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भोली की मां


भोली की माँ
भोली की माँ हिंदू की लड़की थी और सिख की ब्याहता थी।उसने कोई प्रेम विवाह नहीं किया था बल्कि उसकी सामान्य शादी थी।उस जमाने मे हिंदू सुबह सुबह मंदिर जाते समय गुरद्वारे में भी माथा टेक आया करते थे।सिख भी साल दो साल में वैष्णों देवी या हरद्वार का चक्कर लगा लिया करते थे।हिंदू सिखों में शादी आम बात थी।फिर जब उसके बच्चे जवान हुए तब तक समाज मे कट्टरता फैल गई थी।सिख नौजवान अपने बालों को केश कहते थे और कैंची ब्लेड भी न छुआते थे।बहुत से अमृतधारी हो गए थे।इसी तरह से हिंदू नौजवान शिव सेना और वी एच पी के सदस्य बन रहे थे। कांवड़ लाने का चलन जोरों पर था।गुरपुरब अब हिंदुओ के लिये कार्तिक स्नान हो गया था।सिखों के लिए होली होला मोहल्ला का पर्व हो गया था।लेकिन भोली की माँ कहाँ जाती।उसके मायके में रामलाल, कृष्ण कुमार,शिवशंकर और दुर्गादास सभी थे और ससुराल में गुरकीरत,हरजस और हरसिमरन हँसते खेलते थे।खुद उसका नाम सुमन था लेकिन उसे इस नाम से उसके पति के सिवा कोई न बुलाता था।मोहल्ले के लिए वह भोली की माँ थी।जवानी में ही बहरी हो गई थी इसलिये ऊँची आवाज में बोलती थी।किसी की बात सुनने के लिए उसके मुँह की तरफ देखती थी ताकि होंठो के हिलने से अंदाजा लगा सके कि कहने वाला क्या कह रहा है।
मोहल्ले में सिखों का एक ही घर था और यह बात 1984 से पहले किसी ने नोटिस भी न की थी।तब भी जब उसका लड़का गोल्डी सी पी एम की टिकट पर चुनाव लड़ा था और पूरा मोहल्ला उसे वोट दे आया था।यह अलग बात अलग है कि गोल्डी चुनाव हार गया था और बाद में अकाली दल में शामिल हो गया था।
मोहल्ले को जमाने की हवा लगी थी और टिब्बा कॉलोनी इंदिरा नगर कहलाने लगी थी।
यह साल 1985 था और सिखों को दूसरी नजर से देखा जाना शुरू हुए दो तीन साल हो गए थे।इंदिरा नगर में सिख परिवार रह रहा था यह बात बहुत नहीं तो कुछ लोगों को तो खटक ही रही थी।यह सही था कि मोहल्ला जब टिब्बा कॉलोनी ही था,इंदिरा नगर नहीं हुआ था तब सबसे पहला टी वी
भोली की माँ के घर ही आया था।ब्लैक एंड व्हाइट टेलेविस्टा टी वी चार टाँगों पर खड़ा था और उसका लकड़ी का शटर और बॉडी थी।मोहल्ले के बच्चे उनके घर शाम से ही जमा हो जाते।कई बार एंटेना सेट किया जाता तब जाकर कोई प्रोग्राम दिखाई देता।चित्रहार यानी हिंदी फिल्मी गीतों का प्रोग्राम सप्ताह के कुछ ही दिन दिखाया जाता और उन दिनों उनके घर आने वाले बच्चों की तादाद बढ़ जाती।भोली की मां का चौथा और सबसे छोटा बेटा कोई बारह एक साल का बॉबी उन बच्चों के बीच नवाब की तरह बैठता और बच्चे उसकी बातें ध्यान से सुनते और उसके चुटकुलों पर जिम्मेदारी से हँसते।बॉबी के पिता सरदार किशन सिंघ बच्चों को टी वी देखने के लिए थोड़ा दूर बैठने के लिए हिदायत देते,"दूरदर्शन है।थोड़ा दूर बैठ के दर्शन करो!"
एक दिन एक शरारती बच्चे ने बॉबी की जूड़ी खींच दी।बॉबी ने उसे गुस्से से थप्पड़ जड़ दिया।एक हंगामा खड़ा हो गया लेकिन उस दिन भी किसी ने हिंदू सिख न किया।
बॉबी अब अठारह साल का नौजवान था और कॉलेज जाता था।उसका किसी नौजवान से झगड़ा हुआ था और बात बढ़कर हिंदू सिख तक जा पहुंची थी।दो लड़के सरदार किशन सिंघ को शहर छोड़ने की अथवा अंजाम भुगतने की धमकी दे गए थे।लेकिन मोहल्ले में अभी भी कोई खतरा न था।
[01/12, 7:03 a.m.] Satish Sardana: भोली की माँ शहर के सिनेमा में लगने वाली हर फिल्म देखती।मोहल्ले की औरतों से पूछती,"कौन कौन चल रही है फ़िल्म देखने।"सब औरतें उसकी बात सुनकर हँसती।कहती,"भोली की मां!तुम्हें कुछ सुनता तो है नहीं।तुम क्या करोगी फ़िल्म देखकर।"यह बात उसके कान के पास जाकर दो तीन बार ऊँची आवाज में कही जाती तब जाकर उसे सुनाई देती।
"फिर क्या हो गया।तुम बता देना।"वह ऊँची आवाज में ही जवाब देती।
यह जवाब सुनकर औरतें और ज्यादा जोर से हँसती।
[01/12, 7:40 a.m.] Satish Sardana: इसी तरह हँसी खुशी दिन बीत रहे थे कि चौरासी आ गया।पहले दरबार साहब में फ़ौज आ घुसी फिर इंदिरा गांधी का क़त्ल हो गया।सिखों के मन में इंदिरा गांधी,कांग्रेस और हिंदुओं के खिलाफ गुस्सा भर गया और हिंदू सिखों को अपना दुश्मन मानने लगे।लेकिन वे औरतें कहाँ जाती जो हिंदू मायके और सिख ससुराल वाली या सिख मायके और हिंदू ससुराल वाली थी।वे अंसमजस में जीवन काटने लगी।
[01/12, 7:32 p.m.] Satish Sardana: हवा में जहर सा घुल गया था।औरते तो घर में रहती थी उन्हें इसका ठीक ठीक अंदाजा नहीं था।लेकिन बाजार में दुकानदारी करने वाले किशन सिंघ को जहर की तीव्रता और घातकता का अंदाजा था।उनकी तीस साल से भी ज्यादा समय से खाद बीज की दुकान और अनाज की आढ़त थी।उनकी दुकान पर तीन चार मुनीम और दस बारह पल्लेदार हमेशा रहते थे। जमीदार और व्यापारी पूरा पूरा दिन वहाँ गुजारते थे।अब उनकी बहस मुबाहसे का विषय सिखों की गतिविधियां और कांग्रेस की राजनीति पर होता था।ज्यादातर लोग कट्टरता की हद तक सिखों के विरोधी हो चले थे।उनकी बोलचाल में जाने अनजाने सिखों के लिए हल्के शब्दों और गाली गलौच का इस्तेमाल बढ़ गया था।कम ही लोग ध्यान रखते कि वे ऐसी बातें एक सिख के सामने ही कर रहे हैं।टोके जाने के बावजूद उनमें शर्मिंदगी या क्षमा याचना के भाव की बजाय धृष्टता का भाव रहता था।किशन सिंघ किसी से बहस में नहीं पड़ते थे।इसलिए किसी मुसीबत में फंसने से बचे हुए थे।
रोज रोज की इस तरह की बातचीत का उनके दिलो दिमाग़ पर असर होना ही था।उन्होंने अपने सबसे बड़े बेटे हरबीर से अपने मन का भय सांझा किया।बाप बेटे ने एक दो दिन के विचार विमर्श के बाद दोनों ने तय किया कि क्या पता कब रातों रात भागना पड़े इसलिए अमतृसर के सिख बहुल इलाके में कोई जायदाद वगैरह खरीद ली जाए।अमतृसर में एक दो दूर के रिश्तेदार तो थे ही।उनके माध्यम से उन्हें चार लाख रुपये में एक बढ़िया। मकान मिल गया।मकान किसी हिंदू का था जो आसपास के माहौल से डरकर दिल्ली जा बसा था।इसलिए औने पौने दाम में ही मकान बेच दिया था।आम दिनों में ऐसा मकान दस लाख में भी न मिलता।मकान खरीदने के बाद हरबीर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ चुपचाप अमृतसर चला गया।लोगों को भनक न लगे इसलिए वे लोग अपना कोई सामान वहाँ से न लेकर गए।अमृतसर में नया सामान खरीदा गया।हरबीर की पत्नी का मायका उधर पास में ही था इसलिए उनके संपर्क में आने से एक चली हुई कपड़े की दुकान भी बड़े
सस्ते में हासिल हो गई।हरबीर को उम्मीद थी कि आसपास के सिख पड़ोसियों के साथ उनका मन लग जाएगा।लेकिन जैसा सोचा ऐसा हुआ नहीं।हरबीर ने महसूस किया कि धर्म एक होने से मन भी मिल जाये ऐसा होता नहीं।अमतृसर की दुनिया बिल्कुल अलग थी।उनके पड़ोसी ज्यादातर जट्ट सिख थे।वे भापे सिखों से नफरत करते थे और उन्हें अपने से छोटा समझते थे।किशन सिंघ जाति से भापा था यह बात हरबीर को यहाँ आकर महसूस हुई थी।अपने शहर में वे सिख होने की वजह से इतने पराये नहीं थे जितने अमृतसर में भापे होने की वजह से थे।
[01/12, 7:39 p.m.] Satish Sardana: बच्चों को अमतृसर में कुछ भी अच्छा न लगता था।वे हरियाणा में पैदा हुए थे।इसलिए घर से बाहर हिंदी में ही बात करते थे।दूसरे उनकी पंजाबी अमृतसर में बोले जाने वाली पंजाबी से भी अलग थी।वे अपने स्कूल में न हिंदी बोल पाते थे न घर में बोली जाने वाली पंजाबी।जब भी वे कुछ बोलते सहपाठी और टीचर हँसने लगते।वे जल्दी से जल्दी हरियाणा लौट जाने के इच्छुक थे।हरबीर का कारोबार भी कुछ खास न चल रहा था क्योंकि बजाजा का धंधा बेईमानी और चालाकी का धंधा था जो उनको आती ही नहीं थी।इसलिए या तो माल बिकता ही नहीं था बिकता था तो नुकसान उठाकर।सिर्फ हरबीर की पत्नी ही वहाँ खुश थी क्योंकि उसका मायका पास में था।
[01/12, 8:42 p.m.] Satish Sardana: उधर बॉबी कॉलेज में जाते जाते प्रेम का पाठ पढ़ गया था और प्रोफेसर सुरेश शर्मा की बेटी नेहा से विवाह करने के मंसूबे बना बैठा था।किशन सिंघ और उसकी पत्नी को इस शादी से कोई एतराज नही था।लेकिन नेहा के घरवालों ने शर्त रख दी कि वे नेहा और गोल्डी की शादी के लिए तभी रजामंदी देंगे जब गोल्डी बाल कटवा ले।गोल्डी ने लाख समझाया कि जिन्हेँ वे बाल कह रहे हैं वे उसके लिए धार्मिक चिन्ह हैं।इसलिए वह केश नहीं कटवा सकता।दुःख की बात यह थी कि नेहा भी उसे केश कटवाने के लिए कह रही थी।उसका कहना था कि जमाना मॉडर्न हो गया है।वे लोग भी तो जाति से ब्राह्मण हैं।उनके पूर्वज चुटिया रखते थे। अब नहीं रखते तो वे कौन से कम ब्राह्मण हो गए।केश रखने न रखने से धर्म रहेगा या जाएगा ऐसा सोचना दकियानूसी सोच है।गोल्डी ने भरे मन से केश कटवाने का फैसला कर लिया।
जब वह केश कटवा कर और क्लीन शेव करवा कर मुँह अंधेरे घर मे घुसा।सबसे पहले उसे किशन सिंघ ने देखा।ज्यादातर चुप रहने वाले,जरूरत पड़ने पर ही कुछ कहने वाले किशन सिंघ ने उसे देखकर मुँह फेर लिया।गोल्डी को उम्मीद थी कि पिता उसे डांटेंगे।वह अपनी मजबूरी बताकर उन्हें समझाएगा।माफ़ी माँग लेगा।लेकिन यहाँ तो उल्टा हुआ था।किशन सिंघ ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की थी।यह बात उसे चिंता में डाल रही थी।
एज महीने के अंदर अंदर गोल्डी की शादी हो गई।किशन सिंघ बहुत कहने के बावजूद शादी में न गए।न ही अमृतसर से हरबीर और उसका परिवार ही आया।किशन सिंघ का घर शादी के घर जैसा लगा ही नहीं।घर के एक दो सदस्य परायों की तरह गए और गोल्डी की शादी में हो आए।
शादी की अगली रात किशन सिंघ शाम को तबीयत खराब होने की बात कहकर जल्दी सो गए।सुबह वे जागे ही नहीं,नींद में ही चल बसे।सब रिश्तेदार आये।मोहल्ला जमा हो गया।हनीमून पर गए गोल्डी और नेहा को किसी ने खबर ही नहीं की।
गोल्डी जब तक वापिस आया तब तक सब खत्म हो चुका था।घर में सिर्फ भोली की माँ थी।सब लोग कीरतपुर साहब गए हुए थे।भोली की माँ अपने सबसे लाडले बेटे को गले लगाकर खूब रोई।उसका रोना सुनकर पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया। अपनी माँ का करुण विलाप सुन बॉबी का मन द्रवित हो गया।वह भी रोने लगा।रोता जाता और कहता जाता,"डैडी दी मौत दा जिम्मेवार मैं हैगा वां!मैं केश कत्ल करवाये।डैडी दा दिल दुखाया।ऐसे करके डैडी गुजर गए।मैं जिम्मेवार हैगा | पड़ोस की औरतों ने समझाया भी,"बहाना बनना हुँदा।अकाल पुरख दा फरमान आउंदा।फिर साह मुक जांदे।गुरबाणी च लिख्या वी ए, घल्ले आवे नानका सद्दे उठि जाई।"लेकिन उसका रोना बंद न हुआ।बहुत देर तक वह सुबक सुबक रोता रहा।
बॉबी ने पिता की मौत के बाद फिर से केश रखने शुरू कर दिये थे और दाढ़ी भी बढ़ा ली थी।केश कत्ल करवाने के पाप से उबरने के लिए वह स्थानीय ग्रंथी की सलाह पर स्वर्ण मंदिर जाकर जोड़ों की सेवा भी कर आया था और अमृत भी छक लिया था।इस बात से उसकी ससुराल वाले बहुत नाराज हुए थे लेकिन नेहा ने कोई एतराज नाहजन जताया था।इसलिए बॉबी को कोई फर्क नहीं पड़ा था।
हरबीर का दिल अमृतसर में नहीं लगता था।1992 में पंजाब में कांग्रेस वजारत आ गई थी।धर पकड़ शुरू हो गई थी।रोज रोज बाजार बंद रहते।काम धंधे ठप पड़े थे।इसलिए दुकान को स्थायी रूप से ताला लगा हरबीर बच्चों समेत वापिस आ गया।बहुत दिन बाद मोहल्ले वालों ने भोली की माँ को खुश देखा।