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मासूम गंगा के सवाल - 3

मासूम गंगा के सवाल

(लघुकविता-संग्रह)

शील कौशिक

(3)

सीख लें जीना

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हाथ पर हाथ धरे

यदि यूँ ही ठाले बैठे रहे हम

हम नहीं बदलेंगे की तर्ज पर

डटे रहे

तो फिर सीख लेना चाहिए

हमें जीना

गंगा के गुस्से के साथ

यूँ ही कोहराम मचाती रहेंगी नदियाँ

और न जाने कितनी जीवन ज्योत

बुझाती रहेंगी यूँ हीI

जीवनदान

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लेकर हाथ में गंगाजल

मांगते थे जिन्दगानी

कभी मैया से

अपने सजना या सजनी की

अब गंगा पी-पीकर कचरा

छटपटा रही है खुद ही

मांग रही है तुमसे जीवनदान

सोचो जरा

मरती(जलहीन) नदियाँ

कैसे देंगी जीवनदान तुम्हेंI

किसने छीन ली

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सचमुच चमत्कार था

तुम्हारे स्वच्छ पारदर्शी जल में

वर्षों तक वैसे का वैसा रहता था

तभी तो मरण शैय्या पर लेटा मनुष्य

करता था इंतजार

तुम्हारी चंद बूँदें पीने के लिए

आखिरी समय के लिए

वह इंतजाम कर रख छोड़ता था

किसने छीन ली माँ

तुम्हारी वह चमत्कारी शक्तिI

मेरी भी सुनो

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कुछ पल फुर्सत में बैठी

जो गंगा के तट पर

कातर पुकार सुनाई पड़ी गंगा की

चाहत इतनी सी बस मेरी

मेरे जन्मदिवस गंगा दशहरा पर

थोड़ा स्नेह और सम्मान दे दो मुझे भी

मेरे दिल की भी तनिक सुन लो

कर दो मुक्त मुझे

मैले के कहर से

प्रदूषण के जहर सेI

कहानी दर्द भरी

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कैसी हो गंगा

पूछा जो हाल तो बरस पड़ी

फटे बादल के जैसे

मेरी भी दर्द भरी कहानी है

कभी आईने–सी साफ

पग-पग बढ़ती जाती

आजीविका के फूल खिलाती

जीवनदायिनी कहलाती थी मैं

‘रिवर ऑफ लाइफ’ से

‘रिवर ऑफ डैथ’

बन गई हूँ अबI

त्रिपथगामिनी गंगा

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गंगा केवल भूलोक में

ही नहीं बहती

त्रिपथगामिनी है गंगा

बहती है स्वर्ग में

और पाताल लोक में भी

इसीलिए पूजते हैं इसे

मनुष्य के साथ-साथ

देवता और असुर भी

और मानते हैं गंगा को

ब्रहमा का द्रवित रूपI

बुझे हुए दीप

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गंगा स्नान के बाद

करते हैं लोग दीपदान

कुछ दीप हरे पत्तों के दोनों में धरे

मंद-मंद मुस्काते

आभा प्रदान करते

चले जाते हैं दूर तक

तो कुछ बुझ जाते हैं जल्द ही

न जाने क्यों?

बुझे दीये मुझे दिखाई पड़ते है

साधनहीन लोगों के चेहरे-सेI

टूटा मौन

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गंगा के किनारे

गंगा के नाद को सुना

तो लगा

जैसे भीतर पसरा

बरसों पुराना मौन टूटा हो

एक ही ढर्रे पर चलती जिंदगी को

अकेलेपन के राग को

आ गई हूँ पीछे छोड़ कर

और भीतर बरसने लगा

गंगा का सत्वI

बना रहा अहसास

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तुमने कहा था

एक डुबकी मेरे नाम की भी

जरूर लगाना गंगा में

एक मन्नत भी मांग आना

जानती हो तुम

मेरे दिल की बात

डुबकी क्या लगाई मैंने

तुम्हारे न होने के बावजूद

पास होने का अहसास

बना रहा देर तकI

बोली गंगा

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गंगा के तेज प्रवाह में

मचलती लहरों को देख

हवा ने पूछा

अंतस की हिलोरें ले

कहाँ चली लहरा कर

भावनाओं में डूबी

बिना थमे वह बोली

अथाह जलराशि अपनी

सौंपने अपने प्रियतम

समन्दर कोI

रोम-रोम में

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गंगा का शीतल जल

हर लेता है उदासियाँ

बेचैनियाँ हमारी

रह जाता है पीछे केवल

तृप्ति का अहसास

एक निर्मल आशीर्वाद का झरना

जो फूटता है फिर

रोम-रोम में

सरस और सजीव बन करI

चुप्प-सा इकरार

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एक चुप्प-सा इकरार

रहता है गंगा की लहरों पर

हर नहाने वाले के लिए

कितनी आसानी से

कर लेने देती है वह कब्जा

कोई इजाजत नहीं मांगता

कोई नहीं पूछता

उसके मन की

बस धम्म से उतर जाता है

उसके दौलतखाने मेंI

मुक्ति

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कल-कल बहती

गंगा नदी के किनारे

असंख्य लोग

स्नान, पूजन-अर्चन

अर्पण-तर्पण व आचमन कर

पाते हैं पुण्यार्जन का अहसास

मानो वे हो गये हों

सब कष्टों से पार

मानो पा गये हों

जीवन का सारI

उदार माँ-सी

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बड़े-बूढ़े

बच्चे-जवान

निर्धन-अमीर

असहाय-सम्पन्न

अकेला-दुकेला

सुखी-दुखी

सबको आश्रय देती हो गंगा

अपनत्व से गले लगाती हो

एक माँ की भांति

कोई जवाब नही तुम्हारी उदारता काI

गर्वित सूर्य

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अस्ताचल का सूर्य

देखता है आँखे मिचमिचा कर

गंगा मैया की

आरती के समय का वैभव

करता वह नाज़

अपनी फूटती लालिमा पर

बिखरी असंख्य रश्मियों पर

जो खेला करती हैं दिन भर

नित्य ही

गंगा की गोद मेंI

गंगा का दर्शन

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हमारे पुरखों का

एक सदाबहार विचार

वसुधैव कुटुम्बकम का

मिलता है देखने को

गंगा तट पर अक्सर

इसी दर्शन का नज़ारा

सावन के

रिमझिम मौसम में

शिव आराधना के

आलम मेंI

देती हो पनाह

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निकाल दिया घर से

बेटे ने उस माँ को

जिसने अपना आँचल ओढ़ाया

कतरा-कतरा दूध पिलाया

सुना है माँ गंगे

सुनती हो तुम दुखिया की पुकार

गले लगाती हो तुम सबको

जो घर का नहीं हो पाता

देती हो पनाह

उसे भी अपने घाट परI

सोचते हैं बूढ़े

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जो ठीक से चल फिर भी नहीं सकते

उम्र की चादर फैंक कर

उतर पड़ते हैं

पतितपाविनी गंगा में

सोचते हैं वे बूढ़े लाचार

करती है सबका उद्धार

गंगा मैय्या

एक बार तो मैं भी

डुबकी लगा ही लूं भैया

अवसर क्यों छोड़ेI

क्रमश....