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आँच - 11 - चिनगी से आग लहकी !

अध्याय ग्यारह
चिनगी से आग लहकी !


लखनऊ कम सरगर्म नहीं था। अभी मेरठ और दिल्ली की ख़बरें यहाँ नहीं पहुँची थीं। पर दो और तीन की मूसाबाग की घटना ने सभी में दहशत भर दी थी। सात नम्बर की पलटन ने अपने बडे़ भाइयों मड़ियाँव की अड़तालीसवीं पलटन के नाम पत्र लिखा जिसमें स्वधर्म रक्षा के लिए अरदास की थी। यह पत्र जिस सिपाही को मिला उसने अपने साथी के साथ जाकर सूबेदार को दिखाया। तीनों वह पत्र लेकर कमिश्नर हेनरी लारेन्स के बँगले पर पहुँचे, प्रहरी से कहा,‘बड़े साहब से मिलना है।’
‘काम ?’
‘काम बहुत ज़रूरी है। साहब से ही बताने लायक है।’ सूबेदार सेवक तिवारी ने कहा। अर्दली ने अन्दर जाकर बताया। साहब बैठक में आ गए। पूछा,‘क्या है?’
‘सर, एक ख़त हम लोगों को मिला है।’ सूबेदार तिवारी ने वह ख़त साहब को दिया।
‘ओह गुड; तुम लोगों ने जो वफ़ादारी दिखाई है, हम इनाम देगा।’ तीनों आदाब बजाकर लौट पड़े। हेनरी बहुत खुश हुआ। इसी बीच तेरह नम्बर की पलटन के एक सिपाही ने शहर के तीन विद्रोहियों को गिरफ़्तार करवा दिया। हेनरी लारेन्स ने इन चारों को पुरस्कृत करने की योजना बनाई। घोषणा हो गई कि बारह मई को दर्बार लगेगा उसी में चारों को पुरस्कृत किया जाएगा।
बारह मई को दर्बार लगा। उसमें शहर के संभ्रान्त कहे जाने वाले लोग भी सम्मिलित हुए। हिन्दुस्तानी सैन्य अधिकारियों को भी बैठने के लिए कुर्सियाँ दी गईं। लारेन्स ने हिन्दुस्तानी ज़बान और अँग्रेजी लहजे़ में भाषण दिया। अपने भाषण में उन्होंने कहा कि पहले ज़माने में आलमग़ीर और फिर हैदरअली ने हजारों हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। उनके मन्दिरों और देवमूर्तियों को तोड़ा। अपने ही ज़माने को लीजिए। इस जलसे में शरीक होने वाले यह अच्छी तरह जानते होंगे कि रंजीत सिंह ने अपनी मुस्लिम रिआया को मज़हबी हुकूक नहीं दिए। लाहौर के मस्जिदों की मीनारों से मुअज़्ज़िन की अज़ान कभी नहीं सुनाई पड़ती थी। एक साल पहले तक कोई हिन्दू लखनऊ में शिवाला बनाने की जुरअत नहीं कर सकता था। कम्पनी बहादुर की सरकार आप लोगों के साथ माई-बाप जैसा बरताव रखती है। हिन्दू और मुसलमानों के साथ एक-सा इंसाफ़ होता है।
भाषण देने के बाद लारेन्स ने एक नज़र उपस्थित लोगों पर डाली। उन्हें लगा कि मेरे भाषण का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वे खुश हुए-शायद तीर ठिकाने पर लगा है। सूबेदार सेवक तिवारी, हवलदार हीरालाल दुबे, सिपाही रामनाथ दुबे और हुसैन बख़्श को उनकी स्वामिभक्ति और कर्त्तव्य परायणता के लिए खि़लअतें और थैलियाँ दे कर दर्बार बरख़ास्त हुआ।
इसके बाद छोटी छोटी टोलियों में बँट कर लोग लारेन्स के सदाशयता की तारीफ़ करते रहे। उनकी इंसाफ़ पसन्दगी को सराहा गया। पुरस्कृत सैन्य अधिकारी और सिपाही अँग्रेजों के चहेते ज़रूर हो गए पर हिन्दुस्तानी सैनिक उन्हें गद्दार कहते रहे। ये लोग उनसे आँखें नहीं मिला सकते थे।
लखनऊ का माहौल इस दर्बार से खुशनुमा नहीं बन सका। अवाम में दहशत और उत्तेजना दोनों थी। तेरह मई को विद्रोहियों के हरकारे आ गए। उन्होंने अपने पक्ष के लोगों को बताया कि दिल्ली और मेरठ फ़तह कर लिया गया है। लोगों की आँखों में क्रान्ति की चिनगारियाँ चमक उठीं। हम्ज़ा, बद्री और ईमान ने प्रचार का काम सँभाल लिया। अँग्रेजी, हिन्दी, उर्दू में इश्तिहार चिपकाए जाने लगे। दीन धर्म के शत्रुओं को मारना हिन्दू मुसलमान का मज़हबी फर्ज़ है। अँग्रेजी बँगलों पर बाणों के साथ जलते पलीते फेंके जाने लगे। अँग्रेज भी थोड़ा सहमे। हम्ज़ा, बद्री और ईमान रात भर इश्तिहार चिपकवाते, बैठकें करते। लोगों को तैयार करते। पट्टू तांगे वाले , करीम मिस्त्री जैसे न जाने कितने लोग हम्ज़ा, बद्री, ईमान के साथ जुड़ गए। उनकी आँखों में एक सपना तैरने लगा। हिन्दुस्तान से कम्पनी का शासन ख़त्म करना है।
अँग्रेज सिपाही इतने नहीं थे कि उन्हें हर जगह तैनात किया जा सके। अकेले उन्हें तैनात करना भी ख़तरे से खाली नहीं था। हिन्दुस्तानी सिपाही विद्रोहियों की बहुत सी क्रियाओं को देखते हुए भी अनदेखा कर देते।


हेनरी लारेन्स जितना चतुर था उतना ही दूरदर्शी। दिल्ली और मेरठ के स्वतंत्र होने की ख़बरें आ रही थीं। हिन्दुस्तानी सैनिकों का रुख़ समझना कठिन हो रहा था। जनता का रंग-ढंग भी फिरंगी विरोधी था। लारेन्स अपनी सैन्य शक्ति को पुनर्गठित करने लगा। उसने दिन-रात काम कराकर मच्छी भवन की मरम्मत कराई। उसे युद्ध के अनुकूल बनाया। बेलीगारद में भी मोर्चे बनाए। दोनों भवनों के आसपास की इमारतें ढहा दी गईं। बडे़ बड़े पेड़ कटवाकर मैदान साफ कर लिया गया जिससे युद्ध काल में कोई बाधा न पड़े। दोनों भवनों पर तोपें चढ़ा दी गईं। बाज़ार से दैनिक आवश्यकता की चीजें-राशन, घी, अंडे, सब्ज़ी आदि खरीद कर भंडारगृह में भरी जाने लगीं। पता नहीं कब विद्रोही आक्रमण कर दें। हेनरी लारेन्स से मिलने के लिए बहुत से व्यापारी और संभ्रान्त आते। वे चलते वक़्त ‘कोई खि़दमत हमारे लायक हो तो’ जैसे ही कहते, हेनरी कह देता-‘राशन और घी भिजवाइए।’ हेनरी की सोच थी कि यदि हमारे पास पर्याप्त राशन रहेगा तो हम अधिक कुशलता से विद्रोहियों का सामना कर सकेंगे।
बद्री, हम्ज़ा और ईमान अपने साथियों के साथ जनता को जाग्रत कर रहे थे। एक रात एक साथ ही मच्छीभवन और बेलीगारद पर बाणों के साथ जलते पलीते बरसने लगे। यह हम्ज़ा और ईमान की योजना का अंग था। वे कुछ न कुछ करते रहते थे जिससे अँग्रेजों को पता चले कि यहाँ के लोग बेगै़रत नहीं हैं। पूरी रात वाणों के साथ पलीते गिरते रहे और अँग्रेज अधिकारी दौड़ते रहे पर कोई पलीता फेंकने वाला गिरफ़्त में नहीं आ सका। हेनरी भी इस घटना से अधिक चौकन्ने हुए। हम्ज़ा, ईमान और बद्री लोगों को चौंकाते, जगाते अपना काम करते रहे। उनके दल में लोग जुड़ते जा रहे हैं। बरखा़स्त सिपाही भी उनके साथ जुड़कर काम करने लगे। हेनरी रोज बैठक कर अधिकारियों को सचेत करते, योजनाओं पर अमल की तरकीब सोचते।

मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली भी चुप कैसे बैठ सकते थे? वे अपने शिष्यों के साथ निकल पड़े। अवाम की सुरक्षा के लिए स्वयं ख़तरा मोल लेते। हम्ज़ा, ईमान, बद्री भी मौलवी साहब को साथ पाकर खुश हुए। शहर के लोगों को प्रोत्साहित करना, वस्तुस्थिति से अवगत कराना, विद्रोहियों के खान-पान की व्यवस्था कराना इन सभी का मुख्य काम बन गया। ‘सोच समझ कर क़दम उठाओ’ मौलवी साहब फ़र्माते। मौलवी सभी के लिए प्रेरणा स्रोत थे। वे कहते, ‘जब जंग शुरू हो गई है तो उसे नतीजे तक पहुँचाना है।’




दिल्ली में मार-काट मची थी। अँग्रेज जगह जगह मारे गए। बहुत से गाँवों की ओर चुपके से निकल गए। कुछ ने अपना वेश बदला, फ़क़ीर बन कर निकले। बुर्का पहन कर भागते हुए अँग्रेज अफ़सर मार दिए गए। सोलह मई को दिल्ली पर विद्रोही सेना का अधिकार हो गया। सम्राट बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ वास्तविक सम्राट के रूप में दिखने लगे। ज़ीनत महल की सक्रियता बढ़ गई।
दिल्ली के स्वाधीन होने की ख़बर चारों तरफ बिजली की तरह फैली। ग्यारह से इकतीस मई तक समस्त उत्तर भारत में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी। दिल्ली के सेनापति की ओर से पलटनों को ख़बर के साथ पत्र भी मिलते जिनमें युद्ध का आह्वान रहता। दिल्ली के सेनापति द्वारा रुहेलखण्ड के सेनापति को लिखा यह पत्र बार बार पढ़ा जाता, उसकी नकल बनाई जाती-भाइयो, दिल्ली में अँग्रेजों के साथ जंग हो रही है। खुदा की दुआ से हमने अँग्रेजों को जो पहली शिकस्त दी, उससे वे इतना घबरा गए हैं, जितना किसी दूसरे मौक़े पर दस शिकस्तों में भी न घबराते। बेशुमार हिन्दुस्तानी बहादुर दिल्ली में आ आकर जमा हो रहे हैं। ऐसे मौके़ पर अगर आप वहाँ पर खाना खा रहे हैं तो हाथ यहाँ आकर धोइए। शाहों का बादशाह जहाँपनाह हमारा दिल्ली का शहनशाह आपका इस्तक़बाल और आपकी खि़दमत का सिला देगा। हमारे कान इस तरह से आपकी ओर लगे हुए हैं जिस तरह रोजेदारों के कान अज़ान देने वाले के पुकार की ओर लगे रहते हैं। हम आपके तोपों की आवाज़ सुनने के लिए बेचैन हैं। आपके दीदार की प्यासी हमारी आँखें उसी तरह सड़क पर लगी हैं, जिस तरह क़ासिद की आँखें लगी रहती हैं। आइए, आपका फर्ज़ है कि फ़ौरन आइए। हमारा घर आपका घर है। भाइयो, आइए, बिना आपके आमद की बहार के गुलाब में फूल नहीं आ सकते। बिना बारिश के कली नहीं खिल सकती। बिना दूध के बच्चा नहीं जी सकता।
जगह-जगह लोगों ने अपनी तरफ से पर्चे लिखवाकर बँटवाए। रुहेलखण्ड के सूबेदार खान बहादुर खाँ ने रुहेलखण्ड में एक ऐलान लिखकर बँटवाया-
‘हिन्दुस्तान के रहने वालों स्वराज्य का पाकदिन, जिसका बहुत अर्से से इन्तज़ार था, आ पहुँचा है। आप लोग इसे मंजूर करेंगे या इंकार करेंगे? आप इस ज़बरदस्त मौके़ से फ़ायदा उठाएँगे या इसे हाथ से जाने देंगे? हिन्दू और मुसलमान भाइयो, आप सबको मालूम होना चाहिए कि अगर अँगरेज़ हिन्दुस्तान में रह गए तो हम सबको क़त्ल कर देंगे और आप लोगों के मज़हब को मिटा देंगे। हिन्दुस्तान के बाशिन्दे इतने दिनों तक अँगरेजों के धोखे में आते रहे और अपनी ही तलवारों से अपने गले काटते रहे। अब हमें मुल्क फ़रोशी के अपने इस गुनाह का प्रायश्चित करना चाहिए। अँगरेज़ अब भी अपनी पुरानी दग़ाबाज़ी से काम लेंगे। वे हिन्दुओं को मुसलमानों के खि़लाफ़ और मुसलमानों को हिन्दुओं के खि़लाफ़ उभारने की कोशिश करेंगे। लेकिन हिन्दू भाइयो इनके फ़रेब में न पड़ना। हमें अपने होशियार हिन्दू भाइयों को यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि अँगरेज कभी अपने वायदे पूरे नहीं करते। ये लोग चाल और दग़ाबाज़ी की ताक में हैं। ये हमेशा से सिवाय अपने मज़हब के और सब मज़हबों को दुनिया से मिटाने की कोशिश करते रहे हैं। क्या उन्होंने गोद लिए हुए बच्चों के हक़ नहीं छीन लिए हैं? क्या उन्होंने हमारे राजाओं के राज और मुल्क नहीं हड़प लिए हैं। नागपुर का राज किसने ले लिया? लखनऊ की बादशाहत किसने छीन ली? हिन्दू और मुसलमान दोनों को पैरों तले किसने रौंदा? मुसलमानों, अगर तुम कुरान की इज़्ज़त करते हो तो और हिन्दुओं अगर तुम गो माता कि इज़्ज़त करते हो तो, अपने छोटे छोटे तफ़रकों को भूल जाओ और इस पाक जंग में शामिल हो जाओ। लड़ाई के मैदान में कूदकर एक झण्डे के नीचे लड़ो और खून की नदियों से अँगरेजों का नाम हिन्दुस्तान से धो डालो।.....
गाय का मारा जाना बंद कर दिया जाए। इस पाक जंग में जो आदमी खुद लड़ेगा या जो लड़ने वालों की मदद करेगा दोनों को इस लोक में और परलोक में दोनों जगह निज़ात मिलेगी। लेकिन कोई अगर मुल्की जंग की मुख़ालिफ़त करेगा तो वह अपने सर पर कुल्हाड़ी मारेगा और खुदकुशी के गुनाह का ज़िम्मेदार होगा।
बरेली, मुरादाबाद और बदायूँ को 31 मई से दो जून के बीच आज़ाद करा लिया गया। प्रशासन विद्रोहियों की कमान में आ गया।


लखनऊ में तीस मई का दिन बीता। रात नौ बजे तोप के दगते ही रात की हाज़िरी के लिए परेड में उपस्थित सिपाहियों ने गोलियाँ दागनी शुरू कर दी और चालीस आदमियों की टोली रेजीमेंट के भोजनालय की ओर बढ़ गई। ज्यों ही उन्होंने छावनी के फाटक में प्रवेश किया, सातवीं लाइट घुड़सवारों की एक टुकड़ी ने फाटक को घेर लिया। सिपाहियों ने बहुत होशियारी से अपनी योजना बनाई थी पर गोरे अफ़सर भी सतर्क थे। गोला दगते ही उन्होंने भोजनालय छोड़ दिया था।
सैनिकों के विद्रोह को देखते हुए कई गोरे अफ़सरों ने समझाने-बुझाने की कोशिश की पर उसका कोई असर नहीं हुआ। हेनरी लारेन्स ने तोपखाना पहले ही हिन्दुस्तानी सिपाहियों से ले लिया था। उन्होंने तोपों की मार शुरू करा दी। मामूली हथियार बंद सैनिक तोप का सामना कैसे कर पाते? वे मुदकीपुर छावनी की ओर भागे। वहाँ रात में जोशीली बातें हुई। सुबह सात नम्बर की फ़ौज मुदकीपुर पहुँची। फ़ौज को देखते ही विद्रोही सूबेदार ने अपनी तलवार ऊपर उठाई। यह देखकर आती फ़ौज के कई सैनिक देश भक्तों की क़तार में शामिल हो गए। कुल मिलाकर एक हज़ार स्वदेशी जमा हो गए। वे बहादुरी से लडे़ पर तोपों के आगे उनकी न चल सकी। हेनरी लारेन्स ने भागते सैनिकों का पीछा किया और घोषणा करा दी कि जो भी विद्रोहियों को गिरफ़्तार या क़त्ल करेगा उसे हर आदमी पीछे सौ रुपये इनाम दिया जायेगा। सिपाहियों की बग़ावत से शहर भी प्रभावित हुआ। मंसूर नगर, सआदतगंज, मशकगंज से आकर लोग ऐशबाग़ में जमा हुए। ऐशबाग़ से भीड़ छावनी की ओर बढ़ी। भाले, बरछी, तलवारें , कटार, लाठियाँ, टोपीदार बन्दूकें यही उनके हथियार थे। इस भीड़ में सैनिक केवल दो सौ थे। भीड़ नारे लगाती इमामबाड़े के नीचे गुज़रती हुई गऊघाट पहुँची। गोमती पार कर मड़ियाव छावनी हुसैनाबाद होते हुए लौटी। भूख मिटाने के लिए सब्ज़ी, फलवालों को लूटा फिर दौलतख़ाना आसफ़ी के देशी तिलंगों को ललकारा। भीड़ पर जब मार पड़ी, लोग इमामबाड़े की ओर भागे। गोरों ने घुस कर क़त्लेआम मचा दिया। दो दिन तक ये मुजाहिदीन अँग्रेजी राज के खि़लाफ़ विद्रोह करते रहे। दो जून को कारनेगी ने फ़ौज लेकर मंसूर नगर तथा दूसरे मुहल्लों में भी घरपकड़ कराई। खुले आम फाँसियाँ दी गईं। लक्ष्मण टीले, अकबरी दरवाज़े तथा कुछ अन्य जगहों पर फाँसियाँ लगाने का कार्य चलता रहा।

इतनी बर्बरता के बाद भी लोग अँग्रेजों के अधीन हिन्दुस्तानी सेना को भड़काने में लगे रहे। अनेक लोग अपनी जान जोखिम में डालकर यह काम करते। कभी पकड़ लिए जाते तो जान से हाथ धोना पड़ता। ग्यारह और बारह जून को सैन्य पुलिस सवारों और पैदलों ने विद्रोह किया। मुँह मेल लड़ाइयाँ होती रहीं। काकोरी के मुंशी रसूल बख़्श और उनके बेटे हाफ़िज़ सैनिकों में विद्रोह कराने का निरन्तर प्रयत्न करते। वे अक़्सर सूबेदारों से संपर्क करते। उन्हें विद्रोह में शामिल होने के लिए प्रेरित करते। एक दिन हुसैनाबाद के ताल के पास मुंशी जी के भेजे दो व्यक्ति नादरी पलटन के सूबेदार करीम खाँ को प्रेरित करने का प्रयास कर रहे थे। सूबेदार को लगा कि कोई सुन रहा है। डर कर उन्होंने अधिकारी से रिपोर्ट कर दी। दूसरे दिन वे दोनों व्यक्ति जब सूबेदार के पास आए तो सूबेदार उनके नेता से बात करने के बहाने घर देखने गया। योजनानुसार जासूस भी पीछे लगा था। दोनों व्यक्ति सूबेदार को राजा टिकैत राय बाज़ार में राजा हुलास राय के यहाँ ले गए। मुंशी जी, उनके बेटे तथा दो-एक लोग और बैठे थे। एक वृद्ध मीर ख़लील अहमद भी यों ही आकर बैठ गये थे। मकान के पड़ोस में काशी से आयी बारात टिकी थी। जासूस से मालूम कर मेजर कारनेगी और कोतवाल महमूद खाँ ने इलाके को घेर लिया। सभी पकड़े गए और लक्ष्मण टीले के सामने मुंशी रसूल बख़्श, उनके बेटे, मीर अब्बास थानेदार तथा यों ही बैठ जाने वाले निर्दोष वृद्ध मीर ख़लील अहमद भी फाँसी पर लटका दिए गए। दौड-धूप, जाँच पड़ताल के बाद बारात वालों को छोड़ दिया गया। मौलवी फ़ख़रुद्दीन , बद्री, हम्ज़ा, और ईमान निरन्तर लोगों को विद्रोह में शामिल होने के लिए उकसाते रहे। हम्ज़ा और बद्री का अँग्रेजी ज्ञान भी इसमें सहायक होता। अपनी सतर्कता के कारण ही वे अब तक बचते रहे। हम्ज़ा की बहन नसरीन भी घरों में जाकर अँग्रेजों के खि़लाफ़ परिवेश बनाती। एक बार वह एक गोले की चपेट में आते आते बची। पर इन लोगों के उत्साह में कोई कमी न थी।
भारतीय फ़ौजी अफ़सर लखनऊ के शाही वंश से विद्रोह का नेतृत्व कराने की बात सोच रहे थे। इसी बीच वाजिद अली शाह के बड़े भाई मुस्तफ़ा अली खाँ तथा शाही मंसूरिया वंश के नवाब मुहम्मद हसन खाँ रुक़्नुद्दौला को अँग्रेजों ने गिरफ़्तार कर मच्छी भवन में रखा। तुलसीपुर के राजा दृगनारायण सिंह को भी बेलीगारद से वहीं ले आया गया। मच्छी भवन बेलीगारद की अपेक्षा अधिक सुरक्षित था। अँग्रेजों ने अपना ख़ज़ाना, बारूद भंडार, ख़तरनाक कै़दी मच्छी भवन में पहुँचा दिया। मच्छी भवन को गढ़ी लखना भी कहा जाता था।
अवध के जमींदार-तालुकेदार भी कई खे़मों में बँट गए थे। कुछ विद्रोहियों के साथ हो नेतृत्व सँभाल रहे थे। कुछ अँग्रेजों का साथ दे रहे थे। कुछ ऐसे भी थे जो मौक़ा देखकर इधर से उधर और उधर से इधर हो जाते थे। जिनका राज्य छिन गया था वे अँग्रेजों के विरुद्ध थे ही, अधिकांश आम जन भी विरोध में सक्रिय थे। जिन्होंने सक्रिय रूप से विद्रोह नहीं किया, उनमें से अधिकांश की सहानुभूति विद्रोहियों के साथ थी।
इकतीस मई से ग्यारह जून के बीच पूरा अवध उबल पड़ा। अँग्रेज अपने को बचाने की कोशिश करते रहे। मोहमदी, मालन, बहराइच, सकरौरा, गोण्डा ही नहीं गोरखपुर, आज़मगढ़, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर सभी जगह विद्रोहियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई।




दिल्ली, मेरठ की ख़बरें ही नहीं फै़ज़ाबाद, दरियाबाद की खबरें भी निरन्तर गोण्डा आ रही थीं। कमिश्नर विंगफील्ड ने स्त्रियों को सिख सैनिकों के साथ लखनऊ भिजवा दिया। सकरौरा में रात में यह खबर उड़ी कि पैदल सेना के सिपाही हथियारों से सज्जित हो रहे हैं। अँग्रेज अधिकारी जो कमिश्नर के बँगले पर सोये थे, दौड़कर तोपखाने के संरक्षण में चले गये। गोलन्दाज़ों ने उनकी आज्ञा का पालन किया। इससे लगा कि सैनिक स्वामिभक्त हैं। सर हेनरी लारेन्स का आदेश था कि विपत्ति में सबसे पहले अपना बचाव करें।
दस जून को सकरौरा छावनी के कुछ सिपाहियों ने हिसामपुर तहसील लूट लिया। सूचना मिलते ही ग्यारह जून की रात बहराइच में नियुक्त, अतिरिक्त कमिश्नर ले0क्लार्क, फतेहशाह खाँ एवं मि0जार्डन नानपारा रवाना हो गए। पर नानपारा में उन्हें शरण नहीं मिली। नानपारा रियासत के मैनेजर कल्लनखाँ ने बताया कि राजा चर्दा अभी पहुँचने वाले हैं, इसलिए आप यहाँ से चले जाएँ। वे बहराइच की ओर लौटे। यहाँ से लखनऊ जाने का इरादा किया। उन्होंने मिलिटरी पुलिस से दूसरे घोडे़ खरीदे और घाघरा पर बहराम घाट पहुँचे। नावों से घाघरा पार करने लगे। विद्रोही सैनिकों को पता लग गया। मेजर क्लार्क को गोली मार दी गई। जार्डन को नाव से खींच लिया गया और कुछ दिनों बाद गोली मार दी गई।
सकरौरा के सिपाहियों ने गोण्डा की तीसरी रेजीडेन्ट के लिए पत्र लिखा कि ख़ज़ाने पर कब्ज़ा कर लो। उच्च अधिकारियों को कै़द कर लो। यह पत्र हवलदार मेजर ने कैप्टन माइल्स को दे दिया। माइल्स ने सिपाहियों को समझाने की कोशिश की पर उसका कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने सेना को बलरामपुर जाने का आदेश दिया पर कोई तैयार नहीं हुआ। अँग्रेज अधिकारी घोड़ों पर बलरामपुर रवाना हो गए। 11 जून की शाम कमिश्नर विंगफील्ड के नेतृत्व में अँग्रेज अधिकारियों का दल बलरामपुर पहुँच गया। वहाँ से बलरामपुर राज की सहायता से गोरखपुर की ओर कूच कर गया। गोण्डा के विद्रोही सैनिकों ने ख़ज़ाना लूट लिया और लखनऊ की ओर चल पडे़।




बनारस में कम्पनी की सैंतीस नम्बर पैदल पलटन, एक लुधियाना की सिख पलटन और एक सवार पलटन थी। आगरा से कलकत्ता तक उस समय दानापुर में ही एक गोरी पलटन थी। 31 मई को बनारस की बैरकों में आग लगी। तीन जून को गोरखपुर और आज़मगढ़ से सात लाख रुपये नकद बनारस के लिए आ रहे थे। तीन की रात में ही सत्तरह नम्बर की पलटन ने आज़मगढ़ में विद्रोह कर दिया। आज़मगढ़ की पुलिस ने विद्रोहियों का साथ दिया। ख़ज़ाना, गोलाबारूद अपने हाथ में लिया और अँग्रेज-स्त्री-पुरुष बच्चों सभी को बनारस जाने के लिए मुक्त ही नहीं किया, गाड़ियों की व्यवस्था भी कर दी। वहाँ पर बादशाही झंडा फहराने लगा। चार जून को आज़मगढ़ का समाचार बनारस पहुँचा। अँग्रेजों ने देशी सिपाहियों से हथियार रखवा लेने का निश्चय किया। सिपाही परेड पर बुलाए गए। जैसे ही उनसे हथियार रखने के लिए कहा गया वे अस्त्र भंडार और अफ़सरों पर टूट पड़े। सिख पलटन मुकाबले के लिए आ गई किन्तु अँग्रेजों ने उसी समय गोलाबारी शुरू करा दी। वे देशी और सिख सिपाहियों में भेद न कर सके। दोनों पलटनों को गोलाबारी का शिकार होना पड़ा। बनारस की जनता विद्रोहियों के साथ थी किन्तु सिख पलटन, राजा चेत सिंह अँग्रेजों के साथ थे। पाँच ही जून को जौनपुर में भी विद्रोह की लहर उठी।
जिस समय मेरठ-दिल्ली का समाचार इलाहाबाद पहुँचा वहाँ कोई गोरी पलटन न थी। छह नम्बर की देशी पलटन, करीब दो सौ सिख सिपाही और थोड़े से अँग्रेज अधिकारी। छह नम्बर की पलटन ने अँग्रेजों को बहकाए रखा। अँग्रेज अफ़सर उन्हें अन्त तक वफ़ादार मानते रहे। सिपाहियों ने अँग्रेज अफ़सरों से कहा, ‘आप हमें दिल्ली भेज दीजिए। हम विद्रोहियों के टुकड़े टुकडे़ कर डालेंगे।’ लार्ड कैनिंग ने जवानों को शाबाशी दी। छह जून की रात को ही विद्रोह होना था। उस दिन सिपाही अफ़सरों से गले मिले। उनके हर आदेश का मुस्तैदी से पालन किया। छह नम्बर की बैरक किले के बाहर थी। रात में जब अनेक अफ़सर खाना खा रहे थे, सिपाहियों का बिगुल बजा। अनेक अफ़सर मारे गए, कुछ किले में छिप गए। अँग्रेजों ने सवार पलटन को मदद के लिए बुलाया। वे आए पर मदद करने के बजाय विद्रोहियों से मिल गए। बचे अफ़सर मारे गए। बँगलों को आग लगा दी गई।
शहर के लोगों ने विद्रोहियों का साथ दिया, अँग्रेजों के बँगले जले। कै़दी रिहा कर दिए गए। ख़ज़ाने पर कब्ज़ा हो गया। उसमें तीस लाख रुपये मिले। बादशाह का जुलूस सात तारीख की शाम को निकला। आस पास के गाँवों में रैयत-जमींदार सब ने अँग्रेजी राज के ख़ात्मे का एलान किया। महगाँव के मौलवी लियाकत अली को बादशाह की ओर से इलाके का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने खुसरो बाग़ में अपना अड्डा कायम किया। शहर में पूरी शान्ति स्थापित की। दिल्ली सम्राट को निरंतर सूचना जाती रही।
मेरठ और दिल्ली में विद्रोह के बाद ही लार्ड कैनिंग ने बम्बई, मद्रास, रंगून से गोरी सेना बंगाल में जमा कर ली थी। जनरल नील गोरे, सिख और मद्रासी सैनिकों के साथ बनारस आया। उस समय बनारस अँग्रेजों के कब्ज़े में था। जनरल नील ने पहुँचते ही गिरफ़्तारियाँ शुरू कर दीं। उसने गोरे और सिख सिपाहियों के कई दस्ते बनाए और प्रजा को सबक़ सिखाने के लिए भेज दिया। नील के सिपाहियों ने जिसे भी पकड़ा, गोली मार दी या फाँसी पर लटका दिया। कुछ को तलवार के घाट उतार दिया। गाँव के गाँव जला दिए गए। इसमें बूढ़ों, बच्चों, स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा गया।
बनारस के बाद नील ने ग्यारह जून को इलाहाबाद की ओर रुख़ किया। रास्ते के गाँवों को जलाते वह इलाहाबाद के किले पर पहुँचा। किला अँग्रेजों के कब्ज़े में था। उसने आते ही सिख सिपाहियों को गाँवों की ओर भेज दिया। गोरे सिपाहियों को किला सौंप दिया। सत्रह जून को खुसरो बाग़ पर आक्रमण किया। विद्रोही वीरता से लड़े। लियाकत अली के पास तीस लाख रुपये भी थे। उसने देखा कि नील की सेना अधिक है, पार पाना मुश्किल है। वे ख़ज़ाने सहित सत्रह जून की रात कानपुर की ओर रवाना हो गए। कानपुर अँग्रेजों के कब्जे़ में आने पर दक्षिण की ओर निकल गए। वहीं पकड़ लिए गए।
उसके बाद नील ने भयंकर रक्तपात किया। गाँव के गाँव जलाए। बड़े बड़े पेड़ों पर लटकाकर फासियाँ दी गईं। छोटे छोटे बच्चे भी फाँसी पर लटका दिए गए। नील के आतंक से लोग कानपुर की ओर भागे।





कानपुर के बिठूर में नाना साहब, उनके दो भाई बाला और बाबा साहब, भतीजा राव साहब, बेटी मैना और अज़ीमुल्ला खाँ, तात्याटोपे डटे थे। कानपुर की अँग्रेजी सेना का सेनापति ह्यू ह्वीलर था। उसके अधीन तीन हज़ार देशी और सौ अँग्रेज सिपाही थे। दिल्ली की स्वतंत्रता का समाचार नाना को 15 मई को ही मिल गया था जब कि यह ख़बर ह्वीलर को 18 मई को मिली। इससे विद्रोहियों की कार्य कुशलता और क्षमता का पता लगता है। दिल्ली की ख़बर आते ही हिन्दू और मुसलमान जलसे करने लगे। गुप्त सभाएँ होने लगीं। नाना साहब ने इकतीस मई तक चुप रहने का निश्चय किया। नाना की गुप्त योजनाओं का अँग्रेजों को पता न था। अँग्रेजों का विश्वास उन पर था। नाना ने उस विश्वास को बनाए रखना उचित समझा। ह्वीलर ने कानपुर की रक्षा के लिए नाना से मदद माँगी। बाईस मई को नाना ने सेना और दो तोपों के साथ कानपुर में प्रवेश किया। ह्वीलर ने कम्पनी का ख़ज़ाना और अस्त्र भंडार नाना को सौंप दिया। नाना ने अपना पहरा बिठा दिया।
कम्पनी की देशी सेना के सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खाँ, नाना के सहायक ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली प्रायः किश्तियों में बैठकर गंगा में गुप्त सलाहें किया करते।
अँग्रेज अफ़वाहों एवं विद्रोहों से भयभीत थे। 24 मई को ईद थी और मलका विक्टोरिया की साल गिरह भी, पर कोई तोप नहीं दगी यह सोचकर कि कहीं देशी सिपाही भड़क कर विद्रोह न कर दें।
चार जून की आधी रात को तीन फायर हुए। सबसे आगे टीका सिंह, उनके पीछे सवार और पैदल मैदान में निकल आए। अँग्रेजी इमारतों में आग लगाई जाने लगी। अँग्रेजी झंडे की जगह शाही झंडे फहराये गए। नाना का खे़मा नवाब गंज में था। नाना के सिपाही भी आ गए। पाँच जून की सुबह ख़ज़ाना और अस्त्र भंडार विद्रोहियों के कब्ज़े में। भारतीय सेना और नगर वासियों ने बादशाह के अधीन नाना को राजा चुना। उसी दिन हाथी पर दिल्ली सम्राट के झंडे का जुलूस निकला।
छह जून को प्रातः नाना ने जनरल ह्वीलर को चेतावनी दी कि किला हमारे सुपुर्द कर दो अन्यथा हमला किया जायगा। विद्रोहियों ने किले को घेरना शुरू किया। अँग्रेज स्त्री-पुरुष , बच्चे उस समय किले में थे। नाना की तोपों के गोले बरसते रहे। नाना को आसपास के गाँवों, जमींदारों से सहायता मिलती रही। इक्कीस दिन तक घेरा पड़ा रहा। अठारह और तेईस जून को भारी संग्राम हुआ। जब ह्वीलर ने देखा कि युद्ध चलाना संभव नहीं है, उन्होंने अपने किले पर सफेद झंडा लहरा दिया। यह सुलह का प्रतीक था। नाना ने लड़ाई बंद करा दी और संदेश भेजा-
मलका विक्टोरिया की प्रजा के नाम जिन लोगों का डलहौजी की नीति के साथ कोई संबंध नहीं रहा है और जो हथियार रख देने और आत्मसमर्पण कर देने के लिए तैयार हैं, उन्हें सुरक्षित इलाहाबाद पहुँचा दिया जायगा। 23 तारीख को दोनों के प्रतिनिधियों की बातचीत हुई। सभी अँग्रेज, अस्त्र शस्त्र और ख़ज़ाना नानाके हवाले कर दिए गए। 27 को अँग्रेजी झंडा किले से उतर गया। बादशाही झंडा फहराने लगा। अँग्रेजों को हाथी और पालकियों पर सतीचौरा घाट पहुँचा दिया गया। वहाँ से नावों से इलाहाबाद जाना था किन्तु नील के अत्याचारों की कहानी सुनकर आस पास की जनता इन पर टूट पड़ी। नाना को पता चला। स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि न पहुँचे, यह संदेश भेजा। 185 स्त्रियाँ और बच्चे सुरक्षित सौदा कोठी लाए गए।
अट्ठाईस जून को नाना ने दर्बार किया। छह पलटन पैदल, दो पलटन सवार अनेक जमींदार और जनता इसमें उपस्थित थी। सम्राट के नाम पर एक सौ एक तोपों तथा नाना के नाम पर इक्कीस तोपों की सलामी दी गई। एक लाख रुपये बतौर इनाम फ़ौज में बाँटे गए।





योजनानुसार चार जून को ही झाँसी में भी विद्रोह शुरू हुआ। बारह नम्बर देशी पलटन के हवलदार गुरुबख्श सिंह ने अस्त्र भंडार और ख़ज़ाने पर कब्जा कर लिया। बाइस साल की रानी ने नेतृत्व सँभाला। सात जून को रिसालदार काले खाँ और तहसीलदार हुसैन खाँ ने किले पर कब्ज़ा किया। बालक दामोदर की वली की हैसियत से रानी फिर झाँसी की गद्दी पर बैठीं। सारी रियासत में ढिढोरा पिटवा दिया गया- ख़ल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, हुकुम रानी लक्ष्मी बाई का।
फै़ज़ाबाद में मौलवी अहमद शाह विद्रोहियों का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने लखनऊ-आगरा तक दौरा कर विद्रोह को गति दी। विद्रोह के लिए लोगों को तैयार किया। भाषण दिया, पत्र-पत्रिकाएँ निकालीं। अँग्रेजों ने उन्हें गिरफ़्तार करने कर आदेश दिया पर अवध की पुलिस ने गिरफ़्तार नहीं किया। फ़ौज ने गिरफ़्तार कर फै़ज़ाबाद जेल में रखा। उनको बग़ावत के जु़र्म में फांसी की सज़ा सुनाई गई। मौलवी की गिरफ़्तारी ने आग में घी का काम किया। फै़ज़ाबाद में सिपाहियों और जनता ने विद्रोह कर मौलवी को छुड़ा लिया। सूबेदार दिलीप सिंह ने अँग्रेज अफ़सरों को कै़द कर लिया। मौलवी को नेता चुना गया। अँंग्रेजों को फौरन फै़ज़ाबाद छोड़ने के लिए कहा गया। उन्हें किश्तियों में बिठाकर खाने पीने का समान और जेब खर्च देकर रवाना किया गया। 9 जून की सुबह ऐलान हो गया कि वाजिद अली शाह का शासन हो गया है। मौलवी ने ध्यान रखा कि कोई भी अँग्रेज मारा न जाए। शाहगंज के ताल्लुकेदार ने उनतीस अँग्रेज स्त्रियों और बच्चों को अपने किले में सुरक्षित रखा।