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संदली दरवाज़ा

संदली दरवाज़ा

सुधा ओम ढींगरा

बस में चढ़ते ही उसने महसूस किया, बस पूरी तरह से भरी हुई है। वह बस का डंडा पकड़ कर, सँभल कर खड़ी हो गई। बस चल पड़ी। उसने एक बार फिर चारों ओर देखा। बस के बिल्कुल पीछे उसे एक ख़ाली सीट नज़र आई। वह डंडा पकड़े -पकड़े उस सीट की तरफ अपने बदन को सँभालते हुए चलने लगी। सीट के पास पहुँच कर उसने देखा, उस पर कुछ पुस्तकें पड़ी हैं और साथ की सीट जो खिड़की के साथ हैं, उस पर एक आकर्षित नौजवान बैठा किताब पढ़ने में मग्न हैं। वह वहीं खड़ी हो गई। नौजवान का ध्यान टूटा। उसे देखते ही उसने अपनी पुस्तकें वहाँ से हटा लीं। वह निश्चिंत हो कर बैठ गई। वह जानती है अगले बस स्टॉप से कॉलेज और कैंट जाने के लिए बहुत भीड़ चढ़ेगी और वह भीड़ से बहुत घबराती है।

कई बार लोग भीड़ में डंडा पकड़ कर अपने बदन को जानबूझ कर ढीला छोड़ देते हैं, ताकि बस के रुकने पर सामने खड़ी लड़की के शरीर से टकरा सकें। फिर सॉरी ऐसे माँगते हैं, जैसे उनका कोई क़सूर नहीं। कई तो सॉरी भी नहीं माँगते। बस को कसूरवार ठहरा देते हैं। घिन आती है उसे, जब बस की भीड़ में अनचाहे शरीर उससे टकराते हैं।

तभी तो वह रिक्शा में आती-जाती है। इक़बाल उसकी रिक्शा वाला बीमार है। पापा कार में उसे कभी कॉलेज नहीं जाने देते। घर में तीन -तीन कारें खड़ी हैं और वह बस में बैठी है..उसके पापा चाहते हैं कि उनके बच्चे आम लोगों की तरह पलें और रहना सीखें। ड्राइवर को विशेष आदेश है कि उसकी बात कभी न मानी जाए। जानते हैं कि वह नौटंकी है, माँ और ड्राइवर को पटा लेती है। माँ उसकी बातों में आकर ड्राइवर पर ज़ोर डालती हैं और ड्राइवर को उसे ले जाना पड़ता है। फिर बेचारे को पापा से डांट पड़ती है। उसके भाई तो बसों में जाते हैं, वे रिक्शा पसंद नहीं करते। उसने लंबी साँस ली...चलो आज तो सफर अच्छा कटेगा.... और मुस्करा दी।

उसकी लंबी साँस से, साथ वाले लड़के का ध्यान टूटा...उसने उसकी ओर देखा... वह उससे बेखबर मुस्कराती रही।

उसकी मुस्कराहट से उसके दोनों छोटे भाई तंग हैं, अक्सर माँ को शिकायत करते हैं-

''माँ दर्पण हर समय मुस्कराती रहती है, कई लड़कों को ग़लतफहमी हो जाती है और वे सोचने लगते हैं कि यह उनके लिए मुस्करा रही है। हमारी तो यह बात नहीं सुनती, आप ही इसे समझाएँ।''

''क्या समझाऊँ कि मुस्कराना बंद कर दे। अरे तुम भाई हो या कसाई, जो लड़के ऐसा सोचते हैं, उन्हें मेरे पास ले आओ, राखी बंधवा दूँगी। तुम लोग भी जानते हो कि यह बचपन से ही ऐसी है। इसके चहरे की मुस्कराहट प्रकृति की देन है।जब तक यह स्वाभाविक है, मुस्कराने दो..धीरे -धीरे लड़कियों के चेहरे ख़ुद ही बदल जाते हैं।'' यह सुन भाई चुप हो कर चले जाते।

अगले बस स्टॉप से भीड़ का रेला बस के भीतर आ गया। वातावरण में एकदम घुटन सी हो गई। साथ वाले युवक ने खिड़की खोल दी।

उसकी सीट के पास बस का डंडा पकड़ कर एक देहातन आ कर खड़ी हुई। उसकी गोद में बच्चा है। बच्चे के साथ उसे डंडा पकड़ना, स्वयं और बच्चे को सँभालना मुश्किल हो रहा है। दर्पण ने फुर्ती से अपने और उस युवक के बीच पड़ी किताबों को उठा लिया और उन्हें अपनी गोद में रख लिया और युवक की तरफ थोड़ा सरक गई। युवक को भी खिड़की के साथ सटना पड़ा। स्वयं सीट के आगे की ओर बैठ कर दर्पण ने महिला के लिए स्थान बना दिया। युवक मुस्करा पड़ा.......

उसने खिड़की से बाहर देखने के लिए नज़र उठाई, मुस्कराते युवक को देख कर हैरान रह गई... सौम्य मुस्कराहट लिए, वह एक सभ्य, शालीन, सुसंस्कृत युवक है। उसके घुँघराले बाल हवा से उड़ रहे है। उसका ध्यान गया ही नहीं उसकी तरफ। आम युवकों से वह भिन्न है। राजसी घर का लगता है। फिर बस में! अरे वह भी तो बस में है। उसके चेहरे की मुस्कराहट और भी फैल गई, इसके पापा भी कड़क और आदर्शवादी होंगें, ठीक उसके पापा की तरह...

बच्चे ने उसकी बाज़ू पर हाथ मारा, वह उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करना चाहता है। माँ ने मना किया, वह खिलखिला कर हँस पड़ा। दर्पण ने बच्चे को देखा, उसके गाल को छुआ, बच्चे ने अपनी दोनों बाहें उसकी ओर फैला दी। उसने भी उसी पल अपनी गोद में पड़ी किताबें उस युवक की गोद में रख कर बच्चे को अपनी बाँहों में समेट लिया। बच्चे की माँ ने खेस उसकी झोली में रखते हुए कहा--''यह मूत देगा..आप अपनी झोली में यह खेस रख लें..।''

''कर दे गन्दा, कॉलेज तो नहीं जाना पड़ेगा, घर भाग जाऊँगी।'' यह सुन कर युवक हँस पड़ा।

बच्चा गूँ..गूँ.. गा ..गा ..अकुं .अकुं कर आवाज़ें निकालने लगा। वह भी वैसी ही आवाज़ें निकाल कर उसके साथ खेलने लगी। उसने कनखियों से देखा युवक उन दोनों की ओर देख रहा है। दर्पण ने खिड़की की ओर देखने का अभिनय किया ताकि युवक का ध्यान उनसे हट जाए। वह मुँह फेर कर खिड़की से बाहर देखने लगा। सड़क पर ट्रैफिक जाम है। दर्पण ने युवक को फिर देखा। पंजाब का यह नहीं लगता। घुँघराले बाल, गोरा गुलाबी रंग, चौड़ा चेहरा, पहाड़ी लगता है। शायद बाहर से आया है। किताबों से लगता है, इतिहास में एम.ए कर रहा है। बच्चे ने गों...गों करके उसका ध्यान फिर अपनी ओर खींचा। वह बच्चे की ओर मुड़ी, उसके गुदगुदी करने लगी। बच्चा ज़ोर -ज़ोर से हँसने लगा। वह भी हँसने लगी। वह उसके साथ बच्चा ही हो गई। बस के लोग भी उन दोनों को खेलते देख कर मुस्करा रहे हैं।

बच्चों के लिए उसका आकर्षण छुटपन से है, भाई उसे नौकरों के घरों से बाज़ू से पकड़ कर लाते थे, और खूब डांटते थे--'' गन्दे -गन्दे बच्चों के साथ खेलती हैं। गन्दी ..हमारे पास मत आना।।'' दादी उसे गोदी में बिठा लेती थी। पाँच भाइयों से वह सबसे छोटी है और बड़े भाई पन्द्रह साल बड़े हैं उससे। बड़े दो भाई तो उसे बच्चों की तरह रखते हैं। तीसरे नंबर वाला मंझला भाई बहुत चुप रहता है, उसे स्नेह देता है, डांटता कभी नहीं। पर छोटे दो उसके पीछे पड़े रहते हैं।

छोटे भाई जब माँ के पास उसकी शिकायत ले कर पहुँचते हैं, दादी अब भी उसे गोदी में बिठा लेती हैं, उसके चेहरे पर हाथ फेर कर, कई बार उसे चूम कर कहती हैं--'' नादानों को पता नहीं, मैंने तुझे माँग कर लिया है। वैष्णों देवी नंगे पाँव गई थी। भगवान् का रबी रूप तू मेरे घर में आई है। थोड़ी सी खिलंदड़ी है, वक्त के साथ तू ठीक हो जाएगी। तेरा यह बचपना, भोलापन, सादगी इसी तरह बनी रहे, सदा मुस्कराती रह.. दर्पण भी उनसे लिपट जाती।

छोटे भाई पैर पटकते, बिलबिलाते वहाँ से चले जाते --''दादी ने इसे सिर चढ़ा रखा है। सबने इस का दिमाग ख़राब कर दिया है। हमें कोई प्यार नहीं करता। कोई हमारी बात नहीं सुनता। इसकी लापरवाहियाँ दिन- ब - बढ़ती जा रही हैं।''

बस में सबसे बेपरवाह वह बच्चे के साथ खेल रही है, उसे आसपास की कोई सुध नहीं। वह युवक खड़ा होने के लिए उठने लगा। दर्पण ने बाहर देखा। आर्य कालेज फॉर बुआयेज़ का बस स्टॉप आ गया। उसने बच्चा उसकी माँ को पकड़ा कर, उस युवक से अपनी किताबें वापिस लीं। उसने देखा भीड़ कम हो गई। वह खड़ी हुई और उस युवक को जाने दिया। अच्छा तो यह इस कालेज के विद्यार्थी है । वह मन ही मन सोचने लगी। अगला बस स्टॉप उसका है। आर्य कॉलेज फॉर विमेन। वह युवक उतरता हुआ भी उसे देख रहा है। तभी उसका ध्यान अगली सीटों पर बैठीं उसकी सहेलियाँ कमलेश और रानी पर गया। दोनों शरारत से मुस्करा रही हैं।

अगले बस स्टॉप पर उतरते ही वे गाने लगीं --''मुड़ -मुड़ के ना देख मुड़ -मुड़ के..''

''तुम लोग क्या कह रही हो, मैं समझी नहीं।'' दर्पण ने सादगी से पूछा।

''महारानी जिस पर दोनों कॉलेजों की लड़कियाँ मरती हैं, उसके साथ आप बैठी थीं, और वह मुड़ -मुड़ कर आपको देख रहा था। अगले पीरियड इनसे मुलाकात होगी।'' रानी बोली।

''क्यों ..?''

''भीतर की दुनिया से निकल आइए, बाहर यथार्थ की दुनिया में। ये हिस्ट्री के नए प्रोफ़ेसर हैं।'' कमलेश ने कहा।

''ओह नो।''

''ओह येस, विजय गंभीर सर के जाने के बाद बुआयेज़ कॉलेज से इन्हें इतिहास का पीरियड पढ़ाने के लिए प्रिंसिपल मैम ले कर आईं हैं। साल समाप्त होने में कुछ ही महीने तो बचे हैं। अगले साल पता नहीं कौन आएगा? तुम तो छुट्टी पर थी कैसे पता चलता?'' रानी ने बात आगे बढ़ाई।

''पर कल तो तुम मुझे बता सकती थी। मुझ से मिलने घर आई थी।''

''कल अपनी हालत देखी थी। आँख नहीं खुल रही थी तुम्हारी, इतनी थकी हुई थी।''

''थकी तो आज भी हूँ, मैं घर जा रही हूँ।''

''ग्रो अप दर्पण, अभी तक तो तुम्हें प्रिंसिपल मैम ने छुट्टी दी हुई थी। तुम कॉलेज की स्टार हो, यूथ फेस्टिवल में हिस्सा लेने गई हुई थी। गोल्ड मेडल लाई हो। अगर आज चली गई, तो सब गड़बड़ हो जाएगा, सर ने तुझे देख लिया है।'' रानी ने हड़काने वाली आवाज़ में कहा। वह जब -जब बचपना करती है, रानी उसे काबू में रखती है।

''मैं थकी हुई थी, फिर भी आज पहले पीरियड आई, सोचा था खूब बातें करेंगे। यही तो ख़ाली पीरियड होता है। कितनी सारी कहानियाँ सुनानी थीं। मूड ख़राब हो गया, चल कैंटीन में चल कर चाय पीते हैं।''

''नहीं दर्पण, सर बहुत सख्त हैं, एक मिनट की देरी बर्दाश्त नहीं करते।'' रानी ने उसी अंदाज़ में कहा।

''बाई दी वे, सर का नाम क्या है..? ''

''डॉ. सुकेश चन्द्रमणि, बुआयेज़ कॉलेज में इसी वर्ष प्राध्यापक बन कर आए हैं और विद्यार्थियों को आप कह कर बुलाते हैं।''

''रियली, वैरी स्ट्रेंज।''

''पहले दिन तो हम सब गश खा कर गिर गई थीं।'' कमलेश ने हँसते हुए बेहोश होने की एक्टिंग करते हुए कहा।

घंटी की आवाज़ सुनाई दी और तीनों सहेलियाँ हिस्टरी डिपार्टमेंट की ओर चल दीं। क्लास में तीनों का गुट पीछे बैठता है और वे अपनी जगह पर जा कर बैठ गईं। डॉ. सुकेश क्लास में आए, उन्होंने क्लास के विद्यार्थियों पर एक उड़ती नज़र डाली। रजिस्टर खोला और हाज़री लेने लगे। दर्पण के नाम पर जब 'येस सर' की आवाज़ आई तो उन्होंने सिर उठा कर देखा, दर्पण खड़ी हो गई। कुछ क्षणों के लिए वे उसे देखते रह गए, एकदम सँभल कर पूछा-

''इतने दिनों से आप कहाँ थीं ?''

'सर' कहने के साथ ही वह प्रिंसिपल मैडम का पत्र ले कर उनकी तरफ चल पड़ी। पत्र उनके सामने मेज़ पर रख दिया....

पत्र पढ़ते हुए वे कहते गए, ''आप १५ दिन की छुट्टी पर थीं। कॉलेज के लिए तीन गोल्ड मेडल जीत कर लाई हैं। डिबेट, डैक्लामेशन और मोनोएक्टिंग में। गुड, वैरी गुड।'' अब उन्होंने नज़र उठाई और दर्पण की ओर देखते हुए बोले- '' इतने दिनों का कोर्स आप कैसे पूरे करेंगी...?

''जी, मैं सहेलियाँ से नोट्स ले लूँगी।''

''कौन हैं आप की सहेलियाँ?''

''जी रानी रंधावा और कमलेश वर्मा।''

''ओ.के. यू मे गो..''

वह अपनी सीट पर आ कर बैठ गई।

उसके बाद उन तीनों ने महसूस किया, डॉ. चंद्रमणि ने उनकी तरफ देखा तक नहीं। बाकी विद्यार्थियों को देख कर पढ़ाते रहे।

एक सप्ताह इसी तरह बीत गया, वे क्लास में जातीं, हाज़री होती, डॉ.सुकेश उनकी तरफ नज़र उठा कर भी न देखते, और पूरे पीरियड में दर्पण कविताएँ या कहानियाँ लिखती, जो उसका शौक है। रानी पेन्सिल से स्केच बनाती। वह स्केच बहुत बढ़िया बनाती है। बस कमलेश नोट्स लेती। वर्ल्ड वार पढ़ाई जा रही है। लेक्चर पर एकाग्रता न होते हुए भी एक बात इन तीनों ने महसूस की, प्रो. चन्द्रमणि का पढ़ाने का तरीका और प्रोफ़ेसरों से बहुत भिन्न है। वे इतिहास के साथ -साथ भारत की और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, अतीत और वर्तमान की परिस्थितियों को साथ जोड़ कर, विषय को गहराई से समझाने की और विद्यार्थिओं में एक तरह की जागरूकता लाने की कोशिश अपने लेक्चर में करते। अनसुना करते हुए भी दर्पण बहुत कुछ सुनती, समझती। किताबों में लिखा हुआ, वे नहीं पढ़ा रहे, जो नहीं लिखा गया, वे पढ़ाते हैं। आज तक तो सबने सिर्फ किताबें ही पढ़ाई थीं।

दूसरे सप्ताह का पहला दिन.... दर्पण क्लास रूम की तरफ बढ़ रही है। किताबों को सँभालती हुई जा रही है। तीनों सहेलियों ने आज पीरियड से पहले क्लास रूम में मिलने की सोची। रानी का फ़ोन आया था, वह कुछ बताना चाहती थी। क्लासरूम में प्रवेश करते ही वह कुछ कदम उठाने के बाद ही रुक गई। प्रो. चंद्रमणि रूम में पहले से बैठे हैं, कुछ पढ़ रहे हैं। कमलेश और रानी का कुछ पता नहीं। आहट से उन्होंने नज़र उठा कर उसकी ओर देखा। वह वापिस नहीं पलट सकी।

''आईए, आगे आकर बैठ जाइए...।''

''जी नहीं मैं यहाँ ठीक हूँ। '' वह अपनी पिछली सीट पर बैठती बोली--''आप को देख सकते हैं और आवाज़ भी बहुत साफ सुनाई देती है।'' भीतर से वह काँप रही थी..

''यह क्यों नहीं कहतीं कि पीछे बैठ कर कविताएँ लिखनी आसान होती हैं। कल आप अपनी डायरी यहीं भूल गई थीं। वैसे बहुत अच्छा लिखती हैं आप। उस डायरी को और ये नोट्स ले जाईए, पिछले दिनों जो मैंने पढ़ाया है, उसे समझने में आप को आसानी होगी।''

दर्पण घबराई हुई मेज़ की तरफ बढ़ी। मेज़ तक का रास्ता मुश्किल से कटा। उन्होंने एक फाईल उसे थमा दी।'' इसे घर जा कर आराम से पढ़ें, यहाँ इसका शोर मत डालना। मेरे लिए सब विद्यार्थी एक जैसे हैं। वैसे मैंने आप का पिछला रिकार्ड देखा है। नंबर आप अच्छे ले लेती हैं, पर अच्छे नंबर लेना और विषय को समझना दोनों अलग बातें हैं।''

''जी'' कह कर ज्योंही वह मुड़ने लगी, उन्होंने पूछा--'' आज कल आप बस में कॉलेज नहीं आतीं।''

''नहीं सर, मैं रिक्शा में आती हूँ। जिस दिन इक़बाल मेरा रिक्शा वाला बीमार होता है, उसी दिन बस में आती हूँ।''

कमलेश और रानी ने धमाल से कमरे में प्रवेश किया और वहीं दरवाज़े में ठिठक गईं...कमरे में फैले डर और घबराहट की महक उन तक पहुँच गई। वे 'गुड मार्निंग सर' कह कर अपनी जगह पर जा कर बैठ गईं। कुछ और लड़कियाँ आ गईं, सुकेश सर उनसे बातें करने लगे। घंटी बजी, लड़कियाँ कक्षा में आने लगीं। सर ने रजिस्टर उठाया और वही रोज़ का रूटीन शुरू हुआ। हाज़री के बाद सर ने बोलना शुरू किया-

''१८५७ में आज़ादी की लड़ाई..गदर कहलाई। क्यों ? अंग्रेज़ों की राजनीति के साथ हमारे अपनों की कूटनीति थी। अपनों ने साथ नहीं दिया। ठीक आज भी यही हो रहा है। अपने हकों के लिए जो भी कोई खड़ा होता है। उसे वामपंथी या नक्सलवादी कह कर नकार दिया जाता है।'' दर्पण इस पंक्ति पर सतर्क हो गई।

''उसे आप कोई भी नाम दे सकते हैं। किसी और विरोद्ध या विद्रोह के साथ जोड़ कर देख सकते हैं। कहने का अर्थ है, उसे दबा दिया जाता है या दबाने की पूरी कोशिश की जाती है। अब अंग्रेज़ यह सब नहीं कर रहे। उनका काम हमारे अपने कर रहे हैं। अपने ही अपनों की समस्याएँ समझने की बजाए उनके आन्दोलन को समाप्त करने पर जुट जाते हैं। समस्याएँ वहीं रहती हैं बल्कि और बड़ी हो कर अलग वाद के रूप में सामने आ जाती हैं। कई बार तंग आ कर अंत में शोषित या पीड़ित हथियार उठा लेते हैं। जो किसान हथियार नहीं उठा पता वह अपनी जान ले लेता है। आज़ादी की लड़ाई के लिए हथियार उठाना मजबूरी थी, ज़रूरत थी। पर अब हम हथियार उठाने के लिए लोगों को मजबूर कर रहे हैं। पूरे का पूरा ढांचा बदलने वाला है। नौजवान पीढ़ी ही इसे बदल सकती है... और वे आप हैं। चलिए हम १८५७ की बात करें...

दर्पण ने हाथ खड़ा कर दिया---''जी दर्पण भारद्वाज आप को क्या कहना है...?''

''सर एक दम तीखा सिर दर्द शुरू हो गया है, बदन तपने लगा है। पेट में भी अजीब सा दर्द हो रहा है।''

''नर्स के पास जाइए।''

बाहर निकलने से पहले ही वह गिरने लगी तो डॉ. चंद्रमणि ने कमलेश और रानी की ओर इशारा किया--''आप इन्हें ले जाइए। गिर ना जाएँ।'' दोनों ने तेज़ी से भाग कर उसे पकड़ लिया।

नर्स ने बदन छूते ही कहा इसे डॉक्टर की ज़रूरत है। दर्पण के घर फ़ोन कर दो। उसने फ़ोन उनके आगे बढ़ा दिया, कमलेश ने उसके घर फ़ोन कर दिया।

घर से दर्पण के मम्मी उसे आकर ले गए।

दूसरे दिन कॉलेज में सब जगह दर्पण की बातें होती रहीं। उसकी सहेलियाँ चिंतित हो गईं। उसे छोटी माता ( चिकन पॉक्स ) निकल आई थी। बड़े हो कर निकलने पर जान को ख़तरा होता है। इसलिए सभी परेशान हैं। डॉक्टरों ने भी पूरा परहेज़ बताया हैं। कोई उसे मिलने नहीं जा सकता। डॉ. चंद्रमणि को पता चला तो इतना ही कहा--'पुअर गर्ल.... ।'

घर में दादी ने रोज़ देवी का हवन करवाना शुरू कर दिया।

छोटे पोतों पर खूब अपना गुस्सा निकाला दादी ने-''मरजाने सारा दिन लड़की के पीछे पड़े रहते हैं। देवी माँ से माँग कर मैंने ली है कन्या। दिखा दिया न उसने अपना प्रकोप। सारा दिन उसकी शिकायतें लगाते रहते हैं...।''

दर्पण की छोटी माता बिगड़ गई। एक महीना लग गया उसे ठीक होने में। छोटे भाइयों ने बड़ा ख़याल रखा। छालों के छिलके गिरने और भरने में समय लग गया। दादी इस बात से ख़ुश थीं---''देवी ने आँखें और चेहरा अपने कोप से बचा लिया। कोई निशान नहीं रहा।''

महीने बाद दर्पण जब कॉलेज आई तो उसने परीक्षा से पहले का वातावरण कॉलेज में व्याप्त पाया। एक सप्ताह बाद परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं। ऐसे में विद्यार्थियों का क्लासों में आना- जाना कम हो जाता है। प्रोफ़ेसर भी अनुशासन में इतना सख्त नहीं रहते। तीनों सहेलियाँ भी परीक्षा की तैयारी में लग गईं। आपस में उनकी बात-चीत बहुत कम हो गई ।

परीक्षा का अन्तिम दिन आ गया। परीक्षा के बाद वे बहुत हल्का महसूस कर रही हैं। ऐसा लग रहा है जैसे बहुत बड़ा बोझ सिर से उतर गया। तीनों ने पानी पूरी और चाट पापड़ी खाने की सोची। इक़बाल को रिक्शा ''आर्यां दी हट्टी'' ले जाने के किए कहा और तीनों सहेलियाँ उछल कर रिक्शा में बैठ गईं। रिक्शा ज्योंही विजय नगर के चौक के पास वाली गुलाबी कोठी के सामने से निकलने लगा, दर्पण ने कहना शुरू कर दिया-''इकबाल रोक..रोक..रोक..रोक।'' और वह रिक्शे से उतर कर उस कोठी की तरफ जाने लगी।

''इस कोठी के संदली दरवाज़े को दूर से देख कर तरसती हूँ। आज मैं घंटी बजा ही दूँगी। जो भी दरवाज़ा खोलेगा। उसको विनती करुँगी, बस एक बार इस कोठी के संदली दरवाज़े को छूने दो। इसकी कलात्मक शिल्पकारी को हाथ लगा कर देखने दो। क्या नक़्क़ाशी है! उत्कीर्णन कला का अद्भुत नमूना है और इसकी चौखट के पार भीतर झाँकने देने को भी कहूँगी। बाहर से इतनी क्लासिक कोठी है, अन्दर न जाने क्या -क्या जड़ा हुआ होगा। बस एक बार सारा सौन्दर्य देखना चाहती हूँ...बस एक बार।''

रानी उसे बाज़ू से खींच कर रिक्शे तक ले कर आई...''दर्पण तू कई बार बच्चों जैसा बिहेव करती है, किसी के घर ऐसे थोड़ा जाया जाता है। पता नहीं कौन लोग हैं ? दरवाज़े को छू कर देखना चाहती है या भीतर झाँक कर। हर बात का एक तरीका होता है। पता करते हैं, किसकी कोठी है, फिर अप्रोच कर लेते हैं। '' रानी ने उसे डांटते हुए कहा-- ''चल बैठ रिक्शा में। तेरा बचपना पता नहीं कब जाएगा। ''

इक़बाल ने रिक्शा घर की ओर मोड़ दी --''दीदी जी आप की तबियत अभी ठीक हुई है, बाहर नहीं खाना आपने। दादी जी बहुत गुस्सा होंगी।''

''हाँ इकबाल हम भूल ही गए। दर्पण पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। अच्छा हमें हमारे घर छोड़ कर तुम इस को ले जाना।'' रानी बोली। कमलेश और रानी आस -पास रहती हैं।

''घर चलो, मस्ती करेंगें।.'' दर्पण ने कहा।

''नहीं, आज नहीं, कई रातों से जाग रहे हैं। कल आएँगें।'' रानी और कमलेश ने कहा।

गर्मीं की छुट्टियों में कमलेश पटियाला अपने ननिहाल चली गई। रानी परिवार के साथ घूमने शिमला चली गई। दर्पण की मौसी अपने चार बच्चों के साथ छुट्टियाँ बिताने उनके यहाँ आ गईं। तीनों सहेलियाँ गर्मियों की छुट्टियों में व्यस्त हो गईं।

दर्पण अपने मौसी के बच्चों के साथ साँप और सीढ़ी में जीत कर ड्राईंग रूम में अपने बड़े भैया को बताने आई। उनके साथ सुकेश चंद्रमणि को देखकर स्तब्ध रह गई। 'नमस्ते' करना भी मुश्किल हो गया।

भैया ने हँसते हुए कहा---''गुड़िया, जिम खाना क्लब के ये मेरे मित्र हैं। हम बिलियर्ड इकट्ठे खेलते हैं।''

''अभिनन्दन मैं इन्हें कुछ दिन इतिहास पढ़ा चुका हूँ।''

''तो आप इसके प्रोफ़ेसर हैं। आई होप, इसने तंग न किया हो। परिवार की लाडली है, थोड़ी चुलबुली है। ''

''बहुत अच्छा लिखती हैं । आज- कल छप भी खूब रही हैं। मैं पढ़ता हूँ इन्हें।''

''सच सर, आप पढ़ते हैं..।'' दर्पण ने हैरान हो कर पूछा, जैसे यकीन न आ रहा हो।

''दर्पण जी मैं झूठ नहीं बोलता...बस एक कमी लगी मुझे, आप अच्छा साहित्य पढ़ें।''

''जी आप बताएँ मुझे पढ़ने का बहुत शौक है।''

अभिनन्दन दोनों को बातें करता छोड़ कर वहाँ से चला गया।

''दर्पण मैं दरवाज़ा खोलने आया था, आप वहाँ से चली क्यों गईं..?''

''सर आप .....'' दर्पण इतना ही कह पाई और वहाँ से भाग गई।

कमरे में जा कर अपने आप पर क्रुद्ध होने लगी-

''दर्पण तुझे कब अक्ल आएगी। सारे ठीक कहते हैं, मैं पता नहीं कब ग्रो करुँगी। सर पता नहीं क्या सोचते होंगें।'' फिर सिर पर हाथ मार कर कहा--''इससे भी कभी काम लिया कर। हमेशा दिल की मत सुना कर, कुछ करने और कहने से पहले सोचा कर।''

सोचने तो दर्पण अब लगी है, हर शाम एक रुटीन सा हो गया है, सर रोज़ घर आ जाते हैं। अब कोई भाई क्लब नहीं जाता। वे आते हैं, सब उन्हें घेर लेते हैं..भाई ,पापा -माँ.. यहाँ तक कि दादी भी। पापा और उनकी बहुत बहस होती है, कभी किसान रैलियों पर और कभी कानू सान्याल और चारू मजुमदार को लेकर। उनकी सफलता -असफलता को लेकर बहुत बात होती है। कभी रूस के टूटने पर और कभी मार्क्स के सिद्धांतों पर... अमेरिका, भारत और पाकिस्तान का ज़िक्र तो कई बार आता है। पर बहस बहुत मीठी होती है, वे हँसते -हँसते बात करते हैं। बड़े हँसमुख हैं। ऐसे समय दर्पण वहाँ से खिसक जाती है। उसे ये भारी भरकम बातें लगती हैं। वह बोर हो जाती है। नींद का बहाना बना कर वहाँ से चली जाती है।

एक बात ने दर्पण को सचमुच गंभीर कर दिया, जब सर आते हैं, उसे बुलाया ज़रूर जाता है..और वे उचटती निगाह से उसे देखते हैं और फिर भाइयों के साथ व्यस्त हो जाते हैं।

वह बाहर गई हुई थी। घर में प्रवेश करते ही भैया ने उसे पुकारा- ''गुड़िया इधर आना।'' कैरम खेलते हुए डॉ. सुकेश ने उसकी ओर देखा-''हाँ तो दर्पण आप जो किताबें पढ़ चुकीं है। उसकी लिस्ट आपने मुझे दी थी। आप उससे अलग किताबें पढ़ना चाहती हैं। सच में इतनी किताबें पढ़ चुकी हैं। सिर्फ पढ़ीं हैं या कुछ ग्रहण भी किया...।''

''सर, ग्रहण तो दूसरे करेंगे। हम तो बस पढ़ते हैं..।'' मोंटू उसका छोटा भाई हँसते हुए बोला। सर मुस्करा दिए।

बड़े भाई ने टोका-''मोंटू , दर्पण बड़ी हो गई है। ढंग से बात किया करो।''

''सुकेश यह जितनी चंचल दिखती है। अन्दर से उतनी ही सुलझी हुई है। इतने दिन बीमार रही। मुझे विश्वास है, नंबर फिर भी बहुत अच्छे ले जाएगी...।''

सर मुस्कराते रहे और मुस्कराते हुए ही उन्होंने कुछ किताबें पैकेज से निकाली और दर्पण ने महसूस किया कि एक -एक करके घर के सभी सदस्य वहाँ से चले गए। सिर्फ मोंटू बैठा रहा। पुस्तक थी जॉन ओ हारा की 'फ्रॉम दी टेरेस' और दूसरी गोर्की की माँ थी। कुछ क्षणों बाद मोंटू भी चला गया।

सुकेश ने उसे बहुत लुभावनी दृष्टि से देखा- ''दर्पण, आप कपड़े बहुत शालीनता से पहनती हैं, अच्छा लगता है। फैशन के पीछे नहीं भागती। फिरोज़ी और पिंक पहना करें, आपका चेहरा इन रंगों से ग्लो करता है...।'' दर्पण का बदन भीग गया, वह वहाँ खड़ी नहीं रह सकी और एक्स क्यूज़ मीं कह कर चली गई।

ऐसा कई बार हुआ है, परिवार के लोग उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं। सर की नज़रों का वह सामना नहीं कर पाती। कुछ ग़लत भी नहीं लगता उसे उन आँखों में। पर क्या होता है उन आँखों में, हँसती-मुस्कराती आँखों से वह भाग क्यों जाती है। हर बार उसका बदन पसीने से भीग जाता है। क्या और क्यों हो रहा है यह सब, दर्पण समझ नहीं पा रही....

पुस्तकें उसने अपने बेड पर ला कर फैंक दीं। 'फ्रॉम दी टेरेस' से एक लिफाफा बाहर गिर गया। वह घबरा गई। उसने उसे खोला, उसमें एक पत्र निकला, उसने उठ कर पहले अपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया। फिर उसे पढ़ना शुरू किया.....

दर्पण,

नहीं जनता यह मैं क्यों लिख रहा हूँ। अपना व्यक्तित्व, अस्तित्व ताक पर रख कर चन्द पंक्तियों में अपनी बात कहने की कोशिश करुँगा। आपके स्वभाव से भी परिचित हूँ। आप इस पत्र को सार्वजनिक कर देंगी। वह बदनामी मैं सह लूँगा, कुछ कहना चाहता हूँ। आप की आवाज़ सुनने आप के घर आता हूँ, पर आप खामोश हो जाती हैं, कुछ भी नहीं बोलतीं। खनखनाती हँसी सुनना चाहता हूँ, कॉलेज में कई बार वह हँसी सुनी है। कानों को विश्वास नहीं हुआ था, लगा था कहीं घुंघरू बज रहे हैं। उन्हीं घुंघरूओं की आवाज़ सुनने आता हूँ। आप बोलती हैं तो आवाज़ों की भीड़ में मधुर संगीत का सा आभास होता है। आप शर्माया मत करें, झिझकें मत, मैं आप का दोस्त हूँ। आप को चोट नहीं पहुँचाऊँगा, चोट लगने भी नहीं दूँगा। संदली दरवाज़े से भीतर आप कभी भी आ सकती हैं.... झरने की कलकल करती तरंगों सी निश्छल आप बहती रहें...।

सिर्फ आपका,

सुकेश

दर्पण का सिर चकरा गया। उसने अपने आप को सँभाला और उस पत्र को तहा कर अपनी डायरी में रख दिया। और डायरी पुस्तकों में छुपा दी। उसे कमरे में बहुत घुटन महसूस होने लगी। दरवाज़ा खोल कर वह बाहर आँगन से होती हुई बगीचे में आ गई। खुले आसमान को देखने लगी। वह तारे, चाँद और सूरज को पाने के लिए आकाश की बुलंदियाँ छूना चाहती है। टॉप पर जाना चाहती है। वह कोई रुकावट नहीं चाहती। रुकावट तो सर खैर नहीं बनेंगे, उसे कुछ हो क्यों नहीं रहा? सर की भावनापूर्ण अभिव्यक्ति से भी वह इतनी बेरूख-सी क्यों है? उसे वे सहेलियाँ याद आने लगीं जिनको प्यार हुआ था। भावनाओं का जो वर्णन उन्होंने किया था, वैसा तो कुछ भी नहीं है उसके साथ। कोई भाव वह महसूस नहीं कर रही। अगर कुछ है तो वह है आदर! सर के लिए, अपने प्रोफ़ेसर के लिए। वह उन्हें प्यार नहीं करती, कर भी नहीं सकती, शायद उसकी नियति में कुछ और है। आसमान की ऊँचाई देखती हुई ही वह अपने कमरे में आई।

कुछ दिनों बाद रिज़ल्ट्स आ गए। वह कालेज में टॉप पर रही और तीनों सहेलियों ने डी.ए.वी कॉलेज में एम.ए में प्रवेश ले लिया। पर अलग -अलग विषयों में। रानी ने इंग्लिश में, कमलेश ने इतिहास और दर्पण ने हिन्दी में। तीनों सहेलियों के समय भिन्न होने से उनका मिलना कम हो गया। सुकेश महीने में एक बार दर्पण के घर आ जाते हैं। कॉलेज खुल गए हैं और समय की सब के पास कमी हो गई है।

दर्पण डॉ. सुकेश से काफ़ी सहज हो गई है। वह हँसती है, उनसे बातें करती है, पर उसने अपनी औपचारिक सीमाएँ बाँध ली हैं, जिसे सुकेश समझ गए।

घर में जो चल रहा है, वह समझना चाहती है।

एक दिन उसने दादी से पूछा--''दादी जी, भैया के तो और भी दोस्त घर में आते हैं। फिर प्रो. साहिब का इतना ख़याल क्यों रखा जाता है...।''

''बेटा, वह लड़का हम सब को पसन्द है। कश्मीरी ब्राह्मण है, और हम भी ब्राह्मण हैं।'' दादी ने ख़ुश हो कर कहा।

वह अचंभित नहीं हुई, उसे कुछ इसी तरह का शक था।

''और वह तुझे बहुत चाहता है। पता है जब वह पहले दिन तुझे मिला था, बस में। उसने अभिनन्दन को बिलियर्ड खेलते हुए वह सब कुछ बताया था। वह उसी दिन से तुम्हें चाहने लगा है। वह तेरी सादगी और भोलेपन पर मर मिटा है। अभिनन्दन समझ गया कि वह लड़की कोई और नहीं तुम्हीं हो। हम तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने निकलते, लड़का अपने-आप मिल गया। '' दादी ने उसके सिर पर हाथ फेर कर कहा, बहुत अमीर भी हैं, विजय नगर में संदली दरवाज़े वाली गुलाबी कोठी इन्हीं की है।

''दादी जी, मैं अभी बहुत पढ़ना चाहती हूँ और क्या पसन्द सिर्फ लड़के की होती है। लड़की की कोई पसन्द नहीं। मेरे लिए वे सिर्फ प्रोफ़ेसर हैं। और कोई भावना नहीं है मेरे दिल में...।'' वह बहुत दृढ़ता के साथ बोली। चाहती थी कि उसका सन्देश दादी घर वालों तक पहुँचा दें।

''तुझे पढ़ने से कौन मना कर रहा है। वह बहुत सुलझा हुआ लड़का है, तेरी महत्वाकांक्षाओं को समझता है, तेरे परिपक्व होने तक रुकेगा। और हमनें भी तो अभी अभिनन्दन, मानव और सुकोमल की शादी करनी है। बहुत दूर की बात है। फालतू की सोचों को अपने पर हावी मत कर। अपनी पढ़ाई कर...।'' दादी गंभीर हो कर बोलीं।

दर्पण कुछ नहीं बोल पाई और वहाँ से उठ गई।

उस सुबह अभी सब उठे भी नहीं थे कि फ़ोन की घंटी बजी। मोंटू ने फ़ोन उठाया-''नो दिस इज़ नोट टरु... नो दिस इज़ नोट टरु...।''कह कर वह रो पड़ा। रोते -रोते उसने बताया-

''सुकेश सर की मोटर साईकल कल कॉलेज के सामने ट्रक से टकरा गई। ट्रक ड्राईवर ने बहुत शराब पी रखी थी।उससे ट्रक सँभला नहीं। स्टुडेंट उन्हें उसी समय हॉस्पिटल ले गए और आज सुबह उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके वकील का फ़ोन था, मरने से पहले वे अपने हिस्से का सब कुछ दर्पण के नाम कर गए...।''

''क्या...?'' सब के मुँह से इकट्ठे यही निकला। दर्पण मोंटू का रोना सुन कर अपने कमरे से निकल आई और यह सुन कर वहीं ज़मीन पर बैठ गई। सारा परिवार सकते में आ गया।

ख़ामोशी के कुछ पल ही बीते थे। दर्पण सुबकने लगी, मैं उन्हें क्यों नहीं चाह सकी, वे मुझे बहुत चाहते थे।फिर वह भाग कर अपने कमरे में गई और अलमारी में से पुस्तकों के नीचे दबी अपनी डायरी निकाल लाई। डायरी में से पत्र निकाल कर बड़े भाई को दिखाया-

''भैया वे मेरी आवाज़ सुनने इस घर में आते थे। मैं उन्हें क्यों नहीं प्यार कर पाई। शायद प्यार किया नहीं जाता...हो जाता है। उन्हें मुझ से प्यार हो गया था और मुझे नहीं हुआ। वे बहुत अच्छे थे भैया..वे यह डिज़र्व नहीं करते थे।'' कहते -कहते वह भाई से लिपट गई और बेहोश हो गई। दादी जी उसके मुँह पर छींटें मारने लगीं। डॉक्टर को बुलाया गया।

उसने आँखें खोलीं तो परिवार की जान में जान आई। डॉक्टर जाते -जाते कह गया, इसे शॉक लगा है, एक दो दिन में ठीक हो जाएगी। बिस्तर पर लेटी दर्पण के सामने बस का दृश्य, क्लास रूम, ड्राईंग रूम में सुकेश का हँसना फ़ोटो एल्बम में लगे चित्र से टंग गए।

चौथे के बाद वकील डॉ. सुकेश की वसीयत के कागज़ात दे गया, सुकेश की अन्तिम इच्छा थी कि ये कागज़ात दर्पण को दे दिए जाएँ। घर में कोई भी बोल नहीं पाया...

वकील के जाने के कुछ देर बाद दर्पण अपने बिस्तर से उठी और वकील द्वारा दिए गए कागज़ों को उसने उठाया--''भैया चलें मेरे साथ। इन कागज़ों पर मेरा कोई हक़ नहीं। इस पर सिर्फ उनके परिवार का हक़ है, वे उन्हें प्यार करते हैं, मैंने उन्हें कभी नहीं चाहा। इन को स्वीकारने का मतलब है, उनकी चाहत को स्वीकारना, जो झूठ है। उनकी आत्मा को धोखा देना है, मैं वह नहीं कर सकती..।''

दर्पण के साथ अभिनन्दन कार की ओर चल पड़ा। संदली दरवाज़े की चौखट पार कर वह गुलाबी कोठी के भीतर इस तरह जाएगी....सोचते ही उसकी आँखों के कोरों पर जमा हुई धुँध धीरे -धीरे पानी में बदल गई.....

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