Jivan ko safal nahi sarthak banaye - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ६

51. प्रेरणा

एक नेत्रहीन विद्यार्थियों के विद्यालय में उनके वार्षिक दिवस के अवसर पर प्रधानाध्यापक महोदय ने अपने उद्बोधन में कहा कि नेत्रहीन व्यक्ति भी जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुँच कर महान बन सकता है। हमें नेत्रहीन होने के कारण अपने मन में हीन भावना से ग्रसित नही होना चाहिये। संत सूरदास जी उदाहरण देते हुये वे बोले कि उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके नेत्रहीन होने के कारण बचपन से ही वे उपेक्षित थे। जब वे युवा हुये तो वे काव्य और संगीत शास्त्र का अध्ययन और अभ्यास करने लगे। वे भगवद् भक्त थे एवं श्री नाथ जी के प्रति उनकी अपूर्व भक्ति एवं समर्पण था और उन्होने उन्ही को केंद्रबिंदु रखते हुये अद्भुत रचनाएं अपने जीवनकाल में लिखी थी तथा उनके द्वारा लिखित सूरसागर आज भी एक प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिसकी गिनती विश्वप्रसिद्ध ग्रंथों में होती है।

एक बार बादशाह अकबर के सामने संगीत सम्राट तानसेन सूरदास का पद गा रहे थे जिसे सुनकर बादशाह मुग्ध हो गये। वे सूरदास जी से मिलने तानसेन के साथ गये और तानसेन जी ने उनसे अनुरोध किया कि वे बादशाह की प्रषंसा में एक पद का गायन करने की कृपा करें। सूरदास जी ने विनम्रतापूर्वक कहा कि उनके पद परमपिता परमेश्वर को ही समर्पित है उनके मुख से इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार का गायन नही निकल सकता है। सूरदास जी त्यागी, विरक्त और प्रेमी भक्त थे। उनकी यह मानसिकता एवं स्पष्टवादिता से सम्राट अकबर बहुत प्रभावित हुये एवं उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये वापस चले गये।

सूरदास जी ने यह सिद्ध कर दिया था कि महान बनने के लिये आपको आँखों की दृष्टि की जरूरत नही पड़ती आपको अपने आप को एक लक्ष्य पर केंद्रित करना चाहिये, यही सफलता की आधारशिला बनकर आपको उन्नति के शिखर पर ले जाती है।

52. ईमानदारी

एक रविवार को मैं और मेरा एक मित्र भोजन करने एक रेस्तरां में गए। जैसे ही हम कार से उतरे, एक व्यक्ति जिसके पैरों में कुछ तकलीफ थी, लंगड़ाता हुआ सा हमारे पास आया और बोला- बाबूजी सुबह से भूखा हूँ मुझे खाना खिला दीजिए, भगवान आपका भला करेगा। मैंने उसे पर्स से एक नोट निकालकर देते हुए कहा- ये पचास रुपये लो और किसी होटल में जाकर खाना खा लो। उसे नोट देकर मैं अपने मित्र के साथ रेस्तरां में चला गया।

वहां से डिनर लेकर जब हम लोग बाहर आये तो मैंने देखा कि वह व्यक्ति हमारी कार के पास खड़ा था। मैंने उससे पूछा- क्या बात है अब क्या चाहिए?

वह बोला- बाबूजी आपने मुझे पचास रुपये दिये थे लेकिन जब मैंने होटल में जाकर देखा तो यह पाँच सौ का नोट था। आपने पचास के धोखे में मुझे पाँच सौ का नोट दे दिया। आप इसे रख लें और मुझे पचास रुपये दे दें।

मैं अचंभित रह गया। मैंने उससे कहा कि अब ये रुपये तुम्हीं रख लो।

वह बोला- साहब आपकी अंतर आत्मा ने खुशी-खुशी मुझे पचास रुपये देने को कहा था। आप मुझे पचास रुपये ही दें। मैं भोजन करके संतुष्ट हो जाउंगा।

मैंने उससे वह नोट लेकर उसे पचास रुपये का नोट दिया जिसे लेकर वह धीरे-धीरे वहां से चला गया। उसके कृषकाय शरीर पर ईमानदारी की चमक देखकर मैं अभीभूत होकर उसे आँखों से ओझल होने तक देखता रहा।

53. चुनौती

श्री अभय तिवारी एक जाने-माने गीतकार हैं। उन्होंने पत्रकारिता भी की, वे एक शिक्षक, एक एन. सी. सी. अधिकारी और एक हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्राचार्य के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। निकट भविष्य में ही वे अपनी शैक्षणिक सेवाओं से सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं। उनने अपने जीवन के प्रेरणादायी प्रसंग को रेखांकित करते हुए बतलाया कि-

वे जब बी. एस. सी. प्रथम वर्ष में अनुत्तीर्ण हुए तो यह न सिर्फ उनके लिये वरन् उनके परिवार और पूरे मोहल्ले के लिये एक दुर्घटना थी क्यों कि वे पढ़ने-लिखने के मामले में बहुतों से बहुत अच्छे थे। किसी को यह कल्पना नहीं थी कि वे अनुत्तीर्ण भी हो सकते हैं। परिणाम पता होने के बाद जब वे घर पहुँचे तो उन्होंने अपने पिता जी को अपने परीक्षा परिणाम से अवगत कराया। उन्होंने बतलाया कि वे अपनी हर बात पिता जी को यथावत बता दिया करते थे और उन्हें बताने के बाद फिर उन्हें किसी को भी कुछ बताने की आवश्यकता नहीं रहती थी। जब उन्होंने अपना परीक्षा परिणाम बतलाया तो पिताजी की प्रतिक्रिया को वे समझ ही नहीं सका। वे न तो प्रसन्न नजर आ रहे थे और न दुखी। जैसे उन्हें वह परिणाम पहले से ही मालूम हो।

शाम को जब वे घर से बाहर निकलने लगे तो माता जी ने उन्हें जेबखर्च के रुप में पैसे दिये जो समान्यतया दी जाने वाली रकम से अधिक थे। दो दिन ऐसे ही बीत गये घर में किसी ने भी उनके परीक्षा परिणाम पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की।

तीसरे दिन सुबह के समय आंगन में उनके पिताजी हाथ मटिया रहे थे और वे उनके हाथों पर पानी डाल रहे थे। हाथ धोकर पिता जी उठे और कहने लगे- ’’ मुन्ना! ( उनका घरेलू नाम ) एवरी डिफीट आफ लाइफ इज़ अ चेलेन्ज, जीवन की हर हार चुनौती देकर कहती आगे बढ़ जा। यदि हम कहीं पराजित हुए हैं तो हमें अपनी पराजय को चुनौती के रुप में स्वीकार करना चाहिए। अपनी कमियों को दूर करके पुनः पहले से भी अधिक लगन और परिश्रम के साथ अपने लक्ष्य का संधान करने के लिये तत्पर हो जाना चाहिए।’’ इतना कहकर वे आगे बढ़ गये। उनके वे शब्द आज भी मेरे जीवन का संबल हैं। जब भी कहीं पराजय होती है उनके वे शब्द ईमानदारी और मेहनत के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।

54. जो सुमिरै हनुमत बलवीरा

सुरेन्द्र अग्रवाल जो कि व्यवसायी, लेखक एवं कवि हैं ने अपने जीवन में घटित सत्य घटना के विषय में बताया। यह बात उन दिनों की है जब वे अपने व्यापारिक कार्य से बिहार के धनबाद इलाके में जाया करते थे। उन दिनों धनबाद ( वर्तमान में ) झारखंड का नाम सुनते ही लोगों के रोंगटें खडे हो जाते थे क्योंकि वहाँ माफिया एवं बाहुबलियों का साम्राज्य हुआ करता था और शाम को 7 बजे के पहले ही वहाँ लोग अपने अपने घरों में कैद हो जाया करते थे। सड़कें सुनसान होकर सन्नाटा पसर जाता था। किसी की भी हत्या और लूटपाट बड़ी आम बात थी।

धनबाद शहर से 8 कि.मी. की दूरी पर उपनगरीय क्षेत्र करकेंद्र है जहाँ उनके रिश्ते के भाई सुरेश अग्रवाल रहा करते थे जिनके यहाँ वे ठहरते थे। इस करकेंद्र से 8 कि.मी. की दूरी पर कोयले के लिये प्रसिद्ध स्थान झारिया है जहाँ धरती के नीचे वर्षों से कोयले में आग लगी हुई है और झारिया से लगा हुआ भागा स्टेशन है जहाँ से हमेशा वे ट्रेन पकड़कर इलाहाबाद होते हुए जबलपुर वापस आते थे। भागा स्टेशन से ट्रेन रात में 9 बजे मिलती थी और सुरेश उन्हें स्कूटर से छोड़ने आता था।

एक बार ठंड के दिनों की बात है रात करीब 7:30 बजे वे और सुरेश करकेंद्र से भागा स्टेशन के लिए स्कूटर से रवाना हुए रास्ते में एक इलाका पड़ता है जिसे शिमला बहाल के नाम से जाना जाता है। यह इलाका करकेंद्र से करीब 2 कि.मी. की दूरी पर है। उस सुनसान इलाके में किसी प्रकार की मदद तो दूर उलटा लुट पिट जाने का डर रहता था। ऐसे में उनकी स्कूटर खराब होकर उसके पिछले पहिए से खट खट की आवाज आने लगी, उन्हें रूकना पड़ा और पुनः प्रयास करने पर भी खटखट की आवाज और तेज हो गयी। उनकी स्थिति ऐसी हो गई कि उन दोनो के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी कि अब क्या होगा। वे आगे भी नही जा सकते थे और पीछे भी नही आ सकते थे और उस इलाके में कोई अन्य साधन या मदद उपलब्ध ना होकर उलटा लुट जाने का खतरा था।

सुरेश घबरा गया कि अब क्या करें ऐसे में सुरेंद्र को बस संकट मोचन हनुमानजी का ध्यान आया। उसने सुरेश से पूरे आत्मविश्वास से कहा कि चलो एक बार फिर से प्रयास करते है तुम गाड़ी स्टार्ट करो इसके बाद वह सामान के साथ पीछे बैठा। गाड़ी खटखट आवाज के साथ चलना शुरू हो गयी और सुरेंद्र ने पीछे बैठकर जोर जोर से हनुमान चालीसा का पाठ शुरू किया। यह आश्चर्यजनक घटना थी कि हनुमान चालीसा का पाठ शुरू करते ही गाड़ी की खटखट बंद हो गई और वे सही सलामत झारिया तक पहुँच गये। वहाँ पहुच कर सबसे पहले उन लोगों ने मैकेनिक को स्कूटर दिखाई। स्कूटर का पिछला चका देखते ही मैकेनिक ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि यह गाडी यहाँ तक कैसे आयी है। इसके चके के नट बोल्ट तो खुले पडे है। वे मैकेनिक को क्या बताते की उन्हें हनुमान जी ने यहाँ तक सुरक्षित पहुँचाया है। उन लोगों ने मन ही मन हनुमान जी को प्रणाम कर धन्यवाद दिया। मैकेनिक ने नट बोल्ट कसकर स्कूटर ठीक किया और वे लोग भागा स्टेशन के लिए रवाना हो गये जो कि नजदीक ही था।

उस दिन उन्हें हनुमान जी की कृपा का एहसास हुआ और यह प्रेरणा मिली कि अपने भक्तों की जीवनरक्षा हेतु सच्चे दिल से प्रार्थना करने पर भगवान चले आते है। सत्य है कि:-

संकट कटै मिटे सब पीरा ।

जो सुमिरै हनुमत बलवीरा ।।

55. शांति की खोज

प्रेरणा वह शक्ति है जो व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन लाती है। प्रेरित होकर व्यक्ति असंभव कार्य को भी संभव कर सकता है, ये विचार व्यक्त करते हुए दर्शन शास्त्र की पूर्व विभागाध्यक्ष महिला आयोग की सदस्य एवं अनेको धर्मार्थ ट्रस्टों के माध्यम से समाज सेवा हेतु समर्पित व्यक्तित्व की धनी डा. सोनल अमीन ने बताया कि वे ब्रम्हाकुमारी आश्रम के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं ज्ञान के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित है।

उन्होने बताया कि उनके पिता राजर्षि परमानंद भाई पटेल के स्वर्गवास के पश्चात उनके परिवार में संपत्ति विवाद के कारण पारिवारिक संबंध आपस में बहुत कटु हो गये थे। उनके लिए यह सब स्वीकार करना बहुत मुश्किल था। इन परिस्थितियों को स्वीकार करने में कर्मफल सिद्धांत से बहुत मदद मिली। जीवन में इस सिद्धांत से जो हमारे साथ घटित होता है हमारे ही किये हुए कर्मों का परिणाम है, कर्म पिछले जन्मों के भी हो सकते हैं। जीवन में कर्मों के अनुसार उतार चढ़ाव आते हैं जिनका सामना हमें करना होता है। यह ज्ञान घावों पर मरहम लगाकर हमें संघर्ष की शक्ति देता है एवं कठिन परिस्थितियों पर भी स्वस्थिति को मजबूत कर विजय पाई जा सकती है।

यह ज्ञान मात्र सैद्धांतिक या कोरा दर्शन शास्त्र नही, यह पूर्ण व्यवहारिक है। इसे जीवन में लागू करने से निश्चित परिवर्तन आता है और हम शांति और सुख की दिशा में अग्रसर होते है। परमात्मा हमें सिर्फ ज्ञान ही नही देता बल्कि ज्ञान को आत्मसात करने की शक्ति भी देता है। ब्रम्हकुमारी आश्रम से प्राप्त ज्ञान उनके जीवन का प्रेरणास्त्रोत है जिससे उन्हे सबको माफ कर कठिनाईयों का सामना करते हुए शुभकामना देकर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। डा. अमीन का कहना है कि आध्यात्मिक संस्थानों के सद्उद्देश्यो का जीवन में बहुत महत्व होता है यदि व्यक्ति उन उपदेशो के मूल में निहित अमृत तत्व को समझकर आगे बढ़े तो उसे कभी हताशा, निराशा एवं असफलता नही मिलती हैं।

56. माफी

दैनिक समाचार पत्र ‘पत्रिका’ से संबंद्ध वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर तिवारी ने हमें वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में एक बहुत ही प्रेरणादायक घटना बताई। उन्होंने बताया कि जबलपुर जिले में सिहोरा के पास बरगंवा ( खिरवाँ ) नामक गांव में उनका जन्म हुआ। कक्षा पाँचवी के बाद उनकी शिक्षा जबलपुर शहर में हुई। अपने गांव की एक घटना की सीख उन्हें मरते दम तक याद रहेगी।

वे गर्मी की छुटिट्यों में अपने गांव गये हुए थे और एक दिन अपनी बखरी के बाहर दहलान में बैठे थे तभी गांव का एक वृद्ध स्वीपर उनके घर पर आया। उसने बड़ी विनम्रता के साथ उनके पिताजी को प्रणाम किया और नीचे बैठ गया। अब दोनो के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया तभी अनायास ही उनके मुँह से निकला कि पिताजी क्या ये जमादार है ? इतने शब्द उनके मुँह से निकले ही थे कि पिताजी तमतमाकर उठे और उनका कान पकड़कर खरीखोटी सुनानी शुरू कर दी। वे जोर से डाँटते हुए कह रहे थे कि तुम शहर में क्या यही पढ़ते हो ? क्या वहाँ अपने से बड़ो से बातचीत करने या उन्हें संबोधित करने की तमीज नही सिखायी जाती है ? तुम्हें मालूम है वह कौन है, बड़ों को इसी तरह संबोधित करते हैं ? मैं उन्हे काका कह रहा हूँ और तुम उन्हें जमादार कह रहे हो ? यह सुनकर वे थरथर काँपने लगे।

उस समय उनकी उम्र कम थी और वे समझ नही पाये कि गलती कहाँ हो गयी है ? जमादार लगातार पिताजी से अनुनय विनय कर रहा था कि पंडित जी छोडिए अभी वह बच्चा है लेकिन पिताजी कुछ सुनने को तैयार नही थे, उन्होंने झटके से उनको पकड़ा और उन्हें सीधे दहलान के नीचे की तरफ उकडू बैठे हुए उन सज्ज्न के सामने अपराधी की तरह पेश कर दिया। उन्होंने डाँटते हुए कहा कि ये तेरे पिता के काका है तो तेरे क्या लगेंगे ? इतना भी नही समझते तो पढ़ाई लिखाई छोड़ दो। तुम इतना भी नही जानते कि रिश्ते में ये तेरे बब्बा हुए इनसे क्षमा माँगों। उन्होने दोनो हाथ जोड़कर वैसा ही किया और कहा कि बब्बा जी मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे बड़ी गलती हो गई है अब दोबारा ऐसा कभी नही होगा। जमादार बब्बा ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब तुम जाओ कोई बात नही है। पिताजी के कुछ शांत हुए भावों को देखकर सिसकते हुए दौड़कर घर के अंदर चला गया।

आज उस घटना को सोचता हूँ तो दिल भर आता है मन गांव की उस व्यवस्था की तरफ मुड़ जाता है। जहाँ छोटी सी आबादी में पूरी दुनिया बसती थी। सड़के कच्ची थी लेकिन रिश्ते मजबूत थे, घर खपरैल के थे, जीवन अभावों से भरा था लेकिन भावनाँए समृद्ध थी। आज की तरह आधुनिक संसाधन नही थे लेकिन मन में अपनेपन की मिठास थी। सभी के लिए समय था और हर एक के साथ रिश्ता तय था। उन रिश्तो में वो सुगंध थी जो आज खून के रिश्तो मे भी नही रही। सत्ता के खिलाड़ी चैपाल बिछाए बैठे हैं। उनके लिए ये सब बिरादरियाँ महज मोहरे है इनमें कब और कैसे अपना हित साधना है, ये बेहतर जानते है और हम मोहरे के समान उनके शह और मात के खेल का हिस्सा बन गये हैं। अब सबकुछ तहस नहस हो गया है इन्ही रिश्तो में तो मेरा भारत बसता था जो शायद अब कहीं खो गया है।

57. कल्लू

डाक्टर श्रीमती प्रार्थना अर्गल मृदुभाषी, सौम्य स्वभाव की, प्रखर व्यक्तित्व की महिला हैं। उनके जीवन में एक घटना ने बड़ा गंभीर प्रभाव डाला। उन्होंने बताया कि कल्लू नामक एक 15 वर्षीय लड़का उनके निवास स्थान से कुछ दूरी पर रहता था। उसकी माँ की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी और पिता की पिछले वर्ष ही रेल्वे की नौकरी करते हुए हृदयाघात से निधन हो गया था। कल्लू के चाचा ने उसके पिता का सब ग्रेच्युटी और पेंशन का रूपया हड़प लिया और उसे मारपीट कर घर से भगा दिया।

वह अपनी बुआ के साथ रहता था और बहुत ही कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहा था। वह स्वभाव से सीधा सादा, पढ़ाई में बहुत होषियार, खेलकूद में रूचि रखते हुए अपनी कक्षा का होनहार छात्र था। उसकी बुआ को उससे बहुत आशाएँ थी कि 18 वर्ष की आयु होने पर उसे स्वर्गीय पिता के स्थान पर अनुकंपा नियुक्ति मिल जाएगी। कल्लू प्रतिदिन शाम के समय श्रीमती अर्गल के पोते पोतियो के साथ खेलने के लिए उनके घर आता था। उनका परिवार भी बची हुयी रोटी और साग सब्जी उसे दे देते थे। जिसे वह चाव से खाकर प्रसन्न हो जाता था। उसके मोहल्ले में भी रहने वाले लोग बासी खाना उसे दे देते थे जिसे वह और उसकी बुआ खाकर अपना जीवन यापन कर रहे थे।

एक दिन अर्धरात्रि के समय उसकी बुआ बदहवास अवस्था में उनके घर पर आयी और बोली की कल्लू को रातभर से उल्टी और दस्त हो रहे है। मैंने उसे देशी दवाँए आदि दे दी हैं परंतु उसका कोई प्रभाव नही हुआ है वह बेहोश हो गया है। यह सुनते ही वे बिना समय गंवाएँ अपनी कार निकालकर बुआ को साथ लेकर उसके घर गयी और तुरंत ही कल्लू को निकट के अस्पताल मे भर्ती करा दिया। वहाँ पर चिकित्सकों के अथक प्रयास के बाद भी कल्लू को नही बचाया जा सका।

उसकी मृत्यु ने श्रीमती अर्गल के मन झकझोर दिया क्योंकि कल्लू की मृत्यु का कारण बासी खाना था जिससे उसे संक्रमण हो गया था। उस दिन के बाद से उन्होंने अपने घर के बचे हुए बासी खाने को किसी को देने के बजाए विनिष्टीकरण करना प्रारंभ कर दिया।

58. पागल कौन ?

प्रसिद्ध योगाचार्य देवेन्द्र सिंह राठौर जिन्होने योग की शिक्षा बिहार योग विद्यालय, मुंगेर से ली है। एक दिन उन्होने मुझे बताया कि जीवन की कुछ घटनाएँ हमारे मन और मस्त्ष्कि पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती है कि हम जीवन पर्यंत उसे भूल नही पाते हैं। ऐसी ही एक घटना उनके जीवन में जब वे 12 वीं कक्षा में अध्ययनरत थे तब हुई थी। वे सपरिवार शहर की एक अच्छी, संभ्रांत एवं पूर्ण रूप से विकसित कालोनी में निवास करते है। एक दिन ना जाने कहाँ से एक पागल व्यक्ति पूर्णतः नग्न अवस्था मे कालोनी में घूम रहा था, यह देखकर कि इसकी हरकतें शर्मनाक माहौल बना देगी वे एक डंडा लेकर उसे मारने के लिए घर से जा रहे थे तभी दरवाजे पर उनके पिताजी ने पूछा कि तुम इतने रोष में कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो और तुम्हारे हाथ में डंडा क्यों हैं ?

उन्होने वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो यह सुनकर उनके पिताजी ने कहा कि तुम पढ़े लिखे समझदार लड़के हो तुम्हें मालूम है कि वह पागल एवं मानसिक विक्षिप्त है उसे इस बात का कोई ध्यान नही है कि उसके शरीर पर कपडे हैं या नही। यदि तुम जाकर उस पर प्रहार करोगे तो उसकी चोट खाकर वह किसी कोने में दुबक कर दर्द और पीड़ा से कराहने लगेगा। अब तुम्ही बताओ ऐसा कृत्य करने से तुम पागल कहलाओगे या वह ? पिताजी की बात ने उन्हें मानसिक चिंतन पर मजबूर कर दिया कि यदि उन्होने जाकर डंडे से उस पागल की पिटाई कर दी होती तो वह खून में सना हुआ दर्द से बिलखता हुआ किसी और मोहल्ले में चला जाता वहाँ भी सब उसे पागल कहकर उसको बाहर दौड़ाते ।

उनका मन परिवर्तित हो गया था अब वे उस पर प्रहार ना करके उसके प्रति दयावान हो गये थे उन्हें लगा कि वह बेचारा भूखा प्यासा होगा, यह ध्यान में आते ही वे घर से खाना ले जाकर उसे खिला देते हैं एवं अपने मित्रों की मदद से उसे वस्त्र भी पहनाकर सहानुभूतिपूर्वक कालोनी से बाहर कर देते है। उसके चले जाने के बाद वे असीम शांति एवं संतुष्टि महसूस कर रहे थे। पिताजी के रोकने से वे एक गलत कार्य करने से बच गये और अब कभी भी जीवन में कोई कार्य करते हैं तो उसके परिणाम को बहुत सोचने समझने के बाद ही उस दिशा में आगे बढ़ते है।

59. आध्यात्म दर्पण

पंडित ओमप्रकाश शर्मा जीवन में प्रेरणा को आध्यात्मिक दर्शन के रूप मानते हैं। वे कहते हैं कि व्यक्ति के जीवन जीने में सदाचार एवं विकार की भावनाएँ समय समय पर आती और जाती रहती है। सदाचारी व्यक्ति सकारात्मक सृजन करते हुए समाज को एक प्रेरणा देकर प्रेरणा स्त्रोत बनता है परंतु विकार ग्रस्त मानव नकारात्मक सोच रखकर पतन की ओर गिरता जाता है। उसका जीवन मृत्यु के समान रहता है। उसे प्रेरणादायक अनुभूति कभी नही होती। हमें दृढ़संकल्पित होना चाहिए कि हमारा जीवन विकारग्रस्त ना हो तभी हमारा जीवन प्रेरणास्पद होगा और उसका अनुकरण करके समाज लाभांवित होगा। हम अपना जीवन किस दिषा में मोड़ना चाहते हैं इसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। ईश्वर के प्रति भक्ति एवं विश्वास, सही दिशा व राह का ज्ञान कराता हैं।

पंडित शर्मा जी कहते हैं कि योग एवं आध्यात्म एक ऐसी साधना है जो कि हमारे विचारों को सकारात्मक दिशा प्रदान करके मन को दृढ़ संकल्पित करती हैं। इससे जीवन सहज, सरल और सुखमय हो जाता है। इससे आनंद की अनुभूति की प्रेरणा स्वमेव ही हमारे मन और मस्तिष्क में धीरे धीरे होने लगती है जिससे हमें जीवन में शांति और संतुष्टि की प्राप्ति होकर जीवन की सार्थकता का अनुभव होता है। व्यक्ति को अपने जीवन में धर्म, कर्म, सत्संग का साथ नही छोड़ना चाहिए। परमात्मा पर सच्ची आस्था से व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन संभव है पर आस्था पाखंडी ना होकर वास्तविक होना जरूरी है।

60. नारी शक्ति

श्रीमती रचना खरे अखिल भारतीय स्तर पर उत्कृष्ट महिला व्यवसायी के प्रियदर्शिनी अवार्ड से अलंकृत एक सफल महिला उद्यमी है। इन्होंने अपनी मेहनत, कठिन परिश्रम एवं सोच से खनिज आधारित उद्योग का निर्माण कर उसका सफलतापूर्वक संचालन कर रही है। वे एम.बी.ए. की शिक्षा प्राप्त है और अपनी प्रेरणा अपने पति मानते हुए कहती है कि उनकी सफलता का कारण गहन परिश्रम, लगन व सूझबूझ रही है। उनका यह मत है कि वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में नारी को स्वावलंबी और आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना समय की महती आवश्यकता है। नारी में वह अद्भुत शक्ति होती है कि यदि उसे सही वक्त पर सही दिशा की प्रेरणा मिल जाए तो वह कुशल गृहिणी, अच्छी बहू, पत्नी और माँ के साथ साथ वाणिज्य के क्षेत्र में भी अपार सफलता पाकर बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकती है।

वे उदाहरण देती हुयी कहती है कि हमें अपने पड़ोसी मुल्क चीन से सीख लेनी चाहिए कि वहाँ पर 90 प्रतिशत महिलाएँ कामकाज में व्यस्त रहती है। वे रेल्वे, हवाई सेवा, माल, रेस्टारेंट एवं बड़े बड़े बाजारों में कार्यरत है जिससे उनका राष्ट्र की जीडीपी में बहुत बड़ा योगदान है। हमारे देश में भी महिलाओं को भी समुचित सुरक्षा व प्रोत्साहन मिले तो भारतीय महिलाएँ भी कमजोर नही है। वे भी कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता रखती है। श्रीमती खरे का कहना था कि यदि वे अपने काम के प्रति दृढ़ संकल्पित नही होती तो खनिज आधारित उद्योग में सफलता प्राप्त नही कर सकती थी। नारी के अंदर एक विशिष्ट शक्ति तत्व समाहित रहता है। यदि आप कमजोर है तो छोटे स्तर पर ही अपनी आंतरिक शक्ति का प्रयोग करके जीवन में सफल हो सकती है।