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लोरिया मैम

अंग्रेज़ों ने एशिआई देशों में अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए धर्म स्थलों का निर्माण, चंदे की रसीदों,डिब्बों, दान पात्रों एवं नजूल की मुफ़्त ज़मीनों पर कब्ज़ा करने जैसे कार्यों से ख़ुद को दूर ही रखा। इस धार्मिक कार्य के लिए उन्होने शिक्षा के क्षेत्र को चुना। शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जिस से दिमाग का विकास होता है। दिमाग से संसार में कुछ भी हासिल करना मुश्किल नहीं। हम एशिआई लोग धर्म के माध्यम से संसार पर कब्ज़ा करने के ख़्वाब सदियों से देखते आ रहे हैं जो कभी पूरे नही हुए। इसके विपरीत यूरोपीयाई सिर्फ अपने दिमाग से दुनिया पर वर्षों से शासन कर रहे हैं।

अंग्रेज़ जानते थे कि गरीब, परेशान लोगों की समस्याओं का हल निकाल कर ही उन्हें अपने धर्म से जोड़ा जा सकता है। इस कार्य के लिए उन्होंने शिक्षा को माध्यम बनाया। इस तरह उन्होनें समाज-सेवा के साथ-साथ अपने धर्म का खूब प्रचार किया और इसमें आशातीत सफलता भी पाई। यूरोपीयन देशों से इस पुनीत कार्य के लिए प्राप्त सहायता- राशि को उन्होनें पूरी इमानदारी से भूखे, गरीब लोगों पर खर्च किया जिसके परिणामस्वरूप उन गरीब लोगों ने अपने बच्चों को मेहनत-मजदूरी से हटाकर शिक्षित करना शुरू कर दिया। मुफ्त शिक्षा , भोजन एवं रोजगार मिलने पर हर उस गरीब ने ईसाई धर्म अपना लिया जो अपने धर्म में उपेक्षा के शिकार थे । आज पूरा एशिया भू-भाग इनके शिक्षा माध्यम के आगे नतमस्तक है और अपने बच्चों को उसी तरह शिक्षित करना अपना सामाजिक रुतबा समझता है । हम और हमारे धार्मिक रहनुमा अपने धर्म के प्रचार के लिए प्राप्त धन से पहले अपना पेट भरते हैं और बाद में बची-खुची सहायता राशि धर्म के प्रचार में खर्च करके सौ प्रतिशत कार्य करने का प्रमाण-पत्र अपने गले में टांग लेते हैं। हम लोग गरीबों से बेगारी करवाने एवं कम तनख़्वाह में काम करवाने के लिए उनकी मजबूरी का पूरा लाभ उठाना अपनी अक्लमंदी एवं जन्मसिध्द अधिकार समझते हैं , जबकी अंग्रेज़ किसी काम करने वाले को मेहनताने से ज़्यादा पैसा देकर उसकी दुआएं लेते हैं, एवं किसी भी ज़रूरतमंद की मदद करना अपना कर्तव्य समझते हैं। ऊँच-नीच का भेदभाव वो कभी नहीं करते। हम अपनी ही बिरादरी के गरीब को अपने से निम्न बखान करते हैं। हम किसी भी समारोह में उनसे अपने संबंध तक छिपा लेते हैं किंतु वो सभी तिरस्कृतों को अपने बहुत करीबी दर्शाते हैं और उनके साथ बड़ी शान से खड़े रहते हैं। सफाई-सेवा आदि करने वालों पर तो इनका और भी प्यार झलकता है, इसी कारण नर्सिंग का पेशा इन्ही लोगों से प्रभावित है। गांधी के आदर्शों के सच्चे पालनकर्ता तो यही लोग हैं , हम तो उनका नाम तक नहीं लेते, उनके आदर्शों पर क्या ख़ाक चलेंगें?

शहर से सात-आठ किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्र में सस्ते रेट पर खेतीहर जमीन खरीदकर मिशनरी सोसाइटीस ने एक स्कूल खोला। "कम फीस-उच्च शिक्षा " की नीति के कारण यह स्कूल जल्दी ही मतलबभर छात्रों से भर गया। मध्यम वर्ग भी इस वातावरण से प्रभावित होकर इस स्कूल की ओर आकृष्ट हुआ। जाने-आने के खर्च को फीस में जोड़कर भी यह सस्ता ही लगा। इस तरह भीड़ बढ़ने लगी और चार-पाँच वर्ष में ही इसमें प्रवेश पाना टेढी खीर हो गया। आज पंद्राह-सोलह वर्ष बाद तो इसमें प्रवेश के लिए सौ जतन करने पड़ते हैं। हम लोगों ने अंग्रेज़ों के नामों से स्कूल खोलकर लंबी-चौड़ी फीस वसूली और चमक-धमक दिखाकर शिक्षा को लगभग गायब ही कर दिया।

इस स्कूल में प्रिंसिपल लोरिया मैम साउथ इंडियन थीं। अपनी मातृभाषा और अंग्रेज़ी के अलावा टूटी-फूटी हिंदी भी कुछ-कुछ बोल लेतीं थीं। उनके अनुशासन एवं जीतोड़ प्रयास के कारण ही यह स्कूल अन्य पुराने स्कूलों के समकक्ष कम समय में ही खड़ा हो गया था। भावशून्य चेहरे, तुनकमिजाज़ी और दो-टूक बात करने वाली मैम के आसपास फटकने से बच्चे भी डरते थे। स्कूल के कैंपस में ही एक चर्च , प्रिंसिपल का आवास एवं सर्वेंट क्वारटर भी बने थे। इस कारण छुट्टियों में भी स्कूल और चर्च दोनो की अच्छी देखभाल हो जाती थी। शाम ढलते ही यहाँ सन्नाटा पसर जाता था और गर्मियों की छुट्टियों में तो इसमें रहने वालों के लिए और भी भयावह हो जाता था। आमतौर पर ईसाई अक्खड़ एवं तुनकमिजाज़ नहीं होते। लोरिया मैम इग्लो-इंडियन होने के कारण और अपने जन्म स्थान के पारंपरिक व्यवहार एवं तनहाई में रहने से ऐसी हो गई थी, कुलमिलाकर उन्हे कोई पसंद नहीं करता था। स्टाफ चूंकि आसपास के ही इलाके का था इसलिए अपने-अपने घर आता-जाता रहता था। लोरिया मैम का गर्मी की छुट्टियों में कहीं आना -जाना लगभग नामुमकिन सा था क्योंकि स्कूल एवं चर्च की वह सर्वे-सर्वा जो थीं। अपने घर जाने में उन्हे दो दिन का सफर और वहाँ रुकने एवं वापस आने में लगभग दो हफ्ते तो लग ही जाते , ऐसे में स्कूल और चर्च को खाली छोड़ देना संभव नही था। शहर से 40-50 किलोमीटर दूर एक रिश्तेदार के यहाँ सुबह जाकर शाम तक वापस आ जातीं थीं।

छुट्टियाँ प्रारंभ हो गईं हैं, लोरिया मैम के लिए सबसे खराब समय यही होता है, लेकिन इन तनहाई के पलों में उनका एक दूसरा ही रूप देखने को मिलता है। इन दिनों में ही एक मासूम बेटी, एक ममतामई माँ , एक प्यारी बहन और चुलबुली सहेली सभी आडंबर छोड़कर सामने आ जाती थी। सुबह की खिलती धूप में अपने रोज़ के कार्यों को निपटाने के बाद उनका भी मन करता कि काश वो अपने घर पर होतीं तो यह काम कर रही होतीं, इनसे मिलती- उनसे मिलतीं, सबसे ठिठोली करतीं-उन्हे परेशान करतीं, उनको चिढ़ातीं और मीठी-मीठी डाँट-मार भी खातीं, पति को यह बनाकर खिलातीं, वह बनार खिलातीं, घर के लोगों को उनकी पुरानी बातें याद दिलाकर खूब मज़ा लेतीं आदि-आदि। लेकिन तंत्रा टूटते ही फिर वही सन्नाटा उन्हे घेर लेता था। यूं तो रोज़ स्कूल के बच्चों से परेशान रहतीं थीं पर अब यह सुकून भी किसी परेशानी से कम ना था। इन अधेड़ उम्र के लोगों की जो बिमारी है वही उनका इलाज भी। जिस तरह मधुमेह का कारण शक्कर की अधिक मात्रा और निवारण शक्कर की कम मात्रा है। उच्च रक्त चाप में नमक की मात्रा ज़्यादा कारण है और कम मात्रा उसका निवारण है, यही स्थिती उनकी थी।

प्रिंसिपल के पद से रिटायर होकर लोरिया मैम अपने पैतृक गाँव गईं किंतु कुछ माह पश्चात ही वापस आ गईं। अब स्कूल हेड के रूप में वहीं वापस आईं तो फिर वही कमरा, वही स्टाफ, वही पुराना माहौल और वही तनहाई थी। स्कूल की छुट्टियाँ समाप्त हो रहीं थीं इस कारण लोरिया मैम का दिल फूला ना समा रहा था। इंतज़ार का हर पल उन्हे बहुत भारी पड़ रहा था। चर्च में आँखें बंद करके प्रार्थना करते समय भी दिमाग में यही सोचतीं, की काश यह इंतज़ार का समय अभी बीत जाए और मैं जैसे ही प्रार्थना करके निकलूं, कोई स्टाफ या टीचर मुझसे बच्चों की कोई शिकायत लेकर आ जाए और उन्हे ठीक करने निकल पड़ूं। अगले ही पल खुद से कहतीं, "नहीं, आज मैं बच्चों को डाटूंगीं नहीं क्योंकि आज पहला ही दिन है और पहले ही दिन यह शगुन अच्छा नही, प्यार से समझा दूंगी"। यह सारी सोच धरी की धरी रह जाती और वो फिर इसी दुनिया में लौट आतीं। आज उन्हे बच्चों का इंतज़ार था, उनका शोर-शराबा, उनकी शरारतें, उनकी चहल-पहल, उनका दौड़ना-दौड़ाना उन्हे इतना भा रहा था जितना उन्हे अपने प्रिंसिपल के रूतबे,अच्छी सैलरी,खूबसूरत घर, काम के लिए स्टाफ एवं घूमने के लिए गाड़ी पाकर भी नही भाया था । उम्र बढ़ने के साथ-साथ इंसान के अंग शितिल पड़ने लगते हैं, उनमें वो ताकत,चपलता, क्रोध, उत्तेजना आदि खत्म हो जाती है।

65 वर्ष से ऊपर लोरिया मैम का अपने परिवार से मोह भंग हो चुका था। उनका परिवार उनकी कमाई से मतलब रखता था, कोई उनसे मिलने यहाँ नही आता था। जिस बिरादरी से वो थीं उसमें औरतों-लड़कियों की कोई इज़्ज़त नही थी। लड़कों को सिर-आँखों पर बिठाकर रखा जाता था, चाहे वो कितने ही नाकारा क्यों न हों। कमाकर खिलाना, परिवार चलाना मर्दों की नही औरतों की जिम्मेदारी थी। एक मर्द कई-कई विवाह करते थे, औरतें इसका विरोध भी नही कर सकतीं थीं। इसी कारण आज दुनिया के हर कोने में आपको साउथ की जनानियाँ ही मिलेगीं, चाहे वहाँ उनकी जान को ही खतरा क्यों न हो? शिक्षा एवं नर्सिंग के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को संसार युगों तक याद रखेगा। इन दोनों रूपों में हम उनका बहुत-बहुत सम्मान करते हैं, लेकिन उनके परिवार का उनके प्रति बुरे बर्ताव का पुरजोर विरोध भी।

स्कूल खुलने का आज पहला दिन था। आज इसे एक नया लुक दिया गया था, जैसे किसी विवाह की सजावट होती है, खाने की मेजें लगती हैं, वैसा ही। घूमने और मस्ती करने के लिए इसे एक पार्क का एवं खेल के लिए मैदान व कोर्ट का रूप दिया गया था। टीचरों आदि के साथ लोरिया मैम ट्रैक सूट में मुस्तैद खड़ी मुस्कुरा रहीं थीं। प्रार्थना की घंटी बजते ही गार्ड ने गेट खोल दिया। धड़धड़ाते, शोर करते बच्चों ने प्रार्थना स्थल की तरफ दौड़ लगा दी ! पर यह क्या? बीच में ही टीचरों संग खड़ी लोरिया मैम को देखते ही बच्चे ठिठक गए मानो साँप सूंघ गया हो। उन्हे तब और भी हैरानी हुई जब उन्होने मनोरंजन के इंतजाम एवं नाश्ते-खाने की मेजें गर्म-गर्म व्यंजनों से भरी देखी, जिनमें से भीनी- भीनी खुशबू हवा में उड़ रही थी। तेज खिलखिलाहट की आवाज़ से बच्चों का ध्यान टूटा तो देखा यह तो लोरिया मैम की निश्छल हँसी थी, जो सभी मौजूद लोगों ने शायद पहली बार देखी थी। बच्चों की हैरानी को लोरिया मैम ने भाँप लिया था इसी लिए तो सारे रहस्य से पर्दा उठाते हुए बच्चों के बीच आकर हँसी मजाक करते हुए बोलीं, 'हाँ-हाँ, आज पढ़ाई नही होगी, सिर्फ मौज-मस्ती होगी। खाना-नाश्ता होगा, गेम्स होगें और मैं भी शामिल रहूंगी।' सबके बस्ते चपरासी ने एक जगह लगा दिए। प्रार्थना हुई और उसके बाद जो हो-हल्ला हुआ वह लोरिया मैम तक ने अपने 45 साल के टीचिंग करियर में कुल मिलाकर नही सुना था। अब स्कूल का क्षेत्रफल बढ़कर 11-12 बीघा हो चुका था। हर खेल के लिए पर्याप्त जगह थी। लोरिया मैम खुद अपने समय की बढ़िया बैडमिंटन प्लेयर थीं। तब इन खेलों के प्रति सरकार का रवैया बड़ा ही उदासीन था और ऊपर से घरवालों का नौकरी के लिए दबाव के चलते वह जनपद स्तर तक की ही खिलाड़ी बनकर रह गईं थीं। बाद मे उन्हे टीचिंग को अपना भविष्य बनाना पड़ा। लोरिया मैम रैकेट-शटल कॉक लिए बैडमिंटन कोर्ट पर मुश्तैद खड़ीं, मानो सबको चैलेंज कर रहीं थीं। खेल शुरू हुआ, इस तरफ लोरिया मैम एक बच्चे खिलाड़ी के साथ और एक तरफ एक टीचर एक खिलाड़ी के साथ तैयार खड़ीं थीं। लोरिया मैम ने सर्विस शुरू की। बच्चों का समूह इसी कोर्ट पर ज़्यादा था क्योंकि पिछले 10-12 वर्षों में किसी टीचर अथवा विद्यार्थी ने उनका यह रूप नही देखा था। लोरिया मैम की पावरफुल शॉटों और रिटर्न का जवान टीचर और उसके साथी खिलाड़ी के पास कोई जवाब नही था। उनका खुद का पार्टनर भी मूकदर्शक बना खड़ा था, क्योंकि लोरिया मैम आगे-पीछे सब सम्भालें थीं। अपनी धुन में उन्हे यह भी भान नही था कि कोई उनका खेल देख रहा है अथवा नहीं। सामने के खिलाड़ी पूरी तरह पस्त पड़ चुके थे, पसीने से तर-बतर, उनके पास लोरिया मैम के शाॅटों और रिटर्न का कोई जवाब नही था।मैच रेफरी की सीटी की तेज, लम्बी आवाज ने लोरिया मैम का ध्यान अपनी ओर खींचा तो किसी फाॅल्ट का सिग्नल समझकर प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्होने रेफरी को देखा तो रेफरी ने " विनर" के इशारे वाला सिग्नल देखकर उन्हे अपनी सुध आई। एक बच्चे की तरह गर्व का भाव चेहरे पर झलक आया, हवा में रैकेट उछालकर, उंगलियों से विक्टरी का प्रतीक V बनाकर एक पेशेवर खिलाड़ी की तरह घुटने के बल बैठकर दोनों बाजुओं को मुठ्ठी भींजकर ऐसा मोड़ा मानो ओलंपिक के स्वर्ण पदक पर अधिकार जमा लिया हो। कोर्ट से बाहर आकर बोलीं, "आओ बच्चों , तुम भी खाओ-पीयो और मौज करो, बड़ी भूख लगी है"। खुद दौड़कर खाने की मेज पर इस तरह निकाल-निकालकर खाने लगीं मानो वर्षों से भूखी हों। बधाइयाँ देने वाले टीचरों ,स्टाफ एवं बच्चों को धन्यवाद भी कोल्ड-ड्रिंक पीते और समोसा खाते देती तो मुंह से 'थैंक्यू' की जगह 'ठैंक्यू' निकलता था। बच्चे उनके इस व्यवहार पर हँस-हँस कर लोटपोट हुए जा रहे थे। इससे निपटकर बच्चों को अपने कमरे में ले गईं, अपने घर-परिवार की फोटोएं, अपनी ट्राफियाँ, सर्टिफीकेटस् और न जाने क्या-क्या अपने बारे में बताती चली गईं। शाम होते-होते बच्चों का जाना शुरू हो गया, हर बच्चे की जुबान पर आज के इस सुखद पल का चर्चा था, जो कभी न भूलने वाली यादें बन गईं थीं।

तला-भुना और गरिष्ठ भोजन के साथ-साथ कोल्ड-ड्रिंक का सेवन और ऊपर से कोर्ट पर ज्यादा दौड़-धूप के कारण लोरिया मैम का स्वास्थय रातभर में गड़बड़ा गया, इतनी उम्र में कुछ पल की खुशी के लिये अपनी जिन्दगी दाँव पर लगा देना बेवकूफ़ी नहीं तो और क्या था? लेकिन लोरिया मैम यह बेवकूफ़ी कर चुकीं थीं। आनन-फानन उन्हे रात में ही अस्पताल ले जाया गया, लेकिन तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका था, सुबह साढ़े चार बजे हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई। मेजबान ही पार्टी छोड़कर जा चुका था। अस्पताल की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सुबह 7:30 पर उनका पार्थिव- शरीर स्कूल लाया जा सका। बैडमिंटन-कोर्ट के बीचों-बीच उनका शव कॉफिन-बॉक्स मे रखा था। बाहर गेट पर बच्चों के बीच सुगबुगाहट थी पर साफ-साफ कुछ पता न था। लोरिया मैम को श्रद्धांजलि स्वरूप अंतिम बार स्कूल की घंटी बजी, बच्चों ने रोज की तरह दौड़ लगा दी, कल की तरह ठिठके भी पर यह क्या? कल की "गोल्ड मेडलिस्ट" चपल खिलाड़ी आज "हैवेन-क्वीन" बनकर शांत चित्त, बिन बोले, चेहरे पर कल वाली गर्वीली मुस्कान लिए चुपचाप लेटी थी, मानो बच्चों से कह रही हो , "जिन्दगी की यहीं रीत है, हार के बाद ही जीत है"। अंत्येष्टि के समय बच्चों ने " ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे कर्म , नेकी पर चले और बदी से टले, ताकि हँसते हुए निकले दम" पूरा गाना गाकर उन्हे श्रद्धांजलि दी। कल के सारे इंत्ज़ाम का खर्चा लोरिया मैम ने अपने पैसे से किया था , स्कूल के नहीं। लोरिया मैम को क्या अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था, इसलिए तो 15 वर्षों में जो शो नहीं किया वह एक ही दिन में सबके सामने साफ-साफ प्रदर्शित कर दिया। लोरिया मैम अमर हैं, और लेखक लोरिया मैम के दूसरे नाम वाली सह्यदय हेड नर्स मिसेज विक्टर को चार दशक से जानता है।