Aanch - 14 - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

आँच - 14 - यह है वतन हमारा !(भाग-2)

कैम्पबेल की योजना के अनुसार कम्पनी सेना ने लखनऊ को घेर लिया। आज कम्पनी की सेना जैसे ही कैसर बाग़ की ओर बढ़ी, विद्रोही सैनिकों ने डटकर सामना करने की कोशिश की। तोपों और बन्दूकों के सामने विद्रोहियों की फुर्ती भी काम नहीं आ रही थी। हम्ज़ा, ईमान और बद्री अपने साथियों सहित वहीं पहुँच गए थे। सभी के हाथों में तलवारें , कटारें थीं। सभी विद्रोही सेना को उत्साहित करते रहे। लखनऊ का जन समूह भी सामने आ गया। बन्दूकों से तो वे निपट लेते थे पर तोपों का सामना करना मुश्किल था। अनेक महिला सैनिक भी इधर-उधर दौड़ रही थीं। अँग्रेजी सेना चौलख्खी कोठी तक पहुँचना चाहती थी। तोपों के सामने विद्रोही सैनिक धराशायी हो रहे थे पर विद्रोहियों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी। अचानक तोप का एक गोला हम्ज़ा को गिराते हुए निकल गया। हम्ज़ा गिरे, उनके शरीर से खून की धारा बह चली। ईमान ने शरीर को अँगोछे से बाँधा। बद्री ने तुरन्त उन्हें पीठ पर लादा। अन्य साथियों को वहीं रहकर मदद करने को कहा। भागकर एक रथ किया और जल्दी से घर पहुँचाने की कोशिश की। घर पहुँचते ही बद्री दौड़कर एक हकीम को बुला लाए। हकीम ने देखा। घाव को साफ किया और मरहम पट्टी की। हम्ज़ा की बहन नसरीन और माँ दोनों सेवा में जुटी रहीं। हकीम के निर्देशानुसार दवा दी जाती रही। ‘हकीम साहब बच्चा बच जाएगा न’, हम्ज़ा की अम्मी ने पूछा। ‘खुदा चाहेगा तो ज़रूर बचेगा।’ हकीम ने कहा। ‘अगर चौबीस घंटे ठीक-ठाक गुज़र गए तो यक़ीनन बच्चा बच जाएगा।’
‘या अल्लाह बच्चे को बचा देना। इस घर का यही सहारा है।’ हम्ज़ा की अम्मी ने दुआ माँगी। हम्ज़ा की स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी। पढ़ा लिखा हम्ज़ा अपने घाव को अच्छी तरह समझ रहा था। शहर में हैज़े का ज़ोर था। हकीम साहब की बुलाहट आ गई। वे ज़रूरी निर्देश देकर चले गए। बद्री और ईमान दोनों हम्ज़ा के अगल-बगल बैठे रहे। हम्ज़ा कुछ बोलने की स्थिति में हुए तो कहना शुरू किया, ‘भाई बद्री, इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं हैं। हम एक लड़ाई लड़ रहे हैं। तोप के गोले सिर्फ दूसरों को ही नहीं लगेंगे। हमें भी लग सकते हैं। मैं जानता हूँ बद्री कि मैं कुछ घण्टों का ही मेहमान हूँ। गर तुम इस लड़ाई में जिंदा बचे तो इस घर को भी देखना गर शहीद हो गए तो ख़ुदा के यहाँ भेंट होगी ही। लड़ाई से भागना नहीं। इस लड़ाई को आखि़री मुकाम तक ले जाना। गर हम कामयाब नहीं हुए तो हमारी अगली नस्लें लड़ेंगी। अम्मी, नसरीन को लेकर बरामदे में बैठकर खुदा से दुआ माँगो। उनकी रज़ा होगी तो बच जाऊँगा।’ अम्मी नसरीन को लेकर घर के अन्दर गई। खुदा की इबादत में लग गईं। हम्ज़ा ने धीरे-धीरे फिर कहना शुरू किया। ‘भाई बद्री, एक दिन ऐसा आएगा जब हम अँग्रेजों को इस देश से बाहर निकाल सकेंगे। यह हमारी ही नहीं आने वाली नस्लों की भी अहम लड़ाई है। लड़ाई में मरना-जीना तो लगा ही रहता है। तुम और ईमान आँसू पोछ कर मैदान में डटो। अभी लड़ाई का आखि़री मुकाम नहीं आया है। मैं भी ज़िंदा रहकर तुम लोगों को बाँधकर नहीं रखूँगा। भाई ईमान ज़रा पता लगाकर बताओ कि इस समय लड़ाई का क्या हाल है।’ ईमान उठ पड़े और लड़ाई का हाल जानने के लिए चले गए। हम्ज़ा ने बद्री के हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, ‘भाई बद्री, मैं यह आखि़री काम करना चाहता हूँ। खुद ऊपर जाने से पहले नसरीन का हाथ ईमान को सौंपना चाहता हूँ। तुम दोनों से पूछ लो। चौबीस घंटे नहीं गुज़रेंगे। मेरे ऊपर जाने से पहले यह काम हो जाना चाहिए। मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली साहब को भी बुला लो। मुझे लगता है कि मेरी ज़िन्दगी का अन्त बहुत करीब है। अम्मी की भी रज़ामंदी ले लो। उठो, चटपट यह काम कर डालो। ईमान और नसरीन के लिए शादी का जोड़ा भी मँगवा लेना। पैसा घर में हो तो ले लेना, नहीं तो अपने पास से इंतज़ाम कर लेना। बहुत ज़रूरी है यह।’
बद्री उठ गए। वे तुरंत नसरीन की अम्मी से मिले। उन्हें हम्ज़ा की ख़्वाहिश बताई। आँखों में आँसू भरकर अम्मी ने अपनी सहमति दी और कहा, ‘नसरीन और ईमान से भी पूछ लो।’ बद्री ने जैसे एक किला फ़तह कर लिया। उन्होंने नसरीन को ड्योढ़ी में बुलाया। नसरीन तुमसे एक ज़रूरी राय लेनी है। ‘किस बाबत?’ नसरीन ने पूछा। बद्री धीरे-धीरे कहते रहे, ‘भाई हम्ज़ा की यह ख़्वाहिश है कि तू और भाई ईमान एक दूसरे के हो जाएँ। उन्हें शक है कि वे चौबीस घंटे पार नहीं कर पाएँगे। इसीलिए तेरी रज़ामन्दी जानने के लिए मुझे भेजा है।’ नसरीन की आँखों से धारासार आँसू बह चले। ‘अम्मी की रज़ामंदी मिल गई है’,बद्री ने कहा। रोते हुए नसरीन ने कहा,‘मैं तैयार हूँ पर..।’ ‘खुदा को यही मंजूर था बहन। खुदा के आगे किसी का बस नहीं चलता। तुम तो बहादर लड़की हो। विद्रोहियों की मदद करती रही हो। अब हम लोगों को फिर से तैयार होना है। रोने का वक़्त नहीं हैं।’ नसरीन और उसकी अम्मी दोनों हम्ज़ा के अगल बगल बैठ गईं। बद्री वहाँ से निकले। घर गए। अपने बापू को पूरी बात बताई। बापू ने एक थैली में रूपये देकर बद्री से कहा, ‘जाओ जल्दी इंतज़ाम करो। दुकाने खुली न हों तो रमजान भाई से कहकर खुलवा लेना।’ बद्री घर से निकले। बाज़ार की ओर गए। रमजान भाई रास्ते में ही मिल गए। दोनों दुकान पर गए। रमजान ने दुकान खोली और निकाह के लिए ज़रूरी कपड़ों का इंतज़ाम कर दिया। एक कपड़े में सारा सामान बाँधकर बद्री हम्ज़ा के घर पहुँचे। सामान के बारे में नसरीन की अम्मी को बताया और ईमान को खोजने निकल पड़े। चौक से थोड़ी ही दूर आगे गए थे कि ईमान आते हुए दिख गए। आते ही ईमान ने कहा, ‘हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। हमारे सिपाही एक एक इंच पर लड़ रहे हैं पर तोपों की मार से बिलकुल बेबस हैं।’ बद्री ने सुना पर उनके दिमाग़ में इस समय हम्ज़ा की बात गूँज रही थी। ईमान को किनारे ले जाकर बद्री ने धीरे से कहा, ‘भाई ईमान, हम्ज़ा सोचते हैं कि वे चौबीस घंटे पार नहीं कर पाएँगे।’ उनकी ख़्वाहिश है कि उनके सामने ही आप और नसरीन.....।’ ईमान भी रोने लगे, कहा- ‘भाई की ख़्वाहिश में इन्कार का सवाल ही नहीं उठता पर भाई का जाना....।’ ‘देखो ईमान, यह मुश्किल समय है। हम विद्रोही सैनिकों के साथ मैदान में जाते हैं तो मौत से खेलना ही होता है। हम्ज़ा हताश नहीं हैं। वे एक नेक काम में लगे थे। खुदा यदि उन्हें ऊपर बुला लेता है तो उन्हें जन्नत नसीब होगी। हमें फिलहाल उनकी ख़्वाहिश पूरी करनी है। मैं मौलवी साहब के पास जा रहा हूँ। तुम घर चलो।’ ईमान तेज क़दमों से चलते हुए घर पहुँचे। ईमान को देखते ही हम्ज़ा ने धीरे से पूछा, ‘क्या ख़बर लाए हो? ‘हमारे सिपाही बड़ी बहादुरी से लड़ रहे हैं पर अँग्रेजों की गोलाबारी के आगे सभी बेबस हो रहे हैं।’ हम्ज़ा थोड़ी देर छत की ओर देखते रहे। उनकी आँखों में भी आँसू आ गए।
बद्री ने एक ताँगा किया। मौलवी साहब से मिले, उन्हें सारी बात बताई। मौलवी साहब भी ताँगे पर बैठ गए। ताँगेवाले ने घोड़े को दौड़ाते हुए जल्दी पहुँचा दिया। बाज़ार में कहीं कहीं धड़ाधड़ दुकानें बन्द हो रही थीं। अफ़वाह फैली हुई थी कि कम्पनी सेना कैसरबाग़ तक पहुँच गई है। चौक का इलाका अब भी मुक्त था। मौलवी को देखकर हम्ज़ा बहुत खुश हुए। उसकी अम्मी और नसरीन घर के अन्दर चली गईं। ‘सब इंतजाम हो गया है’, बद्री ने कहा। ‘तो देर न करो। पता नहीं कब ये हंस उड़ान भर ले।’ बद्री तुरन्त घर के अन्दर गए। अम्मी जान से कहा ‘नसरीन को नए कपड़े पहना दीजिए।’ ईमान को बुलाया और कहा,‘आप भी अपने कपड़े पहन लो।’ बद्री दौड़कर अपने घर गए। उनके बापू ने नसरीन के लिए एक हार देने के लिए कहा था। बापू ने हार बद्री के हाथ में दिया और स्वयं भी बद्री के साथ चल पड़े। दोनों हम्ज़ा के घर पहुँचे। मौलवी से राम राम हुआ। बद्री के बापू को देखकर हम्ज़ा भी बहुत खुश हुए। वे हाथ उठाना चाहते थे पर उठा नहीं। बद्री घर के अन्दर चले गए। अम्मी नसरीन को तैयार करा रही थीं। बद्री ने हार अम्मी के हाथ में देते हुए कहा, ‘बापू ने नसरीन के लिए दिया है।’ नसरीन तैयार होती रही, रोती रही। कपड़ा पहना। अम्मी ने कंगन और कर्णफूल जो पहले बना था, पहनाया। गले में बद्री का दिया हार पहनाकर तैयार कर दिया। ईमान भी तैयार हुए। बद्री और उनके बापू वकील और गवाह बने। मौलवी ने निकाह कराया। हम्ज़ा के घायल होने की ख़बर पर मुहल्ले की औरतें आने लगीं। तेवराइन काकी तम्बाकू मलती अन्दर घुस गईं। हम्ज़ा भैया को गोला लग गया है यह ख़बर सुनकर लोग एक नज़र हम्ज़ा को देखने के लिए आने लगे। लोग हम्ज़ा को देखकर तसल्ली करते। हम्ज़ा अपनी स्थिति को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने बद्री को इशारा किया। बद्री ईमान और नसरीन को हम्ज़ा के पास ले गए। दोनों को दूल्हे-दुलहिन के रूप में देखकर हम्ज़ा का चेहरा प्रसन्नता से भर उठा। उन्होंने मन ही मन दोनों के लिए खुदा से दुआ माँगी। एक बार फिर दोनों को भर आँख देखा।.... फिर एक हिचकी..... और पंछी उड़ गया।
अठारह मार्च को कम्पनी सेना जब क़ैसर बाग़ में घुसी, बेगम हज़रत महल बड़ी मुश्किल से चौलक्खी कोठी छोड़ने के लिए तैयार हुईं। वे घसियार मंडी के फाटक से बाहर निकलीं। टीले शाह, पीर जलील से गुज़रती हुई जवाहर अली खाँ के यहाँ पहुँचीं। वहाँ से पीनस में सवार होकर गुलाम रज़ा के घर उतरीं फिर सरफुद्दौला के यहाँ गईं। रात को शाह जी के मकान में ठहरीं। जनरल ओट्रम ने कहलाया कि आप अपने महल में आराम से रहो। हम बाग़ियों को निकालकर तुम्हारा इंतज़ाम करेंगे। पर हज़रत महल ने उनकी इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे शाम को बिर्जीस क़द्र के साथ लखनऊ से रवाना हो गईं। उनके साथ पूरी सेना थी।
मौलवी अहमद शाह ने अपने वफ़ादार साथियों सहित फिर लखनऊ में प्रवेश किया। सआदत गंज में पहुँचकर उन्होंने अँग्रेजी सेना से मोर्चा लिया। मौलवी के पास इस समय केवल दो तोपें बची थीं। अँग्रेजों की दो टुकड़ियाँ मौलवी का सामना करने के लिए आईं। दोनों तरफ़ के अनेक लोगों की जानें गईं। इक्कीस मार्च को मौलवी को जब लगा कि अब विजय मुश्किल है, वे फिर लखनऊ से निकल पड़े। अँग्रेजी सेना ने छह मील तक उनका पीछा किया, किन्तु अहमद शाह को पकड़ नहीं सकी। लखनऊ के सारे शहर पर अब कम्पनी शासन का कब्ज़ा हो गया था। कम्पनी के सैनिकों ने लखनऊ के निवासियों को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस पर भी शक हुआ उसका क़त्ल कर दिया गया। क़त्ल करते वक़्त भी भयंकर यातनाएँ दी गईं। ज़नानख़ानों में अनेक स्त्रियों को मार दिया गया। बहुतों को कै़द कर लिया गया। पर बेगमों पर भी हज़रत महल का असर था। जो बच गई थीं वे सोचती थीं कि एक दिन ज़रूर जीतेंगे।
लखनऊ में अँग्रेजों की जीत की ख़बर फैलते ही लोग भागने लगे। सआदतगंज नाल दरवाज़ा जहाँ महाजन रहते थे और चौक के महाजन जिनको छूट के परवाने मिले थे, को छोड़कर कोई गली, मुहल्ला, घर नहीं बचा जिसको गोरों, सिखों एवं गोरखों ने न लूटा हो। दरगाह का ख़ास अलम जो तेरह सेर सोने का था अँग्रेजों ने महाजनों के हाथ बेचा। लखनऊ की लूट से अँग्रेज मालामाल हो गए। उन्होंने इसी से विलायत में अपने पैतृक ऋण चुकाए और सम्पत्तियाँ खरीदीं।



इक्कीस मार्च को पूरे लखनऊ पर कम्पनी सेना का कब्ज़ा हो गया और उधर बाईस मार्च को जगदीशपुर के राजा कुँवर सिंह आज़मगढ़ से कुछ दूर अतरौलिया के मैदान में अँग्रेजी सेना का मुकाबला कर रहे थे। इसके पहले आरा में वे कम्पनी सेना को करारी टक्कर दे चुके थे। कुछ समय युद्ध करने के बाद उन्होंने अपनी सेना को हटाना शुरू किया। अँग्रेजों को लगा कि कुँवर सिंह भाग रहे हैं। अँग्रेज खुश हुए और कमावडर मिल मैन ने सेना को एक आम के बाग़ में ठहर कर भोजन करने की आज्ञा दे दी। पर कुँवर सिंह उन्यासी वर्ष से भी अधिक उम्र के होते हुए अत्यन्त चुस्त और फुर्तीले थे। जिस समय अँग्रेजी सेना भोजन कर रही थी, कुँवर सिंह ने अचानक हमला कर दिया। अँग्रेजी सेना हड़बड़ा कर उठी पर मैदान कुँवर सिंह के हाथ रहा। अँग्रेजी सेना कौशिला की ओर निकली, कुँवर सिंह ने पीछा किया। अनेक हथियार और तोपें कुँवर सिंह के हाथ लगीं। मिलमैन बचे आदमियों के साथ आज़मगढ़ की ओर निकल गया।
कर्नल डेम्स, मिलमैन की मदद के लिए सेना सहित बनारस से चलकर गाज़ीपुर होता हुआ आज़मगढ़ पहुँचा। अट्ठाईस मार्च को कर्नल डेम्स की सेना का कुँवर सिंह से मुकाबला हुआ। विजय फिर कुँवर सिंह के हाथ रही। डेम्स भागकर आज़मगढ़ के किले में चला गया। कुँवर सिंह ने आज़मगढ़ का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। आज़मगढ़ के किले का घेराव करने के लिए कुछ सेना छोड़ वे बनारस की ओर जाने की योजना बनाने लगे। अफ़वाह उड़ी कि कुँवर सिंह बनारस पर आक्रमण करने जा रहे हैं। इससे अँग्रेजी शिविर में हड़कम्प मच गया।
कुँवर सिंह जगदीशपुर से निकल कर बनारस के ठीक उत्तर में आ गए थे। लखनऊ से निकले हुए अनेक विद्रोही सैनिक कुँवर सिंह के साथ हो गए थे। लार्ड केनिंग ने लार्ड मार्क कर को सेना सहित कुँवर सिंह का मुकाबला करने के लिए भेजा। छह अप्रैल को घनघोर युद्ध हुआ। सफेद घोड़े पर सवार कुँवर सिंह की फुर्ती देखने लायक थी। अँग्रेजी सेना को हटना पड़ा। वह आज़मगढ़ की ओर निकली। कुँवर सिंह ने पीछा किया। अँग्रेजी सेना फिर आज़मगढ़ के किले में क़ैद हो गई।
पश्चिम की ओर से सेनापति लगर्ड सेना के साथ मार्क कर की सहायता के लिए बढ़ा। कुँवर सिंह को गुप्तचरों से सूचना मिली। कुँवर सिंह ने अपनी पैतृक रियासत जगदीशपुर पहुँचने का मन बनाया। लगर्ड की सेना टोंस नदी के पुल से आज़मगढ़ आने वाली थी। कुँवर सिंह ने एक छोटे सैन्यदल को पुल पर लगर्ड का मुकाबला करने लिए लगाया। जब तक कुँवर सिंह की शेष सेना निकल नहीं गई, पुल पर विद्रोहियों ने लगर्ड का कड़ा मुकाबला किया। जब इस दल को सूचना मिल गई कि अपनी शेष सेना दूर निकल गई है तब बचे हुए सैनिक भी जाकर कुँवर सिंह की सेना में मिल गए। लगर्ड ने कुँवर सिंह का पीछा किया किन्तु वे हाथ न आ सके।
कुँवर सिंह ने लगर्ड की सेना को चकमा देकर फिर आक्रमण कर दिया। कम्पनी सेना हार कर पीछे हटी और कुँवर सिंह गंगा की तरफ आगे बढ़ गए।
कुँवर सिंह को परास्त करने के लिए सेनापति डगलस के अधीन अँग्रेजी सेना आगे बढ़ी। नघई गाँव के निकट संग्राम हुआ। कुँवर सिंह ने अपनी सेना को तीन भागों में बाँटा। एक भाग डगलस का मुकाबला करता रहा। शेष दोनों दल कावा देकर आगे बढ़ गए। डगलस कुँवर सिंह की पहली टुकड़ी को चार मील तक खदेड़ता रहा। इस अभियान में ज्योंही उसकी सेना थकी, कुँवर सिंह की दोनों टुकड़ियाँ उस पर टूट पड़ीं। डगलस की पराजय हुई। कुँवर सिंह की सेना फिर गंगा की ओर बढ़ गई। डगलस ने फिर पीछा किया पर कुँवर सिंह को न पा सके। कुँवर सिंह ने सरयू नदी पार की और मनोहर गाँव में थोड़ा विश्राम किया। डगलस ने मनोहर गाँव पर भी हमला किया। कुँवर सिंह ने अपनी सेना को कई टुकड़ियों में बाँटकर अलग-अलग दिशाओं में भेज दिया। डगलस के लिए अब इनका पीछा करना कठिन हो गया। कुँवर सिंह की सभी सैन्य टुकड़ियाँ आगे जाकर मिल गईं। यह अफ़वाह उड़ाई गई कि कुँवर सिंह की सेना बलिया के निकट हाथियों पर गंगा पार करेगी। अँग्रेजी सेना वहीं आकर डट गई। किन्तु कुँवर सिंह ने उससे सात मील आगे शिवपुर घाट पर रात में नावों से गंगा पार की। अँग्रेजी सेना को जैसे मालूम हुआ, वह शिवपुर की ओर भागी। सेना निकल चुकी थी। कुँवर सिंह अन्तिम नाव पर गंगा पार कर रहे थे। बीच धार में पहुँचने पर अँग्रेज सिपाही की गोली कुँवर सिंह की दाहिनी कलाई में आकर लगी। कुँवर सिंह ने चट से अपने बाएँ हाथ से दाएँ हाथ को कोहनी तक काट कर गंगा में फेंक दिया।
घाव पर कपड़ा लपेटकर गंगा पार किया। अँग्रेजी सेना उस पार पीछा न कर सकी। गंगा के उस पार ही कुँवर सिंह की राजधानी जगदीशपुर थी। आठ महीने पहले अँग्रेजों ने जगदीशपुर पर कब्ज़ा कर लिया था। बाईस अप्रैल को राजा कुँवर सिंह ने फिर जगदीशपुर में प्रवेश किया। इसी दिन ली ग्रैंड के अघीन कम्पनी सेना जगदीशपुर पर फिर से हमला करने के लिए आरा से चली। विगत आठ महीने कुँवर सिंह निरंतर युद्धरत रहे। उनका दाहिना हाथ कट चुका था। सेना भी एक हज़ार से अधिक न थी। कुँवर सिंह के पास उस समय कोई तोप भी नहीं थी। जगदीशपुर से डेढ़ मील की दूरी पर लीग्रैंड और कुँवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ। लीग्रैंड की सेना अधिक सुसज्जित और ताज़ा थी। उसमें अँग्रेज और सिख थे। पर मैदान कुँवर सिंह के हाथ रहा। कुँवर सिंह ने अँग्रेजी सेना को खदेड़ना शुरू किया। अँग्रेजी सेना घबड़ाकर भागने लगी। अनेक अँग्रेज सिपाही मारे गए। जनरल लीग्रैंड की छाती में भी एक गोली लगी और वे चल बसे। इस भंयकर लड़ाई में 199 गोरों में केवल 80 ही ज़िन्दा बच सके। अँग्रेजों की सभी तोपें और सामान कुँवर सिंह के हाथ लगा। कुँवर सिंह ने जगदीशपुर में शासन सँभाला। पर हाथ का घाव भर न सका। उस घाव के कारण 26 अप्रैल को ही कम्पनी सत्ता के विरुद्ध बहादुरी और आन के साथ लड़ने वाले कुँवर सिंह की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय स्वाधीनता का झंडा राजधानी में फहरा रहा था। अस्सी वर्षीय कुँवर सिंह ने जिस बहादुरी और स्फूर्ति के साथ अँग्रेजों से लोहा लिया उसकी प्रशंसा अँग्रेज अधिकारी भी करते रहे। इस पूरे अभियान में कुँवर सिंह कभी हारे नहीं। कुँवर सिंह के बाद उसका छोटा भाई अमर सिंह जगदीशपुर की गद्दी पर बैठा। उससे अँग्रेजों की निरंतर लड़ाइयाँ होती रहीं। छापामार युद्ध में उसने अँग्रेजों को पानी पिला दिया। निराश होकर जनरल लेगर्ड ने पन्द्रह जून को अपना इस्तीफ़ा दे दिया।



मौलवी अहमद शाह लखनऊ से निकलकर तीस मील दूर बारी तथा शाह जहाँपुर में अँग्रेजी सेना को टक्कर देते रहे। अइया के ताल्लुकेदार नरपति के किले पर अँग्रेजों ने हमला किया। नरपति के सिपाही बड़ी वीरता से लड़ें। उन्हीं की गोलियों से जनरल होप मारा गया।
मौलवी बेगम हज़रत महल के परवाने के साथ राजाओं से सम्पर्क करते रहे। वे पाँच जून को हाथी पर सवार हो पुवायाँ के राजा जगन्नाथ सिंह से मिलने चले गए। जगन्नाथ सिंह ने उनका स्वागत किया। दोनों बातचीत कर ही रहे थे कि राजा के भाई ने मौलवी पर गोली चला दी। वे गिरे। जगन्नाथ सिंह ने उनका सिर काटकर कपड़े में लपेटा और निकट के अँग्रेजी शिविर में पहुँचा दिया। जगन्नाथ सिंह को इसके लिए कम्पनी ने पचास हज़ार रुपये इनाम दिया।
लखनऊ की हार से राणावेणी माधव भी हताश नहीं हुए। उन्होंने शंकरपुर को केन्द्र बनाकर अँग्रेजों को छकाना शुरू किया। वे छापामार युद्ध के कुशल योद्धा थे। उन्होंने बैसवाडे़ को आन्दोलित कर दिया। जून में लखनऊ कानपुर रोड पर उन्होंने कई अँग्रेजों की चौकियाँ उजाड़ी। पुरवा, सेमरी और भीरा में उन्होंने अँग्रेजों को कड़ी टक्कर दी। लखनऊ में पर्चा बँटवाया कि जल्दी हम लोग लखनऊ को आज़ाद करा लेंगे। उन्होंने अपनी फ़ौज को फैला रखा था। जहाँ चाहते अँग्रेजों को परेशान कर देते। लार्ड क्लाइड और होपग्रांट ने शंकरपुर को घेरने की योजना बनाई। घेरा भी पर वेणीमाधव अँग्रेजी फ़ौज को चकमा देकर अपनी पन्द्रह हजार फ़ौज, साजो सामान और परिवार सहित शंकरपुर से निकल गए। अँग्रेजी सेना अन्दर घुसी तो कुछ कमज़ोर बूढ़े पुजारी, फ़क़ीर, और एक पागल हाथी के अलावा कुछ नहीं था। अँग्रेजों ने किले को ढहा दिया। राजा की खोज के लिए लार्ड क्लाइड, होपग्रांट, इवले और हार्सफोर्ड के नेतृत्व में चार टुकड़ियाँ सात दिनों तक उनकी खोज करती रहीं पर राणा का पता न लगा सकीं।
राणा छापामारी करते रहे। नवम्बर में अँग्रेजों से फिर आमने सामने की लड़ाई हुई। अँग्रेजों ने राणा से आत्मसमर्पण के लिए कहा। उन्होंने दो टूक जवाब दिया। कहा, ‘मेरी निष्ठा विर्जीस क़द्र के प्रति है। किसी फ़ायदे के लालच में मैं उन्हें धोखा नहीं दे सकता।’ राणा की हार ज़रूर हुई पर वे पकड़ में नहीं आए। अँग्रेज पीछा करते रहे। उन्होंने बेगम के पास जाने का मन बनाया।




सर ह्यूरोज़ एक विशाल सेना के साथ जिसमें हैदराबाद, भोपाल तथा अन्य राजाओं की सेनाएँ शामिल थीं, रायगढ़, सागर, बानापुर, चंदेरी आदि विजय करता हुआ बीस मार्च को झाँसी के निकट पहुँच गया। झाँसी के आसपास का पूरा क्षेत्र ग्यारह महीने तक कम्पनी शासन से आज़ाद रहा। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने किले के आसपास के पेड़ों आदि को कटवाकर साफ कराया। अपनी सेना को सन्नद्ध किया।
चौबीस मार्च को ह्यूरोज ने झाँसी का घेराव किया। रानी की घनगर्ज तोप ने कम्पनी सेना पर गोला बरसाना शुरू किया। अगले दिन संग्राम और गहराया। सारे दिन सारीरात गोला बारी होती रही। छब्बीस को कम्पनी की सेना ने नगर के दक्षिण फाटक पर दबाव बनाया। झाँसी की तोपें ठंडी होने लगीं। कोई वहाँ खड़ा न रह सका। इस पर पश्चिमी फाटक के तोपची ने अपनी तोप का मुँह उस ओर करके गोले बरसाने शुरू किए। तीसरे गोले से ही अँग्रेजी सेना का तोपची उड़ गया। अँग्रेजी तोप ठंडी हो गई। रानी ने उस दिन अपने तोपची गुलाम ग़ौस खाँ को सोने का कड़ा पहना दिया। पाँचवें, छठे दिन भी भयंकर युद्ध हुआ। झाँसी की तोपें गोले बरसाती रहीं। अँग्रेजी सेना में निराशा फैल गई।
सातवें दिन कम्पनी की तोपों ने नगर के बाईं ओर की दीवार का एक हिस्सा गिराने में सफलता पाई। रात में ग्यारह मिस्त्री कंबल ओढ़ कर टूटी दीवार तक पहुँचे और उसकी मरम्मत कर डाली। झाँसी की तोपें फिर सुबह से अपना काम करने लगीं। आठवें दिन कम्पनी की सेना शंकर किले की ओर बढ़ी। दूरबीनों की सहायता लेकर अँग्रेजों ने किले के अन्दर पानी के सोते पर गोले बरसाने शुरू किए। चार आदमी जो पानी लेने गए थे, वहीं मर गए। चार घंटे तक किसी को नहाने धोने के लिए पानी नहीं मिला। इस पर पश्चिमी एवं दक्षिण फाटक के तोपचियों ने कम्पनी सेना पर लगातार गोलाबारी की। कम्पनी की जो तोपें शंकर किले पर हमला कर रही थीं उनके मुँह फिर गए। तब लोग नहा धो सके। इमली के पेड़ के नीचे बारूद का कारखाना था। एक गोला इस कारखाने पर आ पड़ा। तीस पुरुष और आठ स्त्रियाँ काल के गाल में समा गईं। आसमान में ग़र्द और धुआँ फैल गया। रानी फुर्ती के साथ सब जगह पहुँचतीं, सभी को प्रोत्साहित करतीं। चारदीवारी पर लगे तोपची और सिपाही मरते रहे। उनकी जगह दूसरे पहुँचते रहे।
रानी ने तात्या को पत्र लिखा। वे चरखारी विजय करते हुए झाँसी की ओर बढे़। तात्या ने एक बड़ी सेना खड़ी कर ली थी। झाँसी पहुँचने पर कम्पनी सेना घिरने लगी। बाहर से तात्या और भीतर से रानी की सेनाएँ कम्पनी सेना पर झपटीं। कम्पनी सेना ने उलट कर तात्या से ही मोर्चा लेना ठीक समझा। पहली अप्रैल को अँग्रेजी सेना ने तात्या पर आक्रमण किया। तात्या के पैर उखड़ गए। उसके डेढ़ हजार आदमी कट गए। तोपें भी अँग्रेजों के हाथ लगीं।
तीन अप्रैल को कम्पनी सेना ने झाँसी को चारों ओर से घेरते हुए आक्रमण किया। रानी घोड़े पर सवार हो सभी को प्रोत्साहित करती रहीं। कम्पनी सेना ने उत्तर की ओर सदर दरवाज़े पर दबाव बनाया। आठ स्थानों पर सीढ़ियाँ लगा दीं। रानी की तोपें अपना काम करती रहीं। कम्पनी सेना के डिक और मिशेल जान ने सीढ़ियों पर चढ़कर अपने लोगों को ललकारा। पर दोनों गोलियों से आहत होकर वहीं गिर पड़े। बोनस और फाक्स ने उनका स्थान लिया। इन दोनों का भी वही हश्र हुआ। आठों सीढ़ियाँ टूट कर गिर पड़ीं। गोलों और गोलियों की बौछार से अँग्रेजी सेना पीछे हट गई।
पर रानी के एक पहरेदार के विश्वास घात से कम्पनी की सेना दक्षिण द्वार से अन्दर घुस आई। कम्पनी की सेना विजय करती हुई महल की ओर बढ़ी। रानी ने किले की ऊँची चार दीवारी से नगर निवासियों का क़त्ले आम देखा। वे एक हज़ार सैनिकों के साथ मुकाबले के लिए आईं। दोनों ओर से घमासान छिड़ गया। कम्पनी की सेना कुछ समय के लिए पीछे हटी। तब तक सदर दरवाज़े के रक्षक सरदार खुदाबख़्श और तोपख़ाने के अफ़सर सरदार ग़ुलाम गौ़स खाँ मारे गए। रानी को सूचना मिली। रानी की सेना ने रानी को किले से बाहर निकालने की योजना बनाई। रानी ने हथियार बाँधा, मर्दाने वेश में अपने दत्तक पुत्र दामोदर को कमर में कसा। किले की दीवार से एक हाथी की पीठ पर कूद पड़ीं। अपने सफेद घोड़े पर सवार हो निकल पड़ीं। पन्द्रह सवार उनके साथ। सभी कालपी की ओर बढ़ गए। रानी के बचे हुए सैनिकों ने झलकारी बाई के सिर पर मुकुट रखकर उसे रानी के रूप में प्रस्तुत किया। कम्पनी की सेना और रानी के सैनिकों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। झलकारी बाई घोड़े पर सवार हो सेना का नेतृत्व करने लगी। वह बहादुरी से लड़ती रही। उसको पकड़ कर अँग्रेजों ने समझा कि हमने रानी लक्ष्मी बाई को क़ैद कर लिया है। वे बहुत ख़ुश हुए। एक मुख़बिर ने बताया कि यह रानी नहीं है बल्कि झलकारी बाई है। रानी निकल गई हैं। यह ख़बर लगते ही लेफ्टिनेंट बोकर ने कुछ चुने हुए सवारों के साथ रानी का पीछा किया। रात भर रानी और उसके साथी अपने घोड़ों के साथ सरपट दौड़ते रहे। सुबह होते होते रानी भाण्डेर गाँव के निकट पहुँची। गाँव से दूध लेकर बच्चे को पिलाया और तुरन्त अपने साथियों सहित आगे बढ़ गईं। बोकर के घोड़े भी बहुत तेज थे। धीरे-धीरे वे रानी के पास आ पहुँचे। बोकर रानी के बहुत निकट पहुँच गया। रानी ने उस पर तलवार चला दी। वह घायल होकर घोड़े से गिर पड़ा। दोनों ओर के घुड़सवार आपस में भिड़ गए। बोकर के और साथी भी घायल हो गए। रानी ने साथियों के साथ घोड़े को सरपट दौड़ा दिया। दोपहर हुई। रानी चलती रहीं। चलते-चलते शाम हो गई, पर रुक ने का अवकाश नहीं था। आधी रात हो गई। अपने बच्चे दामोदर को कमर में बाँधे हुए एक सौ दो मील की यात्रा कर रानी ने कालपी में प्रवेश किया। जैसे ही रानी घोड़े से उतरीं, घोड़ा भी गिर पड़ा। कुछ ही क्षण में उसकी मौत हो गई। रानी की आँखों में आँसू आ गए। जिस घोड़े ने उन्हें बचाया, वह स्वयं चल बसा। घोड़े को दफ़नाकर रानी ने कालपी में रात्रि विश्राम किया। कालपी में उस समय नाना साहब के भतीजे राव साहब और तात्या टोपे भी आ गए थे। सुबह तीनों ने भावी रणनीति पर चर्चा की। बाँदा के नवाब , शाहगढ़ और बानापुर के राजा और अनेक विद्रोही नेता कालपी में इकट्ठा हुए। पर सौमनस्य न बन सका। पुराने ख़ानदानी लोग बाइस वर्षीय लक्ष्मीबाई या साधारण घर में जन्मे तात्या टोपे के नेतृत्व में काम करने में अपने को असहज महसूस करते थे। फिर भी रानी ने अपनी रणनीति बनाई और कालपी से 42 मील दूर कच गाँव में अँग्रेजी सेना का सामना किया। भयंकर मारकाट के बाद रानी को कालपी लौटना पड़ा। ह्यूरोज़ ने भी अपनी सेना को सन्नद्ध किया। 24 मई को उसने कालपी में प्रवेश किया। दोनों सेनाओं में घमासान हुआ। कम्पनी की सेना के दाहिने भाग को पीछे हट जाना पड़ा। तोपची भी अपनी तोपें छोड़कर भाग गए। लक्ष्मीबाई घोड़े पर सवार हो सबको प्रोत्साहित करती रहीं। पर उत्तम साज सामान और अच्छे घोड़ों, घुड़सवारों के कारण कम्पनी सेना को बढ़त मिली। रानी ने तत्काल हटने का निर्णय लिया। वे राव साहब, बाँदा के नवाब और अपनी बची सेना को साथ ले, कालपी से निकल गईं।