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अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार

यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है पर पिछले कुछ थोड़ेही समय में माहौल इतना बदल चुका है कि अभी कुछ बरस पहले ही की बात ऐसीलगती है कि मानो वह बहुत पुरानी बात हो। जैसे सड़कों पर तांगों कादौड़ना साइकलों की बहुतायत स्कूटरों की बहुत कम संख्या कारें या तोसरकारी या शहर के सबसे बड़े रईस की कार। यह उस समय की बात है जबदूरदर्शन का प्रवेश नहीं हुआ था । लोग रेडियो पर गाने सुनते थे। सिनेमाहॉल ठसाठस भरे रहते थे । बाबू और अफसर साईकिल चलाने मैं शर्माते नहींथे । उसी युग के थे हमारे पांडे जी जो खुद बदलते समय में आना ही नहींचाह रहे थे पर समय था कि उन तक पहुंच गया था । तब उन्होंने तय किया कि वे रुक गए और अंतिम समय में पिछले दौर की जुगाली करते रहे ।

पांडे जी के दर्शनों का सौभाग्य मुझे पहली बार श्मशान घाट में प्राप्तहुआ था । किन का अंतिम संस्कार था यह तो याद नहीं रहा पर पांडे जी कीमुस्तैदी उनकी गंभीरता याद रह गई । जिस तरह वे अंतिम संस्कार करा रहे थे लग रहा था कि उन्हीं का कोई गुजर गया पर बाद को पता चला पांडे जी सेउसका परिचय तक नहीं था। ऐसे अन्य अवसरों पर भी दिखते रहे । पहचाने जानेके कारण वे अलग से वाच किए जाने लगे । परिचय भी निकल आया पता चला किवे मेरे पूरे परिवार से परिचित हैं और पूरे परिवार के बड़े बड़े बूढ़े उनके परिचित थे । उन्हें गज्जू मामा नाम से संबोधित किया जाता था। पूरानाम था गजानन पांडे। रहते पास ही के मोहल्ले में थे दो बेटे और तीनबेटियों के भरे पूरे परिवार को पांडे जी चला रहे थे रोडवेज के मुलाजिम थे ।

रोज सुबह साइकल पर आगे टिफिन, पेंट के पांयचों के में पिन खोसे गंजे सिरपर हैट लगाए वे अलग से पहचाने जा सकते थे। वे बम बम से दुआ सलाम करते थे। दो बेटे और दो बेटियों के भरे पूरे परिवार को पांडे जी चला रहे थे। वे एकसरल और जिन्दादिल इंसान थें आफिस से लौटते वक्त मोरसली गली से भांग की एकगोली का नियमित सेवन करते हुए मजे से साइकल चलाते हुए घर लौटते। उनकामुताबिक भांग खाकर साइकल चलाने का आनंद ही कुछ और है उसे कोई बखान नहीं करसकता।

पांडे जी के दो बेटों में बड़ेसुरेश और छोटे अजय । उन्हीं दिनों नामों को उनके अक्षरों के साथ उलट पुलटकर मजे लिए जाते थे। सो यह प्रयोग उन दोनों भाइयों के साथ भी किया गया। घरके सारे लड़के दोनों के घेर कर बोले ” देखो तुम हुए सुरेश पांडे से पुरेशसांडे और ये छोटा हुआ पजय आंडे और तुम्हारे बाप हुए“ पहली बार में तो सुरेशही बोल पड़े ”पजानन गांडे। “

इस पर जो ठहाके पड़े कि बस। जब जक सुरेश और अजय के समझ में आया तब तक तो यह नामकरण पूरे शहर में फैल चुका था।

सुरेशघर का बड़ा बेटा था। आम भारतीय घरों के बड़े लड़कों की तरह वह भी उसी माडल काथा। हर बात में झिझकने वाला, दब्बू, एकदम नर्वस हो जाने वाला, बाप से डरनेवाला और बड़ों का अतिरिक्त लिहाज रखने वाला। पर उससे छोटे उसका कोई लिहाजनहीं करते। छोटा अजय चलता पुर्जा था बातें बड़ी बड़ी कर लें, किसी की भी टोपीभरी महफिल में उतारने में महारत हासिल थी उसे।

बड़ेहोने पर यानि जिसे कहा जाता है पैरों पर खड़े होने पर सुरेश की शादी जल्दीनिपटाई गई और उसीके दहेज से छोटी बहन जो निपटाना था सो भाई बहन की शादियांसाथ ही हुईं थीं। पांछे जी को लग रहा था कि सुरेश उनका हाथ बंटाएगा गृहस्थीकी गाड़ी आगे बढ़ाने में पर जैसा होता है आम भारतीय परिवारों में, कि उसदब्बू, नर्वस और बाप से डरने वाले बड़े बेटे को उसकी पत्नी ने अपने खोल सेबाहर निकालकर उसे मर्दानगी उसके बड़प्पन उसकी उपेक्षा का अहसास दिलवा करबाप से भिड़वा कर अलग करवा दिया। सुरेश जिन्हें पढ़ा लिखा कर जैसे तैसेपांडे जी ने कुछ जान पहचान कुछ पैसे ले देकर पी डब्ल्यू में बाबू बनवा दियाथा अलग हो गए। फिर कुछ समय बाद तबादला ही करवा लिया शहर से बाहर। संयुक्तपरिवार का टूटना तब तक एक समाचार था पर उनके साथ भी घटित होगा यह अंदेशाउन्हें नहीं था। वे सकते में थे हक्का बक्का थे जब उनका लायक आज्ञाकारीबेटा शादी के तीन महीने बाद उनसे अलग हो गया। पांडे जी ने शेष दो लड़कियोंकी शादियां भी निपटा दीं। अजय पांडे ने नेतागिरी शुरू कर दी कालेज के हीजमाने से। पार्षद रह चुका था। विधायक मंत्री वाले सारे गुण सद्गुण दुर्गुणउसमें थे इसलिए पांडे जी उसकी तरफ से निश्चंत रहे। अंत तक वह उन्हीं के साथरहा भी।

इस पूरी आपाधपी उनका जोसंकल्प था अंतिम संस्कारों में जाने का वह जारी रहा और निष्ठा से जारीरहा। इस कार्य के शुरू में वो जात धरम का ध्यान रखते थे। जान पहचान का होइसका ध्यान रखते थे पर श्मशान घाटों की लगातार यात्राओं ने उन्हें जाति धरमसे ऊपर उठा दिया और शहर के किसी के भी मरने पर वे वहां पहुच जाते और उसकेअंतिम संस्कार का जिम्मा इस तरह उठाते कि गोया वह उनका अपना हो। घर और बाकीजान पहचान वालों की प्रतिकिया का उन पर कोई असर नहीं था।

पांडेजी के कुछ और शौक थे जिन्हें जान लें तो उनका व्यक्तित्व और भीनिखर जाताहै। एक शौक या कहें आदत थी अपनी साइकिल साफ और फिट रखने की। पच्चीस सालहोने पर भी उनकी साइकल नई की तरह चमकती थी। बारिश में कीचड़ के ऊपर से वेपैदल साइकल उठा कर निकल जाते थे उस पर चढ़ते नहीं थे। वे किसी को भी अपनीसाइकल छूने तक नहीं देते थे। एक बार उनके छोटे बेटे ने उसे चला दिया था तोउसकी वह पिटाई हुई कि फिर उसने आज तक उस साइकल को देखता तक नहीं। एक बारजब गुड्डू को जरूरत पड़ी तो वह उनसे साइकल मांगने चला गया दिप्पू के कहनेपर। उन्होंने उसे वहीं ठहरने को कहा और भीतर गए उसे लगा कि चाबी लेने अंदरगए होंगे। गुड्डू साइकल की मन ही मन सराहना कर रहे थे कि उन्होंने बाहर आकरउसके हाथ में दस पैसे का का एक सिक्का रखकर बोले ” अगले मोड़ पर मुन्ना कीदुकान से किराए पर ले लेना । दस पैसा लेता है एक घंटे के। “

एक समय में पांडे जी अपने इलाके के सबसे विद्वान बुद्धिमान होशियार औरव्यावहारिक आदमी गिने जाते थे। पर समय की रफ्तार ने उन्हें निढाल कर दिया। इतिहास भूगोल साहित्य विज्ञान पढ़े थे। व्यावहारिक भी थे। तीन लड़कियों कीशादियां दो लड़कों को जीवन यापन के काबिल बनाना उन्हें दुनियादार के इलाकेमें स्थापित करता है। उनकी व्यावहारिकता और दूरंदेशी को लोग एक हलके फुलकेकिस्से के रूप में यूं जानते हैं कि एक बार रात को उनका दरवाजा खटखटाया। पाया कि एक अजनबी था।

कहने लगा ” पंडित जी आगे के गांव जा रहा था कि जोर की टट्टी लग आई अब तनिक लालटेन और लोटा दे दो तो फारिग होकर आगे बढ़ जाउं। “

पांडे जी ने उसे देखा और बोले

"अरे का सोना चांदी हगोगे कि लालटेन चाहिए और गांव के हो तो सुनो उधर जंगल की तरफ नाला है वहीं निपट लो। “

और दरवाजा बंद।

सुबह पता चला पड़ौस के बच्चू भैया के यहां से कोई आदमी लोटा और लालटेन लेकर चंपत हो गया। पांडे जी ने सुना तो वे ठठाकर हंस पड़े।

अलावाइसके उन्हें डाक टिकिट इकठ्ठा करने का भी शौक था। दुनिया भर के दुर्लभटिकिट उनके पास थे। सुनते हैं एक बार राष्ट्रीय संग्रहालय में एक पुरानेअनुपलब्ध टिकिट की जरूरत पड़ने पर पांडे जी ने उसे उपलब्ध कराया था और कोईपैसा नहीं लिया बस उसके नीचे इतना लिखवाया ” श्री गजानन पांडे के सौजन्यसे“। यह पूरी भी हुई इच्छा।

उन्हेंकिताबें पढ़ने का शौक था । वे कुछ भी पढ़ सकते थे गंभीर से गंभीर और हल्कीसे हल्की किताब तक । पढ़ने तक तो ठीक था पर वे उससे तत्काल प्रभावित होतेथे। इसका एकमात्र सुखद पहलू यह था कि यह प्रभाव क्षणिक होता था। इससिलसिले में दो किस्से प्रचलित हैं जो है तो एक दूसरे के उलट पर जो लोगपांडे जी को थोड़ा भी जानते हैं उनके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

पहला किस्सा यह है कि एक बार घर के बाहर पांडे जी को किसी साइकिल वाले नेटक्कर मार दी। पांडे जी कायदे के आदमी थे और रॉन्ग साइड भी चल नहीं सकतेथे। अतः गलती साइकिल वाले की ही रही होगी पांडे जी गिर पड़े कोहनी घुटनेछिल गए । गिरा साइकल वाला भी था। पांडे जी ने उठकर उसे उठाया उसकी साइकलउठाई उसका हैंडल सीधा किया और बोले "भाई यह लो साइकल और जरा धीमे और सहीचलाया करो। " यह अतिरिक्त विनम्रता से बोला गया वाक्य था । साइकिल वाले नेहाथ पैर झाड़े और हावी होने की इरादे से उन्हें एक झापड़ रसीद कर दिया।

" अरे भाई गलती तुम्हारी है फिर भी तुम मार रहे हो यह न्याय संगत नहीं है

साइकिल वाले ने गाली बकते हुए एक और झापड़ मारा ।

"भाईयह ठीक नहीं है अकारण तुम मुझे मारे जा रहे हो पर फिर भी मैं तुमसे यह कहरहा हूं कि तुम यहां से भाग जाओ। " साइकिल वाले को मजा आने लगा था । उसने एकऔर झापड़ रिसीव किया ।

" तुम्हेंसंतोष हो ही गया होगा यह जो सामने घर दिख रहा है ना इसके पहले कि कोई यहांसे निकले और तुम्हारा कचूमर बना दे तुम यहां से फौरन चलते नजर आओ। " साइकिल वाले ने इतनी सज्जनता नहीं देखी थी । उसे आनंद आ रहा था । उसने अपनासिलसिला जारी रखा और पांडे जी ने अपना प्रवचन जारी रखा। वे दोनों तब तकअपना काम करते रहे जब तक भीतर से ठिगने कद का पहलवान टाइप का आदमी नहींनिकला । वे रमेश थे। उन्होंने देखा पांडे जी को कोई पीट रहा है तो घर परहांका लगाते हुए उस और दौड़ पड़े। साइकिल वाले को पकड़कर मारना शुरू करदिया। अंदर घर से हर साइज का हर उम्र का आदमी निकला और बिना किसी पूछताछके बिना किसी सवाल-जवाब के उस साइकिल वाले के ऊपर पिल पड़ा और वाकई उसकाकचूमर बना दिया। वह अधमरा हो गया और सब जब सब ने अपने अपने हाथ साफ कर लिएतब उसे छोड़ा। और तब पांडे जी की ओर मुखातिब होकर रमेश बोले

" अरे चच्चू तुम इस मरियल से काहे पिट रहे थे तुमसे तो उन्नीसा ही है। "

पांडे जी बोले "अरे इधर हम सुकरात पढ़ रहे थे"

दूसरा किस्सा पांडे जी की दूसरी रेंज का है । वही स्थल समय भी वही दिनअलबत्ता दूसरा था। साइकिल वाला थका मांदा काम से लौट रहा था पांडे जी जैसेघात लगाए बैठे थे उस दिन उन्हें किसी ने टक्कर नहीं मारी थी पर उन्होंनेलपक कर उसे पकड़ लिया और कैरियर से गिरा कर छाती पर चढ़ गए। जोर जोर सेमारने लगे। हलचल देख जैसा कि होता था वहां फिर सब निकल पड़े उसकी अच्छीखासी मरम्मत हो गई । कारण बाद में पता करने की जरूरत की आदत है तो पांडे जीसे पूछा गया कि "भाई क्यों मार रहे थे"

" दरअसल कर्नल रंजीत पड़ रहा है पंथी बहुत कम समय के लिए होता और इस बीच कोईमर जाता और पांडे जी सब भूल जाते। अंतिम संस्कार एक ऐसा कार्य था जो पांडेजी मृतक के घर वाले से ज्यादा निष्ठा और ईमानदारी से केरते थे। बस उन्हेंभनक लगनी चाहिए कि फलां आदमी औरत या बच्चा मर गया। वे किसी भी अवस्था मेंहों वहां जाने को तत्पर। बाकी लोग रो रहे हों सिर पीट रहे हों ढाढस बंधारहे हों उन्हें इस सबसे कोई मतलब नहीं रहता था। वे अंतिम संस्कार कीतैयारियों में जुट जाते। सामान कहां मिलेगा और सस्ता मिलेगा वे बता देते। अकसर लोग उन्हीं से सामान मंगवाते। किस तरह मृतक को बांध जाएगा यह सब वेघोर निरपेक्ष भाव से करते। उनका मुंह और हाथ दोनों ही लगभग एक गति से कामकरते और वह गति बहुत तेज होती थी। इतना सब वे इतने सहज तरीके से करते किपता ही नहीं चलता था कि कब सामान आ गया कब अर्थी तैयार हो गई और कबशवयात्रा प्रारंभ हो गई। श्मशानघाट के सबसे पास का रास्ता उन्हें पता होताथा। शव को कंधा देकर गंतव्य पर पहुंच कर सबसे पहले लकड़ियों का मोल भाव वेकरते। फिर लकड़ी छंटवाते। पहले मोटी फिर कम मोटी। सीधी लकड़ी। किस साइज कीलकड़ी कितनी लगेगी इसका अपार अनुभाव था उनके पास। फिर चिता तैयार करने के तोवे विषेषज्ञ थे। कम से कम लकड़ी में वे यह काम वे करवाते। कौन सी लकड़ी कहांजमेगी, कब जमेगी। मृतक की देह कब रखी जादगी और फिर उसके ऊपर किस तरह औरकितनी लकड़ी रखी जाएगी, यह सब वे ध्यान से करवाते फिर विधि विधान सेदाहसंस्कार करवाते। यह क्रिया कर्म करवा कर वे शोकसभा करवाते फिर वे शोकसभाकरवाते फिर घर लौट कर शुद्धि प्रसंग चलता। पत्नी उन्हें गालियों से भीशुद्ध करतीं। पर पांडे जी आदत से मजबूर। पिछले दिनों तो कहीं मौत के बादकोई तैयारी नहीं होती थी पांडेजी का इंतजार होता था और पांडे जी आते, घर केसारे लोगों को रोने धोने और घर के और काम निपटाने की सुविधा दे कर अपनेकाम में लग जाते थे।

यहसब करते करते एक बार उनका वास्ता लावारिस लाश से पड़ा तब उन्होंने अड़ोसपड़ौस से लोग इकठ्ठा किए और उसका भी काम निपटा दिया। फिर वे लावारिस लाशोंके भी उद्धारकर्ता हो चले थें उस काम में उन्हें शारीरिक और आर्थिक दोनोंनुकसान उठाने पड़ते थे पर मानसिक तौर पर वे इस काम से कभी नहीं थके। जलानेके अलावा एकाध बार दफनाने का काम भी करना पड़ा। फिर तो वे सर्वव्यापी हो चलेचले। बेटे बेटियों की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर उन्होने एक सूत्रीयकार्यक्रम अंतिम संस्कार चला रखा था। रिटायर होने के बाद तो वे दिन भर यहीकरते। वे पूजा पाठ नहीं करते। पत्नी कहती कुछ भजन पूजन कर अपना परलोक सुधारलो तो पांडे जी कहते यहां लोगों की गति सुधार लूं फिर देखूंगा। बहुतपुराने समय के तो नहीं थे पांडे जी। फिर भी वे उस समय के जरूर थे जब लोग येमानते थे कि समाज से सिर्फ लेना ही नहीं उसे कुछ देना भी चाहिय। सो येकार्य संभवतः इसी भावना के चलते करते थे।

बूढ़ाशरीर जवाब देने लगा पर वे अपने कर्तव्य बोध के चलते मजबूर थे। घर के लोगउनसे किनारा कर रहे थे उन्हें गरियाते अड़ौसी पड़ौसी उन्हें चांडाल कहते परउन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। एक बार जब बात बहुत बिगड़ी लोग उन्हेंषर्म के हवाले देने लगे तो उन्होंने अपना जनेऊ तोड़ा और बोले मैं क्रिस्तानहो जाऊंगा। चर्च पहुंच कर उन्होंने धर्म परिवर्तन की इच्छा जाहिर की। पूरीतैयारी हो गई थी और वे क्रिश्चियन होने की पूरी तैयारी में थे पर जैसे हीउनसे बोला गया कि बोलो यीशु सबसे बड़ा खुदा है। पांडेजी का दिमाग ठनका। उन्होंने पूछा ” आपने कितने खुदा देखे“ पादरी निरूत्तर।

” एक भी नहीं न फिर आप कैसे कह सकते हैं कि यीशु सबसे बड़ा खुदा। मुझे नहीं बनना क्रिस्तानी"

घरलौटकर जनेऊ में गांठ बांधी और फिर चढ़ा लिया उसे। पर वे धर्म से परे हो चलेथे। अंतिम दिनों में धर्म उन्हें वह ताकत नहीं देता था जो पहले देता था। वे धार्मिक आध्यात्मिक प्रसंग जो पहले उन्हें प्रभावित करते थे या रूलादेते थे अब वे हास्यास्पद जान पड़ते थे। यह उलटी प्रक्रिया थी जो पांडे जीके साथ घट रही थी। उनकी आस्था डगमगा गई थी । परंतु अंतिम संस्कार वे उसीनिष्ठाा से करवाते रहे। छोटा लड़का उनके साथ रहता था। खीझता था पर चूंकिराजनीति में था अतः उनका इस्तेमाल करता था। बल्कि अपना राजनैतिक कैरियर कीशुरूआत पिता के जरिये जाग्रत सूत्रों से ही की थी। अब तो वह खुद ही जानापहचाना नेता हो गया है फिर भी वह उन्हें ज्यादा कोसता नहीं है। हालांकिध्यान भी नहीं रखता। पर आखिर कब तक चलता ये सब। उनका शरीर जवाब देने लगा थावे चिढ़चिढ़े हो चले थे। चिल्लाने लगे थे घर में। एक दिन जब वे बहुत जोर सेचिल्लाए तो उनके शरीर के दांये हिस्से में पक्षाघात हो गया और उनकी वाणीजाती रही। पांडे जी असहाय थे। उन्हें सारे शहर के मुर्दों की दुर्गति का रहरह कर ध्यान आता। उन्हें लगता सारे शहर की लाशों को चील कव्वे गिद्ध चींथरहे हो। वे अंतिम संस्कार की प्रक्रिया मन ही मन दोहराते। बहुत बुरी तरहकटे उनके अंतिम दिन। अंततः जब वे एक दिन नहीं रहे तो इस आशा में तो उनकेप्राण निकलें ही होंगे कि उनका अंतिम संस्कार तो ठीक से होगा पर न तो सुरेशऔर न ही राजेश और न ही उन ढेर ढेर रिश्तेदारों, आत्मीयों, परिचितों, अपरिचितों को इतनी फुर्सत थी कि वे पांडेजी का क्रियाकर्म कर सके। अबपांडे जी तो भला रहे ही नहीं अपना अंतिम संस्कार करने को। सुरेश तो दूसरेशहर में थे आने में अड़तालीस घंटे लगने थे अतः अजय ने यानि नेताजी ने यहजिम्मा उठाया और नगर निगम से अंतिम संस्कार वाला वाहन बुलवा कर श्मशान घाटपहुंचवा दिया। वहां विद्युत शवदाहगृह में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। नकोई अर्थी सजी थी न शवयात्रा न फूल न बताशे न भीड़ भाड़ न शोक सभा कुछ भीनहीं हुआ। यह था श्री गजानन पांडे का अंतिम संस्कार जिनके लिए अंतिमसंस्कार की महत्ता जग जाहिर थी। पर उनका छोटा बेटा मजबूर था। उसे अगलीफ्लइट से दिल्ली निकलना था दिल्ली पहुचना था टिकिट की जुगाड़ में। चुनावघोषित हो चुके थे। फिर टिकिट ज्यादा महत्वपूर्ण था। और पिता तो वापस आ नहींसकते थे।

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