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संस्कार

आप को पता है हमारा क्या है " परी ने पूछा
मैंने कहा " फिर तेरा प्रशन उत्तर शुरू हो गया ।" वह खिलखिलाते हुए कंबल में मेरे साथ आकर लेट गई ।
"अच्छा मां बताओ तो हमारा क्या है " मैं चुप , उसके प्रशन
सुनके स्तंभ हो गई ।
मैंने कहा "हमारा.., पता नहीं " एक छोटे से बच्चे को मै क्या बताऊं ,मैं सोच में पड़ गई कि हमारा क्या है ।
फिर मैंने बात टालते हुए कहा " हमारा घर है , दुकान है , टीवी है वॉशिंग मशीन है सब कुछ तो है और क्या चाहिए तुझे ?"
परी कहती " ओह हो , मां हमारा क्या है , जैसी आंखें ,नाक
टांग वगैरा-वगैरा ।" मैं फिर चुप हो गई , सोच में पड़ गई इस छोटे से दिमाग में इतना सब कुछ कैसे चल रहा है । यह छोटे से बच्चे को मैं कैसे समझाऊं कि हमारा क्या है ?
मैंने कहा " हवा पानी और क्या चाहिए ? "
परी ने जवाब दिया "मां यह सभी नहीं हमारा ।"
तंग आपके मैंने कहा" बेटा जी अब आप ही बता दो कि हमारा क्या है ?"
फिर मैंने कहा" रुक जा , रुक जा लगता है ,मेरे दिमाग की बत्ती चल पड़ी है ,लगता है इसका उत्तर है की हमारा ईश्वर ही हमारा है और कुछ नहीं हमारा इस दुनिया में हमारा है । "
फिर परी खिलखिलाती हंसी रूके ना उसकी हंसी रुकी
कहती " मां , आप कहीं ना कहीं तो सच हो , पर इससे भी बड़ा एक सच है ।" मैंने कहा "बेटा क्या ?"
परी अपनी मासूम आंखें मटका कर कहती " मां, हमारी आत्मा " मैं चुपचाप उस दस साल की नन्ही सी परी को देखकर चुप हो गई ,फिर सोच में पड़ गई , इस नन्हीं सी जान को लोक और परलोक की सब बातें पता है और मैं इतनी बड़ी होकर भी आंखों में पट्टी बांधकर बैठी हूँ ,इस मोह माया के जाल में लिपटी हुई हूँ ।
परी ने कहा "मां , यह संसार नश्वर और भंगुर है , जो आता है वह चला जाता है हम सब तो भगवान की ही देन है हम उनसे ही पैदा होते हैं और उनमें ही नष्ट हो जाते हैं , हमारी तो बस यह आत्मा है , जो इस देह में आई है ,ये देह भी हमारी नहीं है ।
मैं थोड़ा घबरा गई "मैंने कहा बेटा बस कर चुप हो जा तुझे यह सब कहां से पता चला ,मुझे भी नहीं यह सब पता चला ।
वो खिलखिलाते हुए , हंसते हुए कहती "भागवत गीता ने सिखाया जब दादी टीवी देखती है , तब मैं उनके साथ बैठकर यह सब देखती हूँ, इसलिए मुझे यह सब पता है ।"
इसके बाद परी कंबल में लिपट कर मेरे से ,सो गई।
लेकिन मेरे दिल में हजारों सवाल छोड़ गई , की एक छोटी सी नन्ही सी जान को इतना ज्ञान । यह सब संस्कार ही तो है जो हमें अपने बच्चों को देने चाहिए और आज कल की दुनिया में हम सब कुछ भूल कर, अपनी दुनिया में मस्त है ।
अपने संस्कार अपने बच्चों में ना अर्पण कर , अपनी संस्कृति को लुप्त कर रहे हैं । संस्कार अपने बच्चों में अर्पण कर हम अपना और उनके जीवन का मार्गदर्शन कर सकते हैं ।