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समानांतर

समानांतर

“देखो शालू, ये मेरे कल के कार्यक्रम में खींचे थे।“ सुषमा ने खूब हुलास से बेटे के सामने अपना मोबाईल स्क्रीन रखा। अपेक्षा थी कि वो उछलकर मोबाईल हथिया लेगा, रेकॉर्डिंग सुनने की जिद करेगा, फिर अलग अलग सोशल साईट्स पर डालने के लिये इसमें से कुछ फोटो चुनने लगेगा। लेकिन शालीन.. हां यही नाम था उसका... शौक से रखा हुआ लेकिन पसंद न आनेवाला नाम। उसने उड़ती सी नज़र ड़ाली स्क्रीन पर और फीकी सी मुस्कान देकर अपनी स्क्रीन पर लौट गया।

सुषमा थोड़ी हताश हुई। लेकिन ये दिन भर में पहला मौका नही था। उसकी पसंद का नमकीन सामने करने पर, महंगा पेन उपहार में देने पर, उसके दोस्तों के मम्मी पापा के बारे में बताने पर भी शालू के चेहरे पर खुशी, उत्साह, उत्सुकता या कुछ और भी... गहरा नही हो पाया था। जैसे लहर किनारा छूकर बस चली जाती हो। आपके घर कोई नन्हा बच्चा आ जाए और उसे आप एक-एक कर खेलने की चीज़ें देने लगे, लेकिन आपकी समझ में सबसे बेहतर और रोमांचकारी चीज़ देने के बाद भी बच्चा आश्चर्य ही न करे, तब कैसा लगने लगता है ना, वैसा ही सुषमा के साथ हो रहा था।

वो बार बार कोई पुल बनाने की कोशिश कर रही थी, कितनी ही बार उसकी पिछली मुलाकात की यादों को खंगाल चुकी थी। शालू की पसंद नापसंद, दोस्तों की फेहरिस्त, खिलौने, किताबें, घर के पौधे, बाईक्स, क्रिकेट और नई फिल्में.... और क्या विषय हो सकते हैं?

अब सुषमा को ड़र लगने लगा था। छ: महीनों बाद ही तो मिल रही है बेटे से। होस्टल का नियम ही है ऎसा। और बड़े होते बच्चों के साथ तो और सख्ती होने लगती है। उसने देखा था, खूब हरी और करीने से कटी घास के साथ किनारे किनारे लगी क्यारियों में देशी विदेशी फूलों के कतारबद्ध पौधे। साफ सुथरे बैंचों पर धूल का नामोनिशान नही था। बीचे में लगे फव्वारे से गिनती की बूंदें ही आस पास गिरती और देखने वालों की आंखों में आश्चर्य देखकर गर्व से भर उठती। पूरे बगीचे में एक अनुशासन कायम था, मानो गुलाब की एक पंखुड़ी भी मर्जी से हवा को सुगंध का एक कण भी न दे सके। मारबल के फर्श और चमकदार लकड़ी के फर्नीचर से सुसज्जित उसका होस्टल किसी तारांकित होटल से कम नही था।

अनुशासन, मशीनी व्यवस्था और संवेदनाओं से परे के उस संसार में दो ही प्रकार के बच्चे थे। एक तो वे जो स्वयं बगीचे के फूलों के समान अनुशासन के सामने समर्पण के साथ अपना बचपन गिरवी रख चुके थे। और दूसरे पूरे पूरे विद्रोही, जिन्हे बेहतर बनाया जा सकता था, लेकिन शालू के अनुसार, वे ज्यादा बेहतर बन चुके थे। वे बागड की मेहंदी जैसे थे, बार बार कटाई सहन करते, फिर भी उन्हे बगीचे के फूलों सी अहमियत कभी नही मिलनी थी।

सुषमा की तन्द्रा टूटी। कितनी मुश्किल से ये दो दिन का समय मिला था। होटल में रुकने के कारण शालू को हाथ से कुछ बनाकर खिलाने, उसका सामान समेटने और दुलार से मीठे ताने मारने जैसा प्यार देना तो संभव ही नही था। वो स्वयं भी आधा समय उसके लिये लाए सामान को दिखाने, पापा के न आ पाने की कैफियत देते रहने में ही रह गई।

बात कुछ बन नही रही थी। समय भी इतना कम था कि उसे डांट या उपदेश के लिये उपयोग में लाना बेमानी था। पढ़ाई के बारे में पूछने पर उसने रिपोर्ट कार्ड सामने रख दिया। क्या वो नही जानता कि हर हफ्ते की प्रोग्रेस रिपोर्ट स्कूल पेरेन्ट्स को भेजता है।

सब कुछ अच्छा करने के बाद भी सुषमा को अपराधी जैसी अनुभूति हो रही थी। उसका चौदह वर्ष का बेटा, छ: महीनों में ही एकदम कैसे बड़ा हो गया। उसे किसी बात पर आश्चर्य नही होता, खुशी नही होती और सपने देखना तो जैसे वह भूल ही गया है। उसके भविष्य के बारे में भी बात करना बेकार है। इंजीनियरिंग के बाद अच्छे मैनेजमेन्ट इन्स्टीट्यूट से पोस्ट ग्रैज्युएशन और अपना बिजनेस! यह सब कुछ इतनी बार सोचा और चर्चा में लिया जा चुका है कि अब बचपन में पढ़ी परी कथा जैसा लगने लगा है।

सुषमा ने जब थोड़ा आराम करने को कहा, तब बिना कोई प्रतिवाद किये उसने कंबल ओढ़ लिया। कितना बुरा लगा था। कुछ तो कहे, किसी बात के लिये तो न माने और अपना पक्ष रखे, कहीं तो उनके रास्ते अलग हो और वो अपने रास्ते की खूबियां उसे गिना सके। लेकिन शांत जल सा शालू का मन, एक ऎसी झील बन चुका था, जिसमें कोई भी कंकड डाला जाए, वह बिना वलय बनाए सीधे तली में जा गिरता था। जैसे कुछ हुआ ही न हो।

ये बर्फ पिघलने का नाम नही ले रही थी।

शालू कहीं डिप्रेशन में तो नही? अचानक सुषमा को अपने परिचित की बेटी रुपाली याद आने लगी। रिजल्ट बिगड़ गया था और... नही... शालू ऎसा नही है। खैर, रुपाली भी तो ऎसी नही थी।

नींद में सोया शालू नन्हा देवदूत लग रहा था। वही भोला चेहरा, हल्की हल्की दाढ़ी मूंछ की दस्तक ने उम्र की कहानी लिखनी शुरु ही की थी लेकिन ’प्यारा बच्चा’ वाला मुख काफी कुछ बचा हुआ था। कल शाम को ही तो उसका हिल्स क्लब में कार्यक्रम हुआ था। ऎसे ही, बड़े होने से पहले थोड़े से बच्चे रह जाने वाले विद्यार्थी, उत्सुकता से, आंखों में अपने भविष्य के सपने लिये उसे सुन रहे थे। बड़ा उम्दा गाती थी सुषमा, लेकिन शौकिया बस। कभी गंभीरता से इस बारे में नही सोचा। अपनी नौकरी और घर से फुर्सत पाना मुश्किल था। बीच बीच में सुर लगा लेती थी कभी कभी।

शालू को भी सुरों की समझ थी, कई बार सुषमा ने उसे लेकर बड़े मंचों के ख्वाब भी देखे थे। लेकिन बचपन से अभावों में पली सुषमा ने आधुनिकता और वैभव का स्वाद शालू के जन्म के बाद ही चखा था। पति का बिजनेस उसके बाद ही गति पकड़ पाया था और एक एक कर जीवन में सुखों का अंबार लगाकर वो जैसे उस पार जा बैठा था। घर आंगन को मिट्टी से लीपने वाली सुषमा अचानक पोर्सलीन की मूर्तियां मारबल पर रखकर उसकी चमक बरकरार रखने वाले केमिकल के बारे में किटी में चर्चा करने लगी थी। दामी परदों और कड़क युनिफॉर्म की चाक चौबंदी में उसका चांदी का महल बिल्कुल सपने जैसा आकार लेने लगा था। फिर व्यस्तताओं के बीच शालू को होस्टल में रखना तय हुआ... और तब से यही सिलसिला चल रहा है।

सुषमा अपने अतीत के बारे में सोचते हुए शालू के पास बैठकर उसके बालों में हाथ घुमाने लगी थी। “लाईट बन्द कर यार शिबू के बच्चे...” नींद में ही शालू कुनमुना रहा था। घबराकर सुषमा ने लाईट बन्द कर दिया। वो कुछ अस्पष्ट सा बड़बड़ाने लगा। उसकी भाषा और संभावित विषय को जानने के बाद सुषमा के कान लाल हो गए। प्रस्तर मूर्ति सी बैठी रही अपने स्थान पर। वो अपने घर को भविष्य की आस में सजाती संवारती रहती है और उसका वर्तमान कीचड़ में सना जा रहा था।

अनिश्चय में जीते हुए लंबा समय बीत गया था। आज से चार साल पहले तक शालू के साथ उसकी मुलाकात दो ही बातों पर खत्म होती थी। अगली बार और ज्यादा समय के लिये आना मम्मी और इस साल के बाद मैं वापस घर आनेवाला हूं। उसे याद आया, इस बार भाई के घर शादी निकली है, लंबी छुट्टी के लिये मैडम से बात करने वाली थी लेकिन शालू ने टोक दिया। उसी समय काउन्सेलिंग सेशन होना है और वैसे भी अब रिश्तेदारों में उसकी रुचि नही है। वहां जाकर अपने आप को वैसे वातावरण में ढ़ालने की कोशिश करो, इतने में ही वापसी का समय हो जाता है। अपने रिश्तेदारों के सामने क्या क्या बहाने बनाने होंगे शालू के न होने पर...

“मम्मी, आपने खाना ऑर्डर नही किया हो तो हम सिटी मार्केट की ओर चलें? अभी चीज़ फेस्टिवल चल रहा होगा।”

सुषमा को लगा जैसे सूखती ममता पर इस ची़ज़ ने ही नरमाई का लेप कर दिया हो। कितना चिढ़ती थी वो, जब बचपन में हलवा छोड़कर शालू चीज़ परांठे की फरमाईश करता था। आज वही ज़िद उसे अनमोल लगी।

“हां हां, चलो ना।“

पहली बार उसे अपना आना सार्थक लगा। शालू ने उसका लाया टी शर्ट पहन लिया था, डिब्बे में से आधा लड्डू झांक रहा था.. पेन की भी सील खुली थी। मां होना और मां बने रहना, वाकई कितना फर्क है दोनो में।

बाज़ार की रौनक में सैलानियों का जमघट हमेशा की तरह ध्यानाकर्षण प्रस्ताव दे रहा था। लेकिन शालू शायद यहां के पहाड़ी सौन्दर्य का आदी हो चला था। जमी बर्फ, ऊंचाई, घाटियां, हरियाली और बेहतरीन दृश्य भी उसके लिये किसी सिग्नल पर रुकने के दौरान के नज़ारे जैसे हो चले थे।

लेकिन सुषमा खुश थी। वास्तव में जितनी थी, उससे ज्यादा दिखाने की कोशिश कर रही थी। कितनी सारी बातों को अपने सोचे हुए अतीत में से निकालकर शालू के सामने परोसती जा रही थी। शायद इनमें से किसी बात को ही वो चखना चाहे, और पुराने सूत्र फिर से हरे हो सके।

शालू ने अभ्यस्त वयस्क की भांति एक फास्ट फूड सेन्टर में प्रवेश किया। थोड़े ही समय बाद दोनो की उम्र और पसंद के अनुरुप खाना पीना सामने था। खाते हुए ही शालू ने हल्की फुल्की बातों के जवाब देने शुरु कर दिये थे। रास्ता बनता हुआ दिखाई दे रहा था।

अधीर मन से सुषमा ने अपनी बात रखनी चाही। बदलाव को सह पाना उसके लिये असहनीय हो उठा था।

“देखो मम्मी!” शालू ने कैचप की बोतल उठाते हुए कहा।

“इस जगह पर इन इमोशन्स के लिये कोई जगह नही है।“

“क्या मतलब?”

“आपको बुरा तो लगेगा सुनकर, लेकिन मैं पूछ सकता हूं कि मुझे यहां रखने के पीछे क्या कारण था?”

“...”

“हम बड़े शहर में रहते थे, मैं कोई बिगड़ैल किस्म का बच्चा भी नही था, कोई और मजबूरी भी तो नही थी।“

“देखो बेटा, एक क्लास मिल जाता है इस तरह से पढ़ने पर। अब जो फैसिलिटीज यहां पर हैं, उन्हे अपने घर पर मैनेज कर पाना इम्पॉसिबल है।“

हांफ उठी थी सुषमा, भाषा में शब्दों की ठेल ठाल कर अपने आप को उसकी कल्पनाओं की मम्मी के समकक्ष बैठाना भारी पड़ रहा था उसे।

“पता नही मम्मी, पहले मैं घर वापस आने के लिये मचलता था, तब आप मुझे बड़ा होने को कहते थे। आज बड़ा हो गया हूं, तो आप शायद खुश नही हो ना?”

सुषमा ने महसूस किया, ज्वार दोनो ओर था। फिर वो देर तक बोलता रहा, उसकी बातों के अर्थ समझने के लिये सुषमा सोच सोच कर ही हलकान होती जा रही थी। कितना कुछ गड्ड मड्ड था उसके दिमाग में। जीवन की नई परते खुल रही थी, अपना वजूद कायम हो रहा था, नया सवेरा जैसा हो रहा था उसके जीवन में। और एक बात थी, इस समय उसे अकेला रहना भारी पड़ रहा था। लेकिन उसे किसी का साथ चाहिये, यह स्वीकार करने लायक बड़ा नही हुआ था वो।

सुषमा को लगने लगा कि एक बेटे के रुप में अब शालीन बड़ा हो रहा है, लेकिन एक मां के रुप में, अभी उसका बड़ा होना बाकी है।

वह उसकी बातें सुनती रही। छुट्टियों पर घर न आकर दोस्तों के साथ घूमने जाने की बातें, डायरी में लिखी पहली कविता की बातें, दोस्त के मन में आनेवाली आत्महत्या के विचार की बातें, कैम्प फायर में हुए झगड़े की बातें, सपनो... किले.. मीनारों की बातें।

सुषमा को लगा कि वह वात्सल्य की नदी के मुहाने पर ही खड़ी रह गई है और उसकी ममता खूब दूर तक जा चुकी है, और अब छलांग लगाकर वहां तक पहुंचने और साथ चलने की ताकद उसके पैरों में बिल्कुल भी नही बची है।

-अंतरा करवड़े