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‘वलय याद आ रहा है क्या ?’ मैने पूछा ।

-यूं कहे कि मुझ से रहा न गया, आखिर पूछ ही लिया । ओरेन्ज बोर्डर की व्हाईट सारी जरा कवर-अप करते हुए वह जरा-सी मुसकाई । फिर कुछ ईस तरह से बोली, मानो वलय की बात कोभी उसी तरह कवर-अप कर लेना चाहती हो, हमारा ये शहर कितना बदल गया ? सब कुछ बदला-सा लगता है, हैं ना वसुधा ? ...यहाँ एक नीम का पेड हुआ करता था, वो कहाँ गया ?’

हलका-सा एहसास हो रहा है कि शायद वो कुछ छिपाने की कोशिश कर रही हैं । लेकिन अब उसे मुझ से क्या छिपाना हो सकता है ? मैं तो उसकी बालसखी । एक जमाना था, उसके दिल की नस-नस से मैं वाकिफ रहती थी । हाँ, नौकरी मिलते ही वो गांधीनगर चली गई, सही बात है, पर ऍसे दो-तीन साल कोई बडा फासला कैसे बन सकता है ? ईतने कम समय में वो मुझसे उतनी दूर कतई न जा सकती ।

तीन साल पहले नीलम को सचिवालय के उँचें ओहदे पे नियुक्ति मिली, बस, तभी से हम अलग हुए । लेकिन तब तक की जिंदगी तो ईस छोटे-से शहर में हम दोनों ने साथ ही गुज़ारी है । हमारे साथ वलय भी था । तभी से नीलम का दिल वलय के साथ लग गया था । बस, दो-चार छोटी-बड़ी मुसीबतों को पार करना था, फिर वे दोनों अतूट बंधन में बँध जानेवाले थे । जी॰पी॰एस॰सी॰ की एक्ज़ाम हम तीनों ने साथ ही दी थी, मगर मैं और वलय पास न हो सके थे । फिर वलय एक्ज़ाम देता रहा, लेकिन मैने एक ईन्श्योरन्स कंपनी में जोब स्वीकार कर ली थी ।

तीन साल में पहली बार नीलम जो अपने ही शहर में आना हुआ था, और वो भी किसी सरकारी काम के वास्ते । शहर में उसका घर होते हुए भी वह सरकीट हाउस में ठहरी । सुबह के खाली वक्त में मुझे मिलने बुलाई थी । सरकीट हाउस के कमरे में कॉफी पीकर हम लोग पुरानी आदतों कों ताज़ा करते हुए बाहर सड़क पर टहलने निकल पड़े । हम दोनों हाई-वे पे चलने लगे ।

नीम का पेड़ उसे याद क्यूं आया होगा ईस बात पर मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा था । यही तो एक पेड़ था जो उसे वलय से भेंट करवा देता था । उन दोनो के मिलने की यही जगह थी । मुझे एहसास हुआ कि वो कुछ भी तो नहि भूली । औरत ऐसी ही होती है, संवेदनशील । शायद वो कह न पाये तो भी मैं उसे वलय से जरुर मिलवाऊँगी । वह भी बेचारा ईसकी याद में कैसा बाँवरा हो गया है !

बहोत देर बाद मैने जवाब दिया, ‘हाँ, वो ही नीम का पेड़ न ? वो तो... देखो ना, ये पक्की सडक हुई तभी तत्कालीन कमिश्नर साहब ने कटवा दिया था । उसी की जगह तो ये डिवाईडर फूट पडे है ।’ फिर हकी से आवाज़ में बोली, ‘नीलम, नीम कट्ने काबड़ा दर्द महसूस करती होगी तुम... है न ?’

‘अरे, जरा भी नहि । ईतनी छोटी-सी बात में क्या दर्द ? कैसा दुःख ? पक्की सडक जो तैयार हुई, गांधीनगर तक का सब से बड़ा फोर लेन हाई-वे बना । आखिर शहर का विकास ही तो हुआ ! ठीक ही तो किया ना ? आगे बढ़ने के लिए पथ्थरदिल बनना पडे तो भी बन जाना चाहिए । क्या फर्क पड़ता है ?’

मुझे आश्चर्य हुआ उसके ईस प्रकार के जवाब से । उसके विचार तो कभी ऐसे नहि थे । पहली बार लगा कि वो कुछ अलग-सी हो गई है । हो सकता है, एक अरसे के बाद उससे मिली हूँ तो बदली बदली-सी लग रही हो । उसके भीतर हुए सूक्ष्म परिवर्तनो को मैं एक के बाद एक महसूस करती हूँ । उसके सारे बदलाव मेरे सामने खुलते जा रहे थे ।

फिर सोचती हूँ कि नीम के पेड़ का न होना उसे कोई घाव तो जरुर दे गया, पर न जाने क्युं अभी तक वह अपने वलय के कुछ समाचार क्युं नहि पूछ रही ? बस यही एक बात मेरी समज से बाहर थी ।

कुछ पल सन्नाटा छाया रहा । फिर मैने ही संवाद जोड़ते हुए कहा, ‘तू अपनी सूना, वहाँ तेरा सब कुछ कैसा चल रहा है ? सब कुछ सेट हो गया ?’

‘हाँ भई, हमें कौन-सी तकलीफें हो सकती है ? साढ़े दस से लेकर शाम छः बजे तक नौकरी, और बाद में फिर अपना घर और घर का काम । सब में ईतनी व्यस्त हो जाती हूँ कि किसी बात के लिए वक्त ही नहि मिलता । देखो न, ईतने दिनों में मैने तुझे भी कहाँ याद की है कभी ?’

‘मतलब ? तूने वहाँ घर तो नहि बसा लिया ?’ मैने पूछा । ईतने दिनो में दो या तीन बार उसने सचिवालय से फोन किया होगा शायद । लेकिन कभी चैन से बातें कहाँ पाई ?

‘अरे वसुधा, बहुत सारी बातें ईकठ्ठी हुई है दिल में । रातों की रातों तक बैठ के करे फिर भी पूरी न हो सके उतनी बातें, बातों का ढ़ेर, ढ़ेर-सी बातें ! है न वसुधा ?’ कहते उअसने मेरी पीठ पर हाथ रखा और अपनी सरकती साड़ी को फिर से कवर-अप कर ली ।

‘वसुधा, केशवचाचा कैसे है ? और हंसाचाची ? वो तो अब भी तेरे लिए मेथी के खाखरे बना देती होगी ना ? सच वसु, तू बड़ी ही खुशनसीब है ।’

चलते चलते मेरे पैर रुक गये ।

‘हां बाबुजी तो ठीक है । पर तुम शायद भूल गई नीलम, माँ तो...’

‘ओह..हां, हां, सोरी । तुमने फोन पर बताया भी था । सच बताऊँ वसु, मै तो व्यस्त होकर खुद में ही ईतनी सिमट गई हूँ कि दुःख के ईस मौके पे भी मैं तेरे पास चाहते हुए भी आ न पाई । बट यू बिलिव मी वसुधा, तुम तक आने का मेरा बड़ा मन था ।’

‘जाने दे ये सब बातें नीलम । हमारे बीच कभी ऐसी फोर्मालिटी की जगह नहि हो सकती । सब कुछ दिल पे मत ले, प्लीज़ रिलेक्स ।’

‘कुछ भी दिल पे न लेने की तो आदत-सी हो चुकी है अब तो वसु ! मानो पथ्थर की मूरत बन गई हूँ । लगता है मेरे भीतर की हरियाली को काटकर किसी ने जैसे पथ्थर के डिवाईडर थोप दिये हो । बूत-सी मैं कुछ महसूस ही न कर पाती हूँ । ओह वसुधा..!’ उसने गहरी साँस छोडी, मानो दिल की बात कुछ हलकी कर ली ।

ऐसा लग रहा है मुझे कि शायद कोई बहोत बड़ी बात वो अपने भीतर दफना के आई है । युगो तक कहे जानी वाली बतों को शेर करने के वास्ते दो-चार लफ्ज़ ही उसका साथ दे रहे है । नीलम के भीतर की धुँधलाहट को बाहर लाना मेरे लिए मुश्किल था । शायद ये धुँधलाहट वलय के लिए हो सकती है ।

यदि ऐसा ही है तो मैं ही उसे वलय के पस ले जाऊँगी । वो भी बेचारा नीलम के ईंतजार में जल्दी से बूढ़ा हो रहा है । जब भी मिलता है, बस एकत्र नीलम की ही तो बतें किया करता है पागल । मेरी नीलम ऐसी है, मेरी नीलम वैसी है । नीलम ऐसा करे, नीलम वैसा करे ।

कभी कभी तो जलन भी होने लगती है मुझे ईन दोनों की ! बड़ी ही खुशनसीब है नीलम, जो ऐसा चाहनेवाला मिला; जो उसे एक पल भी भूलता नहि । अब तो वलय को भी बहोत बड़ा ओहदा मिल गया है । बडा लाटसाहब बन के फिरता है । गुजरे वक्त में ये दोनों कभी फोन पर भी नहि मिल पाये है । नीलम को देखते ही वलय तो ऊछल पडेगा ।

‘वलय याद आ रहा है क्या ?’ उसके मन की गहराईयों को नापने के लिए मैने फिर से पूछा । समझ सकती थी कि वो वलय से मिलने बेकरार होगी । उसी से मिलवाने के लिए शायद उसने मुझे बुलाई होगी ।

फिर से सन्नाटा । यकायक चलते चलते रास्ते के कोई खास किनारे पर एक जगह डिवाईडर की रेलींग को पकडकर वो रुक गई ।

‘वसुधा..।’ शायद कुछ कहना चाहती थी वो पर जबान सिर्फ मेरे नाम तक आ के थम गई ।

‘हाँ यहीं तो, बिलकुल यहीं, जहाँ तुम खड़ी हो नीलम, बिलकुल वहीं पर वो नीम का पेड़ था । रास्ते के उस ओर तक जिसकी गहरी शीतल छाया फैला करती थी । तू कुछ भी तो नहि भूली नीलम ।’

‘ओह.. नीम का पेड़ । लेकिन मेरे अंदर वो बात नहि थी । और अब्त तो उस पेड के मूल भी कही न होंगे वसुधा ।’

नीलम के स्वरों में भारी निराशा पाई मैंने । उस जगह से हम वापस लौट गये । लौटते समय उसकी चाल काफी धीमे हो गई । उसकी खामोशी मेरी आँखें पढ़ न पाई । रहरहकर मेरा मन करता था कि यदि वलय के बारे में कुछ पूछे तो जरा तंग कर लूँ, कुछ सताऊँ । लेकिन वह मुझे ऐसा मौका ही न देती थी ।

सरकीट हाउस से मैं उससे बिदा लेती थी तब जा के ईतना बोली, ‘दोपहर बाद जरा फ्री हूँ । तुझे आपत्ति ना हो तो फिर से आ जाना । चैन से बातें करेंगे, फिर शायद कल तो मुझे निकलना पडे ।’

मैंने तुरन्त ही हां कह दी । मन ही मन सोच भी लिया कि दोपहर वलय को भी साथ लेकर आऊँगी । नीलम को सताने के बाद अचानक वलय को उसकी आँखों के सामने पेश कर दूँगी तो दोनों को सरप्राईज़ मिलेगा । बड़े ही खुश हो जायेंगे दोनों ।

दोपहर के बाद जल्दी से कामकाज से निपटकर मैं पहूँच गई सरकीट हाउस । नीलम कुछ निजी काम में थी पर मुझे देखकर सब काम बाजु पर रख दिये । मुझे अच्छा लगा । सुबह के मुकाबले ईस समय वो कुछ ज्यादा रिलेक्स भी लग रही थी ।

‘मेरा ईंतजार करती थी ?’ मैंने पूछा ।

‘हाँ ।’ वह बोली, लेकिन मैं जानती थी तुम ज्यादा ईंतजार करवा के सतानेवाली नहि हो । बता वसुधा, अभी कोफी या फिर कोल्ड्रीन्क्स ?’

‘रहने दे, फिर हाल मै ही तुम्हारे लिए कोफी और मेथी के खाखरे लाई हूँ । चल, आ जा ।’ मैंने थर्मोस रखा ।

नीलम हँस पड़ी । मैंने देखा कि हमारे मिलने के बाद पहली बार वो जरा हँसी थी । हँसती है तब वो और भी खूबसूरत लगती है । वलय भी बड़ा लक्की आदमी है । उफ.. ईन दोनों की जोड़ी की मुझे तो भई बड़ी ही मिठी जलन होती रहती है !

कोफी पीते हुए वो फिर से अन्यमनस्क होने लगी । मै समझ गई, करीब जाकर उसके कंधे पे हाथ रख के मैं बोली, ‘वलय भी तुम्हें ऐसे ही बेतहाशा याद करता रहता है नीलम । तेरी यादों में खो कर ऐसे ही अन्यमनस्क हो जाते मैने उसे भी देखा है । उसकी नजरों में तेरे नाम का प्यार मैंने अपनी आँखों से देखा है । तुम दोनों की चाहत जितनी प्रबल है उतनी ही मजबूत भी है ।’ जरा रुककर पूरे उत्साह से मैं आगे बोली, ‘पता है नीलम, मैंने वलय से कहा कि तुम आई हो तो वो खुशी से झुमने लगा । कहता था – देखा न ? आखिर मेरी निलु मेरे लिए आ ही गई न ? मैंने कहा था न, मुझे भुल जाये ऐसी मेरी नीलु नहि । लगातार दिनरात मैंने उसका ईंतजार किया है । देखो देखो, मेरे भरोसे को हारने नहि दिया मेरी नीलु ने । माय नीलु... ओल्वेज़ ग्रेट । -कहते हुए उसकी आँखो से खुशी के आँसु छलकते थे, नीलम ।’

अधखुले दरवाजे के बाहर किसी प्युन की चहलपहल-सी आहट सुनाई दी होगी या खिड़की से आ रही हवाओं ने साडी के पल्लू को फिर से छेड८ दिया होगा, शायद ईसी लिए नीलम ने फिर से पल्लू को कवर-अप कर लिया । वह खडी हुई और स्वस्थ होने का असफल दिखावा करने लगी ।

उसकी हडबडाहट देखकर मुझे ही लगा कि बात को बदलनी होगी । कुछ सोचकर मैं बोली, ‘तुम्हें कल ही गांधीनगर चले जाना है ? कुछ और वक्त.. मेरा मतलब कि इतने साल बाद वतन में आई हो तो सरकारी कामकाम के साथ साथ, हमारे अपनों के साथ बने बनाये रिश्ते भी क्युं न निभायें जायें ? नीलम, घर हो आई ? भाई-भौजी-भतीजों से मिल लिया ?’

‘वसुधा, मेथी के खाखरे तो बिलकुल हंसाचाची जैसे ही टेस्टी बनाये है । मौका मिला तो थोडे और मैं अपने साथ ले जाऊँगी । तुम सब को याद करती हुई खाऊँगी, बराबर ?’ बड़ी कृतक-सी मुस्कान वो अपने चेहरे पे पोतने को तरस रही ।

मेरी हर बात को आज वो यूं टाल क्युं देती है, समझ में न आया ।

‘नीलम, वैसे यहाँ और भी बहोत कुछ है साथ ले जाने को । लेकिन हाँ, वहाँ ले जाकर हमें भूल न जाओ तो ही ! बता तो जरा, यहाँ से और क्या क्या अपने साथ ले जाने का ईरादा बना के आ पहोची हो आप मैडम ?’

वो समज गई, मेरा ईशारा वलय से ही तो था ।

सरकीट हाउस के पूरे कमरे में कुछ पल मौन की दीवारें टकराती रही । शायद उस बोझिल खामोशी को तोडने के वास्ते ही नीलम के मोबाइल में रींगटोन बज ऊठा । उसने फोन ऊठाया ।

‘हाँ ? बोलिए ? – क्यूं ? – क्या हुआ ? – वो ही पूराना प्रोब्लेम ? – अभी ? – एक दिन ही की तो बात है ? – हो सके तो आप एडजस्ट कर लो, प्लीज । - लेकिन मेरी बात तो सुनिए आप... – आज शाम को तो मेरी यहां के कमिश्नर के साथ एक जरुरी मीटींग है, - आप... आप समझने कोशिश कीजिए प्लीज । - शाम को ही निकल जाऊँ ? – अगर आप कहे तो... – ऐसी भी क्या नाराजगी ? – क्या ? अभी ? – ओके, ठीक है, ठीक है, मैं अभी गाडी लेकर निकल जाती हूँ । - अरे हाँ भई हाँ, सच में वापस आ जाती हूँ... अभी ।’

फोन पटकते हुए वो अपने चेहरे से पसीना पोछ रही । दरवाजे से आ रही मासूम हवाओं ने उसकी घुमावदार गरदन को फिर से खोल दिया था, फिर न जाने क्युं, ईस बार नीलम ने आपनी साडी को कवर-अप करने में कोई जल्दबाजी न दिखाई ।

न रहा गया मुझसे, पूछा, ‘तुझे यहाँ के नये कमिश्नर साहब से मिटींग है ? मिलना है उसे ? सच ?’

‘हाँ, पर अब नहि मिल सकती । मटींग केन्सल कर के मुझे जल्दी ही निकलना पडेगा अब तो ।’ बड़े ही बेपरवा स्वर उसके गले में जच नहि रहे थे । शायद वो अपने आप से ही लड रही थी ।

जोशीली आवाज में मैने ही बताया, जिसे तू मिलने आई है, उसी को नहि मिलोगी ? अरे, तेरा वलय ही तो यहाँ का कमिश्नर बन के बैठा है; नीलम तेरा वलय !’

एक पल... हाँ एक पल के लिए उसकी आँखों में कुछ चमक दिख गई । फिर अपने आप को सँभालते हुए बोली, ‘वसुधा, प्लीज मुझे और शरमिंदा मत करो मेरी बहन । देख रही हो मैं वलय के सामने नजरें मिलाने का हौंसला भी गँवा चुकी हूँ । मैं अब उससे ना मिल पाऊँ ।’

अब तक तो मैं उसकी सारी बातों को भाँप गई थी । मेरे मन में क्रोध आता है, ‘मतलब ? बी फ्रेन्क नीलम, क्या सच में वलय के सामने नजरें मिलाने की तुझ में हिम्मत नहि ? या फिर एक अपराधी बन के वलय से मिलकर उसकी माफी माँगने की जिम्मेदारी से तुम कतरा रही हो ? सच बताओ नीलम, कम से कम ‘सोरी’ बो के उसे आजाद कर देने का तेरा फर्ज नहि बनता क्या ?’

‘हालात ने मुझे कभी किसी से ‘सोरी’ बोलने का मौका ही नहि दिया.. वसुधा । तभी तो ऐसी हो गई हूँ; निष्ठुर, अप्रिय..।’ बोलते हुए नीलम ने अपनी ब्रीफकैस की झीप बंद की और शायद आखरी दफा पल्लू को कवर-अप कर लिया, और जाने के लिए खडी हुई ।

मुझे लगा कि अब जल्दी से यहाँ से निकल जाना चाहिए । डरती थी, वलय को क्या जवाब दूँगी । मुझे याद था कि वलय को बाहर सरकीट हाउस के मैदान में खडे रहने की सूचना देकर मैं अकेली ही अंदर आई थी । नीलम को बहोत सताना था । फिर उसकी तडपन को और बेकरार चाहत को आखरी अंजाम देना था, उन दोनों को मिलवाकर । वलय भी कितना खुशहाल था ।

ओह... नीलम के कमरे से बाहर निकलते ही सीना बोझिल-सा महसूस होने लगा । साँसे काँपने लगी । वलय को क्या जवाब दूँगी ? क्या बीतेगी उस पागल पर ? मेरी समझ में कुछ न आ रहा । पता नहि क्यों मैं खुद को ही अपराधी मानने लगी !

बाहर आ के देखा, वलय कहीं न दिखाई पडा । उसकी कार के ड्राईवर से पूछनेपर उसने सामने के हाई-वे की ओर ईशारा किया । मैं फौरन रस्ते पर दौड गई । बाहर अब भी काफी कडक धूप चल रही थी ।

डिवाईडर के उस छोर की रेलींग को थामकर वलय खड़ा था । मैं उसके करीब जा पहूँची । मुझे देखते ही वह पूछने लगा, ‘कहाँ है मेरी नीलु ? वसुधा, बहोत हो चुका अब.. अब तो मेरी नीलु से मिलवा दे । ईस तरह हमें सताने में तुम्हें कौन-सा लुत्फ़ मिल रहा है वसुधा ?’

अश्को को बड़ी मुश्किल से छिपाकर, नजरें झुकाकर मैं बोली, ‘सोरी वलय, मैं तो यूं ही... तुम्हें बस ऐसे ही.. अप्रैलफूल... जस्ट जोकींग.. यू नॉ ?’ उसके सदमे को पहले से कमजोर करने के लिए पता नहि मैं क्या कुछ बोले जा रही, ‘मैने ना, वलय, तेरे साथ छोटा-सा मजाक करने का प्लान बनाया था । नथींग मोर..हां । झुठ बोला था मैने ।बट यू डोन्ट वरी..ओके ? फिकर ना करना ।आज नहि तो कल, एक न एक दिन तो नीलम को तेरे पास आना ही है ! जरुर आयेगी, सच कहती हूँ मैं । अम्म्म्म.... तब तक... तब तक.. मैं हूँ न ? वलय, एक बात कहूँ ? क्या तुम मुझे अपनी नीलम नहि बना सकते ?’

उस पर आनेवाले सदमे को पहले से ही कमजोर बना देना चाहती थी मैं । ईस तरह उसे मायूस होते हुए मैं कभी देख नहि सकती; शायद ईस लिए कि मैं नीलम नहि थी !

गुस्स हो गया वो, ‘मैं कोई बच्चा नहि हूँ वसुधा । मुझ पे तरस खाना छोड़ दो । ईतना कमजोर समझती हो मुझे ? नीलम को मिलने के मेरे अधीरेपन ने मुझे तेरे कहे अनुसार बाहर रुकने नहि दिया, और बदकिस्मती से मैने दरवाजे पे रुककर वो सारी बातें सुन ली है, जो अंदर कमरे में तुम दोनो के बीच हो रही थी ।’

मुँह फेर लिया उसने । जानती हूँ, आँसुओं को छिपा रहा होगा । आखैर मर्द जो ठहरा , कोई आदमी कभी ये नहि चाहेगा कि कोई उसके आंसुओ को देखे । अगर आदमी रोता है तो समझना कि उसके भीतर का मर्द अपनी सारी सहनशक्ति के खजाने को हार चुका है ।

‘वलय, मेरी बात मानोगे ? भूल जाओ सब, ये सब भूल जाओ । जानती हूँ बहोत मुश्किल है फिर भी मशवरा देती हूँ ।’ मैं उसको शांत करने की चेष्टा करते हुए पूछती हूँ, ‘लेकिन तुम ऐसे यहाँ क्यूं दौड़ आया वलय ?’

‘मैदान में काफी धूप लग रही थी, तो मैं यहाँ ईस ठण्डी छाया में चैन की सांस लेने आ गया ।’

‘छाया ?’ मुझे आश्चर्य हुआ, ‘वलय यहाँ तो कितनी कड़ी धूप है ! मुझे तो कही कोई छाया नहि दिखाई दे रही ?’

डिवाईडर की रेलींग को पसीने से भीगे हाथों से थामते हुए वलय बोला, ‘तुझे छाया नहि दिख रही.. क्यूं कि तुझे नीम का पेड़ भी तो नहि दिख रहा..!’

-अजय ओझा (मोबाइल-०९८२५२५२८११)

५८, मीरा पार्क, ‘आस्था’, अखिलेश सर्कल,

भावनगर(गुजरात)३६४००१