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पिताजी चुप रहते हैं: ज्ञानप्रकाश विवेक

कहानी संग्रह पिताजी चुप रहते हैं: ज्ञानप्रकाश विवेक

कविता का मजा देती कहानियाँ

कुछ आलोचक जो कविता और कहानी में गलत फहमिया पैदा करके दोनों की भाषा , शिल्प, विशय वैविध्य आदि के आधार पर कहानी में संवेदना और उसकी भाषा के प्रति असंतुश्टि जाहिर कर रहे हैं, उनका कहना है कि “आज की कहानी की भाषा मृत है“ सपाट बयानी है उसमें और व्यर्थ की विवरणात्मक व इकहरापन भी मौजूद है। कहानी के लेखक, कवियों की तरह भाषा पर मेहनत नहीं कर रहें है। और सीधी-सीधी घटनाओं का चरित्रों के करछुल से परोस रहे है।

दरअसल ऐसे आलोचक खुद ही गलतफहमियों के शिकार है। वे न तो नई कहानियों को पढने के लिए समय निकाल पाते हैं, न कहानियों की भाषा पर कथन या संवेदना पर ही दृश्टि केन्द्रित कर पा रहे है। ऐसे लोगों को प्रियवंद, तेजिन्दर, सुरभि पाण्डेय और ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानियों और उनकी भाषा पर ध्यान देना चाहिये। एक नई तरह की भाषा का प्रयोग में लाकर जहाँ ये लोग अपनी बात कर रहे हैं, वहीं आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करके संजय, शिवमूर्ति, महेश कटारे, पुन्नीसिंह, ए. असफल, हरि भटनागर, नमिता सिंह, सुरेश कांटक भी तो अपनी बात मनवा ही लेते है कि भाषा ही सब कुछ नहीं, संप्रेषणीयता और कहने का भी स्थान है।

ज्ञानप्रकाश विवेक का चौथा कहानी संग्रह “पिताजी चुप रहते हैं, पिठले दिनों आधार प्रकाशन पंचकूला हरियाणा से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ संग्रहीत है। अंतिम कहानी-पिताजी चुप रहते हैं-इस संग्रह की सर्वश्रेश्ठ कहानी है। इसमें पुत्री के विवाह को सुरक्षित राशि में से एक अनअप्रूव्हड़ कालोनी में किसी तरह मकान बनवाने और उसे नगरपालिका निगम द्वारा गिरवाए जाने के कारण यकबयक मौन व उदास हो बैठे पिताजी की कहानी हैं, जो कई स्तरों पर संवेदनशील है। “किरचें“ कहानी में भी एक पिता है। जो अपने घर की खाट बुनने वाले जैसे मेहनत भरे एवं सामान्य से काम में सौहेबा जी करते है। खाट बुनने वाले से वे उसके घर की दरिद्र स्थिति के बारे में बात करते है तथा घर का युवा लड़का भीतर कमरे में बैठा-बैठा सारी बातचीत चुपचाप छुप कर सुनता है। वह मजदूर इसी लड़के का क्लासफेलों है जो सदा से स्वाभिमानी रहा है। वह अब भी मजदूरी लेता हैं, अनुदान नही। बचपन में इस लड़के सूरजप्रकाश के साथ कथा वाचक के सब तरह के दिन बीते हैं, तथा उसे कथावाचक द्वारा अंत में पहचान न पाने का कोई दुःख नहीं होता। दुसरी कहानी “अधंेरे के खिलाफ“ एक विंकलांग बच्चे की कहानी हैं, जिसके पिता उसकी हौसला आफजाई करके उसे आम स्वस्थ आदमी जैसे आत्मविश्वास से भरते है।

वजूद कहानी का कथानक एक जाग्रत स्त्री और कुठित मर्द के बीच की जिंदगी पर आधारित हैं, जो उनके दांपत्य जीवन के कुछ दिनों से लेकर रास्ते जुदा हो जाने ते फैली है। अल्ट्रासाउण्ड से गर्भ में शिशु का लिंग (स्त्रीलिंग) पहचान में आ जाने के बाद पुरूश उसे समाप्त करवाना चाहता है, मगर स्त्री पूरे समाप्त करवाना चाहता है, मगर स्त्री पूरे गर्व और आत्मविश्वास से उसे जन्म देती है। लेकिन इसके पूर्व उसे पति को छोड़ना पड़ता है। कहानी “अंतिम क्षण“ में लेखक ने वे खौफनाक क्षण जीवंत कर दिए है, जिनमें से होकर बारी-बारी से (गोली मारे जाने तक के प्रतीक्षा समय को व्यतीत करते) चार लोगों के अनुभव और जीवन दर्शन का अहसास होता है। यह कहानी लम्बी बन सकती थी, पर कहानीकार शायद उसे जल्द से जल्द समाने लाने के लिए व्याकुल था और इतनी कढिया-संभावना से भरी कहानी को अपेक्षाकृत संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत कर पाठकों को उसने एक बेहद अच्छी (अच्छी तो वह अभी भी है) कहानी से मेहरूम कर दिया। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले एक व्यक्ति की मानसिकता का चित्रण (जो लाश में सेक जूता निकाल लेने में भी नहीं हिचकता) जिस कहानी में किया गया है उसका नाम है “अमानवीय“ यह शीर्शक इस पर पूर्णतः उपयुक्त बैठता है। “तख्तियाँ“ कहानी में महानगर की आम आदमी की व्यस्त और टूटे मन की दिनचर्या का विवरण है तो इस दायरे में नामक कहानी में भी महानगरीय उदासीनता और स्वार्थपरकता का चित्रण है, जिसमें एक छोटे कर्मचारी की जैब का समस्त धन जेब कटने जाने के कारण चला जाने के बाद भी लोग उसके प्रति सहानुभुति नहीं रखते। आज के युग की संवेदनहीनता का चित्रण “जिन्दगी का आखरी कथानक“ व “बहेलिए“ और “मौत“ में भी है। जहाँ पिताजी चुप रहते है“ के पिजाती (मकान की दुर्घटना के पहले) अपने बच्चों से दोस्तों की तरह पंजा लड़ानें, शेरों-शायरी सुनाने या गपबाजी करने में सुख प्राप्त करते और मस्ती से रहते हैं, वे मकान गिर जाने की पीड़ा से व्याकुल हो जाने के बाद चुप रहना शुरू करते है। बाकी कहानियों के महानगरीय पात्र तो बिना किसी दूर्घटना के ही चुप रहना अपनी नियति मान कर चुप बने रहते है। कोई हरकत या संघर्श की प्रेरणा उनमें नहीं है।

इन कहानियों में लेखक इस बात में तो पूरी तरह सफल रहा कि उसके पात्रों की संवेदनशील जिंदगी के कुछ सुखद, छीटे, विवशता की कुछ “किरचें“, “बेचेनी“, की कुछ “खामोशिया“ पाठकों तक जा पहुँची है। आज के यांत्रिक जीवन में यह सब सुखद मलयाचलीय वायु है। इस संग्रह की कहानियों का उल्लेखनीय पक्ष लेखक की भाषा है। वे एक गजलगो भी हैं, और शायद इसी कारण उर्दू के तमाम लफ्ज पुरअसर ढंग से कहानियों में टहलते हुए चले आते है। विवके गघ में कविता करते है। इसी कारण उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों की बहुलता हैं उनकी कवितानुमा इन शानदार कहानियों में ।

हालांकि जिस भाषा के लिए ज्ञानप्रकाश विवेककाबिल-ए-तारीफ हैं, वही भाषा कही-कही उनकी आलोचना के लिए मुख्य उपादान हो जाती है। उपमा देने के लिए वे इतने आतुर रहते हैं कि छह-सात पंक्तियों के बाद ऐसा एक वाक्य जड़ देते है। कहानियों के पात्र जनता से जुड़ें हैं इसलिए पाठक हर पात्र से पूरे मन से और पात्र की मन-स्थिति से ही जुड़ता है, यह उनकी कहानियों का गुण है। इसी कारण यह संग्रह पठनीय है।

पुस्तक-पिताजी चुप रहते हैं

लेखक-ज्ञानप्रकाश विवके

प्रकाशक-आधार प्रकाशन, पंचकूला,