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आँच - 15 - तमन्ना थी आज़ाद वतन हो जाए !

अध्याय पन्द्रह
तमन्ना थी आज़ाद वतन हो जाए !


लखनऊ से निकल कर बेगम हज़रत महल, मम्मू खाँ, बिर्जीस क़द्र तथा विश्वास पात्र सैनिकों के साथ आकर बौंड़ी में मुकीम हुईं। राजा हरदत्त सिंह ने उनका स्वागत किया और सुरक्षा की व्यवस्था की। राजा बौंड़ी की सेना में ऊँट सवार और सत्रह तोपें भी थीं जिनमें तेरह किले के बाहर लगी थीं। बेगम ने यहीं से विद्रोहियों का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने विश्वस्त राजाओं को बौंड़ी बुलाकर परामर्श किया। राजा हरदत्त ने चहलारी नरेश बलभद्र की प्रशंसा कर विद्रोही सेना की कमान उसे सौंपने की बात की। बेगम प्रभावित हुईं। उन्होंने एक हरकारे को पत्र देकर चहलारी भेजा। बलभद्र सिंह अपने छोटे भाई छत्रसाल की शादी में ग्राम शिवपुर गए हुए थे। हरकारा शिवपुर पहुँचा। बेगम का ख़त दिया। शादी सम्पन्न कर बलभद्र सिंह ने बारात को घर भेजा और स्वयं बेगम से मिलने बौंड़ी चले गए। बेगम ने बलभद्र में संभावनाएँ देखीं। बेटे के समान उसे स्नेह से पुचकारते हुए सहायता की अपील की।
बलभद्र सिंह बेगम के स्नेहपूर्ण व्यवहार से गद्गद्। उन्होंने अन्तिम सांस तक साथ देने का वचन दिया। बेगम ने खि़लअत बख़्शी। रानी के लिए वस्त्राभूषण और अन्य लोगों के लिए पहरावर दिया। महादेवा में सभी राजाओं-ताल्लुकेदारों को बुलाया गया था। बलभद्र सिंह को भी महादेवा पहुँचने के लिए कहा गया। बलभद्र सिंह ने बेगम में माँ का अक़्स देखा और लौटकर चहलारी आ गए। अपने सहयोगी बहादुरों को इकट्ठा किया। संक्षिप्त प्रशिक्षण और अभ्यास का कार्यक्रम चला।
बलभद्र का जन्म मुरौवा में हुआ था। उनके पिता श्रीपाल सिंह चहलारी सहित तैंतीस गाँवों के जमींदार थे। बलभद्र की उम्र इस समय अठारह वर्ष की थी। युद्ध कौशल में उन्हें कुशलता प्राप्त थी। उनके साथी प्राणों पर खेल कर उनका साथ देते थे। राजाओं जमींदारों के पास नियमित सेना कम होती थी अनियमित अधिक। गुहार लगते ही अनियमित सैनिक इकट्ठे हो जाते थे। इसमें कुछ ऐसे भी होते थे जो वेतन के बदले ज़मीन आदि माफ़ी में पाते थे। सैनिक जिसका नमक खाते प्राणों की आहुति देकर अदा करते। यद्यपि यह कहावत ‘रारि गोहरिहन तें न होइ हैं अपने हाथ गहौ तरवारि’ प्रचलित थी पर गुहार में आने वाले भी प्राणों पर खेलकर युद्ध करते।
बेगम बिर्जीस क़द्र तथा अन्य सहयोगियों के साथ महादेवा पहुँचीं। महादेवा का शिवमंदिर प्रसिद्ध है। भिटौली के राजा गुरबख्श सिंह, रूइया के नरपति सिंह, कमियारि के शेरबहादुर सिंह, इकौना के उदित नारायण, रेहुआ के रघुनाथ सिंह, चरदा के जोत सिंह, बौड़ी के हर दत्त, गोण्डा के देवी बख़्श सहित अनेक राजा इकट्ठा हुए। बलभद्र सिंह भी तैयार हुए। पत्नी जो आसन्न प्रसवा थी, ने रोली चन्दन से टीका किया। माता ने भी विजयी होने का आशीर्वाद देते हुए अनुमति दी। माँ का चरण स्पर्श कर बलभद्र सिंह घर से साथियों के साथ चले। महादेवा में सभी से उन्हें आशीष मिला।
सभी राजाओं को बिठाकर बेगम ने पूछा, ‘शाही सेना की शिकस्त से आप लोग उदास तो नहीं हैं।’
‘हार-जीत तो होती रहती है। हम लखनऊ को बचा नहीं सके पर हम लड़ेंगे और फ़तह हासिल करेंगे।’ हरदत्त ने कहा। सभी राजाओं ने समर्थन किया। ‘अल्लाताला हम लोगों की मदद करेंगे। यह हमारा आपका वतन है। अँग्रेजों का कोई हक़ नहीं बनता हमें आपको निकालने का। हम आखि़री दम तक लड़ेंगे और फ़तह हासिल करेंगे। आप ही लोग हमारे हाथ पाँव हैं।’ बेगम ने प्रोत्साहित किया।
‘अँग्रेज बराबर यह कह रहे हैं कि मुस्लिम राज हो जाएगा तो हिन्दुओं के लिए दिक्क़तें आएँगी। दिल्ली के पीरो-मुर्शिद बादशाह ने खुद ऐलान किया था कि हमें खुद राज करने की ख़्वाहिश नहीं रह गई है। अगर खुदा के फ़ज़ल से हिन्दुस्तानी जीते तो सबकी सलाह से काम होगा किसी की बेइज़्ज़ती नहीं होगी। इस समय हिन्दुस्तान की लाज बचाना अहम है। हिन्दुस्तान की लाज आप के हाथों में है। मैं एक खातून हूँ। मेरे अकेले तलवार उठाने से कुछ नहीं होगा। आप सबकी तलवारें जब एक साथ बजेंगी तभी कुछ हो सकता है। हमारे पास हथियार कम हैं। अच्छे घोड़े कम हैं पर हमें लड़ना है। हम आखि़री दम तक लड़ेंगे।’ बेगम के एक एक शब्द लोगों में जोश भरते रहे। ‘दीन-दीन, हर हर महादेव’ के नारे से आसमान गूँजता रहा।
तय हुआ कि नवाब गंज में अँग्रेजों से मोर्चा लिया जाए। सभी ने प्राण पण से सहयोग का वचन दिया। बेगम ने नवाब गंज की लड़ाई के लिए बलभद्र सिंह को सेनापति नियुक्त किया। उन्हें खि़लअत, चौदन्ता हाथी, हरी मखमली स्वर्ण तार खचित मत्स्य चिह्न अंकित तलवार, राजा की उपाधि और सौ गाँवों की जाग़ीर प्रदान की। उनके माथे पर केशरतिलक स्वयं लगाया और बिर्जीस क़द्र तथा मम्मू खाँ से भी लगवाया। ‘दीन-दीन’ के साथ ‘हर हर महादेव’ का शंखनाद हुआ।
‘गोण्डा के पूर्वी और दक्षिण भाग पर अँग्रेज दबाव बना रहे हैं। अमोढ़ा और बांसी अँग्रेजों से लड़ रहे हैं’, बेगम ने कहा। देवीबख्श सिंह ने अमोढ़ा और बाँसी के आसपास की स्थिति का विवरण दिया। सब की राय बनी कि राजा देवीबख़्श सिंह गोण्डा के पूर्वी और दक्षिण भाग का मोर्चा देखें।



महादेवा की बैठक के बाद विद्रोही सेनाएँ नवाब गंज के पास ओबरी के मैदान में इकट्ठी होने लगीं। सामरिक दृष्टि से यह स्थान ठीक था। यह मैदान तीन ओर रेठ नदी और जमुरिया के पानी तथा चौथी ओर घनेजंगल से घिरा था। युद्ध स्थल के निकट पानी की उपलब्धता ज़रूरी होती है। इस दृष्टि से भी यह स्थान उपयुक्त था। सभी सैनिक उमंग से भरे थे। लखनऊ को मुक्त कराना है यही चर्चा। लगभग सोलह हज़ार सैनिकों की संयुक्त सेना तैयार हुई। बलभद्र सिंह ने उन्हें चार टुकड़ियों में अलग अलग सेनापति के नेतृत्व में बाँटा। चारों ओर से अँग्रेजों को घेर कर लड़ाई को अन्तिम रूप दिया जाए, यही सोचकर मोर्चेबन्दी की गई।
अँग्रेजों को ओबरी के सैन्य जमाव की जानकारी मिली। वे भी तैयारी में जुट गए। बारह जून को आधीरात में होपग्रांट एक विशाल सेना लेकर लखनऊ से चला। इसमें पैदल के साथ ऊँटों से खींची जाने वाली तोपें, ड्रेगन गार्डस, दो सौ पचास घुड़सवार पुलिस, कर्नल डेली के अधीन हडसन हार्स, वेल्स हार्स तथा सर विलियम रसेल के अधीन सातवीं हुसार्स तोप सेना, राइफल ब्रिगेड की पहली-दूसरी पलटनें तथा पाँचवी पंजाब पैदल सेना सम्मिलित थी। इसी सेना में चिनहट के पास कर्नल पुर्नेल के नेतृत्व में बारह सौ सैनिकों की एक दूसरी टुकड़ी भी आ मिली। सैनिकों को बताया गया कि नवाब गंज के पास विद्रोही इकट्ठा हैं। इसके तीन ओर पानी और चौथी ओर जंगल है। सँकरे नवाबी पुल से नदी पार करना होगा।
सूर्योदय होते होते अँग्रेजी सेनाएँ नदी के निकट पहुँची। होपग्रांट ने थोड़ी देर विश्राम किया फिर सेना को पुल के रास्ते आगे बढ़ने की आज्ञा दी। तेरह जून का दिन। अँग्रेजी सेना पुल पार करने लगी। अँग्रेजी सेना का बड़ा हिस्सा जब ओबरी में पहुँच गया, विद्रोही सेना ने चारों तरफ से हमला कर दिया। अँग्रेजी सेना हड़बड़ा गई। उसके पैर उखड़ने लगे। विद्रोही सैनिक प्राणों की बाजी लगाकर अपनी फुर्ती से अँग्रेजी सेना को छकाने लगे। होपग्रांट चिन्तित हो उठे। विद्रोही सैनिक अँग्रेजी सेना की दो तोपों पर कब्ज़ा करने की स्थिति में पहुँच गए थे। होपग्रांट ने आगे बढ़कर अपने सैनिकों को ललकारा और आगे बढ़ने का आदेश दिया। अँग्रेजी सेना ने आदेश का पालन किया। सेना तेजी से आगे बढ़ी। अँग्रेजी सेना के दबाव से विद्रोही सेना की चारो टुकड़ियाँ एक दूसरे से सम्पर्क नहीं रख पाईं। घमासान युद्ध छिड़ गया। बलभद्र सिंह दो तोपों के साथ विद्रोही सैनिकों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हुए आगे बढ़े। सैनिकों के रण कौशल से अँग्रेजी सैनिक भागने लगे। होपग्रांट ने सात नम्बर की पलटन को आगे बढ़ने का आदेश दिया। उसके साथ चार तोपें और थीं। तोपें विद्रोही सेना से पाँच सौ गज़ की दूरी पर लगा दी गईं। गोले बरसने लगे। विद्रोही सैनिक कट कर गिरने लगे। पर बलभद्र सिंह ने अपने सैनिकों को ललकारा। दो हरे झंडे के नीचे उन्हें जमा किया। गोले बरसते रहे। सैनिक कटते रहे। इसी समय उत्तर और दक्षिण-पूर्व दिशा से दो अँग्रेजी सैन्य टुकड़ियाँ आ गईं। अँग्रेजों का हौसला बढ़ा। वे भयंकर युद्ध करते हुए विद्रोही सैनिकों से भिड़ गए। बलभद्र सिंह हाथी से उतर कर घोड़े पर सवार हुए। तेजी से सैनिकों के साथ बढ़े। तलवार से अनेक को मौत के घाट उतार दिया। अँग्रेजी तोपें गोले बरसाती रहीं। बलभद्र सिंह को भी गोला लगा। उनके साथी प्राणों का मोह छोड़कर लड़ने लगे। बलभद्र सिंह के सभी सैनिक वहीं कट गए। एक भी सैनिक भागा नहीं। किसी ने दया की याचना नहीं की। अँग्रेजी सेनापति भी बलभद्र और उनके आदमियों के रण कौशल को देखकर स्तब्ध थे। युद्ध स्थल में वीर की पूजा होती है। सेनापति बलभद्र के गिरते और अधिकांश सेना के कट जाने से शेष विद्रोही सैनिक पलायन कर गए। अँग्रेजी सेना विजयी हुई। विद्रोहियों का लखनऊ कब्ज़ा करने का स्वप्न पूरा न हो सका।
अँग्रेजी सेना के सेनापति ही नहीं सम्पूर्ण सेना बलभद्र और उनके सैनिकों के साहस, धैर्य, बहादुरी और असिसंचालन पर मुग्ध थी। सभी कहते रहे कि युद्ध बहुत लड़ा गया पर ऐसा शौर्य और रणकौशल कहीं देखने को नहीं मिला। बेगम हज़रत महल को लगा जैसे उनका बेटा ही परलोक सिधार गया है।



बौंड़ी में बेगम हज़रत महल, मम्मू खाँ, हरदत्त सिंह, जोतसिंह के साथ बैठक कर रही थीं। आगे की रणनीति क्या हो? इसी पर विचार चल रहा था। मौलवी और पंडितों का एक दल बेगम से मिलने आया। चोबदार ने बेगम से हुक्म पा उन्हें उपस्थित किया।
‘फ़ौज की मदद में हम कुछ रुपये लाए हैं,’मौलवी साहब ने कहा।
‘ये रुपये कैसे मिले मौलवी साहब?’ बेगम ने स्नेहपूर्ण स्वर में पूछा।
‘मैंने और पंडित रामनाथ ने मिलकर एक गोल बनाई और मदद के लिए अवाम के बीच गए। अवाम ने खुले दिल से मदद की। इस बोरे में दस हज़ार रुपये और कुछ जे़वर हैं। हुक्म हो तो इसे ख़ज़ाने में जमा करा दिया जाय।’ मौलवी साहब ने अर्ज़ किया। ‘हमारी सेना को रुपये की ज़रूरत है पर अवाम को तंग करके रुपये न वसूले जाएँ पंडित जी।’ बेगम ने कहा।
‘नहीं मलिका-ए-आलिया ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं, खुशी खुशी लोगों ने ये रुपये दिए हैं।’ पंडित रामनाथ ने अदब के साथ अर्ज़ किया।
‘तो ठीक है। ख़ज़ाने में जमा करा दो।’ बेगम ने हुक्म दिया।
बेगम ने हुक्म दिया ही था कि चोबदार ने आकर फिर कोरनिश की।
‘क्या बात है?’ बेगम ने पूछा
‘हुजूर दो घुड़सवार बहुत दूर से आए हैं। हुजूर से मिलकर कुछ अर्ज़ करना चाहते हैं।’
‘हाज़िर करो।’ बेगम के मुख से निकला। दोनों घुड़सवारों ने आकर तस्लीम किया।
‘आप लोग कहाँ से आ रहे हैं?’ राजा हरदत्तसिंह ने प्रश्न किया।
‘हुजूर हम लोग ग्वालियर से आ रहे हैं।’ एक घुड़सवार ने बताया।
‘ग्वालियर से !’ बेगम भी चौंक पड़ीं।
‘हाँ सरकार, हम लोग रानी झाँसी की सेना में थे।’ कहकर दोनों रो पड़े।
‘रानी झाँसी का क्या हाल है?’ बेगम ने पूछा।
‘अब वे इस दुनिया में नहीं हैं मलिका-ए-आलिया।’
‘या रब ! क्या हुआ उन्हें?’
‘हुजूर बताता हूँ। झाँसी छोड़ने के बाद ।’
‘झाँसी और कालपी की लड़ाई का हमें पता है। उसके आगे की बात बताओ।’ बेगम अधिक फ़िक्रमंद, ग़मग़ीन हो उठीं। झाँसी पतन के बाद बेगम और रानी झाँसी एक ही तरह की स्थिति में पहुँच गई थीं।
कालपी से महारानी, राव साहब और बांदा के नवाब अपनी बची फ़ौज के साथ निकले। हम लोग महारानी के साथ थे। तात्या साहब अपनी फ़ौज फिर खड़ी करने के लिए ग्वालियर निकल गए। वहाँ उन्होंने ग्वालियर राज की सेना को बाग़ी बना लिया और रिआया में भी अपनी पैठ बना ली। इस नई फ़ौज के साथ तात्या साहब लौटे। गोपालपुर में महारानी, राव साहब, बांदा के नवाब और तात्या साहब के बीच बात चीत हुई। तय यह हुआ कि ग्वालियर को फ़तह कर बाग़ियों का एक नया अड्डा बनाया जाए। अट्ठाइस मई को बाग़ियों की यह फ़ौज ग्वालियर के नज़दीक पहुँच गई। महाराजा सिन्धिया को ख़त भेजा गया कि हम लोग आपके दोस्त की हैसियत से आए हैं। आपसे हमें मदद की उम्मीद है। आपकी मदद से हम दक्षिण की ओर बढ़ सकेंगे। सभी उम्मीद कर रहे थे कि महाराज जायाजीराव सिन्धिया मदद करेंगे। पर उन्होंने मदद के बजाय लड़ाई का एलान कर दिया। पहली जून को महाराज सिन्धिया की फ़ौज मुकाबले के लिए आई। हम लोग भी सामने आए पर महाराज सिन्धिया की फ़ौज से तात्या साहब ने वचन ले लिया था। फ़ौज अफ़सरों सहित हम लोगों के साथ आ गई। ग्वालियर की तोपें नहीं दगीं, महाराजा को अचम्भा हुआ। तुरन्त उनकी समझ में आ गया और वे मंत्री सहित आगरा की ओर निकल गए। पेशवा नाना साहब के प्रतिनिधि के तौर पर राव साहब को ग्वालियर की फौ़ज ने सलामी दी। महाराजा सिंन्धिया के वज़ीरे ख़ज़ाना अमर चंद भाटिया हम लोगों के साथ आ गए और सारा ख़ज़ाना सौंप दिया।
तीन जून को फूलबाग में दर्बार लगा। सभी पलटनें वर्दियों में दर्बार में आईं। पेशवा का शिरपना और कलगी तुर्रा राव साहब के सिर पर रखा गया। दर्बार ने राव साहब को पेशवा के तौर पर पेश किया। उन्होंने वज़ीर नियुक्त किए। तात्या साहब को सिपहसालार बनाया। राव साहब को तोपों की सलामी दी गई। बीस लाख रुपये फौ़ज में बँटे। हम लोगों को भी इनाम मिला। इधर यह जश्न हो रहा था और उधर ह्यूरोज़ अपनी हिकमतेअमली पर जुट गया। अँग्रेजों ने सोचा कि ग्वालियर पर कब्ज़ा नहीं कर लिया गया तो बाग़ी बहुत ताकतवर हो जाएँगे और मध्य भारत में बग़ावत की आग फैल जायगी। इधर दावतों का जोर था उधर ह्यूरोज़ ने महाराजा सिन्धिया को साथ लिया और ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। अँग्रेज यह कहते रहे कि वे महाराजा को उनका राज वापस दिलाने आए हैं।
तात्या साहब ने बढ़कर मुकाबला किया। हम लोग महारानी के साथ किले की हिफ़ाज़त में लगे थे। ग्वालियर की सेना अँग्रेजी फ़ौज के आगे टिक न पाई। राव और तात्या साहब ने कोशिश करके फौ़ज को सँभाला। महारानी ने फ़ौज में जोश भर कर उसमें नई जान फूँकी। फ़ौज को फिर से लगाया गया। महारानी ने हम लोगों को पूर्वी द्वार पर लगाया। जनरल स्मिथ साहब ने पूर्वीद्वार पर हमला किया। महारानी खुद दिन भर दौड़ती रहीं। अँग्रेजी सेना को पूर्वी फाटक से कई बार हटना पड़ा। एक-दो बार हम लोगों ने किले के बाहर भी मैदान लिया। आखि़रकार स्मिथ साहब को पीछे हट जाना पड़ा।
अठारह जून को जनरल स्मिथ और ज़्यादा फ़ौज लेकर तीसरे फाटक पर पहुँचे। अँग्रेजी फ़ौज ने ग्वालियर घेर लिया। जनरल स्मिथ की मदद के लिए सर ह्यूरोज़ भी आ गए। सबेरे जब महारानी अपनी दो सहेलियों-मंदरा और काशी के साथ शर्बत पी रही थीं। उसी समय ख़बर मिली कि अँग्रेजी सेना फाटक पर आ गई है। महारानी तुरन्त उठीं। घोड़े पर सवार हुईं। सेना भी गेट पर पहुँच गई। हम लोगों को खड़ा किया। हम लोगों ने अँग्रेजी सेना पर हमला किया। अँग्रेजी सेना ने गोलाबारी शुरू कर दी। हम लोगों की सेना के बहुत लोग गोलों के शिकार हुए। महारानी लगातार लोगों में जोश भरते हुए अपनी सेना को बल देती रहीं। ह्यूरोज़ अपनी साँड़नी के साथ आगे बढ़े और हम लोगों की फ़ौज तितर बितर करने में सफल हुए पर महारानी मुकाबले के लिए बढ़ती गईं। अँग्रेजी फ़ौज ने उन्हें घेरने की कोशिश की। ग्वालियर की तोपें ठंडी हो गईं। अँग्रेजी फ़ौज सैलाब की तरह बढ़ने लगी। महारानी के पास दो सहेलियाँ और हम बारह सवार थे। महारानी को लगा कि अँग्रेजी फ़ौज उन्हें पकड़ना चाहती है। उन्होंने अपने घोड़े को सरपट छोड़ा और अँग्रेजी फ़ौज को चीरती हुई निकलीं। उन्हें अन्दाज़ था कि बाग़ी फ़ौज आगे उन्हें मिल जायगी। लेकिन अँग्रेज सवारों ने उनका पीछा किया। तलवार चलाती महारानी बढ़ती रहीं। हम लोग भी बढ़े पर अँग्रेजी फ़ौज से आगे निकल नहीं सके। महारानी बढ़ी थीं कि मन्दरा को एक गोली लगी। मंदरा घोड़े से गिरी और प्राण निकल गए। महारानी ने तुरन्त मुड़कर उस अँग्रेज का काम तमाम किया और आगे बढ़ गईं। अँग्रेज सवार पीछा करते रहे। काशी पर भी एक वार हुआ। अब महारानी अकेले आगे बढ़ीं। आगे एक नाला था। महारानी ने घोड़े को एड़ लगाई पर नया घोड़ा नाला पार करने के बजाय नाले के इस पार ही चक्कर लगाने लगा। महारानी ने बहुत प्रयास किया पर घोड़ा आगे न बढ़ा। अँग्रेज और नज़दीक आ गए। महारानी को घेरा। एक सवार ने पीछे से आक्रमण किया। सिर का दाहिना हिस्सा लटक गया। तब तक एक सवार ने आगे से तलवार चलाई। महारानी ने अपने वार से उसे ख़त्म कर दिया पर खुद भी बेहोश हो गिर पड़ीं। तब तक उनके पीछे आने वाला सेवक रामचन्द्र राव आ गया। उसने महारानी के शरीर को उठाया और थोड़ी दूर पर स्थित गंगादास की कुटिया पर ले गया। महारानी ने पानी माँगा। बाबा ने पानी पिलाया। कुछ ही क्षणों में महारानी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं। बाबा ने लकड़ी इकट्ठा करा कर एक चिता बनाई और महारानी को लिटा कर आग दी।
इतना कहकर दोनों घुड़सवार रोने लगे। पूरी सभा शोक मग्न। आँखों से आँसू गिरते रहे।
‘और तुम भाग कर घर आ गए।’ राजा हरदत्त ने टिप्पण की।
‘नहीं महाराज, मालिक के न रहने पर फ़ौज की जो दशा होती है, वही हुई। हम लोग जब तक महारानी तक पहुँचें, वे परलोक सिधार गई थीं। अब हम लोग घर भी नहीं जा सकते थे। लोग यही कहते कि मालकिन का सिर कटाकर घर आ गए हैं। जंग में बचा हुआ फौ़जी कितना बदनसीब होता है, मलिका? हमें पता चला कि घाघरा पार अब भी मशाल जल रही है। हमें एक मौक़ा है महारानी का बदला चुकाने का। हम भागे हुए यहाँ चले आए। हमारा घर उरई में पड़ता है मलिका। घर जाना होता तो ।’
‘क्या नाम है तुम दोनों का?’ राजा हरदत्त ने पूछा ‘इसका नाम रहीम है, मेरा अतर सिंह।’ अतर सिंह ने दुखी स्वर में उत्तर दिया।
‘हमें तुम्हारी साफ़गोई ने कायल किया है। महारानी की मौत से हमें धक्का लगा। अब तो घाघरा पार ही लड़ाई का ख़ास मुकाम हो गया है। बहुत से लोग यहाँ जुट रहे हैं। अँग्रेजी फ़ौजें भी अपना दबाव बनाएँगी ही। हमें इस बात की खुशी है कि तुम लोग हमारी मदद करने आए हो।’ बेगम ने दोनों को आश्वस्त किया। दोनों घुड़सवारों ने तस्लीम किया और बाहर हो गए।
‘नाना साहब का कुछ पता चला?’ बेगम ने हरदत्तसिंह से पूछा।
‘ख़बर मिली है कि वे इधर ही आने वाले हैं।’ हरदत्त सिंह कुछ कहते इसके पहले जोत सिंह ने उत्तर दे दिया।
‘घर-बार छोड़कर सभी घाघरा पार ही आ रहे हैं। या रब, क्या कोई करिश्मा हो सकेगा?’ बेगम ने गहरी सांस ली।



जब लखनऊ में अँग्रेजी सेना और विद्रोहियों के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था, उसी समय रोक्राफ़्ट गोण्डा जनपद के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र की ओर बढ़ा। पहले उसने अमोढ़ा की रानी तलाश कुँवरि और उनके सेनापति गंगा सिंह को परास्त किया। चार मार्च को वह गोण्डा की सीमा पर आ गया और विद्रोहियों के बेलवा शिविर के निकट अपनी पलटन को व्यवस्थित किया। बेलवा शिविर में उस समय सुल्तानपुर के चकलेदार मेंहदी हसन, गोण्डा के राजा देवी बख़्श सिंह तथा चर्दा के राजा जोत सिंह सहित चौदह हजार लोग एकत्रित थे। आपस में विचार विमर्श हुआ। देवी बख्श सिंह ने यह निर्णय लिया कि रोक्राफ़्ट की सेना पर आक्रमण किया जाय। रोक्राफ़्ट की सेना में उस समय अधिक लोग नहीं थे। पाँच मार्च की सुबह विद्रोही सेना ने रोक्राफ़्ट की सेना पर आक्रमण कर दिया। संख्या में कम होते हुए भी रोक्राफ़्ट ने कड़ी टक्कर दी। रोक्राफ़्ट उम्मीद करता था कि और अँग्रेजी सेना उसकी मदद के लिए आ जाएगी। 5 मार्च के इस युद्ध में दोनों पक्षों के लगभग पाँच सौ जवान कट गए। विद्रोहियों को भी लगा कि और तैयारी करके अँग्रेजों पर आक्रमण किया जाय। रोक्राफ़्ट ने भी पहल नहीं की। इसीलिए दोनों सेनाएँ आमने सामने रहते हुए भी अपनी-अपनी तैयारी में जुटी रहीं। जो टुकड़ी लखनऊ युद्ध में भाग लेने गयी थी, उसके बचे सैनिक भी लौटे, जीत की खुशी से भरपूर। अप्रैल का महीना, गर्मी कुछ बढ़ने लगी थी। सत्रह और पच्चीस अप्रैल को विद्रोही एवं अँग्रेजी सेना ने एक दूसरे को फिर टक्कर दी। इसमें विद्रोही सेना को अँग्रेजी सेना से अधिक क्षति उठानी पड़ी। देवी बख़्श सिंह को लगा कि हमें पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरना चाहिए।
रोक्राफ़्ट कुछ दिन तक नई कुमुक की प्रतीक्षा करता रहा। जब उसे कोई सहायता नहीं मिली तो वह कप्तान गंज (बस्ती) की ओर चला गया। अमोढ़ा में विद्रोही फिर सक्रिय हो गए थे। नौ जून को उसने पुनः अमोढ़ा पर आक्रमण कर दिया। नौ दिन तक घेरा बन्दी के बाद उसने अमोढ़ा को अपने कब्ज़े में कर लिया। इसके बाद वह बस्ती की ओर मुड़ गया और होप ग्रांट के आने की प्रतीक्षा करने लगा। इस समय पूरे अवध में विद्रोहियों को समाप्त करने का अभियान चलाया जा रहा था। लार्ड क्लाइड ने बैसवाड़े से राणा बेणीमाधव को निकालने की कोशिश की। नवम्बर के अन्त में सर होप ग्रांट फै़ज़ाबाद आ चुके थे। वहाँ कर्नल टेलर के नियन्त्रण में चार हज़ार तीन सौ सैनिक थे। घाघरा पार को छोड़कर शेष अवध में अँग्रेजों का शासन हो चुका था। अब इसी बाग़ी क्षेत्र पर उन्होंने अपने को केन्द्रित किया। रोक्राफ़्ट के नेतृत्व में बेलवा शिविर के विद्रोहियों से कई बार झड़प हो चुकी थी, पर अँग्रेजों को पूरी सफलता नहीं मिल पाई।
अयोध्या के राजा मान सिंह जिन्होंने लखनऊ की लड़ाई में बेगम की ओर से घनघोर युद्ध किया था, अब अंग्रेजों के साथ हो गए थे। बलरामपुर के राजा भी अँग्रेजों के साथ थे यद्यपि उन्होंने स्वयं युद्ध में भाग नहीं लिया था। उनकी सेना हरिरत्न सिंह के नेतृत्व में रोक्राफ़्ट का साथ देने के लिए आ गई। कृश्वादत्त राम पांडे भी जो बहुत दिनों तक राजा देवी बख़्श सिंह के यहाँ ड्योढी अफ़सर थे, अँग्रेजों से जा मिले।
बेगम हज़रत महल बौंड़ी में रहते हुए बहुत चिन्तित थीं। वे बराबर अँग्रेजी और विद्रोही सेनाओं की गतिविधि की जानकारी लेतीं। उन्हें भी लगा कि सरयू के किनारे एक निर्णयक युद्ध की स्थिति बन रही है। क्या सरयूपार का यह इलाका अँग्रेजों से आज़ाद रह सकेगा? अँग्रेजी फौ़ज का दबाव बढ़ता जा रहा है। अँग्रेज एक एक विद्रोही को खोज कर मौत की सज़ा दे रहे हैं। ऐसे में सरयूपार का यह इलाका? बेगम इन्हीं बातों में उलझी हुई थीं कि चोबदार ने आकर कोरनिश की। ‘क्या कहना है’, बेगम ने पूछा। ‘हुजूर, महाराजा देवी बख्श सिंह का हरकारा आपसे मिलना चाहता है।’ ‘बुलाओ उसे’, बेगम ने कहा। हरकारे ने आकर बेगम को तस्लीम किया। ‘क्या ख़बर लाए हो? बेगम ने पूछा। हरकारे ने महाराजा का एक ख़त अपनी झोली से निकालकर बेगम की ओर बढ़ा दिया।