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Muavja

कहानीः—

मुआवजा

उसकी जिन्दगी भले गांव के लिए कभी महत्वपूर्ण न रही हो, पर आज उसकी मौत गांव के समक्ष बेहद जरूरी मुद्‌दा बनकर खडी हो गयी थी। सीना फुलाये। उससे पार पाने की तरकीबें निकाली जा रही थी। हर एक के अपने—अपने स्वार्थ थे। उन तमाम जोड़—घटाने की बाढ़़ में एकदम से अलग—अलग पड़ गयी थी—एक मां की कातर घुटी—घुटी चीखे और एक बृद्ध बाप के आंखो से रह—रह कर झरते बेशुमार आंसू।

पिछले करीब दो बरसों से वह एक पागल का जीवन जी रहा था। कभी चीख—चीख कर ष्भारत माता की जयष् ष्इंकलाब जिन्दाबादष् के नारे लगाता दिख जाता, तो कभी दोनो हाथ आसमान की ओर उठाकर जोर—जोर से कुछ अनाप शनाप बड़बडाते मिल जाता। उसे इस रूप में देखने की जैसे सभी को आदत पड़ गयी थी। कई बड़े—बुर्जुग उसकी इस दशा पर अफसोस जाहिर करते, तो कुछ लोग उसकी ऊटपटांग हरकतो से अपना दैनिक मनोरंजन कर लेते थे। ऐसे लोगो के लिए वह चलता फिरता, हरदम खुले रहने वाले ष्मनोरंजन केन्द्रष् सरीखा था। पंचे नाम था उसका। कुछ बरस पहले तक वह एक सामान्य युवक था। खेती किसानी में अपने खेतिहर बाप का हाथ बटाने वाला। मेहनतकश। गांव के प्राथमिक विद्यालय में उसने पांचवी तक पढ़ाई भी की थी। उसके पास कुल जमा एक एकड़ की खेती थी। जिससे परिवार के भोजन की समस्या का समाधान तो होता ही था, उसके विवाह मेें भी उसने अत्यन्त निर्णायक भूमिका निभायी थी। उसके पिता रामदीन महतो ने रिश्तेदारी में दौड़धूप कर व काफी जोड—तोड कर बेटे के लिए कन्या की व्यवस्था की। महाजन से कर्जा—उधार लेकर महतो ने लड़के का ब्याह बडी धूमधाम से किया। पंचे की मां का उत्साह उफान पर था। नाते रिश्तेदारो की भीड़—भाड़ मे वह उड़ी—उड़ी फिर रही थी। आंगन मे जहां ‘कुल देवता‘ की बेदी बनायी गयी थी, उसके ऊपर चारा ओर रंगीन कागज की कटी लाल— पीली हरी—नीली तिकोनी झंडियो को ठीक से लगाने के लिए वह टोले के किशोरो का मनुहार कर रही थी। काम सम्पन्न होने पर उन सबको लड्‌डू खिलाने का प्रलोभन भी वह दे रही थी। ढ़ोलक की थाप थोड़ी मंदम पड़ती, तो वह दौडकर टोक देती, ....ई का बड़का भौजी....थकि गइव का....जोरेस बजावव....गांव भर मा सुनि परय तब बात....

टोले भर की रौनक बढ़ा रही थी, महतो के आंगन से उठ रहे विवाह गीत व ढ़ोलक की थाप ने....

.........आज उजेरिया रे निरमल निकरेयव निरमल रहयव सार रात रे बेहन जंइहै बेटवा कै बाबा, गंगा जमुनवा के पार रे.......

ये मनोहारी लोक संगीत पट्‌टीदारी की उन मांओ के दिल पर जरूर सांप की माफिक लोट रहे थे जिनके लड़के तो जवान थे, पर उनके विवाह की संभावना दूर—दूर तक नही दिख रही थी।

पियरी धोती पहने महतो युवा रिश्तेदारों को बारात की व्यवस्था ठीक ढंग से संभालने का निर्देश दे रहे थे। बार—बार। लड्‌डू के लिए बेसन की बुदिया छान रहे हलवाई को भी वह दौडकर नसीहत दे आते, काका.....देखव........महीन दाना छानेव.....अव देखय लिहव कच्चा न रहि जाय.... दम मारने की फर्सत न थी महतो के पास। गांव जेवार का जो भी पुरूष सामने पड़ता, उसे बारात के लिए न्यौतने लगते। दुआरे पर एक दो नही, तीन—तीन ट्रैक्टर—ट्रालियां तैयार खड़ी थी। बारातियों को ले जाने के लिए। घराती—बराती सभी बहुत दिनो तक विस्कोहर बाजार से लायी गयी दो नर्तकियो की कातिल अदाओं को याद कर बाग—बाग हो जाते थे। भोजन—पानी के बाद पूरी रात उनका नाच—गाना चला था। फिल्मी गानो, भोजपुरी लोकगीतो के साथ—साथ उन नर्तकियों ने गुलाम अली की एक मशहूर गजल पर भी हाथ साफ कर हैरत में डाल दिया था......

हम तेरे शहर में आये है मुसाफिर की तरह, सिर्फ एक बार मुलाकात का मौका दे दे......

उस रात क्या बडे, क्या बूढ़ेे सब पर एक खुमारी सी छा गयी थी। कयामत बनकर आयी थी वो रात।

विवाह को महीने भर भी नही बीते थे कि पंचे का दिमाग फिर गया। उसकी हरकते दिन व दिन असामान्य होती चली गयी। इसकी भनक लगते स्थानीय ओझा—सोखा आ धमके। महतो से रूपये ऐठने के लिए वे बाकायदा लाल मिर्च सुलगाकर पंचे का भूत उतारने लगे। मरता क्या न करता, महतो आशा भरी नजरो से ये सब देखते रहे। परन्तु ओझाओ के कई कथित प्रयासो के बावजूद भी वह गांव में एक पागल के रूप में स्थापित हो गया। लाइलाज। बेटे की शादी में महाजन से लिया गया कर्जा अभी चुकता होना शुरू भी नही हुआ था कि एक दिन पंचे की पत्नी कमली मायके भाग खड़ी हुई। महतो दोहरी आपदा के चपेट में आ गये थे। उनके घर पर शोक—सवेन्दना व्यक्त करने के बहाने गांव वालो का हुजूम लगना शुरू हो गया। गांव की औरते कमली के चुडैल होने की तस्दीक करने में लगी थी। सिर पर हमेशा देवी जी के सवार रहने के कारण खासी चर्चा में रही एक बूढ़ी महिला माई आजी ने तो कमली के पांवो की कुछ—कुछ मुड़ी चिपटी बनावट को पुख्ता आधार बना उसे साक्षात पिशाचनी ही घोषित कर दिया था। कमली के इस तरह चले जाने को वह देवी जी का चमत्कारिक प्रभाव मान रही थी। उनके अनुसार गांव के पुरूष समुदाय खासकर युवा वर्ग पर मड़रा रहे सम्भावित खतरे को देवी जी ने टाल दिया था। महिलाओ की तरह मर्द बिरादरी में एक राय नही बन पायी थी। कुछ महिलाओ के समर्थक थे, तो कुछ मर्द मंद—मंद मुस्कान के साथ कमली के चाल—चलन खराब होने की शत प्रतिशत गारन्टी ले रहे थे।

समय बीतने के साथ कमली को लेकर होने वाली परिचर्चायें मंद पड़ गयी । महतो के घर पर लगने वाला जमघट छंट गया। पर पंचे का पागलपन बरस्तूर जारी रहा। एक दोपहर गांव के समीप के तालाब में छलाग लगा दी उसने। मछली मारने के लिए वहां कटिया लगाये लड़को ने भागकर इसकी सूचना गांव में दी। जब तक कि लोग दौड़कर पहुंचते और उसे बचाने की कोशिश करते। पंचे डूब कर मर चुका था। लाश तालाब से बाहर निकाली गयी। घर में कोहराम मच गया। उसकी माँ का रो—रोकर बुरा हाल था। पिता महतो के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। वह बस फटी आंखो से बेटे की फूल चुकी लाश को घूरे जा रहे थे। पूरा गांव तालाब किनारे जमा हो गया था। पास की पुलिस चौकी से दो सिपाही मामले को सूंघते पहुंच चुके थे, जिनको ससम्मान बैठाने के लिए दो आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त कुर्सियो की व्यवस्था गांव वालो ने कर दी थी।

श्महतौ चाचा....लरिका तव हाथ से गबयन कीन...अब लहास कय पोसमाटम (पोस्टमार्टम) कराय लेव, तव कुछ सरकारी इमदाद मिल जायी....श् गांव के प्रधान धरमपाल ने पिता को अपनी तरफ से नेक सलाह दी। प्रधान विरोधी गुट से ताल्लुक रखने वाले और भुखमरी के कगार पर खड़े गांव के सबसे दरिद्र व्यक्ति निबरे को प्रधान की सलाह बिल्कुल ही रास न आयी। बडी तत्परता से वह बीच में कूद पड़ा...

श्३जब आपन लरिकवा चला गवा, तव रूपया लंय कय का करिहो महतौ... परधान कय चक्कर मा न परव महतौ.... पंचनामा करावौ...श् प्रधान ने जब निबरे को घूरा, तो वह थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया।

श्पंचे कै माई....लरिका कै मट्‌टी खराब न करौ...लहास कै दुरगति न कराऔ...रूपया, पैयसा बांधि कै न लय जाबौ...श् पट्‌टीदारी की सारी महिलाये पोस्मार्टम के पक्ष मे न थी। गरीबी से सिर से लेकर पांव तक लबरेज इस गांव मे आश्चर्यजनक रूप से रूपयों का प्रलोभन निस्तेज साबित हो रहा था, तो उसकी भी एक ठोस वजह थी—कल पड़ने वाला बहुप्रतीक्षित त्योहार—नागपंचमी। बाजार से सभी घरों में मैदा, गुड़ व डालडे की खरीददारी पूरी हो चुकी थी। बस गुलगुला छानने के लिए चूल्हे पर कडाह चढ़नी थी कि बीच में ये संकट आ गया। त्योहार का मजा ही किरकिरा हो गया। पंचनामा भर के अन्तिम संस्कार हो जाये, तो भी गनीमत है। कही मामला पोस्टमार्टम तक खिचा, तो हो गया त्योहार का सत्यानाश। अब ये शहर तो है नहीं कि गैस के चूल्हे पर सोलह व्यंजन पका लिये जाये और पडोसी को कानोकान खबर हो। ये तो ठहरा, हमारे कृषि प्रधान देश का एक गांव। तमाम रूढ़ियो, अंधविश्वासो व अनिष्ट की आशंकाओ से भरा। यहां कुछ भी पकेगा, तो चूल्हे से निकला धुआं पूरे गाँव में उसकी चुगली कर देगा। पहली बात तो यहां ऐसी गुस्ताखी करने की हिम्मत ही कोई नही करेगा। यदि कर भी ले, तो बिरादरी के सीधे निशाने पर आ जायेगा। फिर पूरी पट्‌टीदारी में उसका खान—पान, हुक्का—पानी सब बंद। ऐसी जटिल परिस्थतियों में मन मारने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। नागपंचमी (गुडिया) मकर संक्रान्ति (खिचड़ी) जैसे छोटे—छोटे त्योहारो को लेकर गांव वालों खासकर महिलाओ में जो जुनून छटपटाहट देखने को मिलती है, वो एकबारगी सभ्य समाज को भले अचरज में डाल दे। पर इसकी भी अपनी जायज वजहे है... इनकी जीवन शैली बेहद नीरस होती है। शहरी महिलाओ की तरह न इनके पास सास—बहू के दांवपेंच वाले डेली के सीरियल होते है और न ही किटी पार्टियों के आयोजन ...खेती—किसानी मे ये पुरूषो की बराबरी मे हिस्सा लेती है। हाड़—तोड़ मेहनत करती है। सुबह—शाम घरेलू कामों में खटती रहती है। एक ओर जहां पुरूषो की रोजमर्रा की जिन्दगी में मनोरंजन के कई कपाट खुले होते है—पान, तम्बाकू, भांग की दुकाने, चाय—समोसे के होटल से लेकर देर रात तक खुली रहने वाली (नमकीन व आमलेट के ठेलो से सुसज्जित) दारू भट्‌टी तक। गांव के कुछ पुरूष तो पांच—पांच कोस चलकर तवायफो का नाच देखने का राजसी शौक भी पाले है। खुद तो जाते ही है, गांव के चार—छः शौकीन लौन्डो को भी ट्रेन्ड करने साथ ले जाते है, ताकि भविष्य में इनकी परम्परा निर्वाध गति से जारी रहे। पुरूषो की तुलना में महिलाओ के हिस्से में मौज मस्ती के क्षण बहुत कम आते है। साल में एक—दो बार मोर्हरम, कार्तिक पूर्णिमा के मेले—ठेले में घूम लेना। चाट—समोसे, गोलगप्पे खा लेना। या फिर त्योहारो में दूर गांव से आये जीजा—बहनोई सरीखे रिश्तेदारो से हंसी—ठिठोली, चुहल बाजी, गाली गलौज कर लेना। उनसे अपने सुख—दुःख बांट कर जी हल्का कर लेना। ऐसे ही एक बहुप्रतीक्षित त्योहार के ठीक एक दिन पूर्व घटी इस घटना ने महिलाओं को सकते में डाल दिया था। अब होनी को भला कौन टाल सकता है। माई आजी ने ठंडी सांस भरकर कहा, श्३करम गति टारे नहीं टरय...श्

खैर, महिलाओ की तमाम भावनात्मक गुहारें नजर अदांज कर दी गयी। पुलिस वालो के सहयोग से प्रधान ने पोस्टमार्टम पर सहमति बना ली। पोस्टमार्टम के बाद लाश त्योहार के दिन सुबह गांव वापस लायी गयी। दाहक्रिया सम्पन्न होते—होते दो—तीन बज गये। त्योहार के रंग मे भंग तो पड़ ही चुका था। पहुना को गुलगुले न खिला पाने का मलाल महिलाओ को कई दिनो तक सालता रहा। पंचे की तेरहवी निपट जाने के पश्चात्‌ शुरू हुआ प्रधान का असली खेल—जिस आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर पोस्टमार्टम कराया गया था, अब उसे प्राप्त करने के प्रयत्न शुरू हुऐ। प्रधान ने महतो से ललचाने के अंदाज में कहा, श्पंचे कय मामला मा ठीक ढ़ंग से पैरवी होय जाय, तव ढाई—तीन लाख से कम न मिली... यह मा खरचा भी लागी... तैयार होव महतौ, तव दौर—धूप शुरू करी...श्

महतो से सहमति मिलते ही प्रधान ने पैरवी की शतरंजी गोटियां बिछानी शुरू कर दी। थाने का तो वह दलाल ही था। वह जानता था कि आज के दौर में सर्वाधिक तत्परता से बिकने को तैयार खडा कोई विभाग है, तो वो है पुलिस विभाग। हलके के लेखपाल ने जरूर प्रधान को वैधानिक चेतावनीनुमा सलाह दी, श्३गरम खय के चक्कर मा मुंह न जराओ परधान। पंचवा सार विवाहित रहा, येहि कारन जौन सरकारी मदद मिली वहकी पत्नी का ही मिली, ई गांठ बांधि लेव...श् अब समस्या थी कमली के ससुराल में न रहने की। प्रधान ने अपनी कोशिशे जारी रखी। कई दौर की गुप्त शिखर वार्ताओ के पश्चात एक समय पर तो प्रधान व लेखपाल मे इस बात पर सहमति बन गयी थी कि कमली बनाकर दूसरी महिला को पेश कर सरकारी सहायता ले ली जाये। पर इस राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन गया था, विगत पंचायत चुनावो में उप विजेता रहा रामवली यादव। घायल चीते सरीखा। धरमपाल से पांच वोटो से शिकस्त खाई थी उसने। उसने लेखपाल की नौकरी ले लेने की धमकी दी, तो उसका बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा। लेखपाल ने समय रहते मामले से अपना हाथ खींच लिया। एकबारगी प्रधान का खेल बिगड़ गया था, पर वह इतनी जल्दी हार मानने वाला न था। वह पंचे की ससुराल जा धमका। कमली के बूढे़ माँ—बाप को सरकारी मुआवजा मिलने की बात बतायी। कमली को उसने लाखो रूपये दिलवाने का लालच तो दिया ही, लगे हाथ इस बात का आश्वासन भी कि महतो की पांच बीघा जमीन की वसीयत वह उसके नाम करा देगा। बात बन गयी।

प्रधान के दौड़—धूप की उड़ती खबर गांव तक पहुंची। टोले में हलचल, खुसर—पुसर बढ़ गयी। आगे बढ़कर मोर्चा संभाला माई आजी ने श्३पंचे क माई, सुनेन हय परधनवा दारीजार कमली केरे गांवे तक धमकि गवा... तोहरे पंचवा का खाय गयि, वहि पिशाचिन कै गोड़ अपने टोला मा न परय दिहव, नहि तौ नाश होय कै रही...श् अपनी इस खुफिया सूचना और चेतावनी को माई आजी ने एक नही, कई बार पंचे की मां के आगे दुहराया।

श्३आजी, हम सबसे बहिरे थोरय हन...श् पंचे की मां ने आजी को आश्वस्त किया।

३ महतो टोला की एक सुस्त—मुस्त, ऊँघती दोपहरी......सूखी रोटियो व नमक—मिर्च की तीखी चटनी को मैली—कुचैली पोटली में बांध यहां के अधिकांश मर्द सवेरे—सवेरे मेहनत मजदूरी के लिए कूच कर चुके थेेेे। पास के कस्बे मे।यहां के प्राइमरी स्कूल मे तैनात इकलौते अध्यापक रमेश शर्मा अपने नये ‘स्मार्ट फोन‘ की आभासी दुनिया मे इस कदर मशगूल थे कि उसका फायदा उठाकर कई बच्चे मिड डे मील खाकर वहां से चुपचाप खिसक आये थे और फटे पुराने चिथडा लपेटकर बनायी गयी गेद और जलौनी लकड़ी मे से खोजकर निकालते गये अपेक्षाकृत चौड़े चैले से अब उनका बैट—बाल का खेल शुरू हो चुका था। कामकाज निपटा कर नीम के छांव तले बैठी महिलाओ मे पास—पडोस की चर्चा छिड़ चुकी थी। कुछ महिलाएं लडकियो के, तो कुछ बच्चियां अपनी मांओ के सिर से जुऐ निकालने के दैनिक उपक्रम मे लग गयी थी। ऐन इसी वक्त कमली का ससुराल मे पुर्नआगमन हुआ......घर के बाहर गोबर के कन्डे पाथती उसकी सास दिखी। एक झटके मे तो कमली उसे पहचान ही नही पायी। समय की मार और पुत्र वियोग की ठीस ने भरे शरीर वाली उसकी सास को हड्‌डी के ढांचे मे तब्दील कर दिया था। पंचे की मां ने कमली को देखा, तो एक पल को उसका कलेजा धक से हो गया। लगा जैसे बहू की ओट से निकलकर अभी पंचे आ खडा होगा। वही ब्याह का जामा—जोडा पहने, सिर पर पीली पगडी बांधे। कुछ क्षणो तक वह स्नेहिल नयनो से कमली को बस एकटक निहारती रह गयी और फिर दौड़कर उससे लिपट गयी। एकाएक उठे तीव्र संवेदनाओं के ज्वार के आगे माई आजी की तमाम चेतावनियां, आपस के गिले—शिकवे...सब तिनको की माफिक बह चले थे। वह देर तक उसके गले लगकर रोती रही। कभी दहाडे मारने लगती, तो कभी—कभी उनका रूदन पारम्परिक गायन शैली में बदल जाता। आसपास की सारी औरते उन्हे घेर कर बैठ गयी थी। उधर सिवान से कुछ साग पात का जुगाड़ कर लौट रही माई आजी इस मिलाप को देख पहले तो घोर आश्चर्य मे पड़ गयी, फिर रौद्ध रूप मे आ गयी। आनन—फानन मे मोर्चा संभाल लिया.....

....पंच कय माई, घाट—घाट कय पानी पी कै अब आई सतवन्ती बन कय तोहार जायजाद हडपय.....अनरथ (अनर्थ) होय जाई....तू अपने असल माई—बाप कय होयव, तव यहका घर मा घुसय न दिहव...

वहां बैठी कई महिलाये में माई आजी की हां मे हां मिलायी। इन सबकी अनुसुनी कर पंचे की मां ने बाये हाथ मे कमली की छोटी सी गठरी उठाई और दाहिने हाथ मे उसका हाथ कस कर पकडा और झटके से घर के भीतर दाखिल हो गयी। भडाक से दरवाजा बंद कर लिया। माई आजी सबका मुंह ताकती रह गयी ! खिसियाई सी। घर के भीतर पहुंचकर कमली ने चैन की सांस ली। नैहर से निकलते समय से ही उसे बार—बार ये डर सता रहा था कि कही उल्टे पांव लौटना न पडे। उसे उम्मीद नही थी कि सास सीधे मुंह बात करेगी। हां, ससुर रामदीन महजो से थेडी—बहुत सहानुभूति की उम्मीद जरूर थी उसे। पर मौके पर वह कही नजर नही आये। जिस शख्स को दुत्कार की उम्मीद थी, जब वही तमाम अवरोधों को दरकिनार कर उसका हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले आया, तो सहसा कलेजा भर आया उसका। गला भरी गया। मुंह से बामुश्किल यही शब्द फूटे....अम्मा, माफ कय देव हमका..... फिर कमली ने सास के पैर पकड़ लिये और फफक—फफक कर रो पड़ी।

प्रधान का अभियान अब पटरी पर आ चुका था। इलाहाबाद बैंक की स्थानीय शाखा में उसने कमली का बैंक खाता खुलवा दिया था। सफलता सुनिश्चित दिख रही थी। इधर, गांव भर में फिर चर्चा के केन्द्र में आ गयी है कमली। सिवान, चौपाल खेत—खलिहान हर जगह उठते बैठते लोगो मे ये चर्चा अक्सर छिड़ जाती कि रामदीन महतो की पांच बीघा जमीन (जिला मुख्यालय के समीपवर्ती होने के कारण जिसकी कीमत करोडो में आंकी जा रही है) के लालच में कमली सास—ससुर की सेवा करती रहेगी या फिर मुआवजे की रकम हाथ लगते ही रफूचक्कर हो जायेगी...

मुआवजे की कुुुल रकम बैंक के खाते मे आयी—डेढ़ लाख रूपये! सुरक्षा व गोपनीयता को दृष्टिगत रखते हुए काली पालीथीन मे लपेटी इस रकम को फटे—पुराने एक झोले मे रखकर बडी मुस्तैदी से घर लाया गया। पांच—पांच सौ की तीन गड्‌डियों को झोले से निकालकर कमली ने जब उनके सामने रखा, तो एक बार तो उस ओर से झटके से नजरे फेर ली महतो ने। इकलौते जवान बेटे की मौत के एवज मे मिले कागज के इन रंगीन टुकड़ो को देख उठी गहरी टीस ने उसके मन के हर कोने को भिगो दिया था। हंसते खिलखिलाते....मेला जाने के लिए माँ से पहले झगड़ते और फिर रिरियाते...मोबाइल खरीदने के लिए दिन—रात मां—बाप की खुशामद करते.....पंचे के एक नही, कई चेहरे एक—एक कर उनकी आंखो के आगे घूम गये। कुछ क्षणो तक वह मूर्तिवत्‌ बैठे रह गये।

थोड़ा संयत होने पर एकबारगी महतो को अपनी अहमियत का एहसास हुआ। कई बरसो बाद। तमाम संदेहो व अटकलो से घिरी मुआवजे की रकम को कमली की स्वेच्छा से अपने सम्मुख रखा देख अपार संतोष के भाव से भर उठे महतो। नोटो की गड्‌डियों मे प्रधान को देने के लिए पांच सौ की एक गड्‌डी निकालकर बाकी उन्होने कमली की ओर खिसका दी.....

.......ई का अपने नाव से जमा कय लेव बंक (बैंक) मा....बडी लम्बी उमर परी है आगे...हारे खागे कबहु काम आई... प्रधान के हाथो मे इतनी बडी रकम थमाते वक्त महतो के मन मे उसके प्रति रंचमात्र भी विद्वेष भाव न था। रूपये देकर उन्होने बडे ही कृतज्ञ भाव से प्रधान की ओर देखा। होठ बंद थे, पर आंखे मुखर थी मानो कह रही हो.... ....हे ईश्वर तेरी लीला इंसान नही समझ सकता....परधान मुआवजे मे से अपना हिस्सा पाकर कितना संतुष्ट है और कमली मुआवजे की सारी रकम सौपकर भी उससे ज्यादा संतुष्ट व बेफिक्र दिख रही थी। ये दोनो नही जानते कि लिखा पढ़ी मे भले कुछ न मिला हो, पर भोले नाथ ने बिन मांगे छप्पर फाड़ कर दिया है मुझे...दुनिया के किसी भी बाजार मे न बिकने वाली सौगात...कमली के रूप मे बुढ़ापे का सहारा !!!

—प्रदीप मिश्र

संपर्क :— द्वारा कृष्णा पुस्तक केन्द्र, तहसील गेट के सामने, जनपद बलरामपुर

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