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हवाओं से आगे - 1

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

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साथिन

(भाग 1)

“जाना है... जाने दो हमें... छोरो, न... चल परे हट लरके ! ए दरोगा बाबू सुनत रहे हो !

“क्या चूँ-चपड़ लगा रखी है तुम लोगों ने ?” दारोगा ज़रा नाराज़ लहज़े में बोला या ये भी हो सकता है कि खाक़ी वर्दी ने उसकी आवाज़ को जबरन कर्कश बना दिया हो । बिना कलफ़ लगी आवाज़ का हवलदार तो पप्पू ही लगता है सो आवाज़ में थोड़ा कड़कपना लाना पड़ता है ठीक वैसे ही जैसे उनकी टोपी में एक सीधा तुर्रा खड़ा रहता है ।

“ज़रा समझाओ तो इन लरकन को मुझे जाने नहीं देत रहे । मुझे जाना है अपनी साथिनों के पास ।” अम्मा फिर चिल्लाई थीं ।

“अम्मा पगला गई हों क्या ? तुम्ही तो नुं क़हत रहीं कि बुढ़ापा तुम हमार कंधा पे चर के काटोगी । अब जाना है - जाना है कि रट लगाए मरी जा रही हों ।” मुरारी चीखा ।

“क़हत रहे पर जे तब कि बात है जब तुम्हार पिता जीवित रहे ।

“तो, अब क्या बिगर गया अम्मा ?” गोविंदा छोटा है इसीलिए माँ का ज़रा लाडला रहा है और इसी लाड-प्यार ने उसे मुँहफट बना दिया था ।

“अबहूं हम बोझ भए तुमन लोगन पे, जानत नहीं का बबुआ तुम ? जाओ पूछो तुमार महतारू से !

“जे बात नहीं है अम्मा, थोरा बहुत तो तुम्हीं अड़जस नहीं कर पा रहीं । तुमार लरकी लोग होतीं तो क्या तुम इतनी सखत होतीं उनके लाने ?”

“कान्हा-कान्हा रच्छा करो हमारी... कान्हा ने लरकी न दी हमें तबऊ तो हम पे जे ज़ुलम ढा रहीं तुम्हार लुगाई । हमऊँ से गलती भई बबुआ, सारी गलती हमारी जो हम उनके लाने परेम से रहीं, सोचती थीं कि हमार लरकी पैदा ना भई तो हम बहू को ही उसके हिस्से का परेम दें किन्तु जे लोग तो हमार सर पर बैठ गईं ।” अम्मा अपने इष्ट को याद करके रोने लगी थीं ।

“अम्मा जे बात नहीं है, तुम परेम तो करतीं हो पर साथ-साथ सर पर टोला भी देती हों फिर चाहती हों कि सब तुम्हें परेम से पूछें ! तुमारी कदर हो, खाबे के साथ रुलाबे की आदत है तुमारी, वा के लाने परसानी है बस... जकीन करो अम्मा !” गोविंदा के खरे बोल पर अम्मा को चिढ़ा देते हैं ।

“हाँ-हाँ... अब माँ हुई दारी, वा बीबी लग रहीं प्यारी ! वे हो गईं बेचारी और अम्मा हो गईं न्यारी ।”

“ऐसी तो बात ना है, तुम चलो तो घर... हम सबको समझा देंगे, एक चानस अउर दे दो... चलो ना...! ए अम्मा !” मुरारी अपनी रूठी हुई अम्मा की चिरौरी कर-करके थक तो गया था किन्तु फिर भी वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था । अम्मा चली गई तो महिना काटना मुश्किल हो जाएगा, इन औरतों को कौन समझाए अब, वह खुद से ही झींकने लगा था |

ट्रेन चलने को हुई तो वह अम्मा को लगभग घसीटते हुए ट्रेन से नीचे उतार चुका था । अम्मा के चीखने-चिल्लाने से वहाँ काफ़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी | उसने अम्मा का मुँह अपनी हथेली से भींच दिया । अम्मा रो कम रही थी चिल्ला ज़्यादा रही थी | अम्मा की गों-गों की आवाज़ से मुरारी का ध्यान अपनी हथेली पर गया था, उसने घबराकर अपनी हथेली हटा दी थी | अम्मा की कातरता ने उसे घबरा दिया था ।

"अम्मा...! ए अम्मा...! तुम हों कि निक्कल्लीं ?" उसने हँसते हुए पूछा था ।

"हों-हों...अम्मा इस बार सच में ही दहाड़े मारकर रो पड़ी थी । आस-पास भीड़ में से कुछ लोग उन पर हँसने लगे थे तो कुछ इसे उनका फॅमिली ड्रामा कहकर मज़ाक उड़ा रहे थे | मुरारी और गोविंदा दोनों बेटे किसी तरह रिक्शे में भरकर अम्मा को घर ले आए थे |

अम्मा पूरे रास्ते अपने पुराने दिनों को याद कर-करके दहाड़ें मारती रही थी ।

“जांगे एक दिन तो हम जरूर जा के रहेंगे, देख लियो भैया ! तुम सभी को सोते में छोर के कट लेंगे ।” यूँ तो अम्मा का नाम रामप्यारी था पर अम्मा नाम के उलट कृष्णा प्यारी होकर रह गई, उठते-बैठते कृष्णा-कृष्णा की टेर लगाए रहती थीं |

बचपन में मीरा की कृष्ण भक्ति सुनकर रामप्यारी भी भक्ति प्रेम में ऐसी डूबी कि कृष्ण को ही अपना इष्ट देवता मान लिया | द्वारिका नगरी तीर्थ-यात्रा से लौटते हुए नाना ने एक छोटी-सी कान्हा की चाँदी की मूरत ला दी थी । बस ! रामप्यारी उसे ही अपने सीने से लगाए-लगाए घर-आँगन में अंदर-बाहर घूमती खेलती-कूदती, पर मजाल की कान्हा की मूरत कहीं छूट जाती |

ब्याह करके रामप्यारी मथुरा के हरेकृष्णा मोहल्ले चली आई | ब्याह के वक़्त पति किशन लाल की उम्र थी 16 बरस और रामप्यारी कोई चौदह बरस की थी | एक रोज़ सोकर उठी तो साड़ी पर ढ़ेर सारे लाल सुर्ख गुड़हल के फूल उग आए थे, इन छोटे-बड़े फूलों को बीनने की लाख कोशिश की थी उसने किन्तु हथेलियाँ रँग उठी थी उसकी । बहुत छोटी थी तब त्योहार पर अपनी छोटी–छोटी हथेलियों पर आलता सँजो कर रखती थी, उसका हाथ पूरे दिन हथेलियों से पसीज ही जाता था पर भीगने नहीं देती थी । फिर भी कितना भी परहेज़ करे शाम ढलते-ढलते आलता हथेलियों से पसीज़कर बह ही निकलता था | ठीक वैसी ही ललाई इन फूलों को पकड़ने की जुगत में उसकी हथेलियों में भर-भर आई थी | बुक्का फाड़कर आँगन के बीचों-बीच तक दौड़कर आ चुकी थी रामप्यारी, कि तभी सास ने पकड़कर नल के नीचे बैठा दिया था । एक घंटे बाद वहाँ से उठी तो सारे गुड़हल भीगकर न जाने कहाँ पिघल चुके थे, बस रह गई थीं तो कुछ कलियाँ जो हर माह बेसब्र होकर खिल आया करती थीं । सासु माँ कहती-

“मरी ये कलियाँ ही तो होती हैं जो पेट की न जाने किस खोह में महीने भर पकती हैं फिर एक रोज़ मौका देखकर खिल जाया करती हैं । इनसे प्रेम करना सीख, इस दर्द में भी एक मीठी-सी कसक है, पगली !”

“मीठी-सी कसक... सो कैसे ? मुझे तो दर्द महसूस होता है ।” रामप्यारी की समझ के बाहर था कि क्यों हर माह उसकी कमर, पेट और सीने में खिलती अधकच्ची क़लियों में सिहरन भरा दर्द उभरने लगा था | उम्र जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगी तो हर माह में उम्र एक निश्चित सीढ़ी पर आकर रुकती और रामप्यारी को परिपक्वता का सबक सिखाती चली जाती थी | पल्लू में उभार आया तब तक रामप्यारी का दिमाग भी स्त्री देह की सभी अनकही बातें समझने लगा था | न सास को कुछ समझाने की जरूरत पड़ी न रामप्यारी को कुछ समझने की | कुछ भी कहो रामप्यारी को मासिक धर्म के उन पाँच दिनों का साथ बड़ा सुहाता था जब वह घर के एक कोने में ही सही किन्तु चुपचाप पड़ी अपनी बकाया नींद निबटाती थी । काँच की बोतल में गरम पानी भरकर वह देह की दुखती रगों की टीसें निबटाती । रामप्यारी को ये दूर बैठना सुहाता तो न था पर आराम के उन दिनों में वह स्वयं के बेहद करीब होती थी | उसे दुख होता था तो सिर्फ़ एक ही बात का उन खास दिनों में वह अपने कान्हा के भी दर्शनों से वंचित हो जाती थी |

रामप्यारी की खिड़की से लगकर झूलता कदम का बड़ा-सा पेड़ था जिस पर रोज़ कोयल कूकती थी तो प्रतीत होता जैसे बरसों की आतुरता उसके हृदय को मथे जा रही हो । कभी-कभी तो उस कोयल को भरी दुपहरी धुनकी चढ़ जाती थी । रामप्यारी दीवान फ़र्लांग कर खिड़की के किनारे खड़ी हो जाती और पत्तों से आच्छादित उस कदम की शाखों पर कहीं छिपी बैठी उस कोयल को ढूँढती रहती, फिर थक-हार कर वहीं दीवान पर ढह जाती | उसी अवस्था में पड़े-पड़े वह दीवान के मसनद में नाक गड़ाए देर तक लंबी-लंबी साँसे लेती रहती ।

“क्या कर रही हो बहुरानी ?” सास उसकी अजीब अवस्था को रंगे हाथों पकड़ गई थीं कई बार ।

“अ... अ... वह मैं तो...” कुछ जवाब देते न बनता तो वह हकलाने लगती थी ।

कुछ कहने की जरूरत नाए, हमऊँ सब समझत रहे ।”

“व्हो तो... व्हो तो मैं ठक्कर यही लेट गई थी ।

“बबुआ के बिस्तर में ? जवानी हम पर तो जैसन फूटी ही ना थी ?”

“ऐसी बात नहीं है सासु माँ ! व्हो तो मैं जांच रही थी की जे कोनसा इत्तर लगाने लगे हैं आजकल ।”

“हम्म...” सास को मुसकुराता देख रामप्यारी शर्मा गई थी ।

“और वह कोयल क्या कह रह थी तुझसे ?” सासु माँ रामप्यारी से चुहल करने लगी थीं ।

“धत्त सासु माँ... आप भी हमें खींच रही हों अब ।”

“नहीं बहुरानी जेसन हमने ना देखें या दिन ? हम सब जानत हैं, यही तो है जो मीठी-सी कसक होती है । देह की कच्ची कलियाँ इनकी कसक के सहारे ही तो फलती-फूलती हैं फिर मौका पाकर चटककर अपनी ख़ुशबू से हमारा आँचल भर देती हैं ।”

“धत्त...!” रामप्यारी लजा जाती और अंगियां को कसते हुए आँगन में चल देती ।

“नया कोई गुल खिलाएगी, नया कोई गुल खिलाएगी, तेरे-मेरे मिलन की ये रैना ।” रामप्यारी गीत गुनगुनाती हुई अलगनी पर सूख आए कपड़ों को तह कर रही थी, उधर सासु माँ लगातार मुस्कुराए जा रही थी ।

सासु माँ ! आज काहे इतनी मुलक रही हों ?”

“क्योंकि बबुआ दूजे गाँव से आज ही लौट रहा है, वैसे मैं भी ये जानना चाहूँ कि तू जो इतना क्यूँ चहक रही है ?”

“व्हो कुछ नहीं.... बस जे आ रहे हैं सो मन प्रसन्न है आज । आप भी तो बार-बार अपनी गीली हो आई आँखें पोंछ लेती हो, सो क्या है भला ?” एक तरफ माँ को बेटे के लौटने की आस है तो दूसरी तरफ नई-नवेली बहू को अपने सुहाग का इंतज़ार ।” रामप्यारी अपनी सासु माँ के गले लग जाती है, देर तक हृदय से मिला हृदय यूँ ही अपनी छाती की तपिस से एक-दूजे की भावनाओं को सहलाता रहता है |

“आज ज़रा ढंग से तैयार हो ! कजरा, टीका-टमकी, आलता, गजरा और वही इत्तर भी छिड़क ले जो बबुआ को परसन है !”

“धत्त... का कहती हो सासु माँ ?”

“जैसन हम जानत नहीं रहीं कि बबुआ के दीवान पर धरे मसनद में तुम क्या खोज रही थीं ?

“क्या सासु माँ ! तुम भी छेर रही हमें ।”

“देख बहुरिया किशन लाल शहर से पढ़-लिखकर लौट रहें हैं अब उनके खाने-पीने, आराम और तमाम सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना तुम्हारा कर्तव्य है । अब तुम बीबी का धर्म पालो ! बच्चे पैदा करो और हम सब की सेवा करों | इसी में स्त्री का सुरग है समझीं कुछ ?” सुबह-सुबह उठकर मंदिर की सफाई करके पूजा-पाठ कर लिया करो और मैके की मूरत को भी वहीं स्थापित कर दो, नाते-रिश्तेदार देखते हैं तो हँसते है तुम्हारे बालपने पर । रामप्यारी को सासु माँ की सारी बात पसंद आ गई थीं किन्तु अपने कान्हा की मूरत को अपने से दूर करना उसको ज़रा खला था, ज़ाहिर में वे सिर्फ़ यही बोली थी-,

“चौदह की उमिर है सासु माँ हमारी, हम सब समझतीं हैं, घर में अम्मा-बापू को भी यही लगता था कि हम बड़ी हो गईं हैं सो हमारा ब्याह कर दिया । हम बड़ी है सब समझ गईं ।” सासु माँ अपनी छोटी-सी बहुरिया की बड़ी-बड़ी बातें सुनकर हैरान थीं पर उसकी समझदारी से प्रभावित भी हो रही थी

रामप्यारी ने घर की ज़िम्मेदारी इतनी भली-भांति ओढ़ ली थी कि सबसे छोटी होते हुए भी वह घर में सबकी बड़ी और चहेती बन चुकी थी । विदाई में नानी ने आशीर्वाद के साथ-साथ कान में फुसफुसाया था ।

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