदियों को भी साथ लिया। बारूद भंडार में आग लगा दी। धुँआ और लपटों के बीच अँग्रेज अधिकारी, सैनिक सभी मच्छीभवन से निकल गए। हम्ज़ा के साथियों ने गेट पर रुई में आग लगाई पर तब तक मच्छीभवन खाली हो चुका था।
चिनहट की जीत से विद्रोहियों में जो आग पैदा हुई, मच्छीभवन के घेराव ने उसमें घी का काम किया। बाग़ी बहुत खुश थे। उन्होंने यह समझा कि हमारे डर से अँग्रेज मच्छीभवन छोड़कर भाग गए हैं। इस उत्साह को सही नेतृत्व नहीं मिल सका। नेतृत्व में भी विभाजन था। कभी कभी उनमें एकता स्थापित हो जाती और कभी विरोध पनप जाता।
मौलवी अहमदुल्ला शाह के नेतृत्व में पहली जूलाई को बेलीगारद पर धावा बोला गया। मौलवी साहब ने बड़ी बहादुरी दिखाई। वे बेलीगारद तक पहुँच गए। लेकिन उन्हें औरों का पूरा सहयोग नहीं मिल पाया। अगले दिन फिर ज़बरदस्त आक्रमण हुआ। सर हेनरी लारेन्स जिस कमरे में बैठे थे, उसी पर गोला गिरा। वे बुरी तरह जख़्मी हो गए। डाक्टरों ने मरहम पट्टी कर दवाएँ दी। जख़्मी होकर भी वे अपनी योजनाओं पर काम करते रहे। उन्होंने डाक्टर से पूछा,‘अभी मरने में कितनी देर है?’ डाक्टर ने अपना अनुमान बताया। वे और तेजी से अपना काम करवाने लगे। अन्तिम क्षण तक वे लोगों को निर्देश देकर रणनीति को समझाते रहे। चार जूलाई को वे स्वर्ग सिधार गए। ऐसे नेतृत्व का उदाहरण कम ही मिलेगा।
बाग़ी सिपाही सही नेतृत्व के अभाव में उच्छृंखल हो गए। कोई सार्थक योजना न होने के कारण वे इधर-उधर लूटपाट में संलिप्त हो गए। रईसों के घर लुटे। जब जनता त्रस्त होने लगी तो मौलवी अहमदुल्ला शाह ने जगह-जगह पहरे बिठा दिए। कुछ दूसरी पलटनों के लोगों को भी पहरे पर लगाया। विद्रोही सेनानायकों, सूबेदारों ने दिल्ली दर्बार की तर्ज़पर एक पंचायत बनाई। पंचायत ने अनुभव किया कि राजवंश के किसी व्यक्ति को सिंहासन पर बिठाकर कार्यवाही करना अधिक संगत होगा। सेना नायकां की पंचायत ने राजा जय लाल सिंह नुसरत जंग को बुलवाकर उनका स्वागत किया। उनसे कहा-अव्यवस्था से शहर परेशान है इसलिए आपकी मदद चाहिए। राजा जय लाल और सेना नायकों की राय से शहर का प्रबन्ध अली रज़ा कोतवाल और मीर नादिर हुसैन को सौंपा गया। ये दोनों अँग्रेजों के साथ भी काम कर रहे थे। इसलिए इन पर निगरानी के लिए मुहम्मद कासिम खाँ को नियुक्त किया गया। जब तक राजवंश का कोई सिंहासनारूढ़ न हो तब तक के लिए सैन्य पंचायत राजकाज देखने लगी। इस पंचायत में चिनहट युद्ध के नायक जनरल बरक़त अहमद, उमराव सिंह, जयलाल सिंह, रघुनाथ सिंह, शहाबुद्दीन और घमंड़ी सिंह शामिल थे। सैनिक पंचायत ने मौलवी अहमदुल्ला शाह से अपनी चौकियाँ हटा लेने को कहा। मौलवी साहब इसके लिए तैयार नहीं हो रहे थे। बड़ी मुश्किल से मौलवी साहब को मनाया जा सका। विद्रोही सेना में एकरूपता का अभाव था। पूरी सेना किसी एक के अधीन नहीं थी। फलतः आपस में कभी कभी टकराहट पैदा हो जाती।
सैनिक पंचायत चाहती थी कि वाजिद अली शाह के किसी बेटे को राजगद्दी पर बिठा दिया जाय। पहले मिर्ज़ा नौशेरवांक़द्र को गद्दी सौंपने की चर्चा चलाई गई। वे विकलांग थे ही, अँग्रेजों से भयभीत भी थे। इसलिए इंकार कर दिया। फिर मिर्ज़ा दार-उस-सितवत क़द्र के लिए बात चली। वे भी इस जोखिम भरी गद्दी पर बैठने के लिए तैयार न हो सके। कुछ बेगमें भी डरी हुई थीं। उन्हें डर था कि कहीं सैन्य पंचायत के इस क़दम से अँग्रेज नाराज़ होकर जाने आलम का क़त्ल ही न कर दें। जब दो लोगों से इंकार हो गया, पंचायत भी असमंजस में पड़ गई। क्या किया जाए? नवाब महमूद खाँ और शेख अहमद हुसैन ने राजा जयलाल को सलाह दी कि मिर्ज़ा बिर्जीस क़द्र को गद्दीनशीन कर दिया जाय। बिर्जीस क़द्र अभी नाबालिग था। राजा ने कहा कि बेगमों से भी राय ले ली जाए। सभी बेगमें एक मकान में इकट्ठा हुईं। बिर्जीस क़द्र की ताजपोशी के लिए बात चलाई गई। पर बेगमों में सब की राय अलग-अलग थी। कोई सहमति न बन सकी। वही प्रश्न बार बार उठता रहा, यहाँ किसी को गद्दीनशीन करो और वहाँ कलकत्ता में जाने आलम को मार दिया जाय तो? इस ‘तो’ पर सारी बात अँटक जाती। राजा जयलाल भी निराश हुए और घर चले गए। हज़रत महल के बेटे का प्रश्न था, इसलिए वे अन्य बेगमों की बातें सुनती रहीं। वे अँग्रेजों से बहुत डरी नहीं थीं पर क्या करतीं। सभी से हाथ जोड़कर केवल यही कहा कि यह लड़का तुम्हारा है जैसा तुम मुनासिब ख़याल करो, वैसा करो। नवाब महमूद खाँ से न रहा गया। वे हज़रत महल से मिले, कहा,‘आप मैदान में आइए। खुदा बहादुरों की मदद करता है। इंशाअल्ला देखा जायगा।’ बेगम एक क्षण के लिए अन्दर गईं। खुदा को याद किया। अपनी अन्तरात्मा से बात की। फिर बाहर आ गईं। नवाब साहब ने एक पत्र तैयार किया जिसमें बिर्जीस क़द्र की ताजपोशी पर सहमति प्रकट की गई थी। बेगम ने तुरन्त दस्तख़त कर दिया। सैन्य पंचायत के सामने पत्र रखा गया। सभी ने सहमति प्रकट की।
सात जूलाई का दिन। चांदी वाली बारादरी में बिर्जीस क़द्र की ताजपोशी हुई। स्वदेशी सेना के जनरल बरक़त अहमद ने बिर्जीस क़द्र को राजमुकुट पहनाया। इक्कीस तोपों की सलामी सर हुई। अफ़सरों ने तलवारों की नज़र दिखाई। शहर में खुशी मनाई गई। हर गली-कूचे में इसी की चर्चा। सैन्य पंचायत और बिर्जीस क़द्र के बीच कुछ बिन्दुओं पर सहमति बनी। तय हुआ कि बिर्जीस क़द्र अवध के स्वंतत्र बादशाह स्वयं नहीं बन सकते। यह दिल्ली के शहंशाह की मर्ज़ी पर छोड़ा गया कि वे उन्हें अवध का स्वतंत्र बादशाह घोषित करें या नवाब वज़ीर की पदवी दें। यह भी तय हुआ कि
- सैनिकों का वेतन दुगना कर दिया जाए। सैनिकों के वेतन की जो रक़म अँग्रेजी सरकार में डूब गई है, उसे भी नई सरकार अदा करे।
-नई पलटन भरती किए जाने पर उसके अफ़सरों की नियुक्ति सैन्य पंचायत के परामर्श से हो।
-राजकाज में सैन्य पंचायत की सलाह ली जायगी और नवाब दीवान की नियुक्ति भी उसी की सलाह से होगी।
बेगम हज़रत महल अल्प वयस्क विर्जीस क़द्र की संरक्षिका हुईं। राजमाता का निर्णय भी राजकाज में प्रभावी हुआ। नवाब शरफुद्दौला मुहम्मद इब्राहीम खाँ को दीवान बनाया गया। महाराजा बालकृष्ण को वित्तमंत्री, मिर्ज़ा अली बेग़ को कोतवाल , मीर यावर हुसैन को मुहतमिम, हिसामुद्दीन बहादुर को जनरल, मम्मू खाँ को दरोग़ा दीवाने ख़ास, अमीर हैदर को मुंशी कचहरी ख़ास, मीर वाजद अली को दरोग़ा ड्योढ़ियात, मुहम्मद हसन खाँ को रुख़ बारे मुल्की का पद दिया गया। जनरल हिसाबुद्दीन को तेरह पलटन भरती करने का हुक्म हुआ।
अवध के ताल्लुकेदारों में बहुत से असमंजस में थे। कुछ अँग्रेजों से पटरी बिठा चुके थे। अवध की नई सरकार के आदेश को उन राजाओं ने सिर-आँखों लिया जो अवध की शाही सरकार से जुड़े थे। नई सरकार के आदेश पालन में अनेक राजा/जमींदार उपस्थित हुए जिनकी कुल सेना एक लाख पचास हजार पाँच सौ थी।
गोण्डा के राजा देवीबख्श सिंह (तीन हज़ार सैनिक) गोसाई गंज के ताल्लुकेदार अनन्दी और खुशहाल (चार हज़ार सैनिक) सेमरौता चंदापुर के राजा शिवदर्शन सिंह (दस हज़ार सैनिक) जमींदार राम बख्श (दो हज़ार फ़ौज तीन तोपें) अमेठी के राजा लालमाधो सिंह (चार तोपें, दो सौ घुड़सवार ,पाँच हज़ार पैदल) बैसवाड़ा के बेनीमाधव बख्श सिंह (पाँच तोपें, पाँच हज़ार सेना) राजा नानपारा के कारिन्दे कल्लू खाँ (दस हज़ार सैनिक) खजूर गांव के राणा रघुनाथ सिंह (चार तोप, दो हज़ार सैनिक) संडीला के चौधरी हशमत अली (चार हज़ार सैनिक) रसूलाबाद के मीर मनसब अली (एक हज़ार सैनिक) के साथ उपस्थित हुए।
बिर्जीस क़द्र, संरक्षिका हज़रत महल, सरकार के मंत्रियों, अधिकारियों तथा राजाओं, जमींदारों की बैठक हुई। भावी रणनीति बनाई गई। अवध से कम्पनी सेना को निकालने के लिए तैयारी शुरू हुई। राजा देवीबख़्श को गोण्डा-बस्ती के इलाके से जुड़ी सीमाओं की रक्षा का भार सौंपा गया। लखनऊ को मुक्त कराने पर चर्चा हुई। बेलीगारद पर आक्रमण करने की योजना बनी। बेगम हज़रत महल ने सभी से सहयोग की अपील की। सभी राजाओं-जमींदारों ने बेगम को आश्वस्त किया।




कानपुर में अँग्रेजों की हार का समाचार इलाहाबाद पहुँचा। वहाँ शहर और किला अँग्रेजों के कब्ज़े में आ गए थे। लार्ड कैनिंग भी कलकत्ता से इलाहाबाद आ गए। बग़ावत की शान्ति तक वह इलाहाबाद को ही राजधानी बनाकर रहे। जनरल नील ने थोड़ी सेना इलाहाबाद के लिए रखकर शेष मेजर रिनार्ड के नेतृत्व में कानुपर की ओर भेज दी। जनरल हैवलाक भी गोरी और सिख सेना तथा तोपखाना लेकर कानपुर की ओर बढ़े। नाना की फ़ौज के ज्वाला प्रसाद और टीका सिंह ने फतेहपुर में कम्पनी सेना का मुकाबला किया। भयंकर युद्ध हुआ पर विजय कम्पनी सैनिकों की हुई। फतेहपुर में तैनात मजिस्ट्रेट शेरर जिनको विद्रोही सैनिकों ने चुपचाप चले जाने की इजाज़त दे दी थी इस समय कम्पनी सेना के साथ था। उसी की देख रेख में भयंकर रक्तपात और लूट का कार्यक्रम चला। जो भाग सके, गाँवों की ओर भागे। जो पकड़ लिए गए, उन्हें मार दिया या फांसी पर लटका दिया गया। अन्याय और अत्याचार को गति देने में अफ़वाहों की भी बड़ी भूमिका होती है। सती घाट और बीबीगढ़ में अँग्रेज मारे गए थे। इन घटनाओं को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता और अँग्रेज अपना आपा खो बैठते।
हैवलाक की सेनाएँ गाँवों को जलाते, लूटते कानपुर के निकट पहुँच गईं। नाना की सेना ने उनका मुकाबला किया पर कम्पनी सैनिकों के पास अच्छे हथियार और सूझ बूझ होने के कारण नाना के सैनिक सामना न कर सके। अन्ततः सत्रह जूलाई को हैवलाक ने विजयी मुद्रा में कानपुर में प्रवेश किया। नाना की बची सेना बिठूर में आ गई। बिठूर में भी रह पाना संभव नहीं था। नाना अपने भाई बालाराव, भतीजे रामाराव, परिवार की स्त्रियों, सेना और ख़ज़ाने के साथ फतेहपुर के लिए निकले पर पुत्री मैना ने बिठूर छोड़ने से इनकार कर दिया, ‘बापू मैं अपनी सुरक्षा कर लूँगी। हमारी महिला सेना काम करेगी। उन्हें यहाँ अँग्रेजों की दया पर छोड़कर हम कैसे जा सकते हैं?’ विवश होकर मैना को बिठूर में छोड़कर नाना निकल तो गए पर उन्हें बराबर मैना की चिन्ता सताती रही। तात्याटोपे फ़ौज इकट्ठा करने के लिए शिवराजपुर की ओर बढ़ गए।




बिर्जीस सरकार की योजनानुसार बेलीगारद पर आक्रमण जारी रहा। कई दिनों तक दोनों ओर से निरन्तर गोलाबारी होती रही। हेनरी लारेन्स की मौत के बाद मेजर बैंक्स ने नेतृत्व सँभाल लिया। मेजर बैंक्स भी जब गोली का शिकार हुए तो ब्रिगेडियर इंगलिश ने उनका स्थान लिया। विद्रोही सेनाओं ने बेलीगारद के कई हिस्सों को उड़ा दिया। सिख सेना बेलीगारद में अँग्रेजों की मदद कर रही थी। अँग्रेजी झंडा गोलाबारी में नष्ट होकर गिर जाता। उसके बदले नया झंडा लगाया जाता। कम्पनी सेना हताश हो रही थी। इंगलिश ने अपने दूतों को कानपुर भेजा जिससे वहाँ से मदद मिल सके। पर कई दूत विद्रोही सेनाओं द्वारा पकड़ लिए गए और उन्हें जेल में डाल दिया गया। अँग्रेजों का कब्ज़ा केवल बेलीगारद पर था। शेष लखनऊ पर शाही सरकार का शासन था। 25 जूलाई को ब्रिगेडियर इंगलिश को यह सूचना मिली कि हैवलाक कानपुर से लखनऊ के लिए चल चुका है। इंगलिश यह समझता था कि शीघ्र ही कानपुर से मदद लखनऊ पहुँच जायगी पर ऐसा हो नहीं सका।
विद्रोहियों की सेनाएँ बेलीगारद पर आक्रमण करती रहीं। पासी समाज के लोगों ने बहादुरी दिखाते हुए बेलीगारद की दीवारों को छलनी कर दिया। हैवलाक कानपुर से चल तो पड़ा पर उसे जनता का ज़बरदस्त विरोध सहना पड़ा। नील और हैवलाक के नेतृत्व में जनता पर जो अत्याचार किया गया था, उससे वह आहत थी। जैसे ही हैवलाक ने गंगा पार किया, गाँव के गाँव और स्थानीय जमींदार उसके विरोध में आ गए। चप्पे चप्पे पर विद्रोह का बिगुल बज रहा था। हर जमींदार ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। गाँव गाँव में स्वाधीनता का झंडा लहरा रहा था। किसी तरह लड़ते भिड़ते हैवलाक उन्नाव पहुँचा। वहाँ भी उसे कड़ा सामना करना पड़ा। वह वशीरतगंज तक किसी प्रकार पहुँचा। कानपुर से चले उसे नौ दिन हो चुके थे और सेना का छठा हिस्सा खप गया था। दसवें दिन हैवलाक को मगरवारा में ठहरना पड़ा।
नाना साहब को जब यह पता लगा कि हैवलाक लखनऊ की ओर चल पड़ा है, उन्होंने कानपुर पर आक्रमण करने की तैयारी शुरू कर दी। हैवलाक को चार दिन मगरवारा में ही रहना पड़ा। जब वे लखनऊ की ओर बढ़े तो उन्हें वशीरतगंज में फिर घेर लिया गया। उनके तीन सौ सैनिक और मारे गए। अब केवल साढे आठ सौ सैनिक रह गए थे। मजबूर हो कर उन्हें फिर कानपुर की ओर लौटना पड़ा।
ग्यारह अगस्त को वे फिर लखनऊ की ओर बढ़े। फिर ग्रामीण जनता का विरोध सहना पड़ा। उन्हें फिर मगरवारा में रुक जाना पड़ा। कानपुर से नील की सूचना मिली कि वह शीघ्र कानपुर लौटें। हैवलाक बारह अगस्त को पुनः कानपुर लौट गए।
हैवलाक ने कलकत्ता को संदेश भेजा कि हम लोग एक भंयकर संकट में हैं अगर और अधिक सेना मदद के लिए न पहुँची तो अँग्रेजी सेना को लखनऊ का विचार छोड़ इलाहाबाद लौट आना पड़ेगा। इस विपत्ति का कोई इलाज नहीं।
हैवलाक की इसी सूचना पर चार सप्ताह के अन्दर जेम्स ओट्रम और अधिक सेना लेकर हैवलाक की सहायता के लिए पन्द्रह सितम्बर को कलकत्ता से कानपुर आ गए।
बिठूर और कानपुर की महिलाएँ भी सूचनाओं के आदान-प्रदान में अधिक सक्रिय थीं। नाना की बेटी मैना का अपना महिलादल था ही, अज़ीज़न बाई भी उनकी सहायता में लगी रहती। अज़ीज़न बाई अँग्रेजों की भी चहेती थीं। अक़्सर उनकी महफ़िलों में बुलाई जातीं। नृत्य गान से सभी को संतुष्ट रखतीं। इसी बीच अँग्रेजों की बहुत सी गुप्त जानकारियाँ अज़ीज़न के हाथ लग जातीं। वे जानकारियाँ नाना और तात्या के शिविर तक पहुँच जातीं। जब कई गुप्त जानकारियाँ विपक्षी खे़मे तक पहुँच गईं तो अँग्रेजों को शक हुआ। इस शक की पुष्टि के लिए उन्होंने अपने जासूस लगाए। जब जासूसों ने भी पुष्टि की तो उन्होंने अज़ीज़न को सज़ा देने का मन बनाया।

लखनऊ में बेलीगारद पर आक्रमण जारी था। ब्रिगेडियर इंगलिश परेशान थे। उन्हें हैवलाक की सूचना मिली कि जल्दी लखनऊ नहीं आ पाऊँगा। बेलीगारद में राशन की कमी को देखते हुए सिपाहियों को एहतियात बरतने के लिए कहा गया। राशन में कटौती कर दी गई। विद्रोही सेनाओं की अपनी मुसीबतें थीं। राजमाता हज़रत महल के पास कुल चौबीस हजार रुपया था जो खर्च हो गया था। सेना का खर्च चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी। तिलंगे रईसों से धन प्राप्त करने का जुगाड़ करते रहे। कभी कभी कोई जासूस किसी के धन का पता बता देता। सैन्य पंचायत के लोग उनसे धन प्राप्त करते। जासूस लगभग सात प्रतिशत कमीशन लेते। एक जासूस ने नवाब माशूक महल के ख़ज़ाने का पता दिया। रात में मम्मू खाँ, राजा जयलाल, यूसुफ खाँ, हैदरखाँ जैसे लोग नवाब माषूक महल के घर गए। सहनची खोदने पर पाँच लाख रुपया निकला। सरकारी ख़ज़ाने में पहुँचाया गया। कुछ लोग कहते रहे कि कुछ माल मम्मू खाँ के घर भी पहुँच गया। रुपये की कमी को पूरा करने के लिए सरकारी कब्ज़े में जो भी सोने चांदी के सामान थे, उन्हें गलाने का काम शुरू हुआ। जमींदार और ताल्लुकेदार भी घन भेजते रहे। हज़रत महल भी चुप नहीं बैठी थीं। वे अवध के राजाओं के निरन्तर संपर्क में थीं। नई नई सेनाएँ आकर जुड़ रही थीं। पर एक नेतृत्व का अभाव खटक रहा था। जनरल बरक़त अहमद सूझ बूझ के व्यक्ति थे पर कई ऐसे लोग भी थे जो अपनी चलाते थे। मौलवी अहमदुल्ला भी बहादुर थे पर अपनी ऐंड़ भी रखते थे। उन्हीं के कहने से एक बार तोपचियों ने बेलीगारद पर गोलाबारी रोक दी थी यद्यपि वे दीवार के बिलकुल नज़दीक पहुँच गए थे। सैन्य पंचायत और सरकार में उचित समन्वय का प्रयास हज़रत महल द्वारा किया जाता पर लम्बा युद्ध चलाना आसान काम न था। राजमाता ने महिलाओं को भी क़वायद कराई। उनसे सहयोगी काम लेतीं। सूचना का आदान प्रदान ही नहीं, उन्हें बन्दूक तलवार चलाना भी सिखाया। हज़रत महल के साथ जुड़ी ये महिलाएँ सैन्यबल के लिए बहुत मददगार साबित हुईं। ज़रूरत पड़ने पर इन महिला सैनिकों ने अनेक अँग्रेजों को गोलियों का निशाना बनाया।
बच्चे, युवा सभी अक़्सर क़ौमीगीत जिसे अज़ीमुल्ला खाँ ने लिखा था, गाते हुए निकलते और आमजन में जोश भरते। ईमान और बद्री ने लोगों को इकट्ठा किया। जवान और बच्चे मसाल लिए हुए सायंकाल निकले। हम्ज़ा ने एक छोटा सा भाषण दिया। कहा कि हम लोग हिन्दुस्तान के मालिक हैं। अँग्रेज इस देश को लूट रहे हैं। हमारी इस ज़रखे़ज़ ज़मीन का फ़ायदा यहाँ की अवाम को नहीं मिल रहा है। हमको गुलामी की ज़ंजीरें तोड़नी हैं। मौलवी फ़ख़अद्ददीन अली साहब ने हमें रूसो की बात बताई थी ‘आदमी आज़ाद पैदा होता है पर वह हर जगह ज़ंजीरों में है।’ बात सच है। हमें अवध ही नहीं पूरे हिन्दुस्तान को अंग्रेजों से आज़ाद कराना है। हमें अँग्रेजों को चैन से नहीं रहने देना है। उनका बन्दोबस्त अच्छा है, बड़ी तोपें हैं। हमें उनकी आवाजाही पर नज़र रखना है, नदी घाटों पर पहरा देना है, तारघर को नष्ट करना है, रसद रोकना है। आइए हम लोग इस तराने को गाते हुए आगे बढ़े-
हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा।
ये हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा।
इसकी रूहानियत से है रौशन जग सारा।
कितना नदीम कितना नईम सब दुनिया से न्यारा।
करती है जरख़ेज़ जिसे गंगो जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा।
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक़्क़ारा।
इसकी ख़ाने उगल रहीं सोना, हीरा-पारा।
इसकी शानो-शौकत का दुनिया में जयकारा।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा।
लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा।
तोड़ो गुलामी की ज़ंजीरें बरसाओ अंगारा।
हिन्दू मुसलमां सिख हमारा भाई भाई
यह है आज़ादी का झंडा इसे सलाम हमारा।
आधीरात तक हम्ज़ा, ईमान और बद्री के साथ नौजवान गली गली घूमते गाते रहे। बीच बीच में जोश भरा नारा लगता-‘दीन बचाओ, मुल्क बचाओ, दीन बचाओ, मुल्क बचाओ।’