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माँगे मिले न भीख

मांगे मिले न भीख

कालू चारपाई पर लेटा-लेटा सोच रहा था, जी हाँ सोच रहा था। कालू राम सोचते भी हैं, ये बात वो ख़ुद नहीं जानते क्योंकि सोचना उन्होंने सीखा ही नहीं। उन्हें तो बस दो ही चीज़ें आती हैं, एक है सोना और सोना मतलब कोई मामूली सोना नहीं, बल्कि खरा सोना, याने टांग पसार कर गहन निद्रा में सोना। संसार के जितने लोगों ने विभिन्न चिंताओं, जैसे व्यापारी ने मुनाफ़े की चिंता में, राजनीतिज्ञ ने बवाल मचाने की चिंता में, वैज्ञानिक ने जुगाड़ की चिन्ता में, प्रेमी ने प्रेम की चिंता में, लड़की के पिता ने शादी की चिंता में, अभिभावकों ने बालक के नंबरों की चिंता में, अपनी जो नींद खोई है, वह सब नींद यह कालूराम खोज लाए हैं और अकेले ही उसका भोग कर रहे हैं।

भोग से याद आया कि कालूराम की सीखी हुई दूसरी चीज़ है, भरपूर भोजन करना और भरपूर भोजन करने का मतलब....अब यहाँ ज़रूरी नहीं कि हर शब्द का कोई और मतलब हो ही, इसलिए यहाँ भरपूर भोजन करने का मतलब भरपूर भोजन करना ही है। मगर कुछ दिनों से दिनोंदिन उनकी ख़ुराक बढ़ती ही जा रही है और भोजन का बंदोबस्त नहीं हो पा रहा है।

जैसा कि हमने कहा, कालूराम जी चारपाई पर लेटे थे और जो हमने नहीं कहा वह ये है कि वो ऐसी चारपाई पर लेटे थे जिसके दोनों सिरे उनके लिए छोटे पड़ रहे थे। एक तरफ से तो उनकी एड़ियां कछुओं की तरह मुँह निकाले हुई थीं और दूसरे सिरे पर वह अपने दोनों हाथ, छ्ज्जे से लटक रहे लौकी की तरह लटकाए थे।

तो फिलहाल तो वे लेटे-लेटे बस सोच रहे थे। और बड़ी गंभीर बात सोच रहे थे जिसकी कालू जैसे आदमी से सोचे जाने की कल्पना नहीं की जा सकती। तो वे सोच रहे थे कि जीवन भर तो चारपाई पर लेटे नहीं रह सकते। अब तो अपने बापू ने भी पालने-पोसने से मना कर दिया है। अब अपने खाने-पीने का ख़ुद ही इंतज़ाम करना पड़ेगा।

लेकिन काम क्या करूँ? कोई काम मनभावन हो तो करूँ। हर काम में तो मेहनत लगती है। जाने कैसे मैं इस कोल्हू के बैल के घर पैदा हो गया। जब से खाट छोटी पड़ी है, ये तो मुझे ही जोतने में लगा है। किसी धन्ना सेठ के घर पर पैदा होता, तो दिन भर दूध-मलाई चाँपता और मखमली गद्दे पर पड़ा रहता।

कालू अभी दूध-मलाई के सागर में गोते लगा रहा था कि एक आवाज़ ने उसे किनारे पर ला पटका।

‘जोगी खड़ा है जोगी.....तेरे द्वार पर जोगी खड़ा है।’

इस कर्कश आवाज़ ने कालू के स्वप्न लोक में भी पत्थरों की बरसात कर दी। कालू ने मुँह टेढ़ाकर, साधु के शब्दों को दुहराया-जोगी खड़ा है जोगी.... तो खड़ा रहे। यह क्या हेकड़ी है? भीख भी माँगना है तो शान से। उल्टा घरों की औरतें डरती हुई, भागी-भागी जाती हैं, कि कहीं नाराज़ होकर श्राप न दे दे।

कालूराम सोच चुका था कि कोई कितना भी शोर मचाए, वह बिस्तर नहीं छोड़ेगा। इसलिए बाबाजी लाख चिमटा बजाते रहे पर वह अपनी चारपाई में धंसा रहा। ऐसे आदमी से तो जन्म देने वाले ने भी आस छोड़ दी, भला साधु कब तक आस की डोर थामे रहता? साधु ने भी आस छोड़ दी और मुड़कर जाने ही वाला था कि चारपाई की चर्मराहट से ठिठक गया।

बेचारा कालूराम भी कब से साँस रोके लेटा था और सब्र का बांध टूटा भी तो गलत समय पर। अब तो लाख छिपा ले, लेकिन साधु भी जान गया है कि घर में कोई न कोई तो है इसलिए एक बार और आवाज़ लगाई और जमकर आवाज़ लगाई -‘दाता की मनोकामना पूर्ण होगी.....माता, बहन कोई हो घर पर, तो दान के लिए आगे बढ़ें’।

साधु का तीर सीधा कालू के मर्म को भेद गया और ऐसा भेदा कि कालूराम हिल गए। जी हाँ हिल गए और वह भी अपनी चिरसंगिनी खटिया से हिल गए और साधु के सामने जाकर खड़े हो गए।

‘क्यों बाबा जी! सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं, तो अपनी मनोकामना पूरी कर, खाने का इंतज़ाम ख़ुद क्यों नहीं कर लेते? घर-घर घूमकर माताओं-बहनों की मनोकामना क्या पूरी करते चलते हो?’

साधु सकपका गया। ऐसा तो वो तब भी नहीं सकपकाया था जब किसी माता-बहन के शिशु ने, खेल-खेल में उसकी दाढ़ी नोच ली थी। दुखा तो बहुत था मगर साधुओं की तो दुख और सुख समान रूप से झेलने की परम्परा है इसलिए चाहकर भी साधु उस शिशु को उसकी उद्दंडता के लिए पटक-पटकर पीट न सका।

यहाँ भी वही हाल था, कालू की बात का कोई जवाब देते न बन रहा था तो बोला - ‘ देने वाला राम है। मेरा पेट तो वही भरता है और वही सबका पेट भरता है। तुम्हारा भी।’

अब यहाँ बारी-बारी से सकपकाने का खेल खेला जा रहा था क्योंकि अब बारी कालूराम की थी। आख़िर साधु कैसे जान गया कि वो अभी-अभी अपने पेट भरने की ही चिंता कर रहा था।

फिर उसने सोचा कि यह तो उसका नित्यकर्म ही है, तो इसमें सकपकाने की क्या बात है, इसलिए अब कालू ने सकपकाने की गेंद वापस साधु की ओर उछाल दी कि ले बेटा तू ही सकपका और साधु से कहा-‘अच्छा अगर मैं न दूं और तुम से कहूँ कि कल आकर अनाज ले जाना, तो तुम आज कैसे पेट भरोगे और कल अनाज रहते हुए भी, कैसे भूखे रह जाओगे?’

साधु ने तो सकपकाने की बजाय हंसना शुरू कर दिया। शायद साधु कहना चाहता था कि तू निर्लज्ज और कामचोर है, तो क्या हुआ, दूसरे थोड़े न हैं।

‘मैं तो बेटा तीन घर और देखूँगा। तुम नहीं दोगे, तो कोई न कोई दे ही देगा। और रही बात कल की, तो कल तुम मुझे चाहे अन्नपूर्णा का पात्र ला दो। मैं तो भोजन करने से रहा, एकादशी जो ठहरी।’

इस समय तक तो साधु ने इतनी अक़्ल बटोर ही ली थी कि यहाँ दाल तो क्या बर्फ भी नहीं गलेगी। सो कालूराम को विचारमग्न छोड़, जो कि वो कभी-कभार ही होते थे, साधु अपनी राह निकल गया। अब कोई अपनी राह निकल कर यह सोचे कि वह निकल ही लिया, तो यह ज़रूरी नहीं है क्योंकि इस समय साधु भी अपनी राह निकलने के बावजूद पूरी तरह से निकल नहीं पाया। हुआ दरअस्ल यूँ कि साधु के राह पकड़ते ही कालूराम एक भयंकर विचार के प्रकोप से ग्रस्त हो उठे और यह विचार भी कोई अपना विचार नहीं था बल्कि उसी साधु के विचारों से साभार उद्धृत किया गया था और यह विचार था कि यदि राम ही सबका पेटभर रहे हैं और इस साधु का भी भर रहे हैं, तो मेरा भी भरेंगे ही। तो क्यों न जिस तरह से साधु का भर रहे हैं, उसी तरह मेरा भी भरें।

कालूराम ने निश्चयात्मक मुद्रा लेते हुए, हांलाकि निश्चयात्मक मुद्रा में कालूराम तभी आते थे जब वे कुछ खाने की ठान लेते थे या फिर तब, जब वे गहन निद्रा में जाने की सोच लेते थे, मगर फिलहाल तो उन्होंने पहली बार किसी और बात के लिए निश्चयात्मक मुद्रा लेते हुए यह निर्णय किया कि साधु बन जाएं तो पेट भरेगा और काम भी नहीं करना पड़ेगा।

परंतु उनके निश्चय ले लेने से क्या होता है। साधु बनना कोई आसान काम तो है नहीं, इसका उदाहरण तो अभी-अभी कालू ने देखा ही कि कैसे साधु ने फट से बता दिया कि कल एकादशी है, तो भिक्षाटन नहीं करना है। अब भला कालूराम को कौन बताए की कब क्या करना है? अभी कालूराम दुविधाओं के इन झंझावातों में उलझे ही हुए थे कि भागते भूत से वह साधु बाबा दिखाए दिए, जिनकी ओर कालूराम लपक लिए कि इन्हीं से सीखते हैं कि साधु कैसे बना जाए? मगर साधु उसे पीछा करते देख अपनी भगुआ लुंगी समेटकर भाग लिए और कालूराम उस महान साधु के महान शिष्य बनने से चूक गए।

अब कालूराम को कौन समझाए की डेढ़ किलो घी पीने के निश्चय में और साधु बनने में फ़र्क़ होता है। मगर कालूराम तो जिद्दिया गए हैं और गुरु ढूँढ़ने निकले हैं। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वो गाँव के बाहर एक छोटे से जंगल में पहुँच गए, जहाँ एक बाबा धूनी रमाए बैठे थे। धूनी के चारों ओर चार-पाँच शिष्य ऐसे पहरा दे रहे थे जैसे वह भयंकर दाढ़ी और भस्म रमाया हुआ साधु, साधु न होकर कोई अप्सरा हो, जिसका कोई अपहरण कर लेगा और कालूराम को भी शिष्यों ने ऐसे ही रोका जैसे वह उस भयंकर दाढ़ी लिए और भस्म लिपटाई अप्सरा का अपहरण ही करने वाला हो। अपहरण तो क्या करता, दर्शन के लाभ से उसे वंचित कर दिया गया।

कालूराम ने सोचा, ये शिष्य अपने आप को समझते क्या हैं, आख़िर वह भी शिष्य बनने ही तो आया है और बन जाएगा तो इन सब सूखी हड्डी के ढांचों से बेहतर शिष्य ही बनेगा इसलिए वह उनसे भिड़ गया।

कोलाहल सुनकर साधु की तंद्रा टूटी या शायद निद्रा। कौन जाने? मगर साधु की आँखें खुलते ही कालूराम ने उनके चरण इस तरह पकड़ लिए जैसे किसी छप्पन भोग से सजे थाल को पकड़ता, क्योंकि वह जानता था कि वे छप्पन भोग के थाल हो, न हो, उस थाल का स्रोत ज़रूर हैं, जहाँ से उसे जीवन भर बैठे-बैठे खाने को मिलेगा।

साधु महाराज को वैसे तो इस उद्दंडता के लिए क्रोधित होना चाहिए था मगर उन्होंने तो एक चैन की सांस ली कि इस हाथी ने इतनी कसकर केवल पैर पकड़े, कहीं गर्दन-वर्दन पकड़ लेता, तो इतने सारे याद किए हुए श्रापों में से कोई भी श्राप नहीं दे पाते, उससे पहले ही उनके प्राण-पखेरू उड़ जाते।

अपने प्राण बच जाने की प्रसन्नता में साधु ने जैसे वरदान देना चाहा -‘बोलो वत्स! क्या कष्ट है?’

‘प्रभु! अपने शरण में लें। अपना शिष्य बना लें। तभी मेरा उद्धार संभव है।’

दाढ़ी वाली अप्सरा मुस्कुराई मगर मोहित कोई नहीं हुआ।

‘बालक! जा घर जा। तेरे घरवाले तेरी राह देखते होंगे। यह मार्ग तेरे लिए नहीं है।’

‘ऐसा मत कहें प्रभु! मैं घर-बार छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ। मुझ अनाथ को शरण में लें प्रभु।’

प्रभु तो शरण में रह रहे शिष्यों को देखने लगे और अनाथ को भूल गए।

कालू राम को लगा कि यह साधु तो मुझे अपनी राह पर ले ही नहीं रहा। अब क्या होगा? कहीं भूखे न मरना पड़े?

कालूराम साधु के चरणों में पूरा लेट गया।

‘प्रभु! अब आप ही बचा सकते हैं मेरे प्राण। आप की शरण नहीं, तो फिर मृत्यु की शरण ही है मेरे लिए।’

जोगी जी घबरा गए। कहीं इस मोटू ने आत्महत्या कर ली, तो सारा दोष उन्हीं के सिर आएगा और उनके सारे पुण्य मिट्टी में मिल जाएंगे। मगर मोटू राम का दरअसल आत्महत्या का कोई विचार नहीं था। वह तो बस यह कह रहा था कि अगर ऐसा न हुआ, तो वह भूखा ही मर जाएगा।

‘उठो वत्स! उठो।’

साधु ने कालू राम को उठाने का भरसक प्रयत्न किया परंतु वह तभी उठा, जब अपने से उठा और स्वामी जी की लाज रख ली।

‘आज से तुम्हें मैं अपना शिष्य स्वीकार करता हूँ। परंतु याद रखना कि यह राह सरल नहीं है। बड़े-बड़े व्रतधारी चूक जाते हैं।’

कालूराम ने सोचा मांगकर खाने से भी आसान कुछ हो सकता है क्या?

साधु जी महाराज बोलते रहे - ‘यम, नियम, संयम, तप संग रहना होगा।’

कालूराम ने चारों शिष्यों को देखा और सोचा इन चारों के साथ रहना होगा। ज़्यादा चूँ चपड़ करेंगे, तो दो को एक काँख में और दो को दूसरी काँख में, दबा के चाँप दूँगा, तो चूँ भी नहीं निकलेगी।

इतना सोचकर कालूराम जी ख़ुश। साधु के चरण छू कर बोले-

‘जो गुरुदेव की आज्ञा।’ पता नहीं फिर गुरुदेव ने उसके सिर पर हाथ रखकर क्या फुसफुसाया - ‘आयुष्मान भव’ या ‘पहलवान भव’। मगर बाक़ी शिष्यों का चेहरा उखड़ा-उखड़ा लगने लगा। गुरु ने एक शिष्य को पुकारा ‘सोमनाथ! पुत्र सोमनाथ।’ एक दुबला-पतला, हड्डियों का ढांचा गुरुदेव के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

‘जी गुरुदेव’

‘जाओ! अपने गुरुभाई को हमारे यजमानी गाँव में ले जाओ और सूर्यास्त से एक पहर पहले आज की भिक्षा ले आओ।’

उस हड्डी राजा ने अपने सर पर आज्ञा का बोझ उठाया और कालूराम के संग चल पड़ा। कालूराम जहाँ अपने थुल-थुल शरीर को तेज़-तेज़ लुढ़काकर भी गति नहीं पकड़ पा रहे थे वहीं वह हड्डियों का ढाँचा हवा मे उड़ा जा रहा था। कालूराम सुस्ताने की मंशा से एक पीपल की छाँव के नीचे ठहर गए और बैठने को हुए। सोमनाथ उनके चारों ओर से उन्हें उठाने का भरसक प्रयास करता हुआ ऐसा दृश्य प्रदान कर रहा था जैसे कीचड़ में लोट-पोट हुई भैंस के ऊपर कोई कौवा उड़-उड़कर, कभी इधर बैठता हो, कभी उधर और भैंस भी बस पूँछ से उसको हाँक भर देती हो मगर उठने का नाम न लेती हो।

‘जल्दी चलो कालूभाई नहीं तो हम तीसरे पहर तक भोजन लेकर नहीं लौट पाएंगे।’

भोजन का नाम सुनते ही कालूराम के ढुलकते शरीर में नई उर्जा का संचार हुआ। कालूराम तेज़ी से चलने या और तेज़ी से लुढ़कने लगे।

सोमनाथ ने चैन की साँस ली, जब दोनों गांव में पहुंच गए।

‘भाई कालू! मैं उत्तर दिशा में जाता हूँ और तुम पूर्व की ओर जाना। पांच, और केवल पांच, घरों में भिक्षा मांगना, मिले तो मिले, वरना लौट आना। मैं भी अपना भिक्षाटन समाप्त कर यहीं मिलूँगा।’

कालूराम के प्राण में प्राण आए कि अब खाना खाने को न सही, कम से कम देखने को तो मिलेगा और जब देखने को मिलेगा, तो फिर चखने को भी मिलेगा ही। कालूराम ने ज़ोर से सांकल पीटी, इस मंशा से कि यजमान एक ही खड़खड़ाहट में बाहर आ जाए और समय व्यर्थ न हो। परंतु कोई सुगबुगाहट तक न हुई।

अबकी कालूराम ने इतनी ज़ोर से खटखटाया कि अंदर अगर मुर्दा भी हो तो धरती फोड़कर बाहर आ जाए। परंतु ऐसा कुछ न हुआ। न किसी मानव ने दर्शन दिए, न कोई प्रेत ही सामने उठकर आया। यहां तक कि किसी चूहे ने भी नहीं चुहचुहाया।

कालूराम घबरा गए। उन्हें अपने दिनों कि याद आ गई कि कैसे वे खाट पर सांस रोककर पड़े रहते थे और साधु निराश होकर लौट जाया करते थे। यह याद आते ही कालूराम के शरीर में कंपकंपी दौड़ गई कि अगर यहाँ से भिक्षा न मिली तो केवल चार घर ही बचेंगे भिक्षा के लिए और फिर वह भिक्षा भोजन के लिए पर्याप्त नहीं होगी।

इसी व्याकुलता में कालूराम ने इतनी ज़ोर से सांकल पीटी की वो उखड़कर हाथ में आ गई। सांकल हाथ में आ गई और आँसू आँख में। तभी किसी ने पीछे से पुकार कर कहा - ‘महाराज! घर पर कोई नहीं है। सभी लोग तीर्थ पर गए हैं। आप व्यर्थ ही किवाड़ खटखटा रहे हैं।’

कालूराम का क्रोध सातवें आसमान पर था। वे बुदबुदाए ‘मैं किवाड़ खटखटा रहा हूँ...मैं किवाड़ खटखटा रहा हूँ .... अरे मैं किवाड़ तोड़ रहा हूँ और मुझे अब बताया जा रहा है कि भीतर कोई है ही नहीं।’

कालूराम पांव पटकते हुए आगे बढ़ गए। दूध का जला, छाँछ भी फूँककर पीता है। कालूराम के लिए फूँक-फूँक कर चल पाना तो असंभव है क्योंकि उनकी मंथर से मंथर गति में भी पांव पटका ही जाते हैं। परंतु कालूराम ने अगला क़दम सोच-समझकर रखा। जी हाँ, सोच और समझ, दो दुर्लभ प्राणी जो कालूराम से रिश्तेदारी करना क़तई पसंद नहीं करते। परंतु इस बार मामला कालूराम के पेट से जुड़ा था इसलिए कालूराम ने इन दोनों प्राणियों को धर दबोचा और सोच-समझकर अगला यजमान चुना।

कालूराम ने सोचा कि केवल वही द्वार चुना जाए जिसके दो किवाड़ न हो, एक आगे और पीछे, जिससे पता ही नहीं लगता कि घरवाले पीछे वाले किवाड़ पर ताला लगा कर, तीर्थ चले गए हैं। पर यह भी क्यों किया जाए? थोड़ी और समझदारी दिखाए जाए और इसलिए कालूराम ने केवल वही द्वार चुना जिसके किवाड़ बंद न हो ताकि वहाँ उन्हें बल का प्रयोग न करना पड़े और साथ ही वहां दूर से भी एक-आध प्राणी हिलते-डुलते अवश्य दृष्टिगोचर हों ताकि पूरे के पूरे कुनबे के तीर्थ चले जाने की संभावना ही न हो।

घूमते-घूमते कालूराम एक घर के सामने पहुँचे जहाँ एक नवयुवक घर के बाहर ही खाट पर लेटा था। कालूराम ने कड़कड़ाती आवाज़ में कहा - ‘बालक.… उठो बालक।’

बालक सकपका कर एकदम सीधा खड़ा हो गया। कालूराम ने अपना कटोरा एकदम उसके मुँह के सामने लाते हुए कहा ‘भिक्षा दे।’

कालूराम भिक्षा के लिए जितने व्याकुल थे, वह नवयुवक उतना ही नहीं था। उसे कालूराम का व्यवहार अटपटा लगा। सही भी था, कालूराम क्या जाने भिक्षा मांगने और भोजन मांगने का अंतर। अभी तो वह बहुत ज़ब्त किए हुए हैं वरना खाने के लिए तो वह किसी की गर्दन भी मरोड़ सकते हैं।

नवयुवक इसलिए भी सशंकित था क्योंकि अन्य भिक्षुओं को तो वह प्राय: देखता था। कालूराम को पहली बार देखकर खटका हुआ। उस पर कालूराम की काया उसे किसी साधु-संत से अधिक चोर-डकैत की लगी। कालूराम ने जिस अकड़ के साथ भिक्षा देने को कहा था, उसके दोगुने अकड़ के साथ नवयुवक ने सीना तान कर कहा -‘नहीं है भिक्षा....चल आगे जा।’

कालूराम की आंखें क्रोधाग्नि में लालटेन हुई जाती थीं। कोई और समय होता तो वह इस पिद्दे को मच्छर की तरह मसल देता। परंतु उसे सोमनाथ की बात याद आ गई कि भोजन मिले तो मिले वरना सही समय पर वापस वहीं मिलना होगा, नहीं तो भोजन करने का समय बीत जाएगा। और कालूराम सचमुच आगे बढ़ गए।

आगे बढ़ने के साथ-साथ कालूराम ने तय किया कि अब अगला यजमान वहाँ हो जहाँ किवाड़ खुला हो, घर के प्राणी दिखाई पड़ते हों और सबसे महत्वपूर्ण कि उन प्राणियों में कोई एक स्त्री हो जिससे शालीनता से भिक्षा प्राप्त होने की संभावना हो।

भटकते-भटकते अगली गली के मुहाने पर एक घर ऐसा मिला, जहाँ घर के बाहर एक हृष्ट-पुष्ट बालिका, अपनी चोटी गूँथने में मग्न थी। कालूराम को वह अपने ही जैसी कोई भाई-बहन की अवतार लगी, जो उसके उद्धार के लिए अचानक प्रकट हुई है। मगर उसको कालूराम कोई भाई-बन्धु प्रतीत न हुआ और न हि उसकी उद्धार करने की कोई मंशा थी क्योंकि कालूराम ने जब अपना सूखा, अन्नहीन पात्र आगे किया तो उसने साफ़ मना कर दिया -

‘माताजी घर पर नहीं हैं। किसी के घर धान कूटवाने गई हैं।’

‘कोई बात नहीं बहन। तुम तो हो। तुम्हीं कुछ दान-पुण्य करो। इससे तुम्हारे घर का धन-धान्य बढ़ेगा। ख़ुशहाली आएगी।’

‘मैं क्या करूँ? माताजी रसोई को ताला लगाकर गई हैं।’

‘वह भला क्यूँ?’

‘कहीं मैं चोरी से गुड़ और घी न खाकर ख़तम कर दूँ। बस इसीलिए।’

कालूराम के सामने एक पल के लिए अंधेरा छा गया और संसार की सारी रसोइयों के कपाट उन्हें बंद दिखने लगे। किसी प्रकार अपने शरीर की बहुमंजिला इमारत को ढहने से बचाते हुए वह आगे बढ़ गए।

वैसे तो भूख की व्याकुलता और संसार की नश्वरता ने उनके सोचने-समझने के द्वार तो द्वार, खिड़कियां और रोशनदान तक बंद कर दिए थे परंतु किसी एक छिद्र से समझदारी की एक किरण मस्तिष्क के भीतर प्रवेश कर ही गई।

इस किरण ने कालूराम को समझाया कि अब जो घर ढूँढ़ना होगा उसमें यह सुनिश्चित करना होगा कि घर का जो प्राणी दिखे वो केवल घर की गृहस्वामिनी हो और कोई न हो। समझदारी के इस थूक के घूँट को वो निगलते हुए आगे बढ़ गए। और कुछ निगलने के लिए था भी नहीं, उनके पास।

बहुत खोज-बीन के पश्चात एक स्त्री अपने घर के बाहर झाडू लगाती हुई दिखी। यह कालूराम का चौथा घर था। भिक्षाटन के लिए जितना दयनीय दिखाई देने की आवश्यकता थी, कालूराम उससे कहीं अधिक दयनीय स्थिति को प्राप्त हो चुके थे। भूख से अतड़ियां कुलबुला रही थीं और आँखें बाहर को निकली जा रही थीं। कालूराम का अपना भीमकाय शरीर क़ाबू से बाहर जा रहा था। दोनों पग तराजू के पलड़ों से पड़ रहे थे।

लुढ़कते हुए से वे उस स्त्री के पास पहुँचे। अपनी अतड़ियों की कुलबुलाहट में वह स्त्री की दशा देखना भूल गए। स्त्री की दयनीय, कृशकाय काया पर उनका ध्यान तब गया, जब वे अपनी झोली फैला चुके थे। स्थिति कुछ ऐसी थी कि जितनी दयनीय भिक्षा मांगने वाले की स्थिति थी, उससे कहीं ज़्यादा दयनीयता देने वाले के चेहरे से टपक रही थी। बेचारी स्त्री कुछ क्षण धर्म संकट में खड़े रहने के बाद बोली - ‘अभी-अभी दोपहर का चौका उठा है। देखती हूँ कि रात्रि के भोजन हेतु कुछ सामग्री बची-खुची हो तो ले आती हूँ।’

स्त्री अपनी रसोई के सारे घड़े-बर्तन उलटने के बाद, एक मुठ्ठी चावल और आधा मुठ्ठी दाल लेकर प्रस्तुत हुई। भगवान की इस निष्ठुर परीक्षा पर उसकी रुलाई छूट रही थी। उधर कालूराम की अन्न की, मात्रा देख, रुलाई छूट रही थी। उन्होंने सोचा कि इन चार अन्न के दानों से मेरी तो जीभ भी गीली नहीं होगी। हाँ हो सकता है कि इस परिवार के चार जनों का, रात का भोजन पूरा हो जाए। कालूराम ने भिक्षा लेने से मना कर दिया। कहा कि वह तो बस परीक्षा ले रहे थे और ढेरों आशीर्वाद देते हुए कालूराम आगे बढ़ गए।

कालूराम आगे तो बढ़ गए, मगर जाएं कहाँ? बस्ती तो दो क़दम पर ख़तम हो गई। कालूराम ने आसमान की ओर देखा, तो पाया कि सूरज ने उतरना शुरू कर दिया है। कालूराम को सोमनाथ की याद आई। तीसरे पहर में मिलना था। तेज़ क़दमों से कालूराम ख़ाली हाथ ही वापस लौट पड़े।

वापस आकर देखा तो सोमनाथ अपनी जगह पर खड़े मिले। ‘कहो भाई! क्या-क्या भिक्षा मिली?’

कालूराम क्या बताएं? खाया-पिया कुछ नहीं, बस ख़ाली झोला लटकाए गए थे और ख़ाली ही लटकाए वापस आ गए। कभी सोचा भी न था कि मांग कर खाना भी इतना कष्टकर हो सकता है। उस दिन को कोसने लगे जिस दिन भिक्षा को आजीविका बनाने का विचार कौंधा था और उस साधु को भी जो उस दिन जबरन भिक्षा लेने पर उतारू था। न वह मिलता और न यह सब होता।

सोमनाथ ने कालूराम को झकझोरते हुए पूछना चाहा कि ‘कुछ कहो भाई’। मगर उससे झकझोरते न बना। अलबत्ता ख़ुद झकझोरा गए और कुछ बोल न पाए। कालूराम की भी तंद्रा टूटी और एहसास हुआ कि कोई उन्हें हिलाने की चेष्टा में, हिलकर रह गया है। उदास मन से उन्होंने अपना ख़ाली झोला खोलकर दिखा दिया।

‘ओह! कोई बात नहीं बंधु। आज तुम्हारा पहला दिन था। धीरे-धीरे आ जाएगा। सब्र का फल मीठा होता है।’

कालूराम चौकें। ‘फल’ और ‘मीठा’ यहां तो किसी ने कड़वे करेले तक को न पूछा, भला फल और मीठा कौन देने लगा?

कालूराम ने खाने के चक्कर में बहुत देर से पानी तक न पिया था। और अब तो भूख के मारे चक्कर से आने लगे थे, जिससे उसको अपने शरीर में कुछ भू-स्खलन जैसी स्थिति का आभास हो रहा था। वह वहीं एक पत्थर की शिला पर टिक गया। शिला उसके बैठने योग्य न थी इसलिए टिक ही गया।

तभी सोमनाथ ने अपना झोला खोला। देखकर कालूराम दंग रह गए। पूड़ी, कचौड़ियां, जलेबी के दोने, हलवा, परौंठे और तो और अब बग़ल में लटक रही हंडिया पर भी उनकी दिव्यदृष्टि गई। जाने उसमें क्या होगा, रबड़ी या रसमलाई।

‘एक हलवाई के लड़के की शादी थी। उसने जी खोलकर दान दिया। मुझे दूसरे-तीसरे घर जाना ही नहीं पड़ा। यह भोजन हम दोनों के लिए काफ़ी होगा।’

हांफते कालूराम की जान में जान आई। अब तक जो उनकी जीभ लटक कर बाहर हो रही थी, अब होंठों को चाटने लगी।

‘हाँ सोम भाई! तो देर किस बात की है? आओ यहीं, यह कुआँ है। इसकी मुंडेर के पास बैठकर आत्मा की तृप्ति करते हैं, और पानी भी....’

‘नहीं कालूराम भाई नहीं। यह भिक्षा पहले गुरुजी को देनी होगी। जब तक वह भोग न लगाएंगे, हम इसे छू भी नहीं सकते।’

कालूराम सकते में आ गए। जिस कुँए के किनारे बैठ भोजन की कल्पना की थी, वहाँ की मुंडेर से बस दो लोटा पानी पीकर वापस लौट पड़े।

सारे रास्ते कालूराम अपने भिक्षुक बनने के निर्णय पर पछताते रहे और सोम के कंधे से लटकते झोले और हंडिया को देखते रहे। सोचते रहे कि कब जंगल आएगा, कब भोग लगेगा और कब भोग लगाएंगे? अभी आधा रास्ता बाक़ी था मगर अब कालूराम से रहा नहीं गया। उनके भूख से कुलबुलाते दिमाग़ के सब दरवाज़े खिड़कियां, रोशनदान बंद होने के बावजूद एक छिद्र से रोशनी की एक किरण भीतर आ ही गई।

‘भई सोमनाथ! तुम बहुत दूर से यह भारी बोझ उठा रहे हो। लाओ थोड़ी देर मैं ले चलूँ।’

‘नहीं कालू भाई, मुझे कोई कष्ट नहीं हो रहा।’

‘अच्छा...’

फिर कुछ सोचकर कालूराम ने दुबारा दिमाग़ का गुलेल चलाया कि शायद इस बार चिड़िया गिर जाए।

‘मुझे अपनी न सही, गुरुजी की सेवा करने का अवसर समझकर भार उठाने दो। भिक्षा तो ला न सका। और कुछ नहीं तो कम से कम यही...।’

चिड़िया गिर गई और सोमनाथ ने अपना झोला कालूराम को दे दिया। कालूराम भूख से व्याकुल थे। सोमनाथ की नज़रें बचाकर दो कचौड़ियां गटक गए।

पर दो कचौड़ियों से कालूराम का क्या होना था? इन दो कचौड़ियों ने तो आग में घी का ही काम किया। उन कुलबुलाती अंतड़ियों में वो दो कचौड़ियाँ जाने कहाँ समा गईं? मगर जीभ पर स्वाद ठहर गया, जिसने कालूराम को और बेचैन कर दिया। चोरी-छुपे खाएं, तो खाएं भी कितना? ज़्यादा से ज़्यादा दो और। मगर बस, अब इससे ज़्यादा पर तो पकड़े जाने का भय था तो कालूराम और अधिक न खा सके। जंगल भी पास आ गया था। सोमनाथ ने क्षितिज की ओर देखा। सूर्यास्त को अधिक समय नहीं बचा था।

‘जल्दी करो कालूराम, अगर सूर्यास्त हो गया, तो गुरुजी भोजन ग्रहण नहीं करेंगे और अगर वो नहीं करेंगे, तो हम भी नहीं कर पाएंगे।’

यह सुनते ही कालूराम गिरते-पड़ते, फिर उठते-गिरते, ऊबड़-खाबड़ रास्तों से जंगल में तेज़ी से चलने लगे। हड़बड़ाए से दोनों गुरु जी के समक्ष उपस्थित हुए।

देखा तो गुरुजी स्नान के बाद ध्यान में लीन थे। सोमनाथ चुपचाप गुरुजी के सामने नतमस्तक हो खड़े हो गए। कालूराम भी देखा देखी खड़े हो गए। मगर ध्यान तो सारा झोले पर था। अच्छा है कि हंडिया सोमनाथ के पास थी वरना एकाग्रता बनाने में दिक़्क़त होती। कालूराम का हाथ बार-बार झोले के भीतर जाता मगर इस भ्रम में कि गुरुजी कहीं हल्के से पलक उठाकर देख तो नहीं रहे, वह वापस खींच लेता था।

जंगल में पहले ही बहुत रोशनी नहीं थी। मगर अब तो देखते ही देखते अंधेरा छा गया। गुरुजी के अन्य शिष्यों ने जगह-जगह आग का प्रबंध किया। एक आग का घेरा गुरुजी और इन दोनों शिष्यों के बीच भी जल रहा था।

कालूराम यह सब व्यवस्था देख के परेशान हो रहे थे। उनके सिर में ज़ोरों से नगाड़े बज रहे थे कि तभी गुरुजी ने आँखें खोली और कालूराम ़ख़ुशी से उछ्ल तो न पाए, मगर थरथरा के रह गए। फिर दोनों ने फटाफट गुरुजी के सामने सारे व्यंजन लगा दिए।

गुरुजी ने व्यंजनों की ओर बिना ताके ही उद्घोषणा की-

‘आज मेरे गुरुजी ने ध्यान में आकर, मुझे उपवास रखने की प्रेरणा दी है। आज मैं भोजन ग्रहण नहीं करूँगा।’

और अपने विश्राम स्थल की ओर चल दिए।

यहाँ कालूराम, जंगल में लगभग एक छोटा-मोटा भूकंप सा लाते हुए, थपाक से धरा पर गिर पड़े। सोमनाथ कालूराम की व्यथा को समझ रहे थे। सो उसे सांत्वना देने लगे।

‘कोई बात नहीं कालूराम। यह तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है। आग में गलकर ही खरा सोना निकलता है। तुम भी सच्चे शिष्य बनोगे। देख लेना। बस आरंभ की ये कठिन घड़ियाँ तुम्हें झेलनी होंगी। माना दो दिन का उपवास करना बहुत कठिन है। मगर तुम विचलित न होना। तुम सच्चे मन से प्रयास करोगे तो अवश्य सफल होवोगे।’

कालूराम ठिठके।

‘दो दिन.... तुमने दो दिन क्यूँ कहा भाई? या मेरे कान बज उठे हैं?’

‘क्योंकि कल एकादशी है और एकादशी के दिन, न तो गुरुजी भोग लगाएंगे और न हम भोजन कर पाएंगे।’

यह सुनते ही ज़मीन पर बैठे कालूराम वहीं धराशायी होते हुए लोट गए। सोमनाथ कालूराम को उठाने के लिए दौड़े। मगर निकट पहुँचकर उनको अपने सामर्थ्य का आभास हो आया और उन्होंने उसे उठाने की बजाय केवल मौखिक सांत्वना देने में दोनों की भलाई समझी।

‘उठो वीर कालूराम। हिम्मत न हारो मित्र। यह कठिनाइयां पार हो जाएंगी। अभी चलकर अपनी शय्या पर लेटो। मैं भी हाथ-मुंह धोकर सोने के लिए उधर ही आता हूँ। तुम्हें जब थोड़ा आराम हो जाए, तुम भी हाथ-मुंह धोकर आराम करना।’

सोमनाथ तालाब की ओर बढ़ गए। कालूराम धीरे-धीरे अपनी चटाई पर जा लेटे। रह-रहकर कचौड़ियों की सुगंध उनकी नाक में उठने लगी। जीभ बाहर निकलकर होंठो को चाट-चाटकर उनका स्वाद मांगने लगे। पेट में मरोड़ पड़ने लगे। कालूराम पेट दबाए करवटें लेते रहे। आधी रात का समय बीत चुका था। कालूराम के मस्तिष्क में पिछले दो दिनों की घटनाओं ने चित्र बनाए जिन्हें देखकर वे सिहर उठे। सिहर तो उठे साथ में बिस्तर से भी उठे।

सोमनाथ ने कच्ची नींद में भारी-भरकम काया को हिलते-डुलते देखा, तो पहले तो घबरा गए कि हाथी आ गया। मगर ध्यान से देखने पर हाथी का बच्चा लगा और वे दम लगाकर चीखना चाहते थे। मगर डर के मारे गले में घिग्घी सी बंध गई थी, सो चूहे की सी आवाज़ निकालते हुए बस ‘हाथी’ कह कर रह गए। प्रत्युत्तर में कालूराम ने पूछा ‘कहां है?’ तब जाकर सोमनाथ को अहसास हुआ कि यह तो कालूराम है।

‘अरे भाई तुम! तुमने तो डरा ही दिया। इतनी रात को जा कहाँ रहे हो।’

‘हाथ-मुँह नहीं धो सका। अब धोकर ही आराम करूँगा।’

सोमनाथ करवट बदलकर पुन: नींद में चले गए। वो तो नींद में चले गए मगर कालूराम भी चले गए.....अपने घर।

अब कालूराम अपने घर की चारपाई पर, कछुए की तरह पांव निकाले और लौकी की तरह हाथ लटकाए, लेटे-लेटे कुछ सोच रहे थे कि इतने में घर में, एक चोर घुसा। कालूराम हिले नहीं, बस अपनी जगह लेटे रहे क्योंकि वे भली प्रकार जानते थे कि घर में कुछ चुराने को है ही नहीं और चोर अपने आप ही चला जाएगा। और हुआ भी यही, चोर अपने आप जाने लगा।

मगर जैसे ही वह जाने को हुआ कि कालूराम पुन: एक भयंकर विचार के प्रकोप से ग्रस्त हो उठे। उन्हें पेट भरने का एक और नायाब तरीक़ा सूझा और वे चोर की ओर लपक लिए।

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