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मन का मनका फेर

मन का मनका फेर

धन्ना सेठ अभी नए आए हीरों को लेंस के नीचे रख-रखकर परख रहे थे। परख क्या रहे थे, बस उसकी चमक देख रहे थे। परख तो उन्होंने नंगी आँखों से ही लिया था। क्या मजाल जो उनकी आँखें धोखा खा जाएं? छोटे से छोटे हीरे को वो आँखों से ही तोलकर उसका वज़न, प्रकार और मूल्य जान लेते थे। लेंस तो बस धोखा देने के लिए रखा था कि वे घंटों हीरे को परख रहे हैं या असलियत में दिल भरकर हीरे की ख़ूबसूरती निहार रहे हैं। उस वक़्त समझ नहीं आता था कि हीरा ज्Þयादा चमक रहा है या धन्ना सेठ की आँखें।

एक हीरे पर शक हुआ उन्हें। उसे तर्जनी और अंगूठे के बीच उठाकर आँखों की सिधाई में लाते हुए इतने ध्यान से देखने लगे जैसे उसमें कोई भूलभूलैय्या ढूँढ़ रहे हों। उसी में देखते हुए उन्हें रज्जू आता हुआ दिखाई दिया। हीरा हटाकर देखा तो सच में दूर से रज्जू दौड़ता हुआ आ रहा था।

इससे धन्ना सेठ को दो बातें पता चली। एक तो यह कि उनके हाथ में, एक तराशा हुआ, बेहतरीन कांच का टुकड़ा है। दूसरे, कि ज़रूर घर पर कुछ गड़बड़ हुई है, वरना सरला रज्जू को दूकान पर कभी नहीं भेजती।

रज्जू हाँफते-हाँफते ही सारी बात कह गया।

‘सवेरे से संजू भैया बुखार में तप रे... उल्टी पर उल्टी होरी.....बैद्य को दिखाया....डॉक्टर बाबू आए...’

धन्ना सेठ का पारा चढ़ गया। भला संजू के बीमार पड़ने पर वो क्या कर सकते हैं? सुनार का काम सुनार ही कर सकता है और डॉक्टर का काम डॉक्टर। वो तो संजू को ठीक करने से रहे।

धन्ना सेठ की दिक्क़त संजू की बीमारी या संजू नहीं था। संजू तो बड़ी मन्नतों से पैदा हुआ, अपना इकलौता चिराग़ था, उससे कैसी दिक्क़त और बीमारी तो उसे अक्सर लगी ही रहती थी। सरला कितने तीर्थ कर चुकी और जाने कितने डॉक्टरों को वो ख़ुद दिखा चुके। मगर जैसे सोना निष्क्रिय होता है और किसी धातु से प्रतिक्रिया नहीं करता, वैसे संजू के बीमार पड़ने की प्रवृत्ति पर किसी दवा-दुआ का असर नहीं पड़ा।

तो धन्ना सेठ की दिक्क़त न संजू था, न उसकी बीमारी। उनकी दिक्क़त थी, दुकान को कामगारों के भरोसे छोड़कर कहीं भी जाना। जब तक दुकान में सजा सारा माल, वे अपनी निगरानी में, दुकान की बड़ी तिजोरी में, नहीं रखवाते, वे शाम को घर नहीं लौटते। फिर भरी दुपहरिया में दुकान खुली छोड़कर कैसे निकल लें?

रज्जू फिर बड़बड़ाया - ‘मालकिन बोली हैं आपको लेकर ही आना। संजू बाबू की हालत बोत ़ख़राब होरी है। वैद्य...डॉक्टर हाथ दे गए...।’

धन्ना सेठ बिगड़ गए। आख़िर सरला ने समझ क्या रखा है? राशन की दुकान चला रहा हूँ मैं? गेहूँ-चावल के बोरे रखे हैं, जो मैं यूँही छोड़कर चल दूँ? एक घर की ज़िम्मेदारी दी है, वह भी नहीं संभाला जाएगा तो आख़िर करेगी क्या?

‘मालकिन को बोलो मुझे काम है, नहीं आ सकता।’

‘लेकिन मालिक.....’

‘चुप। चल जा वापस। नहीं तो दूंगा रख के।’

रज्जू अपना सा मुंह लेकर लौट गया और धन्ना सेठ फिर दूसरे हीरे जाँचने में मशग़ूल हो गए।

***

शाम को जब धन्ना सेठ घर लौटे तो संजू की हालत उस घुली हुई चांदी जैसी हो गई थी, जो साफ़ करने के लिए, ज़रूरत से ज्Þयादा ही देर तक रसायन में रख छोड़ी हो।

‘उल्टी-टट्टी का दौर थमता ही नहीं’ सरला ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।

धन्ना सेठ ने संजू को पहले भी कई बार बीमार देखा था। मगर इस बार तो उसकी हालत गंभीर लग रही थी। धन्ना सेठ तनाव में आ गए। वे तनाव झेलने के आदी न थे। झुंझला उठे।

‘डॉक्टर को दिखाना था न?’

सरला अपने नाम की तरह सरल थी, पर अब न रह सकी। इनको क्या लगता है कि तबीयत इतनी ख़राब होगी, तो क्या इनका मुंह ताकते बैठूँगी? क्या डॉक्टर को भी न दिखाऊँगी और बस बच्चे को तड़पता हुआ देखती रहूँगी?

बिदकी हुई गाय की तरह सब्र का खूंटा सरला ने उखाड़ दिया।

‘तुम्हें क्या लगता है संजू को देखकर, डॉक्टर की इन पुड़ियों से कुछ होने वाला है इसका। जिस तरह सुबह से शाम भर में लड़के की अतड़ियां निकल आई हैं, क्या लगता है, सुबह तक.....। जान लो। उसे कुछ हुआ तो मैं भी अपनी जान दे दूँगी।’

नौलखा हार तैयार करना हो तो दसों कारीगर बिठाकर वो रातभर में तैयार करवा देता। हर आंधी-तूफ़ान के बावजूद यह काम उसके बस का होता। मगर बच्चे की बीमारी दूर करना....। उस पर सरला भी एक ही है, परेशानी बढ़ाने में। लगता है रो-रोकर बच्चे से पहले ही अपनी जान दे देगी। चाहते तो वो भी थे कि सरला कि तरह ही गिड़गिड़ाते हुए कहें -‘मैं क्या करूँ? लड़का तो मेरा भी है। जिगर तो मेरा भी जलता है, उसको इस हाल में देखकर।’

मगर कह न सके। कठोर दिखने वाले धन्ना सेठ अगर कमज़ोर दिखेंगे तो लोग उनकी कमज़ोरी का फायदा उठाएंगे और उनसे जैसा चाहेंगे वैसा करा लेंगे। सबसे पहले तो यह सरला ही सब कुछ बेच-बाँचकर, ग़रीब-गुरबों में बांट देगी या फिर सब अपने निकम्मे भाई को दे आवेगी। मैंने इतनी मेहनत और कड़ाई से जो ज़मीन-जायदाद बनाई है, सब की सब, लोग मुझसे बहला-फुसला लेंगे। दुनिया जालसाज़ों से भरी पड़ी है। कमज़ोर को तो बिना पूछे नोच खाती है, मुझे भी खा जाएगी।

जब धन्ना सेठ कुछ न बोले और संसार के षड़यंत्रों की कल्पना में खोए रहे, तो सरला ने उनकी तंद्रा तोड़ी - ‘किसी बड़े डॉक्टर को दिखाते हैं?’

‘बड़ा डॉक्टर मतलब???’ धन्ना सेठ चौंके। बड़े डॉक्टर का मतलब बड़ा ख़र्चा। और उस ख़र्चे के बाद भी स्वस्थ होने की गारंटी क्या है? ख़र्चे की बात भी क्या है? लड़के के लिए ख़र्चा तो करना होगा। धन तो चाहिए, मगर लड़का भी चाहिए। मगर बेबसी तो यह है कि और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा।

‘अगर बड़े डॉक्टर को दिखाना होता, तो क्या अपना डॉक्टर बोलता नहीं कि उसके बस का नहीं है, किसी बड़े डॉक्टर को ढूँढ़ों?’

धन्ना सेठ और सरला की बहस के बीच मालती और शीतल भी आ टपके। कहने को पड़ोसनें थीं, मगर थीं घरवालों की तरह। सुबह से कई बार संजू को देख गईं। जो घरेलू उपचार बन पड़ा, समझ आया, कर गईं।

मालती जानती है कि दांतों तले एक-एक पैसा दबाकर रखने वाले धन्ना सेठ की, ख़र्चे के नाम से जान जा रही है, मगर जान तो संजू की ज्Þयादा जा रही है। भोले-भाले संजू का क्या दोष, सो सरला के पक्ष में कूदते हुए बोली - ‘हां..हां...धन्ना सेठ। इस डॉक्टर को मैं ख़ूब जानती हूँ। यह भला तुम्हें क्यूँ बताने लगा कि मुझ से इलाज मत कराओ, किसी और के पास जाओ? भला आज तक कोई डॉक्टर बोला है कि मुझसे इलाज भी न होगा, भले ही मरीज़ मर जाए इलाज कराते-कराते। ऐसा बोल देगा तो उसके यहाँ फिर इलाज कराने कौन जाएगा? उसे अपना धंधा चलाना है या नहीं?’

धन्ना सेठ ख़ुद को घिरते हुए देख बोले - ‘आजतक तो वही इलाज करता आया है। कोई झूठ-मूठ की पुड़िया तो न बांधता होगा। कहा भी है उसने कि संजू जल्द अच्छा हो जाएगा।’

‘झूठ-मूठ की ही पुड़िया बांधता है। नहीं तो संजू कि सेहत सुधरने की बजाय गिरती ही क्यूँ? यह हश्र होता क्या उसका? सोचता है अपने आप अच्छा हो जाए तो वह वाहवाही लूटे। क्यों शीतल बहन?’

धन्ना सेठ पूरी तरह घिर चुके थे। मगर शीतल ने अनजाने में चर्चा की धारा ऐसी मोड़ी कि वो उसी ओर मुड़कर रह गई।

‘ना बहन! मुझे तो लगता नहीं कि ये दवा से ठीक होने वाला है। होता तो अब तक ठीक ही हो जाता। इसके लिए तो दवा नहीं दुआ ही काम आवेगी।’

‘दुआ? कैसी दुआ? इतनी दुआएं तो कीं, अब और क्या?’

मुफ़्त मिल रहे माल पर जिस तरह धन्ना सेठ टूटते थे, कुछ उसी तरह सस्ते उपाय का रास्ता पाकर उस पर कूद पड़े।

‘हां..हां.. कैसी दुआ?’

‘हां जी! दुआ से ठीक होगा। तुम्हारा लाड़ला तो धन्ना सेठ, पीर बाबा की देन है न? उनकी अमानत है तो उन्हीं से संभलेगी। याद है न तुमको?’

धन्ना सेठ का मुंह खुला का खुला रह गया। सरला भी चौंक पड़ी कि उसको इसकी याद क्यों नहीं आई। दोनों को पल में याद आया कि कैसे दोनों नि:संतान, मंदिर-मंदिर, तीर्थ-तीर्थ भटकते फिरते थे और हर उपाय-टोना-टोटका करके हार गए थे। तब शीतल ने इन्हीं पीर के यहाँ जाने को कहा था। पीर बाबा ने अपनी बावड़ी से जो जल दिया, वही बीज बनकर फूटा था।

सरला ने धन्ना सेठ की तरफ देखा और धन्ना सेठ ने सरला की ओर देखा। धन्ना सेठ ने मन ही मन शीतल को धन्यवाद दिया, ऐसा रास्ता सुझाने के लिए जिस पर वह चल सकते थे और चाहें रास्ता कितना ही कांटों भरा हो, कम से कम पैसों भरा तो नहीं था।

***

धन्ना सेठ अपने इकलौते साले, गजेंद्र के साथ पीर बाबा की बावड़ी पर, फिर किसी चमत्कार की आशा से पहुँचे, जहाँ बाबा अपना डेरा डाले थे। दुखियों की लंबी क़तार दूर तक लगी हुई थी। अपने गांव का कोई महोत्सव या संस्था होती तो धन्ना सेठ को बस अपना नाम बताने की देरी थी कि क़तार में सबसे आगे पहुंचा दिए जाते। मगर यह तो पीर बाबा की बावड़ी थी, यहाँ भला कौन सेठ, और कौन कंगाल?

हल्की ठंड में भी पसीना-पसीना होते धन्ना सेठ कुछ न कर पा रहे थे, सिवाय प्रतीक्षा के। बार-बार बेचैन हो उठते। बार-बार दिल क़तार से निकलकर घर लौट जाने का करता। बस इसी बात का इत्मीनान कर के रह जा रहे थे कि कम से कम यहाँ कोई भारी-भरकम फीस तो नहीं लग रही है।

आते-आते सेठ जी का नंबर भी आ ही गया। पीर बाबा के चरणों में चटपट लुढ़क गए।

‘बाबा!!! बच्चे को बचा लो। मर जाएगा। बाबा!!! कुछ करो बाबा!!! तुम्हीं कुछ कर सकते हो। बाबा!!!’

गजेन्द्र धन्ना सेठ का यह रूप देखता ही रह गया। उसने धन्ना सेठ को कभी इस तरह गिड़गिड़ाते नहीं देखा था। तब भी नहीं जब वह संतान सुख की इच्छा से पिछली बार यहाँ आए थे। तब वे निराश और दुखी थे, मगर इतने व्यथित और व्याकुल न थे। न पाने से, पाकर खोने का दुख, बड़ा होता है।

इसके ठीक विपरीत, बाबा शांत भाव से मुस्कुरा रहे थे।

‘मन का करते हो तो रोते क्यों हो?’बाबा की गंभीर वाणी उस छोटी सी बैठक में गूँज गई।

चेहरे पर प्रश्न की मुद्रा लिए घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठ गए।

‘हैरान क्यूँ होते हो? याद करो।’

धन्ना सेठ बाबा के दाएं-बाएं देखने लगे, जैसे वहीं याद नामक चीज़ रखी हो। मगर उन्हें वह चीज़ नहीं मिली। तो उन्होंने बाबा को फिर प्रश्नचिह्न की मुद्रा में देखा।

‘याद है संतान प्राप्ति के लिए मैंने क्या उपाय बताया था?’

अब धन्ना सेठ ध्यान से कालीन की ओर देखने लगे और देखते-देखते उनकी दृष्टि जैसे कालीन में छेदकर पाताल में पहुंच गई हो।

छ: साल पहले जब सेठ जी सपत्नीक बाबा के यहां पधारे थे, तो पीर बाबा ने बावड़ी का जल देते हुए ‘कल्याण हो’ का नारा लगाया था। मगर कल्याण होने के साथ एक शर्त जोड़ दी थी, बच्चे के जन्म के पांचवे दिन पांच ग़रीबों को भर पेट भोजन कराने की।

कल्याण हुआ, मगर कल्याण होते ही सेठ जी ने शर्त का भी कल्याण कर दिया। शर्त के अनुसार पांच ग़रीबों को भोजन कराना था। सेठ जी ने ईश्वर की मूर्ति के सामने जा कर कहा ‘प्रभु मेरे साले से ज्Þयादा कौन ग़रीब होगा? जो मेरे ही फेंके टुकड़े लपकता रहता है। और उसका पेट इतना बड़ा है कि पांच छोटे-मोटे ग़रीबों का खाना वह अकेला ही भकोस जाता है। फिर घर में ही जब पांच ग़रीब जितना ग़रीब मौजूद हो तो बाहर क्यूँ जाएं?’

ऐसा कहकर सेठ जी ने अपने मन का किया और उसे ईश्वर के मन का मान लिया। वैसे तो सेठ गजेंद्र को खाते देख चिढ़ते थे। मगर संजू के जन्म के पांचवे दिन उन्होंने ससम्मान उसे अपने बग़ल में बिठाया और विभिन्न व्यंजनों से भरपेट भोजन कराया। गजेंद्र ने भी संजू के जन्म की दावत समझ, ख़ूब छककर खाया और जीजा के गुण गाए।

सेठ को अब अपने मन का करने का पछतावा हो रहा था। उन्होंने गजेंद्र की ओर देखा और शर्म से नज़रें झुका लीं जैसे सिर्फ़ पीर बाबा ही नहीं गजेंद्र भी यह जान गया हो कि जीजा ने उसे पांच भिखारियों का दर्जा दिलाया हो।

रोए, गिड़गिड़ाए, माफ़ी मांगी। मगर वक़्त का किया तो कोई बदल नहीं सकता। हाँ, मगर पीर बाबा ने बदलने का एक अवसर दे दिया।

‘परसों मकरसंक्राति है। कम से कम इस दिन पांच भिखारियों को दान करना। कल्याण होगा।’

सेठ मुस्कुराते हुए उठे और पीर बाबा की जय-जयकार करते हुए लौट गए।

***

धन्ना सेठ हलवा-पूड़ी गजेंद्र की पीठ पर लादकर मंदिर पहुँचे। हाँलाकि सरला जलेबी और चना भी बनाना चाहती थी, मगर सेठ ने फ़िज़ूलख़र्ची से बिल्कुल मना कर दिया।

मंदिर जाकर सेठ जी ने अपने इष्ट देवता का ध्यान किया और संजू के ठीक होने के लिए प्रार्थना की। मंदिर से बाहर आकर सेठ ने भिखारी ढूँढ़ने शुरू किए। देखा तो मंदिर की दीवार से सटकर भिखारी ही भिखारी मौज़ूद थे। गजेंद्र देखते ही उछल पड़ा। और खाने की पोटली उतारकर बोला -‘लो जीजा जी, यहाँ तो भिखारी ही भिखारी हैं। अभी चटपट सब बांट आता हूँ। आप पाँच ढूँढ़ रहे थे, यहाँ पचास मौजूद हैं।’

‘चुप कर गज्जू। खाना पांच को खिलाना है, पचास को नहीं।’

‘हां तो पांच को ही खिला आता हूँ।’

‘पांच को खिलाएंगे तो बाक़ी पैंतालीस हमारी जान खा जाएंगे। जान छुड़ाने के लिए उन्हें भी कुछ न कुछ देना पड़ेगा। चल आगे चल, यह इलाक़ा भिखारियों से भरा पड़ा है, मुफ़्त में ख़ून-पसीना चूसने के लिए।’

गजेंद्र ने पोटली वापस पीठ पर लादी और पीछे-पीछे चल दिया। कुछ दूर चलने के बाद एक सड़क के किनारे कुछ भिखारी बैठे थे।

‘वो देखो जीजा। वहाँ चलें।’

‘तू बावला क्यूँ हो रहा है? केवल चार लोग हैं। हमें पांच को खिलाना है। फिर एक को ढूँढ़ने के लिए मारे-मारे फिरेंगे और अकेला भिखारी तो मिलता भी नहीं है। चल, चला चल, बहुत भिखारी हैं रास्ते में।’

गजेंद्र ने गिनकर देखा तो सचमुच चार ही निकले।

‘जी जीजा जी।’

दोनों आगे बढ़ गए। आगे का रास्ता सेठ की अपनी दुकान से होकर गुज़रता था। दुकान के सामने से गुज़रे तो धन्ना सेठ ने, सड़क की ओर मुँह कर के खड़ी अपनी दुकान की, आँखों ही आँखों में नज़र उतारी। गजेंद्र ने सड़क की दूसरी ओर देखा। वहाँ कुछ भिखारी खड़े थे। उसने जीजा को कुछ कहने से पहले उन्हें गिन लेना मुनासिब समझा। पाँच पूरे पाँच। गजेंद्र उछल पड़ा।

‘जीजा वो देखो। पूरे पाँच हैं।’

‘शीईईई। चुपकर। मरवाएगा क्या?’

‘क्या हुआ?’

‘अरे इन भिखारियों की तरफ तो देखना भी मत। मुँह उधर कर ले। अगर इन भिखारियों को भनक भी लगी कि हम दान-दक्षिणा देने वाले लोग हैं तो यह रोज़-रोज़ मेरी दुकान पर ही आ धमकेंगे। फिर मैं क्या करूँगा? नहीं भई नहीं। मैं रोज़-रोज़ की ये मुसीबत नहीं पाल सकता हूँ।’

फिर कुछ दूर पर और भिखारी मिले। मगर सेठ ने गजेंद्र को मना कर दिया कि यह तो दुकान से कोई ज्Þयादा दूर नहीं हैं। घर के रास्ते पर और दूर निकल जाने पर कुछ और भिखारी मिले। गजेंद्र ने सशंकित होते हुए पूछ लिया।

‘जीजा उनके बारे में क्या ख़याल है?’

‘अरे नहीं-नहीं। मैं रोज़ इधर से ही ग़ुजरता हूँ। मुझे रोज़ सताएंगे।’

‘फिर क्या करें?अब तो रास्ता घर को ही जाता है।’

‘तू चल चुपचाप।’

सेठ ने अपना रास्ता बदल दिया।

‘ये कहाँ से ले जा रहे हो जीजा?’

‘मैं कभी-कभी इस रास्ते से भी आता हूँ। यहाँ जो भिखारी मिलेंगे तंग नहीं कर पाएंगे। मैं कुछ हफ़्तों तक इधर से नहीं आऊँगा।’

‘मगर इस रास्ते पर भिखारी मिलेंगे न?’

‘हां-हां। यहाँ चार जगहें हैं, जहाँ भिखारी बैठते हैं। चल तुझे दिखाता हूँ।’

पहले स्थान पर पहुँचे तो कोई भिखारी नहीं था। दोनों ने सोचा कोई बात नहीं, कहीं और चले गए होंगे। फिर जब दूसरे और तीसरे स्थान पर भी भिखारी नदारद दिखे तो गज्जू ने कहा -‘अब क्या करें जीजा? अब तो घर भी नगीच है।’

‘सब जगह से एक साथ थोड़े न गायब हो सकते हैं। चौथे स्थान पर ज़रूर मिलेंगे।’

परंतु चौथे स्थान पर पहुँचकर भी भिखारी नहीं मिले तो सेठ ने वहाँ खड़े ठेले वाले से पूछा। पता लगा कि पिछली गली के एक घर में, लड़के की शादी है। आगे-पीछे, सब मुहल्लों के भिखारी वहीं पहुँचे हैं।

गजेंद्र ने माथा पीट लिया। खाने का गठ्ठर लिए दोनों घर की ड्योढ़ी तक पहुँच गए। वहीं मुस्कुराती खड़ी सरला ने दोनों को संजू के सेहत में ग़ज़ब के सुधार की ख़बर दी।

सेठ भी ग़ज़ब मुस्कुराए और गजेंद्र से बोले -‘देखा गज्जू। भिखारियों को खिलाने-विलाने से कुछ नहीं होता। संजू अपने आप चंगा हो गया है। ....और सरला देखो सारा खाना भी बच गया है। दोपहर और रात में गर्म कर देना।’

इतना कहकर सेठजी हाथ-मुंह धोने निकल गए। गजेंद्र देखता ही रह गया। और सरला मुस्कुराती रही। सेठ की शिकायत किए बग़ैर गजेंद्र से नहीं रहा गया।

‘देख रही हो जीजी। संजू के लिए भी इन्होंने अपनी कंजूसी नहीं छोड़ी। रास्ते भर भिखारी दिखे, मगर सारा खाना मेरी पीठ पर ही लदा रहा।’

सरला ने मुस्कुराते हुए कहा -‘इसमें देखना क्या है, मैं जानती नहीं हूँ क्या इन्हें? इनसे जब पिछली बार नहीं हुआ तो अब क्या होगा? मैंने पिछली बार इन पर भरोसा करके देख लिया, दुबारा थोड़े न करूँगी।’

गजेंद्र ने आश्चर्य से पूछा - ‘क्या मतलब?’

सरला ने फुसफुसाते हुए कहा ‘तुम लोगों के जाते ही मैंने रज्जू को भेजकर पांच भिखारियों को, आँगन में ही बुलवा लिया था और हलवा-पूड़ी, चना, जलेबी का भोग लगवा दिया।’

‘ग़ज़ब दीदी ग़ज़ब।’

***