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बहीखाता - 18

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

18

झूठा वायदा और चूड़ियों की खनक

वैनकुवर के एयरपोर्ट से बाहर निकलते हुए सोच रही थी कि इस देश का दाना पानी चुगना मेरे भाग्य में बदा था। न ग्रंथी आँखें दिखलाते और न मैं कैनेडा आती। रविंदर रवि का नाम मेरे मन में आते ही लंबे कद का व्यक्ति सामने आ खड़ा होता। वह जाना-पहचाना लेखक था। मैंने उसकी रचनायें भी पढ़ी हुई थीं। मुझे यह सब अच्छा अच्छा लगा रहा था। मैं कस्टम से बाहर निकली तो रवि खड़ा मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उसके साथ मनजीत मीत भी था। मनजीत मीत को मैं नहीं जानती थी। वह भी कविता लिखता था। वे बड़े आदर से मिले। उन्होंने मेरे रहने का प्रबंध तारा सिंह हेयर के घर में किया हुआ था। यहाँ कैनेडा में बसते बहुत सारे पंजाबी लेखक मिले। कई ऐसे थे जिनके नाम तो मैं जानती थी, पर मिल प्रथम बार रही थी। उन्होंने एक समारोह का इंतज़ाम भी कर लिया जिसमें मैंने परचा पढ़ा।

रवि का रवैया मेरे प्रति बदलने लगा। वह घुमा फिराकर मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा था। कुछ दिनों पश्चात ही रवि ने मुझे घुमाने के लिए एक ट्रिप भी बना लिया। मनजीत मीत हमारे संग ही था। हम कैनेडा, अमेरिका में घूमते रहे। मोटलों में ठहरते थे। यहाँ भी रवि मेरी ओर बढ़ा। शुरू में मैंने बहुत न-नुकर की लेकिन आखिर, एकसाथ घूमते, चलते, फिरते, एक नये देश में घूमते हुए हमारे संबंध बन गए। हमने कई स्थल देखे। वैनकुवर से चलकर सियाटल, कैलिफोर्निया, सैन फ्रांसिस्को, लॉस ऐंजल्स, यूनीवर्सल स्टुडियो, डिजनी लैंड आदि जगहों की खूब सैर की। रवि का कहना था कि हम विवाह करवाएँगे और आस्ट्रेलिया में जाकर रहेंगे। मैं सच में ही सपना देखने लग पड़ी। उस समय यह भी दिमाग में नहीं आया कि रवि शादीशुदा बाल-बच्चों वाला व्यक्ति है, यह मैं क्या कर रही हूँ ? बस, भावना के आवेग में आकर सबकुछ से आँखें मूंद बैठी। मैं भावुक तौर पर उसके साथ जुड़ने लगी। अपने प्रति रवि के व्यवहार से मैं बिल्कुल अंदाजा नहीं लगा सकी कि यह सब एक खेल ही था जो मैं खेले जा रही थी। यहाँ तक कि एक दिन अपनी भाभी जसविंदर को फोन करके मैंने सब कुछ बता दिया। वह परेशान हो गई। उसने भाई आनंद सिंह को फोन करके कहा कि किसी भी तरह वह मुझे इंडिया भेज दें। मैं किसी की बात नहीं मान रही थी। आखि़र, कैनेडा के ट्रिप के बाद मैं इस उम्मीद के साथ न्यूयॉर्क वापस आ गई कि मैं रवि के साथ अपना घर बसा लूँगी। वापस आने के बाद भी हमारी फोन पर बातें होती रहीं। आखि़र, मैं इंडिया पहुँच गई। इंडिया पहुँचकर भी मैं उसको फोन करती रही। मैंने उसकी कहानियों पर समीक्षात्मक पुस्तक भी लिख डाली। अमृता जी को भी हम दोनों के रिश्ते के बारे में बताया। अमृता जी काफ़ी खुश हुईं। वह हमेशा ही साहित्यिक लड़कियों को हँसता-बसता देखना चाहती थीं। पुस्तक छपकर आ गई। अभी भी फोन पर हमारी बातें होती रहती थीं। लेकिन घर को लेकर किए गए मेरे प्रश्न का भरोसे योग्य उत्तर न मिलने पर मैं समझ गई कि यह रिश्ता भी छलावा ही था जिसका इस हकीकी दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं था। मैं यूँ ही उसकी बातों में आ गई थी। यह मेरी गलती थी, पर भावना के आगे किसका वश चलता है ?

हरजिंदर मेरी ख़ास सहेली थी। वह बैंक में काम करती थी। वक्त-बेवक्त मेरे काम भी आ जाती। मैं दिल की हर बात उसके साथ साझा करती थी। हमारे बीच एक साझी बात यह थी कि हम दोनों का ही अभी विवाह नहीं हुआ था। अब कोई उम्मीद भी दिखाई नहीं देती थी। मानो यह दर्द का एक सांझा रिश्ता था। रवि के झूठे वायदे में से निकलने में मुझे समय लग रहा था। मैं हरजिंदर के साथ इस बारे में बात करती, खुद भी सोचती रहती कि इस उम्र में छोटी-सी दिखती आस बहुत बड़ी वस्तु लगने लगती है। मर्द हमेशा ही औरत को घर का सपना दिखाकर गुमराह करता आया है। औरत का नर्मदिल सहज ही मर्द की चाल में आ जाता है। विवाह का सपना हरजिंदर भी देखती थी, पर उसके लिए भी दूर-दूर तक अकेलापन ही फैला हुआ था। हम मिलतीं और अपने दुख-सुख साझे कर लेतीं।

हरजिंदर संतसिंह सेखों (पंजाबी के वरिष्ठ लेखक) की किसी न किसी रूप में भतीजी लगती थी। उसका गांव सेखों के गांव के बिल्कुल निकट पड़ता था। मैं उसके साथ उसके गांव भी गई थी और सेखों से भी मिलकर आई थी। सेखों से तो मैं बहुत बार मिल चुकी थी। वह बहुत ही हँसमुख स्वभाव के साथ-साथ सीधे साधे ग्रामीण स्वभाव के भी मालिक थे। डॉक्टर हरिभजन सिंह के मृदुभाषी होने को लेकर वह कहा करते कि उसके मुँह में मिश्री घुली हुई है।

एक दिन मैं हरजिंदर के घर गई तो उनका परिवार कलकत्ता जाने की योजना बना रहा था। कलकत्ता में उनके बहुत सारे रिश्तेदार रहते थे। मैं और हरजिंदर एकबार दक्षिण भारत का बाइस दिन का टूर लगा चुकी थीं। बहुत आनंद आया था। अब वह मुझे अपने संग कलकत्ता चलने के लिए कहने लगी। मेरा दिल तो नहीं कर रहा था, पर उसको इन्कार भी नहीं कर सकी। मेरा भी हरजिंदर के साथ ही कलकत्ता जाने का कार्यक्रम बन गया। कलकत्ता मैं पहली बार गई थी। इस शहर के विषय में सुना तो बहुत था, अब देखने का अवसर भी मिल गया था। वहाँ जाना बहुत अच्छा लगा। हम वहाँ कई दिन रहीं। दशहरा कलकत्ता में ही देखा। और भी घूम-फिर कर शहर देखा।

कलकत्ता में ही हरजिंदर का रिश्ते में भाई लगता पाल नाम का एक लड़का मिला। वह ‘कौमी एकता’ का पाठक था और मैं ‘कौमी एकता’ की लेखिका। उसमें मेरा स्तंभ ‘औरतनामा’ छपता रहा था। वह मुझसे मिलकर बहुत खुश हुआ। मुझे भी अपने पाठक से मिलना अच्छा लग रहा था। कलकत्ता दिखाने में पाल ने हमारी बहुत मदद की। कलकत्ता से वापस लौटीं तो उस दिन दीवाली थी। रेल गाड़ी में कलकत्ता का सफ़र भी तो दो दिन का था। दशहरा कलकत्ता में और दीवाली दिल्ली लौटकर मनाई। मुझे याद है कि उस दिन बीस नवंबर था। दीवाली का त्योहार था। और मैंने कलकत्ता से लाई हुई काँच की चूड़ियाँ पहनी थी। हमारी गली में से पटाखों का शोर आ रहा था। बच्चों के साथ साथ उनके घर वाले भी इसमें शामिल थे। मेरा कलकत्ता का सफ़र काफ़ी ठीक ठाक होने के कारण मैं अंदरूनी तौर पर खुश थी।

मेरी भाभी ने हमेशा की भाँति गुरू नानक देव की बड़ी तस्वीर के सामने दीये जलाये, पाठ किया। दीवाली पूजा के बाद हम पटाखे आदि चलाकर गई रात सोने लगे थे कि इंग्लैंड से स्वर्ण चंदन का फोन आ गया। यह फोन मेरे लिए इतना अचानक था कि एकबार तो मुझे मेरे ही कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने अपनी पत्नी की अचानक हुई मृत्यु की मनहूस खबर के साथ मुझे हैरान कर दिया था और साथ ही यह गिला भी किया कि सभी मित्रों की ओर से हमदर्दी के संदेशे आए थे लेकिन मैंने एक लाइन तक लिखकर नहीं भेजी थी। मैं चूंकि कलकत्ता में थी, इसलिए मुझे इस बात का पता ही नहीं चला था। इस कारण मैं माफ़ी मांगने ही वाली थी कि उनका गिला काफूर हो गया। पर साथ ही उन्होंने मुझे विवाह के लिए प्रपोज करके एकबार फिर हैरान कर दिया था। मैं अभी उसकी पत्नी के अफसोस में कुछ कह भी नहीं पाई थी कि एकबार फिर सपना मेरे दरवाजे़ पर आ खड़ा हुआ था। बिस्तर पर सोने के लिए गई तो एक सपना मेरे साथ साथ करवटें लेने लगा था। कलाइयों में पहनी काँच की चूड़ियों ने पता नहीं मेरे कानों में क्या कहा कि चूड़ियों की खनक और मेरा सपना, दोनों ही मेरी सांसों को गुदगुदा गए।

(जारी…)