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संगीत ईश्वर का एक रूप

संगीत ईश्वर का एक रूप

इस संपूर्ण जगत का आधार है ब्रह्म। संपूर्ण सृष्टि इसी से उपजती है और इसी में समा जाती है। श्रीमदभागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म का वर्णन करते हुए कहा है कि ब्रह्म के अनेक रूपों में मैं ध्वनि रूप में ॐ हूँ।

ध्वनि अर्थात नाद को ब्रह्म माना गया है। सनातन धर्म की अवधारणा है कि ध्वनि और प्रकाश के योग से ही संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना हुई है।

हमारे आसपास के वातावरण में हमें अनेक प्रकार की ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। इनमें से कई ध्वनियां कानों को सुख पहुँचाती हैं। हम प्रकृति के जितना अधिक समीप रहते हैं उतनी ही अधिक मनमोहक ध्वनियां सुनने को मिलती हैं। कहीं बहती नदियों की कल कल तो कहीं पंक्षियों की मीठी चहचहाहट। लेकिन जितना हम प्रकृति से दूर हो रहे हैं हमें ऐसी ध्वनियां सुनने को मिलती हैं जो कानों में चुभती हैं। लाउडस्पीकर से आती तेज़ आवाज़, कार के हॉर्न की आवाज़, आसपास चलती मशीनों की आवाज़।

हम चारों तरफ से ध्वनि से घिरे हैं। कुछ ध्वनियां मधुर होती हैं और कुछ कर्कष। जो भी ध्वनियां हम सुनते हैं उनका हमारे मन पर प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक ध्वनि एक कंपन पैदा करती है। यह कंपन हमारे चित्त को प्रभावित करता है। मधुर ध्वनि से उत्पन्न कंपन मन को इस प्रकार उद्वेलित करता है कि वह स्थिरता व शांति की तरफ बढ़ता है। जबकी कर्कष ध्वनि चित्त को अशांत कर देता है।

संगीत भी ध्वनि का ही प्रकार है। यह एक ऐसी ध्वनि है जो सुनने में अच्छी लगती है। जो मन पर अच्छा प्रभाव डालती है। क्योंकी भारतीय दर्शन में नाद ब्रह्म का रूप है। अतः संगीत को ईश्वर से जुड़ने का एक साधन माना जाता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत का उद्देश्य मनोरंजन नहीं अपितु सुरों के सहारे ईश्वर से अपना तार जोड़ना है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत आध्यात्मिकता से जुड़ा है। आध्यात्म का अर्थ है स्वयं के वास्तविक रूप को पहचानना है। अतः भारतीय शास्त्रीय संगीत की शुरुआत मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य 'मोक्ष' की प्राप्ति के साधन के रूप में हुई। यह इस बात से स्पष्ट है कि भारतीय मनीषियों ने संगीत को पंचम वेद की संज्ञा दी है।

भारतीय शास्त्रीय गायन में ध्वनि की प्रधानता होती है। शब्द की प्रधानता नहीं होती है। इसमें ध्वनि के उतार चढ़ाव पर अधिक ध्यान दिया जाता है। शास्त्रीय संगीत को समझने के लिए इसका अभ्यास बहुत आवश्यक है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से हुई है। सामवेद में संगीत के बारे में गहराई से चर्चा की गई है। सामवेद से तात्पर्य उस ग्रंथ से है जिसके मंत्र गाए जा सकते हैं। जो संगीतमय हों। इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मंत्र ही हैं।

भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' पहला ऐसा ग्रंथ है संगीत के मूल सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत मुनि के नाटयशास्त्र में विभिन्न वाद्यों का वर्णन, उनकी उत्पत्ति, उन्हें बजाने के तरीकों, स्वर, छन्द, लय व विभिन्न कालों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में भरत मुनि ने गायकों और वादकों के गुणों और दोषों पर भी खुलकर लिखा है। इसके बाद मतंग मुनि की बृहद्देशी और शारंगदेव द्वारा रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते हैं।

मतंग मुनि के ग्रंथ वृहददेशी से पता चलता है कि उस समय तक लोग रागों के बारे में जानने लगे थे। लोगों द्वारा गाये-बजाये जाने वाले रागों को मतंग मुनि ने देशी राग कहा और देशी रागों के नियमों को समझाने हेतु ‘वृहद्देशी’ ग्रन्थ की रचना की। मतंग ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अच्छी तरह से सोच-विचार कर पाया कि चार या पाँच स्वरों से कम में राग बन ही नहीं सकता है।

संगीत रत्नाकर शारंगदेव द्वारा रचित संगीत शास्त्रीय ग्रंथ है। यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण संगीत शास्त्रीय ग्रंथों में से एक है जो हिन्दुस्तानी संगीत जगत तथा कर्नाटक संगीत जगत दोनों द्वारा समान रूप से आदर पाता है। इसे सप्ताध्यायी भी कहते हैं क्योंकि इसमें सात अध्याय हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बाद संगीत रत्नाकर ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।

भारतवर्ष की सभी सभ्यताओं में संगीत का ऊँचा स्थान रहा है। धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं में संगीत का प्रचलन प्राचीन काल से हो रहा है। संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा माना जाता है। वैदिक काल में अध्यात्मिक संगीत को मार्गी तथा लोक संगीत को देशीकहा जाता था। कालांतर में यही शास्त्रीय और लोक संगीत के रूप में दिखता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत स्वरों और ताल के अनुशासित प्रयोग पर आधारित है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के सात स्वर निम्न हैं।

सा(षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद)

इन्हें सा, रे, ग, म, प, ध, नि कहा जाता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रचलित शैलियां हैं। प्रथम कर्नाटक संगीत जो दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित है। दूसरा हिंदुस्तानी संगीत जो उत्तर भारत में लोकप्रिय है।

कर्नाटक संगीत शैली

कर्नाटक शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम है। यह उत्तरी भारत की शैली हिंदुस्तानी संगीत से काफी अलग है।

कर्नाटक संगीत ज्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और ज्यादातर रचनाएँ हिन्दू देवी देवताओं को संबोधित होता है। इसके अलावा कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है।

पुरंदर दास को कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की 'त्रिमूर्ति' कहा जाता है

कर्नाटक गायन शैली के प्रमुख रूप निम्न हैं।

वर्णम: इसके तीन मुख्य भाग पल्लवी, अनुपल्लवी तथा मुक्तयीश्वर होते हैं। वास्तव में इसकी तुलना हिंदुस्तानी शैली के ठुमरी के साथ की जा सकती है।

जावाली: यह प्रेम प्रधान गीतों की शैली है। भरतनाट्यम के साथ इसे विशेष रूप से गाया जाता है। इसकी गति काफी तेज होती है।

तिल्लाना: उत्तरी भारत में प्रचलित तराना के समान ही कर्नाटक संगीत में तिल्लाना शैली होती है। यह भक्ति प्रधान गीतों की गायन शैली है।

कर्नाटक संगीत के प्रमुख केंद्रों में तमिलनाडु, कर्नाटक (भूतपूर्व मैसूर), आंध्र प्रदेश और केरल आते हैं।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत शैली

यह शास्त्रीय संगीत उत्तर भारत में प्रचलित हुआ। 11वीं और 12वीं शताब्दी में मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने उत्तर भारतीय संगीत को प्रभावित किया। इसने हिंदुस्तानी संगीत शैली को जन्म दिया। इस दौर में राजदरबार संगीत के प्रमुख संरक्षक बने। अनेक शासकों ने प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को प्रोत्साहन दिया और अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन भी किए। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं जैसे खयाल, गज़ल आदि और भारतीय संगीत का कई नये वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।

हिंदुस्तानी संगीत शैली में ध्वनि का महत्व ज्यादा है जबकि कर्नाटक संगीत में शैली में भावों की प्रधानता होती है। ऐसा दक्षिण भारत में हुए भक्ति आंदोलन के कारण हुआ है। आज जो भी कर्नाटक संगीत है उसमें से अधिकांश की रचना त्यागराज और पुरंदरा दास जैसे भक्तों ने की थी। अतः कर्नाटक संगीत शैली में भाव की प्रधानता दिखती है।

हिंदुस्तानी संगीत शैली में भावों की जगह ध्वनि को मुख्य स्थान दिया गया है। इसमें ध्वनि का इस तरह इस्तेमाल किया गया है जिससे यह मन और शरीर पर एक ख़ास प्रभाव डाल सके। हिंदुस्तानी संगीत शैली पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव पड़ा। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित कर्नाटक संगीत शैली किसी प्रकार के मुस्लिम प्रभाव से अछूती रही।

हिंदुस्तानी संगीत शैली के अंतर्गत संगीत के कई अनुभाग हैं। हर अनुभाग संगीत की एक खास तरह की रचना पर ध्यान देता है।

हिंदुस्तानी संगीत पद्धति रागों पर आधारित है। राग सुरों के आरोहण और अवरोहण का ऐसा नियम है जिससे संगीत की रचना की जाती है। राग शब्द संस्कृत की 'रंज्' धातु से बना है। रंज् का अर्थ है रंगना। एक चित्रकार की भांति एक संगीतकार भी हमारे मन को सुरों के उतार चढ़ाव से रंगता है।

हर राग का अपना एक रूप एक व्यक्तित्व होता है। जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। किसी राग की जाति इस बात से निर्धारित होती हैं कि उसमें कितने स्वर हैं। जब सात स्वरों को पहले से सातवें तक धीरे धीरे ध्वनि ऊँची करते हुए बढ़ते हैं तो यह आरोह कहलाता है। जब उन्हीं सुरों पर उल्टा उँचे से नीचे की तरफ आते हैं तो यह अवरोह कहलाता है।

आरोह-अवरोह में सातों स्वर होने पर राग ‘सम्पूर्ण जाति’ का कहलाता है। पाँच स्वर लगने पर राग ‘औडव’ और छह स्वर लगने पर ‘षाडव’ राग कहलाता है। यदि आरोह में सात और अवरोह में पाँच स्वर हैं तो राग ‘सम्पूर्ण औडव’ कहलाएगा। इस तरह कुल 9 जातियाँ तैयार हो सकती हैं जिन्हें राग की उपजातियाँ भी कहते हैं।

रागों की उत्पत्ति ‘थाट’ से होती है। थाटों की संख्या गणित की दृष्टि से ‘72’ मानी गयी है किन्तु आज मुख्यतः ‘10’ थाटों का ही क्रियात्मिक प्रयोग किया जाता है जिन के नांम हैं बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफी, आसावरी, पूर्वी, मारवा और तोडी हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट समय पर किसी ना किसी विशिष्ट भाव का प्रतीक है। प्रत्येक राग में स्वरों और उन के चलन के नियम हैं जिन का पालन करना अनिवार्य है अन्यथा अपेक्षित भाव का सर्जन नहीं हो सकता।

हिन्दुस्तानी संगीत के प्रमुख रागों की सूची

यमन

भूपाली

बसंत

बागेश्री

मुल्तानी

बसंत

बहार

हिंडोल

काफ़ी

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समय के अनुसार गाने की पद्धति है। उत्तर भारतीय संगीत-पद्धति में रागों के गायन-वादन के विषय में समय का सिध्दांत प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। जिसे प्राचीन संगीत विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम भाग दिन के बारह बजे से रात्रि के बारह बजे तक और दूसरा रात्रि के बारह बजे से दिन के बारह बजे तक माना गया है। इसमें प्रथम भाग को पूर्व भाग कहा जाता है। दूसरे को उत्तर भाग कहा जाता है। इन भागों में जिन रागों का प्रयोग होता है, उन्हें सांगीत की भाषा में “पूर्वांगवादी राग” और “उत्तरांगवादी राग” भी कहते है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में आत्मा को भिगो देने की शक्ति है। इसके माध्यम से हम स्वयं की अनुभूति कर सकते हैं। संगीत ध्वनि का एक ऐसा रूप है जहाँ सात सुरों को अनुशासन में व्यवस्थित किया जाता है। यह अनुशासित संग्रह हमारे मन पर अनुकूल प्रभाव डालता है। हमें दुनिया के आडंबरों से दूर कर स्वयं से जुड़ने में मदद करता है।