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उसका आकाश धुँधला है.....

उसका आकाश धुँधला है.....

सुधा ओम ढींगरा

वर्षों पहले उन दोनों ने कुछ निर्णय लिए थे और एक दूसरे को पत्र लिखने का बचन दिया था। जिसे वे ईमेल के इस युग में भी निभा रही हैं। दोनों ही घर -गृहस्थी वाली हैं। पत्रों में देर- सवेर हो जाती है। सप्ताहों का और कभी महीनों का सूखा पड़ जाता है, तो कभी पत्रों की बाढ़ आ जाती है। पर यह क्रम कई वर्षों से निरन्तर चल रहा है। दोनों को बचपन से ही पत्र लिखने का शौक है। सुन्दर लेखनी और बढ़िया विषय के साथ पत्र लिखने की उनकी प्रतियोगिता होती थी और वह हमेशा जीतती थी और सुरभि हार जाती। हारने वाले को जीतने वाले की पुस्तकों का बोझा उठाना पड़ता था, स्कूल से घर तक दो बस्तों को ढोना.... सुरभि के कन्धों में दर्द होने लगता था ..

दर्द सुरभि के कन्धों पर आज भी दस्तक दे रहा है। बचपन के उन क्षणों और उस को याद करके वह मुस्करा पड़ी।

मुस्कराते हुए ही उसने खिड़की से बाहर पोस्ट मैन को आते देखा। उसे देखते ही वह भागती हुई बाहर गई। वह भी उसे इस तरह से भागते आते देख कर मुस्करा दिया..

अभी -अभी वह बाहर से डाक ले कर आई है, अधिकतर तो फालतू के पत्र है, कुछेक बिल और बाकी के विज्ञापन हैं। पूरी डाक में एक ही महत्त्वपूर्ण पत्र निकला, जो उसकी सुहानी का है , बहुत दिनों बाद आया है। लाल पेन से लिखा हुआ पत्र ....सुरभि के दिल में उथल-पुथल मच गई। इसका अर्थ है कि कहीं कुछ अनहोनी घटित हुई है। विषय के अनुरूप ही सुहानी पत्र लिखने के लिए अलग- अलग रंगों के पेन प्रयोग में लाती है और वे रंग ही पत्र का विषय और उसकी मनः स्थिति उसे बता देते हैं। सुरभि पत्र खोल रही है.... उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई है। पत्र के एक-एक शब्द ने उसकी आँखें सजल कर दीं। सुहानी हार गई, इतनी आसानी से...वह कैसे हार गई ?

हर क्षण जीतने वाली और ज़िंदादिल सुहानी जीवन में हारती क्यों जा रही है ? वह इतनी निर्बल कब से हो गई। वह उन्हें अपने साथ ला सकती थी। कहाँ गई वह सुहानी। दृढ़ संकल्पी, बिंदास सी। क्या शादी के बाद उसके भीतर की स्त्री इतनी अशक्त हो गई है कि उसे अन्याय दिखाई नहीं देता। वह स्वयं के अधिकार के लिए भी खड़ी नहीं हो सकती। सोचते-सोचते सुरभि ने उससे बात करने के लिए फ़ोन उठाया...

जल्दी-जल्दी उसने नम्बर मिलाया, फ़ोन उसी ने उठाया --

''सुहानी, तुम्हारे होते यह सब कैसे हो गया। पापा जी और माँ जी की यह हालत कैसे हो गई ?'' सुरभि ने बड़ी उत्तेजना से पूछा...

''सुरभि मैं कर भी क्या सकती हूँ, उनका फैसला है।''

''तुम क्या उनसे अलग हो..''

''अलग ही कर दिया है। पापा जी ने हैसियत से ज़्यादा दहेज़ दिया तो भाभियों के मुँह फूल गए। और अब जब पापा जी ने संपत्ति में भी मुझे हिस्सा दे दिया, सगे भाई परायों जैसा व्यवहार करने लगे हैं। ससुराल वाले ख़ुश हैं कि उन्हें बहुत कुछ मिल गया। पर मुझे क्या मिला। तीन बेटियाँ और सुसराल के ताने, लानते और भाइयों की बेरुखी। ''सुहानी का गला भर गया........

''अरे रो मत, भाइयों की बेरुखी तो समझ में आती है, पर सुसराल वालों को क्या परेशानी है। पापा जी ने तो नाक तक उन्हें भर दिया है। चाहे आज वे स्वयं कष्ट में हैं। ''सुरभि गुस्से में बोली...

''उन्हें बेटा चाहिए, जो मैं दे नहीं पाई, उसकी आशा में तीन बेटियाँ हो गईं। रोज़ कोई ना कोई उलाहना, चुभती, दिल चीरने वाली बात कह देते हैं। '' सुहानी निढाल सी हो गई...

''तुम साईंटिस्ट हो, तुम तो यह जानती हो कि बेटा- बेटी पुरुष के सेक्स क्रोमोसोमस निर्धारित करते हैं, स्त्री के नहीं..।"

''कई बार सुरेन्द्र को समझा चुकी हूँ.....।''

''फिर समस्या क्या है ?''

''वे इस थ्योरी को मानना नहीं चाहते।''

''जीजा जी आई.ए.एस आफिसर हैं और तुम्हारे ससुर आई.जी। पढ़े- लिखे हैं सब लोग, उन्हें तो यह बात समझ में आ जानी चाहिए।''

''किताबें पढ़ने से क्या कोई पढ़ा लिखा हो जाता है..? एजुकेटिड इल्लिटरेट हैं वे।''

''फिर वे समझना नहीं चाहते..।''

''यही तो तुम्हें बताने की कोशिश कर रही हूँ..।''

''...तुम भी लड़कियों को..'' सुरभि कहते -कहते रुक जाती है...।

''कैसी बात करती हो। वे मेरी पलकें हैं, उनके बिना देख ही कहाँ सकती हूँ, हृदय में रक्त-संचार उन्हीं से होता है, साँसे हैं मेरी। उन्हीं के दम पर तो ज़िंदा हूँ..।''

''तुम किसी कॉलेज में अप्लाई क्यों नहीं करती..अपना आत्मविश्वास वापिस लाओ, लड़कियों को सम्मानित जीवन दो...।''

''इतना आसान नहीं जितना तुम समझती हो..'' सुहानी की पीड़ा सुरभि ने महसूस की...।

''यह सुहानी रंधावा कह रही है.....कैसी विडम्बना है ?''

''मुझे कुछ याद मत दिलवाओ, वह सुहानी कब की मर चुकी है। आज की सुहानी को प्रतिदिन इस बात का डर रहता है, कि वह कब उन्हें बेटा दे दे और उसके जीवन की धारा पलट जाए..'' उसने दुखी स्वर में कहा...

''व्हाट..एक पत्र में तुमने लिखा था, पर मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया, तो बात यहाँ तक पहुँच चुकी है? '' सुरभि अवाक् रह गई ...

''मैंने भी इसे सीरियसली कब लिया था, सोचती थी, वह सुरेन्द्र की सहकर्मी है, दोनों अच्छे दोस्त हैं। अब काफी कुछ सामने आ चुका है। अपने सम्बन्धों को सुरेन्द्र स्वीकार भी कर चुके हैं। वे मुझे अपने साथ रखेंगे। मुझे छोड़ेंगे नहीं, अच्छी तरह जानती हूँ और छोड़ने भी नहीं देंगे, पर उसके साथ भी ....'' सुहानी का स्वर टूटने लगा...गला रुंध गया..।

''कानून औरतों के पक्ष में है, यह क्यों भूलती हो। '' सुरभि ने उसे सांत्वना दी..

''कानून के रखवाले क्या पक्ष लेने देंगे। अब बहुत कुछ सोचना है मुझे, तीन बच्चियाँ पालनी हैं। भाइयों से तो कोई सहारा मिलने वाला नहीं। पापा जी-माँजी की परिस्थिति तुझे लिख चुकी हूँ। सोचती हूँ, बच्चों की भलाई के लिए यह समझौता कर लूँ.. '' सुहानी की आवाज़ में कम्पन आ गया..

''तेरे आत्मसम्मान को क्या हुआ। धाँधली है क्या..?'' तुम किसी महिला संस्था का साथ क्यों नहीं लेती..? सुरभि ने उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा।

''अमेरिका में बैठी हो, पति अच्छा है तुम्हारा। मेरे जीवन की सच्चाई बहुत भद्दी है। मैं तो पापाजी-माँजी के लिए कुछ भी नहीं कर पाई। इतनी टूट चुकी हूँ, किसी बात पर लज्जा नहीं आती। हालाँकि पापाजी ने मुझे सुखी देखने के लिए ही अपनी संपत्ति में मेरा नाम रखा था। तीनों बेटियों के नाम कर दिया है मेरा हिस्सा.. '' रुआंसी सी सुहानी ने कहा...

''तुम्हें अपने लिए खड़ा होना पड़ेगा। इस तरह समस्याओं के हल नहीं निकलते। पढ़ी- लिखी औरतें ही अगर ग़लत समझौते करने लगेगीं, तो अनपढ़ औरतें सही रास्ता किसे देख कर ढूँढ़ेंगी। तुम्हें बहुत ऊर्जा और दृढ़ता की ज़रुरत है। मैं तुम्हारे साथ हूँ, वापिस लाओ पुरानी सुहानी को ...'' सुरभि ने उसे फिर उत्साहित किया...

''सुरभि, चक्की विपरीत दिशा में चल रही है। जिसे हर पल मैं समेटती रही। आज वह मुझे सम्भाल रही है...।'' उसने उदास फीकी हँसी- हँसते हुए कहा --फिर उसने थोड़ी धीमी आवाज़ में कहा--'' मम्मी जी आ रहीं हैं..... उनके सामने ये सब बातें नहीं कर सकती। सही समय देख कर मैं कॉल करुँगी, फ़ोन बंद करती हूँ..'' और उसने फ़ोन काट दिया।

फ़ोन काटते ही सुरभि के भीतर की औरत व्यथित हो उठी। अंतर्मन विचलित हो गया। दोनों तार्किक ढंग से सुरभि से पूछने लगे--क्या यह वही सुहानी है..? जो कभी हाकी की गोलकीपर हुआ करती थी, जिसकी हाकी के डर से लड़के सड़कों पर उसे रास्ता दे देते थे। गोरा रंग, खिले-खिले अंगों वाली सुहानी को क्या हो गया है ..? क्या ग़लत साथी के साथ निर्वाह ही शादी की मर्यादा रह गई है। बच्चों के लिए यह समझौता कितना उपयुक्त है। अंतर्मन गुस्सा गया। दूसरी औरत तीन बच्चों के बाप के साथ क्या सोच कर सहवास करती है। शारीरिक तृप्ति या प्यार..या प्यार के नाम पर स्वार्थ सिद्धि। भीतर की औरत अपनी पीड़ा उड़ेलने लगी। प्रेम की लौ जब जलती है, तो सृष्टि रौशन हो जाती है। हृदय उज्ज्वल हो जाता है, प्रीत देती है, लेती नहीं। प्यार का भी मानव ने आधुनिकीकरण कर दिया है। अपनी सुविधानुसार इसकी आड़ में हृदय की कुटिलता को छुपा जाता है। बहुत से प्रश्नों के झंझावात ने सुरभि के हृदय में हल -चल मचा दी। विचारों का मन्थन होने लगा। सुहानी का सौन्दर्य भी सुरेन्द्र को बाँध नहीं पाया या बँधन था ही नहीं। बस बच्चे हो गए। मन की कुंठाएँ कई बार गांठों में बंध जाती हैं और स्वयं मानव भी उन्हें खोल नहीं पाता। समाज, मर्यादाएँ, शादी रुपी संस्था, उसकी सीमाएँ मानव ने ही तो निर्धारित की हैं, फिर वह उसमें उलझ कैसे जाता है। क्या उसे सिर्फ चक्रव्यूह रचना आता है, उससे निकलना नहीं। इसी संभ्रांति में पूरा जीवन निकाल देता है कि कैसे इसे तोड़ दिया जाए.... कैसे सब कुछ छोड़ दिया जाए ...? पर जब कुछ बचा ही ना हो तो ..?

भावनाओं और विचारों के मन्थन से निकल कर सुरभि की सोच का केंद्र बिन्दु फिर सुहानी बन गई। सुहानी के पत्र के बाद सुरभि को चैन नहीं। क्या थी सुहानी और क्या हो गई...सोच -सोच कर वह परेशान हो रही है। पत्र लेकर सुरभि वहीं सोफे पर बैठ गई। सुहानी ने ठीक कहा.... उसने उसे बचपन से लेकर अब तक सम्भाला है। सुहानी के साथ बिताए पल एक -एक कर घूमने लगे...

जालन्धर में पुरानी कचहरी के सामने उसे हर रोज़ महसूस होता कि आज उसका कुछ नहीं बचेगा। सुहानी स्वभाव से दबंग थी और उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए लड़के बेहूदा हरकतें करते थे। लड़कों और सुहानी के झगड़े में वह बेवजह मारी जाएगी, और वह डरी- डरी सी सुहानी के साथ खड़ी कॉलेज जाने वाली बस का इंतज़ार किया करती। वह सुहानी का साथ नहीं छोड़ सकती थी, उसे उससे अलग जीना ही नहीं आता था। दोनों पक्की सहेलियाँ थीं। झुंडों में लड़के खड़े होते थे। गुटों में बटे हुए। इस आशा के साथ कि कभी किसी पर सुहानी की नज़र पड़ जाए या वह मुस्करा कर ही देख ले। मनचलों की यह भीड़ बस में चढ़ने के लिए कम, सुहानी को देखने के लिए अधिक होती थी पर वह सबको चीरती निकल जाती, पहले उसे बस पर चढ़ाती, फिर ख़ुद चढ़ती। वह पतली- दुबली, साँवली, डरपोक लड़की थी, लड़कों की भीड़ देख कर ही नर्वस हो जाती थी....

अक्सर उन दोनों को साथ देखकर लड़के सुहानी को छेड़ते थे---''सुहानी जी....यह नज़र बटू साथ लेकर ना चला करें..सूरज को ग्रहण अच्छा नहीं लगता...''

और वह अपनी बिल्लोरी आँखें मटका कर, हँसते हुए कहती थी -- '''तभी तो ज़िंदा हूँ..... तुम लोगों की नज़रें तो रोज़ लगती हैं.... ''

बस की सीट पर भी पहले उसे बैठाती। फिर स्वयं बैठती और स्नेह से उसका हाथ पकड़ कर हँस कर कहती --''इन मनचलों की बातों पर ध्यान मत दो, साँवली सुन्दरता की पहचान इनको कहाँ ? आईने में देख कर स्वयं को निहारा करो, तीखे नयन नक्शों ने सांवले रंग को कितना सुन्दर बना दिया है। नपा- तुला लहराता बदन है तुम्हारा..'' उसके उदास चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती....

सुहानी उसे हमेशा मुस्कराते देखना चाहती थी..बचपन से ही जब वे लड़तीं- झगडतीं, कुट्टी के बाद अब्बा करतीं, सुहानी उसे हमेशा एक बात कहती--''पहले मुस्कराओ।'' और वह मुस्करा देती। पत्र लिखने की प्रतियोगिता में जब वह हार जाती। उदास हो जाती। उसे सज़ा भुगतनी पड़ती। सुहानी अचानक आ कर उसे गुदगुदा कर हँसा देती और कहती --''सुरभि तेरी मुस्कराहट जान लेवा है। इसी तरह मुस्कराती रहा कर। शायद कोई जान दे दे। '' और अंकुर उसकी मुस्कराहट पर मर मिटा था। अकेले में वह अक्सर सुहानी को याद कर मुस्करा देती है। सुरभि हाथ के पत्र को देखने लगी और मुस्कराने लगी......

वही पुरानी आदत है सुहानी की, पत्र लिखने के लिए भिन्न -भिन्न रंगों वाले पेन का मनःस्थति के अनुसार प्रयोग करना। अगर वह प्रसन्न है, तो हरे रंग के पेन से पत्र लिखा होता है। लाल पेन से लिखा पत्र भावदशा और जीवन के उतार- चढ़ाव, दुर्घटनाओं की सूचना उसे दे जाता है और नीली स्याही से लिखा पत्र उसके जीवन में भी उमंग बिखेरता आता है यानि ख़ुशी से भरपूर।

उसे कई बार गुस्सा आया है कि सुहानी के घर में तकनीकी तरक्की के बावजूद कम्प्यूटर का प्रयोग नहीं होता। ससुर और पति कई तरह के तर्क देकर, उसे कम्प्यूटर घर में रखने से मना कर देते हैं। उसके तीन बेटियाँ हैं, उनके बिगड़ने का डर है उन्हें या वे सुहानी को बाहर के संसार से जुड़ने नहीं देना चाहते।

दोनों सहेलियाँ पत्रों से ही हृदय के उदगारों को व्यक्त करती हैं। काली स्याही से लिखे पत्रों की पीड़ा और मनोदशा भाँप कर ही उस ने सुहानी को उस परिवेश से निकालने और प्रोत्साहित कर उसके स्वाभिमान को लौटा लाने की सोची, जिसे शादी से पहले की उस घटना से और शादी के बाद के आघातों से, वह खो चुकी है। वह सुहानी की ढाल उसी तरह बनना चाहती है, जिस तरह वर्षों वह उसकी बनी रही। सुहानी टूट चुकी है। हाकी हाथ में लिए कितनी सतर्कता से वह उसका ख़याल रखती थी, सुरक्षा कवच बन उसकी रक्षा करती थी, जानती थी वह डरपोक है और वह भी उसके साथ अपने आप को कितना सुरक्षित महसूस करती थी...

हाकी के फील्ड में सुहानी जब गोलकीपर नहीं, फॉरवर्ड खेलती तो पूरी सतर्कता और सुरक्षा के साथ हाकी को थामें, बॉल के साथ दौड़ती सुहानी के साथ फील्ड में सबसे ज़्यादा शोर लड़कों का उसके लिए सुनाई देता। सुरभि आज उन क्षणों को जीवन्तता के साथ जी रही है। चल चित्र की भांति सब कुछ घूम रहा है। लड़कों की आँखें कम ऑन सुहानी .....कम ऑन सुहानी ... कहते हुए उसकी सुदृढ़ गोरी पिंडलियों को अधिक देखतीं, उसके दौड़ने के साथ -साथ उनके दिल धड़कते और उनकी नज़रें उसके साथ भागतीं। सुहानी हॉकी और बॉल के साथ जिस तेज़ी से घूमती, लड़के -लड़कियों का शोर भी उसी तेज़ी से उभरता और उसके गोल-गोल घूमने के साथ खेल मैदान में गूँजने लगता। सुरभि कई बार महसूस करती कि सूर्य भी उसकी टांगों के सौन्दर्य से शरमा कर बादलों की ओट में छिप जाता था.....

सुहानी उन पलों का बहुत आंनद लेती। जीतने के बाद वह मस्ती में कहती --''सुरभि इन मनचलों ने पापाजी की दोनाली बन्दूक नहीं देखी, देख लेते तो कब के भूमिगत हो चुके होते। '' और कह कर खिलखिला कर हँस पड़ती।

सुरभि को विश्वास था कि सुहानी किसी के प्यार की जकड़ में आने वाली नहीं। वह तो लड़कों की दिल खोल कर खिल्ली उड़ाया करती थी। अक्सर कहा करती--''सुरभि किसे पसंद करूँ। इनमें से कोई ऐसा नहीं, जो मेरी कलाई थामने में सक्षम हो। सब भँवरें हैं। इर्द -गिर्द मंडराना चाहते हैं। छूना चाहते हैं। ज़रा सी टेढ़ी नज़र से देखती हूँ, तो भाग खड़े होते हैं।''

''प्यारी सुहानी, तेरी निगाह से नहीं, तेरी हाकी से डरते हैं..'' वह भी हँसते-हँसते कहती।

उन्हीं भँवरों ने बिना चुनाव के सुहानी को यूनिवर्सिटी की विद्यार्थी परिषद की नेता चुन लिया और वह उनसे घिर गई। विद्यार्थी परिषद के कामों में उलझती गई। सुरभि के लिए उसके पास समय नहीं रहा। वह उस से दूर होती गई। इतनी दूर कि उसको सुधीर चाना के साथ सुहानी की घनिष्ठता का पता नहीं चला।

पहली बार उसने उनकी प्रगाढ़ता देखी तो झटका लगा था। सुरभि को तो कल ही की बात लगती है, वे वनस्पति विज्ञान में पीएच.डी कर रही थीं। उस दिन पापाजी की दोनाली को भूल कर, पंजाब यूनिवर्सिटी की लैब में वे दोनों एक दूसरे के सामने दुनिया से बेखबर सब कुछ भुलाए बैठे थे। वे यूनिवर्सिटी होस्टल में रह रही थीं......

होस्टल के कमरे में आ कर वह सुहानी पर बिफर पड़ी थी--''तुम मरना चाहती हो, तो तुम्हारी इच्छा। मैं पापाजी से अपना भेजा उड़वाने वाली नहीं। पापा जी इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।''

''तेरे जैसे डरपोक रोज़ मरते हैं। हम तो एक बार मरेंगे। वैसे ज़रा बताना,वे क्यों स्वीकार नहीं करेंगे। क्या कमी है सुधीर में....'' दृढ़ता से बोली थी वह..

''वह केश धारी सिख नहीं। सबसे बड़ा कारण... वह भिन्न जाति का है दूसरा कारण... उसके बारे में काफी अफवाहें हैं, कई लड़कियों से उसकी दोस्ती है, तीसरा कारण...'' उस ने सख्ती से उँगलियों पर गिनवाते हुए कहा।

''इन सब बातों के बारे में मैं सोच चुकी हूँ। जो अफवाहें हैं, उनकी ओर क्या ध्यान देना। प्यार वह सिर्फ मुझ से करता है। शादी वह मुझी से करेगा।'' सुहानी ने उसके तर्कों को बड़ी लापरवाही से किनारे कर दिया और आराम से बैठ गई..

''यह सब कब से चल रहा है ?'' वह सुहानी के व्यवहार से आहत हो कर बोली थी....

''आँखों के चश्मे को साफ रखा कर, तुम्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता। तुम्हारे पास से ही उठ कर जाती हूँ, सर के जाने के बाद, जब वह लैब में हीर गाता है, मिर्ज़ा साहिबा की हेक लगाता है। वह उस बहाने मुझे ही तो बुलाता है.... '' कितने विश्वास से बोली थी वह....

''सुहानी जी ..आप के सुधीर जी में परिवार का सामना करने का सामर्थ्य है या सिर्फ राँझे बने हीर को ही पुकारते हैं ..।'' उस ने भी संबंधों की गहराई जानने की कोशिश की..... इस प्रश्न पर सुहानी चिढ़ गई....

''सुरभि तेरे चश्मे का नम्बर भी बदलने वाला है। छह फुट का हृष्ट-पुष्ट खूबसूरत नौजवान तुझे दिखाई नहीं देता। वह सक्षम भी है और सामर्थ्य भी। पापा जी ने हमारे सम्बन्धों को अस्वीकार किया, तो भाग जाऊँगी मैं उसके साथ, इतनी तेज़ कि दोनाली से निकली गोली की रफ़्तार भी धीमी पड़ जाएगी..''

''ओके बाबा मान गई।'' उसने दोनों हाथ खड़े करते हुए कहा था..

और अकस्मात् ही उन दोनों को यूनिवर्सिटी से घर बुला लिया गया और पापा जी की दोनाली बन्दूक उन दोनों पर तन गई। सुहानी की जिससे दोस्ती थी, वे उस लड़के का नाम पूछ रहे थे। हरे पंजाबी सूट में सौन्दर्य बिखेरती वह मुस्करा रही थी। बुझने से पहले दिए की चमकती लौ सी। उसकी सुन्दरता चरमसीमा पर थी। वह डरी- सहमी चुपचाप बैठी रही, पर सुहानी ने बड़े साहस से नाम बता दिया, सुधीर चाना...

''ठीक है, परिवार उससे मिलना चाहता है, उसे यहाँ बुलाओ। अगले सप्ताह गुरुवार को हम मिलेंगे।'' कह कर पापा जी की दोनाली बन्दूक का मुहँ नीचे हो गया।

उसने खुल कर साँस ली थी। उसका डर कुछ कम हुआ हालाँकि वह जानती थी कि पापा जी सुहानी को बहुत प्यार करते हैं, जिन संस्कारों और परिवेश में वे पले- बड़े हुए थे, सुधीर को स्वीकार करना उनके लिए कठिन था। पर बेटी की ख़ुशी के लिए वे अपने समुदाय की नाराज़गी लेने को भी तैयार हो गए थे।

सुहानी ने बड़ी उमंग से उसे फ़ोन किया--'' सुधीर वह दिन आ गया, जिसका हमें इंतज़ार था। पापा जी ने तुम्हें मिलने के लिए बुलाया है..''

''पर मैं तो अभी इस के लिए तैयार ही नहीं, अभी मैंने अपने माँ-बाप से अपने सम्बन्धों के बारे में बात नहीं की है..'' सुधीर ने बड़ी बेरुखी से कहा.....

''मैं तैयार थी क्या, पर अगर परिवार को हमारे सम्बन्धों का पता चल गया है, तो ठीक है। बात कर लो, शादी बाद में कर लेंगें..'' सुहानी ने उसी उत्साह में कहा.....

''मैं तो सोचता था कि हम अच्छे दोस्त हैं। पहले उस की परख कर लें। फिर शादी की सोचेंगे...'' वह बेमन सा बोल रहा था....

''सुधीर हमारी भावनात्मक प्रगाढ़ता क्या सिर्फ दोस्ती थी..'' सुहानी बेचैन हो गई।

''मुझे अपने माँ -बाप से बात करने दो। मैं उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता। मैं तुम्हें कॉल करूँगा..'' अच्छा फ़ोन रखता हूँ। कह कर उसने फ़ोन रखना चाहा..फ़ोन रखने से पहले मेरी बात सुनो, सुहानी ने आग्रह किया -- ''सुधीर पापा जी ने अगले सप्ताह वीरवार तुम्हें यहाँ बुलाया है। प्लीज़ आ जाना, परिवार ने विरोध नहीं किया अन्यथा मैं तुम्हारे साथ भागने को तैयार थी और तुम..... '' सुहानी ने बात अधर ही में छोड़ दी..

''तुम भागना चाहती थी मेरे साथ, मैं नहीं..'' और उसने फ़ोन काट दिया था..

सुहानी का सौन्दर्य मुरझाने लगा। वह विचलित हो गई, भीतर कहीं डर बैठ गया था। उसने कई बार फ़ोन किया, सुधीर ने फ़ोन नहीं उठाया। वे दिन बहुत कठिन थे। शोध प्रस्तुत किए जा चुके थे, मौखिक साक्ष्य भी हो चुका था, बस अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा थी।

सुरभि के भाग्य का निर्णय अन्तिम निर्णय से भी पहले हो गया। उसका परिवार उस के लिए बहुत दिनों से वर ढूँढ रहा था। अमेरिका से आए डॉ.अंकुर रामपाल ने उसे पसंद कर लिया और एक सप्ताह बाद ही उनकी शादी की तिथि निश्चित हो गई। अंकुर को तीन सप्ताह बाद वापिस अमेरिका जाना था। विदेशों से आए लड़के /लड़कियों के साथ यही समस्या होती है, विशेषतः अमेरिका के प्रोफैशनल्स के साथ। तीन या चार सप्ताह की छुट्टी ही ले पाते हैं, परिवारों ने कुछ योग्य वर- वधु ढूँढे हुए होते हैं, पहले सप्ताह में पसन्द या ना पसन्द का सिलसिला चलता है। दूसरे सप्ताह में शादी, तीसरे या चौथे सप्ताह तक हनीमून और वीज़ा की प्राथमिक कार्यवाही हो जाती है। फिर कई बार वर- वधु इकट्ठे और कभी अलग -अलग अमेरिका रवाना हो जाते हैं। उस के साथ भी ऐसा ही हुआ, उसके परिवार और अंकुर के परिवार में पिछले छह महीने से बातचीत चल रही थी, अंकुर के आते ही दोनों को मिलवाया गया और उसने पतली -दुबली तीखे नैन- नक्शों वाली साँवली, मासूम पर बेहद आकर्षित चेहरे और घने काले लम्बे बालों वाली सुरभि को पसन्द कर लिया और उस की शादी के समाचार ने मित्र वर्ग को चकित कर दिया। सब सोचते थे कि उसकी शादी को तो समय लगेगा और सुहानी की शादी की तैयारियाँ मन ही मन सब कर रहे थे।

कई दिन सुहानी सुधीर के फ़ोन की प्रतीक्षा करती रही। पापा जी से मिलने का दिन आ गया। उसे विश्वास था, वह आएगा। वह सोचती थी कि उस दिन का उसका रूखा व्यवहार स्वाभाविक था, जब अचानक कोई निर्णय लेना पड़े, और इंसान उसके लिए तैयार ना हों, तो ऐसा कई बार हो जाता है। यह क्षणिक होता है, फिर इंसान सम्भल जाता है। सुहानी ने तो उसे सोचने का काफी समय भी दिया है। वह अपने कल्पना के संसार में उससे विवाह रचा चुकी थी। उसका दिलकश नौजवान नहीं आया। पापा जी ने सुहानी को अपनी दोनाली दिखा दी.....

सुरभि ने सब मित्रों को सुधीर के बारे में पता करने के लिए फ़ोन किए। वह जानती थी, अब पापा जी अपनी पसंद के लड़के के साथ सुहानी का रिश्ता पक्का कर देंगें और उसे बोलने का अघिकार भी नहीं देंगें..

बिना बोले वह एक रहस्य अपने पीछे छोड़ गया। रात तक उसे समाचार मिल गया था, सुधीर के परिवार ने अनूप को बताया, जो सुरभि, सुहानी और सुधीर का मित्र था कि वह तो चार दिन पहले ही जर्मनी फ्लाई कर चुका था, अपनी मंगेतर के पास। भारतीय मूल की लड़की से उसकी दो दिन बाद शादी होने वाली थी। उसके निकट मित्र भी यह सब नहीं जानते थे....

सुहानी ने जब यह समाचार सुना तो भावनात्मक तौर पर बिखर गई। अंतर्मुखी हो गई, अपने में सिमटती गई। सुधीर के साथ बिताए क्षणों में अपना प्यार ढूँढती रही। सब मित्रों में बैठ कर, जब वह उसकी ओर देख कर शिव बटालवी का गीत गाता था---''मैंनू तेरा शबाब लै बैठा..... रंग गोरा गुलाब लै बैठा...'' या जब वह इठला -इठला कर गाता था---''हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम....'' बस उसी को सच मानती रही। उसके कानों में उसके गीत गूँजते रहे... वह उन पलों को याद करके ही रोमांचित हो जाती। लैब में बीकर धोते हुए, जब वह उसके करीब आ जाता, उसके बदन की खुश्बू अब वह अपने चारों ओर महसूस करने लगी और वह उसी महक, उन्हीं लम्हों में जीने लगी...और.... वह कुछ कहे बिना ही उसके जीवन का इतिहास लिख गया।

सुहानी सोचती, उसने ऐसा क्यों किया..? वह पूछे भी तो किस से? उत्तरदाता सुदूर उडारी भर चुका था। सुधीर के सानिध्य में उसे छल-कपट कभी महसूस ही नहीं हुआ था। फिर स्वयं ही अपनी नादानी पर झुँझला जाती-- ''मुझे ही कुछ नज़र नहीं आया'' अपने-आप को कोसती। उसकी कद- काठी और आवाज़ पर ही मर मिटी थी। किसी और तरफ उसने ध्यान क्यों नहीं दिया ? उन चाहने वालों को याद करती, जो वर्षों उसका इंतज़ार करते रहे। कभी रोती, कभी हँसती। एक कसक, एक टीस उसे हर रोज़ कचोटती। जिनके दिल उसने तोड़े हैं, उनकी आहें उसे रुला रही हैं। वह एकान्त में उनसे क्षमा माँगती--''माफ़ करना दोस्तों, मैंने जो किया, अनजाने में हुआ, मैं आप लोगों को चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी। आप लोगों की पीड़ा का एहसास कर सकती हूँ। फिर दिल पर हाथ रख कर कहती, बड़ा दर्द होता है यहाँ, जिसे आप चाहते हैं और वह ही आप को छोड़ जाए, उस वेदना को मैं अब समझ सकती हूँ।'' कभी उसे सुधीर पर गुस्सा आता। उससे लड़ने को मन करता, अगले पल स्वयं को कटघरे में खड़ा पाती और अंतर्मन उसे ही दोषी ठहराता। बेवकूफ़ी उसने की, जो इंसान को पहचान नहीं पाई। अब सज़ा भी उसे ही भुगतनी है। उसके इन संवेदनशील क्षणों में सुरभि अपनी शादी की तैयारियों में व्यस्त थी। पापाजी और माँ जी ने उसे बहुत सँभालने की कोशिश की, पर सुहानी निराशा के अंधेरों में सिमटती गई।

सुरभि को याद है कि उसने उसे कई बार अपने घर बुलाया पर वह आई नहीं थी। अपनी सुधियों में ही खोई रही। उस की शादी पर भी वह पाषण सी बनीं, सब रस्में निभाती रही। शादी के दस दिन बाद वह अमेरिका आ गई।

सुहानी के सौन्दर्य को जैसे किसी की नज़र लग गई, उस पर अवसाद के गहरे काले बादल मंडराने लगे। वह उनकी ओट में छिपती गई। सुरभि के पत्र उसको मिलते रहे, और वह घने अंधेरों से घिरती गई.... एक दिन पापा जी की पसंद का लड़का सुरेन्द्र सुरजीत पॉल सिंह उसे देखने आया, वह सिर झुकाए बैठी रही।

सुरभि को उसने पत्र लिखा था --''परिवार की ख़ुशी के लिए शादी तो करनी ही है, फिर चेहरा देख कर क्या करती। हृदय में जो चेहरा समाया है, वह निकाल नहीं सकती, अब शरीर किसी का भी हो क्या फर्क पड़ता है...'' और उसकी शादी हो गई...वह कुछ नहीं बोली थी.....

उस रात भी नहीं जब सुरेन्द्र सुरजीत पॉल सिंह ने कहा--''सुहानी जी आप के चाहने वालों की लिस्ट हमारे पास है। आप ने काफ़ी लोगों को अपने पीछे दौड़ाया है। मैं आपका पति हूँ, अब आप को मेरे पीछे भागना पड़ेगा। जिस महाशय को आप हमारा अधिकार दे आईं हैं... मुझे अफसोस है कि, वह आप को छोड़ गया। यह सौन्दर्य प्रतिमा तो हमारा प्रारब्ध थी। वह कैसे ले सकता था....?'' और उसके बाद वह पति का अधिकार प्राप्त करने लगा था। पति के इस प्यार से संज्ञाहीन सुहानी शून्य में देखती रही। वह तो पहले ही विक्षिप्त थी, पति की बातों के इस अघात से और पीड़ित हो उठी। संवेदनाहीन, भावना रहित काया पत्नी का कर्त्तव्य निभाती रही.....और...... आज तक वह कुछ भी नहीं बोली... यह भी नहीं कि इस फूल पर कोई भंवरा नहीं बैठा था....।

काली स्याही से लिखा उस रात के बाद पहला पत्र अमेरिका में उसे सुहानी की व्यथा कहता मिला था।

पापा जी ने सुहानी के छलनी हृदय की टीस को महसूस कर लिया था, उनकी बन्दूक उसके बाद फिर कभी नहीं उठी......

वह समझ नहीं पा रही कि पापाजी की वह बन्दूक कहाँ गई, जब सुहानी के तीनों भाइयों ने सारी सम्पति अपने नाम करवा कर, उन्हें और माँजी को मनसुख लाल डिडवानिया वृद्ध आश्रम में छोड़ दिया। सुहानी को हिस्सा दिलवाने के बाद शायद उन्होंने वह बन्दूक स्वयं ही तोड़ दी, या बुढ़ापे ने तुड़वा दी, या उन्हीं के समान उनके अक्खड़ बेटों ने छीन ली। वह सोच में पड़ गई.... पापाजी और माँ जी कैसे मान गए, उन्हें इस समय बच्चों के ध्यान और सेवा की ज़रुरत है, और किसी के पास उनके लिए समय नहीं। सुहानी भी उन्हें अपने पास नहीं ले जा सकती, उसकी अपनी मजबूरी है। आज के पत्र में ही सुहानी ने यह ख़बर दी है। कितने प्यार से उन्होंने बच्चों को पाला है।

उनके प्यार का सुख तो वह भी ले चुकी है। उस सुख को महसूस करती हुई, वह सुहानी के पत्र को रसोई में स्थित स्टडी डेस्क के दराज़ में रखने आई, उसे एहसास हुआ कि जब से सुहानी का पत्र आया है, एक बात उसके भीतर कुण्डली मार कर बैठ गई है कि, वह माँ-बाबू जी के लिए तो कुछ नहीं कर सकी, वृद्ध आश्रम से भी उन्हें वापिस नहीं ला सकती, वे बाबू जी के हठ को जानती है। पर वह सुहानी को इस तरह मिटने नहीं देगी, आज अतीत की यात्रा ने उसे बहुत ऊर्जा और जागृती दी है। वह सुहानी की गुनाहगार है, जब उसे उसकी शिद्दत से ज़रुरत थी, वह वहाँ नहीं थी। वह पुरानी सुहानी को वापिस लाएगी, जानती है, उसका आकाश धुँधला है। पर वह घने अँधेरे के अन्तिम छोर से फूटती भोर की सलोनी किरण सी सुहानी के जीवन में रौशनी भरने की कोशिश ज़रूर करेगी, वह उसे मर्यादायों के नाम पर ग़लत समझौते नहीं करने देगी। उसे अपने सम्मान को इस तरह खोने नहीं देगी और वह डेस्क पर रखे कम्प्यूटर को ऑन कर ई.सी.यू यूनिवर्सिटी (जहाँ वह प्रोफैसर है) और दूसरे विश्वविद्यालयों में उसके लिए तरह -तरह के सुअवसरों की तलाश करने लगी......

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