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Khalbali Aur Sannata

खलबली और सन्नाटा

देखते ही देखते पूरे दफ्तर में वो मनहूस खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी. सनसनी, खलबली, कुहराम जो भी नाम देना चाहें दें, मगर जो कुछ हुआ वह सिर्फ अभूतपूर्व ही नहीं था अकल्पनीय था. वैसे तो अकल्पनीय शायद कुछ भी नहीं रह गया है. बड़े बड़े शहरों में बच्चे तक टीवी पर मोमबत्तियों का जुलूस देखकर बुदबुदाते हैं ‘लो, एक और रेप और ह्त्या हो गयी.’ हिन्दी में सत्कार के हिज्जे सही न लिख पायें पर बलात्कार सही सही लिख कर दिखा देंगे. अंग्रेज़ी में गैंगवे का अर्थ भले न समझें पर गैंगरेप खूब समझते हैं. पर मझोले कद का यह शहर एक अपवाद सा है. यहाँ अधिकाँश लोग एक दूसरे को जानते हैं इसलिए गुमनामी की चादर में मुंह छुपाकर ऐसे कुकृत्य कर डालने के मौके यहाँ कम मिलते हैं. ऐसे अधनींदे शहर में एक बेहद सनसनीखेज खबर अपने ही दफ्तर की ज़मीन फोड़ कर बाहर निकल आई तो तहलका मचना ही था. अभूतपूर्व तहलका.

वैसे इतने बड़े धमाके की उत्पत्ति बारीक सी सुरसुरी से हुई थी. बड़े बाबू ने बड़े साहेब की स्टेनो उमा को अपने कमरे के खुले दरवाज़े के सामने के गलियारे में रुमाल से अपनी आँखों के आंसू पोंछते हुए बाहर की तरफ जाते देखा था तो उन्हें बेहद ताज्जुब हुआ था. इतनी सुबह अर्थात साढ़े दस बजे उमा का दफ्तर से वापस जाना असाधारण था. बड़े साहेब की स्टेनो होने के कारण उमा की चाल में जो चुस्ती, चेहरे पर जो उजाला और आँखों में जो आत्मविश्वास या दर्प होता था वह सब गायब था. उमा की चाल बुझी बुझी सी थी. आदत के अनुसार उसे बड़े बाबू के दरवाज़े के सामने से जाते हुए अन्दर उनकी तरफ झांककर एक मुस्कान तो देनी ही चाहिए थी.बड़े बाबू दफ्तर के बाकी सारे कर्मचारियों की अदब के साथ की गयी नमस्ते का जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते थे पर उमा की हैसियत कुछ अलग थी. बड़े बाबू उसकी हलकी सी मुस्कान को भी लपक कर स्वीकार करते थे.

उमा के प्रति इस नरम रवैये का कारण उमा का बड़े साहब की पी ए होना मात्र नहीं था. बड़े बाबू लंच के बाद मुंह में पान रखकर जब अपनी कुर्सी के सिरहाने टंगे तौलिये पर सर टिका कर दो चार मिनट की झपकी लेते थे तो जिस उमा को अपने ख्यालों में आने से रोक नहीं पाते थे उसपर अपना कड़कपन कैसे दिखाते. भगवान ने उमा की झोली में सलोनापन तबीयत से भर कर जो दिया था. बहुत सुन्दर तो उसे नहीं कहा जा सकता था.पर लगभग तीस साल की उम्र में भी उसके चेहरे पर एक ताजगी रहती थी.हो सकता है बड़े साहेब की पी ए बन जाने पर किसी की भी आँखों में नशा और चेहरे पर नमक आ जाए पर उमा की आँखों में एक आकर्षण ज़रूर था. औसत कद, छरहरी काठी और गेंहुए रंग में घुले स्वर्ण चम्पा की आभा ली हुई त्वचा वाली उमा को देखना बड़े बाबू को अच्छा लगता था. उमा का ध्यान आते ही उन्हें अपने अधेडपन पर खीझ होने लगती थी. सर के बाल गंज में इतनी तेज़ी से न बदल रहे होते और स्टाफ की चुगलखोर ज़ुबानों की सवारी करके खबर अपने घर तक पहुँच जाने का खतरा इतना वास्तविक न होता तो बड़े बाबू दिन में दो चार बार उमा से बोल बतिया कर अपने दिल को ठंढक पहुंचाने का कोई न कोई रास्ता अवश्य खोज निकालते. बड़े साहेब तो कितने आयेकितने गए, बड़े बाबू आज उसी दफ्तर में पच्चीस साल से जमे हुए थे. उमा को लहराती मस्तानी चाल से जब भी अपने कमरे के सामने से गुज़रते हुए देखते थे वे तुरंत मन ही मन अपनी इन्ही सब कमजोरियों और मजबूतियों का जोड़ घटाना लगाना शुरू कर देते थे. पर अंत में इसी मनहूस निष्कर्ष पर पहुंचते थे कि उमा से न दोस्ती संभव होगी न दुश्मनी फायदेमंद होगी. फिर मन में उठता था बड़े साहेब से जलन का ज्वार. पर इस चिढ का वास्तविक कारण अकेली उमा नहीं थी बड़े साहेब का रवैय्या भी था जिससे पूरा स्टाफ तंग आया हुआ था.

उमा को आज आँखों के आंसू पोंछते, सर नीचा किये, परेशान मुखमुद्रा में दफ्तर से बाहर जाते देख बड़े बाबू खुशी से उछल पड़े. समझने में देर न लगी कि जिस मौके की उन्हें तीन महीनो से तलाश थी वह आज अचानक देवी कृपा की तरह उनकी झोली में आ गिरा था.पेट्रोल और माचिस का साथ हो तो आग कब तक नहीं लगेगी. बड़े बाबू को उसी आग की प्रतीक्षा थी जिसमे बड़े साहेब का सारा बड़प्पन झुलस जाए. दफ्तरों में महिला कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर आये इतने सारे सर्क्युलरों के चलते किसी शौक़ीनतबीयत पुरुष कर्मचारी को उन आदेशरूपी तोपों के मुंह पर बांधकर उड़ा देना बड़े बाबू जैसे तोपची के लिए बाएं हाथ का खेल था.

ओफिस असिस्टेंट से ऑफिस सुपरिंटेडेंट बनते बनते पिछले पच्चीस सालों में बड़े बाबू ने बहुतेरे बड़े साहेब देखे थे. पर बड़ा साहेब बनकर तीन महीने पहले आने वाला ये एन सी कपूर सारे दफ्तर के लिए एक मुस्तकिल सरदर्द और मुसीबत बन कर छा गया था. पता नहीं अन्ना हजारे से गण्डा तावीज़ बंधवा कर आया था या अपने आप को महात्मा गांधी का अवतार समझता था. यहाँ आने के साथ ही घोषित कर दिया था कि उसे न खुद खाना पसंद था न किसी और को खाते देखना. ईमानदारी के कोढ़ के साथ अनुशासन की खाज भी ले आया था. आने के साथ ही शाही फरमान सुना दिया था कि अटेंडेंस रजिस्टर रोज़ उसके सामने दस बजने के बाद दस मिनट के अन्दर पेश किया जाएगा और एक दिन लेट आने पर मौखिक चेतावनी और दो दिन लेट आने पर लिखित चेतावनी दी जायेगी. तीसरे दिन पांच मिनट लेट आने पर भी अनुपस्थित घोषित कर दिया जाएगा. उसका जाता भी क्या था. अपनी कोलेज लेक्चरार बीबी और बच्चों को स्कूल सत्र के बीच में न छेड़ने का बहाना लेकर उन्हें तो वहीं दिल्ली में छोड़ आया था, यहाँ सिर्फ विधवा माँ साथ रहती थीं. अब यहाँ दूसरों की ज़िंदगी हराम करने से अधिक ज़रूरी उसके पास और कोई काम नहीं था. कपूर था तो गोरा चिट्टा, ऊंचे कद का सुदर्शन चौंतीस पैंतीस साल का जवान पर जबसे आया था किसी ने उसे किसी महिला कर्मचारी की तरफ नज़र भर के देखते नहीं पाया था. बड़े बाबू ने दुनिया देख रखी थी.उन्हें हर हालत में इस कपूर के बच्चे की कमज़ोर नस पर हाथ रखना था. पच्चीस साल के अनुभव ने उन्हें इतना तो सिखा ही दिया था कि हर इंसान की कोई न कोई कमजोरी ज़रूर होती है.खाने पीने के मामले में शायद वह कमाऊ पत्नी और अकेले बच्चे के कारण कमज़ोर न पड़े पर कपूर के कवच में छेद करने के लिए उमा जैसी सलोनी स्टेनो से बढ़कर सशक्त हथियार और क्या होगा. उमा के बारे में कोई ऐसी वैसी खबर तो ऑफिस मे कभी नहीं सुनी गयी थी. पर पहले जिन दो बड़े साहेब लोगों के साथ उसने पी ए का काम सम्भाला था वे दोनों बुज़ुर्ग थे .यहीं से रिटायर भी हुए थे और बड़े बाल बच्चों वाले थे. फिर उन दोनों में कोई इस कपूर की तरह न तो इतना सुदर्शन था न इतनी दूर दिल्ली में काम करने वाली पत्नी के वियोग का शिकार. बड़े बाबू ने धूप में बाल सफ़ेद नहीं किये थे. उन्हें पूरा भरोसा था कि एक न एक दिन बिजली वहाँ गिरेगी ज़रूर जहाँ वे चाहते थे. एक अनुभवी शिकारी की तरह वे धीरज के साथ प्रतीक्षा करते रहे शिकार के स्वयं फंसने का. जाल उन्होंने तो बिछाया नहीं पर प्रकृति के कारोबार पर उन्हें भरोसा था.

इसीलिये उस दिन उमा को सुबह सुबह बड़े साहब के कमरे से निकलकर रूवांसी मुख मुद्रा में सर नीचा किये दफ्तर से बाहर जाते देखा तो उन्हें लगा कि उनकी प्रतीक्षा के क्षण पूरे हुए.सामने कुर्सी पर बैठे हुए आगंतुक से उन्होंने कहा ‘मैं अभी आया.’ कुर्सी की पीठ पर लटका हुआ तौलिया उठा कर चेहरे पर फेरा, अपना चश्मा भी उतारकर उसी से साफ़ किया और इतनी फुर्ती से लपक कर दरवाज़े से निकलकर गलियारे में आ गए कि उनके सामने बैठा आगंतुक उन्हें बस मुंह बाये देखता रह गया. पर उमा की जवान चाल में जो तेज़ी थी वो बड़े बाबू की अधेड़ चाल में कहाँ. वे दूर से ही देखते रह गए और उमा दफ्तर के गेट के सामने खड़े एक रिक्शे पर सवार होकर चलती बनी. बड़े बाबू न उसका पीछा कर सकते थे न उमा उमा चिल्ला कर उसे रोक सकते थे. पर दाल में कुछ काला ज़रूर था. अभी पता लगा लिया तो कपूर की खटिया खड़ी कर देंगे. उसी क्षण वापस मुड़कर वे बड़े साहेब के कमरे के बाहर पहुंचे. देखा कमरे के बाहर स्टूल पर सदा विराजनेवाला उनका चपरासी अवधेश भी नहीं था. फिर दरवाज़े पर लगे परदे के कोने से बहुत होशियारी से उन्होंने चुपके से झांका तो देखा कि कपूर साहेब बेचैन से होकर अपनी बड़ी सी मेज़ के सामने टहल रहे थे.

बड़े बाबू तहकीकात कैसे जारी रखें सोच ही रहे थे कि गलियारे के छोर पर अवधेश दिखाई पडा. उन्होंने अवधेश के पास पहुँच कर जोर से पूछा ‘ अरे तू यहाँ कहाँ घूम रहा है. साहेब बुलायेंगे तो कौन जाएगा.?”

अवधेश बोला ‘अरे हम तो वहीं अपनी ड्यूटी पर बैठे थे. साहेबे ने कहा जाओ सर दर्द हो रहा है बाहर किसी दूकान से सिरदर्द की गोली लेकर आओ. हम्मे तो बस इधर से उधर दौडाय रहे हैं.”

बड़े बाबू ने पूछा ‘उमा मैडम को भी कुछ लेने के लिए भेजा है क्या?”

‘येल्लो. अरे ऊ क्या इसी लिए हैं कि चाय पानी और दवादारू लेने जाएँ.’अवधेश ने तपाक से जवाब दिया. पर चुप नहीं हुआ. इस बार बड़े नाटकीय ढंग से आँखें गोल गोल घुमा कर, आवाज़ को फुसफुसाने के स्तर तक लाकर बड़े बाबू के कान के पास अपना मुंह लाकर बोला ‘ हम तो पंद्रह बीस मिनट तक दवाई के चक्कर में रहे. जब लौट कर आये और कमरे में घुसे तो देखा मैडम रूवांसी थीं. साहेब से कह रही थीं “सर ,आपने ये ठीक नहीं किया. ज़रा मेरी मजबूरियों को भी समझने की कोशिश की होती आपने.” हम कमरे में ऐसे ही बिना कोई आहट किये घुस गए थे, हम्मे देखकर मैडम रूमाल से अपनी आँखें पोंछती बगल वाले अपने रूम में चली गयीं. इधर साहेब को और न कुछ सूझा तो हमरे ऊपर ही चढ़ बैठे. दहाड़ने लगे कि जब कोई बात कर रहा हो तो बाहर वेट करना सीख. अब आपे बताओ, हम क्या क्या सीखें. दिन भर तो हम वहीं रहते हैं. अब सीखने को क्या बचा है? हमसे कुछ छुपा है?’

अवधेश की बातें सुनकर बड़े बाबू की बांछें खिल गयीं. बड़ी उत्सुकता से बोले ‘फिर क्या हुआ?’

‘अरे जब हमपर दहाड़ चुके तो बोले “जाओ,काफी ले कर आओ.” तभी मैडम अपने प्रिंटर पर एक पेज टाइप कर के ले आयीं. तौन साहेब को सौंप दिया. मुंह तो लटकाए ही थीं, अपनी पर्स भी हाथ में लटका ली और चलती बनीं. हम भी काफी लेने चले गये. वही तो लेके आ रहे हैं’ उसने प्रमाण के तौर पर हाथ में लटका छोटा सा थर्मसफ्लास्क दिखा दिया.

बड़े बाबू की तो जैसे भगवान् ने सारी मुरादें पूरी कर दीं. अपने ऑफिस में लौटने के बजाय वे सीधे बैनर्जी के कमरे में चले गए. बैनर्जी पूरे मण्डल कर्मचारियों की यूनियन का सेक्रेटरी था. उसे दफ्तर में कभी समय से आते-जाते किसी ने देखा नहीं था. पहले तो दफ्तर में हमेशा दोचार कर्मचारियों से घिरा हुआ लम्बी लम्बी डींगें हांकता रहता था. कपूर साहेब के आने के बाद से उसके इर्द गिर्द जमा रहने वाले उसके चमचे कम दिखाई देने लगे थे. बैनर्जी अपनी घटती हुई प्रतिष्ठा को लेकर परेशान था. बड़े बाबू से उसने एक सप्ताह पहले ही कहा था ‘ अब ई शाले कपूर का हाथ पैर तोड़ने का कुछ प्रोबंध कोरना होगा.’ बड़े बाबू ऐसे अवसरों पर खुद चुप ही रहते थे. पर आज अवधेश से सुनी और अपनी आँखों देखी बनर्जी को तुरंत सुनाने सीधे उसके कमरे में आये थे. बनर्जी ने बड़े बाबू की बात सुनी तो अपनी जाँघों पर ताल ठोंकता हुआ खिलखिलाकर बोला ‘ अरे क्या भोयंकर समाचार लाया हाय आप बड़े बाबू. अब उश शाले कपूर को हम एक दिन भी इस दफ्तर में टिकने नहीं देगा.’

वह जोश में अपनी कुर्सी से उठ कर खडा हो गया. चिंघाड़ते हुए कमरे में बैठे अन्य चार पांच स्टाफ के लोगों से बोला ‘अरे तुम लोग शाला इधर चुप चाप जनाना के माफिक बैठा हुआ है और उधर ई शाला दफ्तर में जनाना लोग का इज्ज़त से खेला हो रहा है.’ कमरे में सनसनी दौड़ गयी.बनर्जी इतनी तेज़ आवाज़ में गरजा था कि साथ वाले कमरे से भी लोग अपनी खुली फाइलें एक किनारे पटक कर भागे आये.इन लोगों में विमला बहेनजी सबसे आगे थीं. बनर्जी के वामपंथी गुट के खिलाफ विमला बहेनजी एक दक्षिणपंथी दल के महिला पक्ष से सम्बद्ध थीं और बनर्जी का दफ्तर की राजनीति में तोड़ तलाशती रहती थीं. बनर्जी के कमरे में घुसते हुए उन्होंने अपनी सारी के पल्लू को कस कर अपनी कमरानुमा कमर में खोंसा, नाक पर चश्मा और मजबूती से जमाया और किसी ट्रक के भर्राए हुए भोंपू से भी तेज़ आवाज़ में चिल्लाईं ‘महिलाओं की इज्ज़त पर डाका डालने वालों को फांसी दो ‘उनके पीछे पीछे आने वाले उनके सहयोगियों ने जिनमे दो महिलायें भी थीं विमला बहेनजी के आह्वाहन को और बुलंदी दी.

देखते देखते मंडलीय कार्यालय के अधिकाँश कर्मचारी वहाँ जमा होकर एक दूसरे से विस्मय के साथ पूछने लगे कि आखिर हुआ क्या था. नहीं आये तो बड़े साहेब के अधीनस्थ चार और अफसर जो अपने अपने कमरों के अन्दर से दरवाजों पर लगे पर्दों के किनारों को सरका कर दूर से ही स्थिति का जायज़ा लेने लगे. बड़े साहेब के कमरे तक ये शोर गुल न पहुंचा हो संभव नहीं था. बनर्जी ने ताना देते हुए लोगों से कहा ‘देखो शब् लोग, उशको अब कुछ शुनाई नहीं देगा. चलो शाला भागने ना पाए. आज बूझेगा कि ऊ शब दिल्ली वाला गुंडागर्दी का खेला इहां नहीं चोलेगा.’

बड़े बाबू अब इन गरजते बरसते लोगों से थोड़ा परे हटकर खड़े हो गए थे. गुस्से से उफनती ये भीड़ बड़े साहेब के कमरे में घुसी तो वे अपनी कुर्सी से हडबडाकर उठ खड़े हुए.उनका चेहरा सफ़ेद हो रहा था,लग रहा था मौक़ा पाते ही भाग निकलेंगे. ज़ाहिर था किसी महिला की इज्ज़त पर हाथ डालने का उनका ये पहला प्रयत्न रहा होगा और किसी क्रुद्ध भीड़ से घिर जाने का पहला अनुभव. बनर्जी ने साहेब की मेज़ पर मुक्का मारा और चिल्लाया ‘ ई शब क्या शुनता है हम लोग. उमा बहन के साथ आज कैसा गलत काम किया गया है?’ विमला बहन कहाँ पीछे रहने वाली थीं. अपने नारी कंठ में भगवान् की गलती से फिट हो गए मर्दाने स्वर में उन्होंने नारा दागा ‘महिलाओं के साथ हैवानियत दिखाने वाले को फांसी दो ---’ वे प्रतीक्षा कर रही थीं कि प्रतिध्वनि की तरह और लोगों की आवाज़ में ‘फांसी दो’ दुहराया जाएगा पर उन्हें बड़ा धक्का लगा जब वैसा हुआ नहीं. असल में लोगों का ध्यान अब बड़े साहेब पर केन्द्रित हो गया था. वे बनर्जी के सामने अपराधी से खड़े हकलाते हुए कह रहे थे ‘मैंने आज अचानक तो कुछ कर नहीं दिया. पिछले तीन दिनों में तीन बार वही बात मैंने उमा से कही थी. कुछ किया तो आज पहली बार. उसे पहले ही चेत जाना चाहिए था.’

बनर्जी ने बड़े साहेब का कालर अपने बाएं हाथ से पकड़ लिया. मारने की मुद्रा में दाहिना हाथ उठा कर बोला ‘अरे वाह रे बेशर्मी. तुम्हारे कमरे में उमा अकेला आता है तो तुम उसका इज्ज़त से खेला कोरेगा? ऊ बेचारा दो दिन तक चुप रहा तो तुम तीसरा दिन बाघ का माफिक उसको खाने के लिए तैयार हो गया?’बनर्जी के पीछे खड़े अन्य कर्मचारियों की आपस की खुसुर पुसुर अब क्रुद्ध मधुमक्खियों की तेज़ भिनभिनाहट की तरह गूंजने लगी. विमला बहेन जो अपने नारे की प्रतिध्वनि न सुनकर निराश और बनर्जी को नंबर मारते देखकर बेचैन थीं फुफकारते हुए बोलीं ‘वाह, उलटा चोर कोतवाल को डांटे?अरे उसकी चुप्पी देखकर तुम कुछ भी करने पर उतारू हो गए? भूल गए इस देश में देवियों की तरह पूजते हैं महिलाओं को. उमा पहले चेत जाती तो माँ दुर्गा की तरह चंडी रूप धारण कर लेती.’

कपूर साहेब बैनर्जी के हाथ के प्रहार की आशंका में अपना गाल बचाने के लिए टेढ़ी मुद्रा में आ गए थे. विमला बहन तो सिर्फ बातों के तीर चला रही थीं. उन्ही की तरफ मुखातिब होकर लगभग घिघियाते हुए बोले ‘देखिये .मैंने दो बार उसे लेट आने के लिए मौखिक वार्निंग दी थी. पर वह फिर भी आज जब पंद्रह मिनट लेट आयी तो मैंने कहा तुम्हे एब्सेंट मार्क करने के लिए बड़े बाबू से कहूं इससे अच्छा है कि तुम आज की कैजुअल लीव ले लो. अगर अब भी नहीं सुधार दिखा तो लीव विदाउट पे मिलेगी. वो पहले तो बस छूट जाने की बात करती रही .फिर कैजुअल लीव की एप्लीकेशन देते हुए कहने लगी ‘सर आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था. मेरी मजबूरियों को तो समझिये.’ अब आप ही बताइये, कुछ मेरी भी जिम्मेदारियां हैं. मजबूरियां हैं. किसी को वार्न करने के बाद एब्सेंट लगाने का मतलब क्या उसकी इज्ज़त से खेलना है?’

कपूर साहेब के कालर पर बनर्जी के हाथ की पकड़ एकदम से ढीली हो गयी. विमला बहन ने अचानक पीछे की तरफ मुंह फेरा. सामने खड़े कर्मचारियों को ललकारते हुए बोलीं ‘ देखा आप लोगों ने बनर्जी साहेब का करिश्मा. अरे एक बार उमा को फोन लगाकर पूछ तो लेते कि क्या हुआ था. इनके पास तो सबके फोन नंबर क्या, पूरी जन्मकुंडली रहती है. मुझे तो मालूम ही है कि ये बिना कुछ समझे बूझे बमकते रहते हैं.’ इसके बाद उन्होंने ये बताने की ज़रुरत नहीं समझी कि वे खुद बनर्जी से बिना कुछ समझे बूझे कैसे आ गयी थीं, एकदम से पलट कर तेज़ कदमों से वे बड़े साहब के दफ्तर से बाहर चली गयीं. बाकी का स्टाफ ऐसे तितर बितर हो गया जैसे पीछे पुलिस लाठी चार्ज कर रही हो. बड़े बाबू जो बड़े साहेब के कमरे के परदे के किनारों से सदा अन्दर बैठी उमा को ताका करते थे अब तक अंतर्ध्यान हो चुके थे. देखते ही देखते खलबली सन्नाटे में बदल गयी.