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ज़िन्दगी सतरंग.. - 1

अम्मा की नजरें सामने आती स्कूटी की तरफ़ ही टिकी हुई थी.. कौन है? कौन नहीं ये जानने के लिए अम्मा बेख़ौफ़ होकर सड़क पर स्कूटी के सामने ही आ रही थी..
पी..ईईईप....पीईईईईईईईप........
मैं जोर जोर से हॉर्न दे रही थी..
"अम्मा सामने से हट जाओ"..हॉर्न नहीं सुनाई दे रहा है तो कम से कम दिख तो रहा होगा.. मैंने जोर से चिल्लाते हुए कहा..
हैं...ऐं..ऐं... कु छे तू..(आंखे पैनी करके, हाथों को माथे पर भींचते हुए अम्मा औऱ भी स्कूटी के नज़दीक आने लगी)!
"अरे! अम्मा सामने से तो हट जाओ"..!!!
अम्मा अनसुनी करते हुए स्कूटी के सामने आने ही वाली थी कि मैंने ब्रेक लगा दिए। अचानक ब्रेक लगने से गाड़ी डगमगा गयी पर मैंने स्कूटी को गिरने नहीं दिया.. इधर स्कूटी का अगला पहिया और अम्मा का पैर टकराने से बाल बाल बचे थे।
मैंने भी झल्लाते हुये कहा-अरे! अम्मा सड़क पर क्यों चल रही हो..
अम्मा को जैसे मेरे सवाल और होने वाली घटना से कोई फर्क नहीं था। फिर से पैनी नजरें मेरी तरफ गड़ाते हुए पूछा-
"कैकी ब्वारी छै तू"..
सवाल इतना मुश्किल भी नही था..पर..मतलब अम्मा ने मुझे पहचाना नहीं है..
फिर तो बेफ़िक्र कोई भी नाम बता दिया जाए..
पर बात ये भी थी की मुझे गढ़वाली बोलनी आती नहीं थी..पर मैंने भी अपने दिमाग में फीड गढ़वाली डिक्शनरी जितनी भी सुनी थी..को खंगालना शुरु किया और तुरंत जवाब में कहा-
"मी परधानजी की नौनी छों"..मैं थोड़ा भय में थी कहीं गढ़वाली में कोई गड़बड़ हुई तो अम्मा को देर ना लगेगी मुझे पहचानने में.
हैं..????
अब इस "हैं" में मुझे शंका और सवालिया निशान का आभास सा हो रहा था.. इससे पहले कि! अम्मा कुछ कहती, मैंने तुरन्त स्कूटी से ही अम्मा को दूर से पैर छूने के संकेत से कहा-"प्रणाम अम्मा जी"..
पर अम्मा ने पूरे निःस्वार्थ भाव से आशीर्वाद देने में कोई कंजूसी नहीं की.. मेरी तरफ थोड़ा आगे बढ़कर दोनों हाथों को मेरे सर पर बढ़िया करके फिरा दिया.. इधर मेरे बालों का डिज़ाइन पूरी तरह से बिगड़ गया था.. मैंने चोर नज़रो से स्कूटी के शीशे में अपनी सकल देखनी चाही औऱ उम्मीद से बढ़कर मेरे बालो का अलग हेयरस्टाइल बन चुका था..जैसे किसी ने सर पर छाता खोल दिया हो... वो भी टूटा-फूटा..एकदम खरंग...
मैने भी पैनी नजरों से अम्मा को देखा और एक स्माइल दी..
पर अम्मा की सीसीटीवी कैमरे जैसी नजरें और cid जैसा दिमाग दोनों मुझपर ही थे..हम्म "कुछ तो गड़बड़ है"...?

मैंने स्कूटी बिना स्टार्ट किये, खिंचते हुए थोड़ा साइड से आगे बढ़ा दी.. अम्मा पीछे रह गयी थी..
ज्यों ही मैं स्कूटी स्टार्ट करने लगी, तभी अम्मा की बड़बड़ाते हुए आवाज सुनाई दी..
"हम्म... या बामणी अर बामणी की ब्वारी.. धारों धार"...
मेरी तो आंखे चौंक गयी.."मतलब अम्मा पहचान गयी थी" फिर भी अनजान बनने की एक्टिंग कर रही थी..इतनी ज्यादा चंट चालाक अम्मा मैंने आजतक नहीं देखी थी..मैं खुद ही बेवकूफ बन गयी थी.. मैं बेकार खुश हो रही थी ये सोचकर कि मैं बच गयी..
अभी पिछले महीने की बात है..अम्मा सड़क के बीचोबीच चल रही थी। तभी, गांव के एक लड़के ने सड़क पर आती कार से बचाने के लिए, अम्मा का हाथ खींचकर अम्मा को सड़क के किनारे ले आया था.. और इस अचानक सी हुई घटना में अम्मा और लड़के दोनों को थोड़ा धक्का लगा.. अब खबर छपनी तो ये थी कि लड़के ने अम्मा की जान बचाई है.. पर अम्मा ने पूरे गांव में ये न्यूज़ टेलीकास्ट की कि उस लड़के ने अम्मा को सड़क पर धक्का देकर गिरा दिया और हाथ बढ़िया करके मरोड़ दिया.. जिसका दर्द अबतक बाक़ी है.. इस कहानी का प्रचार प्रसार अम्मा ने घर-घर जाकर किया..नतीजतन लड़के को पूरी ईमानदारी से पेट भरकर गालियां पड़ी.. भला एक 90 साल की बुजुर्ग के साथ कोई ऐसा करता है?..और लड़का सबको समझा समझाकर थक चुका था.. पर एक लड़के की बात पर कौन यकीन करे..?
अब मैं ये सोच रही थी कि आज की मेरे साथ हुई घटना को कैसे तोड़ मरोड़ के पेश करेगी अम्मा जी..
"कि बामणी की ब्वारी ने कैसे एक 90 साल की बुजुर्ग महिला पर अपनी बेलगाम स्कूटी चढ़ानी चाही".. वैसे सोचती हूँ अम्मा जी को पत्रकार होना चाहिए था..किसी कहानी को भड़काऊ बनाकर पेश करना तो पत्रकार ही जानते है या फिर.. अम्मा जी से भी पूछ सकते है..

ख़ैर मैंने स्कूटी स्टार्ट कर अपने घर की तरफ मोड़ दी..
Lockdown में मैं जरूरी काम से घर बाहर निकली थी .. पर मज़ाल मैंने किसी को अपने या अपनी स्कूटी से टच भी कराया हो.. तो डर की कोई बात नही थी इसलिए मैंने मुह हाथ धोकर घर के अंदर जाना बेहतर समझा..
मुह धोते वक्त शीशे में खुद को देखा तो अपने चेहरे के ऊपर वो बालों का उजड़ा हुआ घोसला नज़र आया..
अम्मा जी ने इतना सारा आशीर्वाद जो सिर पर छोड़ दिया था.. पर फिर मुझे ध्यान आया ना जाने अम्मा ने कितनो को ये आशीर्वाद बांटा होगा। कहीं आशीर्वाद के साथ कोरोना के कीड़े तो नहीं छोड़ दिये मेरे सिर पर...अब मैं खुद को संदिग्ध लगने लगी थी.. पर फिर मैंने खुद को दिलासा दिया नहीं आशीर्वाद में क्या मिलावट हो सकती है.. और फिर महादेव हैं ना.. अपने डर का थैला महादेव को पकड़ाकर..बेख़ौफ़ लपरवाह होते हुए मैं घर के अंदर चली गयी..
मांजी बरामदे में लगे सोफ़े पर बैठी थी..और हमेशा की तरह जया किशोरी जी की कथा सुन रही थी.. अपने फ़ोन पर.. lockdown की वजह से घर पर बैठे-बैठे तंग आ गयी थी। कहीं घूमना भी नही हो रहा था, तो उनका ध्यान सारा अब हम बहुओं पर आ टिका था.. मेरी जेठानी जो हर काम मे निपुर्ण और सहनशील, समर्पण भावना रखने वाली उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं हुई.. पर मैं जो निहायती कामचोर और हर काम मे गलती करने वाली..मानो घर की सारी चीजें लायी ही इसलिए गयी हो... मुझसे टूटने के लिए.. आये दिन कुछ न कुछ टूट-फुट हो जाती थी। कभी मैं गिर रही थी, कभी मुझसे समान..और झूठ जो मेरे गले से बाहर ही नहीं निकल पाता.. बस इन सब गलतियों से बचने के लिए भी मैंने माजी को फ़ोन चलाना सीखा दिया था। अब वो सुबह 5 बजे से दिन भर यूट्यूब पर जया किशोरी जी की भजन कथाएं लगाकर रखती थी..सुबह तो कभी कभी ख़्याल आता था की इसमें भी अपना ही नुकसान हुआ है.... पर इसमें एक बात अच्छी थी सुबह सुबह भजन सुनकर अच्छा लगता है..

अंदर आते ही मैंने अभी फिलहाल हुई बात मांजी को बता दी..ताकि उनको भी कोई गलतफहमी ना हो..
"तू चिंता मत कर.. ये उनकी आदत है..बुरा नहीं मानते उनकी बातों का"..
मै भी ठीक है कहकर चाय बनाने चली गयी..
अभी आधी चाय बनी भी नही थी कि गेट खटखटाने की आवाज हुई..
बाहर जाकर देखा तो अम्मा जी गेट पर खड़ी थी..
अभी मैं असमंजस में थी कि उनको क्या कहें.. lockdown में लोग इधर उधर किसी के घर भी नही जा रहे थे , lockdown तो था ही पर बिमेरी भी तो है..पर सोचने वाली बात ये भी थी कि अम्मा की उम्र तो 90 हो चुकी थी। उन्हें तो ज्यादा खतरा था.. फिर उनके घरवाले इतने बेफ़िक्र से क्यों थे.. क्यों उनको कहीं आने जाने से मना नहीं कर रहे है? इस बीमारी के बारे में क्यों नहीं बता रहे है.. वैसे सच बात तो ये है कि बुज़ुर्गों से कुछ अपने मन की करवाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है.. उन्हें चाहे कह कुछ भी दो, करते अपने मन की ही हैं और बीच का रास्ता निकालने में पारंगत.. अव्वल दर्जे की कला में निपुर्ण.. कोई मतलब की बात हो या फिर चुगली सुनना या करना या फिर कोई पैसों का लेनदेन...तो उनकी श्रवण शक्ति चरम सीमा पर होती है। ये समझ लो उस समय वो पराश्रव्य ध्वनियां भी सुन लें.. और कहीं दूर किसी की बहू-बेटी घर से बाहर क्या कदम रखें तो इनकी देखने की क्षमता किसी दूरदर्शी से भी उच्च हो जाये.. वरना नॉर्मली तो इनको दिखाई और सुनाई कम ही देता है.. वैसे सोचती हूँ ये सुपर शक्ति इन्होंने जप तप करके हासिल की है या इस उम्र में आकर भगवानजी सबको फ्री में बांट देते हैं..किसी घर का आता पता या जानकारी इनसे पूछ सकते है। किसके घर क्या खिचड़ी पक रही है, सारी ख़ुफ़िया जानकारी इनको पता रहती है.. और पैदल गांव में घूमने के तो क्या कहने.. इनका बस चले और अगर शरीर साथ दे तो ये पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा आऐं.. अब इनको घर मे बिठाना नामुमकिन ही समझो.. पर हां गांव के आधे से ज्यादा बुज़ुर्गो को जब ये समझाया गया कि बुजुर्गों को ज्यादा खतरा है! अगर बीमारी लग गयी तो बुजुर्ग जल्दी निपट जाएंगे.. और दवाई भी कुछ नही है इसकी.. अब मरने के ख़ौफ़ से गांव के कुछ समझदार बुजुर्ग तो सुन्न घर पर बैठ गए। पर अभी भी कुछ बहादुर बाकी थे। जिन्हें घर पर रोकना कोई मामूली बात नहीं थी..जैसे हमारी अम्मा जी..
ख़ैर मैंने गेट खोला तो अम्मा अंदर आ गयी।
अम्माजी प्रणाम! मैंने पैरों को छूते हुए कहा.
सौभाग्यवती भव!..कहकर उन्होंने फिर से दोनों हाथों को मेरे सर पर फिरा दिया..
मुझे थोड़ी झुंझलाहट हुई..पर आशीर्वाद सुनकर ख़ुश थी..
जीते रहो.. खूब बड़े हो जाओ..खूब नाम कमाओ.. सदा सुहागन रहो.. सौभाग्यवती भव..चिंरजीवी हो.. हमेशा खुश रहो..अच्छा वर मिले..ये वेराइटियाँ है, आशीर्वाद की। बच्चे,बड़े, लड़का, लड़की सबके हिसाब से अलग-अलग अम्मा सबको बांटती रहती है.. पता नही! ऐसा कहते हुए सर पर हाथ रख देने से सच में ये असर करते हैं या नहीं.. पर सुनकर ख़ुशी सी मिलती है..और मन यकीन करने लगता है, इसपर...
पर यकीन क्यों ना हो..और क्योँ ना हो असर इन हाथों में.. इन झुर्रियां पड़ते हाथों ने 90 साल तप जो किया है..
हां!.. तप ही तो है "ज़िन्दगी"!... कितने उतार-चढ़ाव के साथ, ज़िन्दगी के जन्म से लेकर, ज़िन्दगी के अंत के दृश्य को पार कर..कभी ऊष्ण, कभी शीत, दुख-दर्द के हर पड़ाव को पार कर, जीवन के इतने बसन्त ज़िन्दगी को ढलते हुए देखकर..यहाँ तक पहुचना कहां सरल होता है..
कितनों का समय साथ नहीं देता.. कितनों का शरीर साथ नहीं देता, और कितने खुद हार मान जाते हैं, ज़िन्दगी से.. ये हर किसी के बस की बात नहीं.. सोचती हूँ कुछ तो असर होगा ही इन शब्दों में भी..

"अम्माजी आजकल इधर उधर मत घुमा करो"..'मैने कहा'
"हैं"..!???'अम्मा अनसुना कर इधर उधर देखने' लगी...अम्मा मानो अब भी अंजान बनी हुई थी..
"अरे यार! अम्मा का ये "हैं" खत्म नहीं होता"..मैंने मन ही मन कहा.. फिर मैंने उनसे अंदर आने को कहा..
सास औऱ अम्मा जी बैठकर बातें करने लगी..
मैने दोनों को चाय लाकर दी, जो मैं पहले से बना रही थी.. चाय गर्म थी तो टेबल पर रखकर मै भी वहीं बैठ गयी..
अम्माजी ने आते ही सड़क वाली घटना मांजी को सुनाने लग गयी.. और मेरी उम्मीद से बढ़कर अम्माजी ने कहानी में थोड़ा मिर्च मसाले ज्यादा डाल दिये थे..
खैर मांजी ने अम्माजी से मुझे नादान समझकर माफ कर देने को कहा..तो अम्मा जी भी इससे सहमत हो गयी..
इस उम्र में उनसे कुछ बहस या सही गलत का फैसला करना शायद सही नहीं था या फिर उनको ये समझना कि घटना किस तरह थी.. क्योंकि बातों को सोचने समझने की शक्ति इतनी रहती भी कहा है.. उन्हें जो दिखता है मन बस उसी पर यकीन करता है और हठ जैसे बच्चों को कुछ समझाना मुश्किल होता है वैसे है बुजुर्गों को भी.. पर हर इंसान भी एक जैसा नहीं होता.. पर अम्माजी ऐसे ही थीं..
फिर मेरी सास अम्मा को समझा रही थी, कि आजकल इधर उधर बाहर ना जाये..
"आँ....आजकल सब्बू तैं छिकलु लगयां छन.. कुजाणु कौण सी बिमेरी ऐगेयी"... अम्मा ने आश्चर्य से कहा..
अभी इतना सुनना था कि मेरे हंसी छूट गयी.. जोर से हसने के कारण अम्मा मुझे घूर घूर कर देख रही थी..गुस्से से तरेरती आँखे..मानो अभी मेरे बाल नोच डालें... असल में अम्मा कह रही थी कि आजकल सब लोगो के मास्क लगे है..जिसे वो "छिकले" कहकर संबोधित कर रहीं थी.. खेत जोतते समय बैलों के मुँह पर लगाया जाता है, जिससे बैल घास ना खा सकें..हां एक तरह से मास्क ही कह सकते हैं, पर इंसानों के लिए तो मास्क ही कहेंगे ना.. मैं हंसी रोक ही नहीं पाई..
इधर अम्मा ने मुझे घूरते हुए चाय का ग्लास उठाया..वैसे बता दूं वो ग्लास में ही चाय पीती है कप में चाय देने से तो वो और भी गुस्सा हो जाती हैं..अभी चाय का एक घूंट लगाया ही था..
"ज़िलकू झमडयालु"..अम्मा ने मुझे गुस्से से देखते हुए फिर कहा..किट्ट मिठु..
मुझे तो उनका गुस्सा देख हंसी नहीं रुक रही थी..वो बुरा ना मान जाए इसलिए किसी तरह हंसी रोककर, उठकर मैं अपने कमरे में आ गयी..पर हंस हंस के मेरे पेट में दर्द होने लगा था..वो गढ़वाली में मेरे बाल खिंचने को बोल रही थी.. क्योंकि चाय बहुत मीठी बनी थी.. उन्हें सुगर है ना!?..पर जब उनका मन नही होता मीठी चाय पीने का उन्हें याद तब ही आता है..वरना तो मिठे से उन्हें कोई परहेज नही है..ऊपर से मेरे हँसने की वजह से मुझपर गुस्सा भी हो गयी थी..
पता नहीं ये उनकी गढ़वाली भाषा का कमाल था, या फिर उनकी मासूमियत में कहे गए शब्दों का.. मुझे उस डांट का बुरा नहीं लगा.. वरना कोई बाल खींचने की बात कहे और ये बात इतनी सामान्य हो..? सम्भव ही नहीं है..
माजी ने समझा बुझा कर उन्हें घर तो भेज दिया था पर वो मानने वाली नहीं थी..उनके घरवालों से भी बात की तो उन्होंने कहा वो मान नहीं रही है.. फिर उनके बगल में रहने वाले बुजुर्ग जो रिटायर्ड फौजी थे, रिश्ते में अम्मा जी के देवर लगते थे। वो भी बेख़ौफ घूम रहे थे। उनकी उम्र भी अम्मा के जितनी होगी..उनकी देखादेखी में अम्मा भी नहीं मान रही थी..
थोड़ा बचपना, थोड़ा हट पन, थोड़ा चिड़चिड़ापन, और मासूमियत भी बच्चों वाली, आ ही जाती है स्वभाव में.. इस उम्र में आते आते..
अभी कुछ दिन से अम्माजी दिखाई नहीं दी थी ।
मैंने सोचा चलो समझ गयी होंगी..पर उनके गांव में घूमने से रौनक सी रहती थी..

सोमवार का दिन था। मैं जल चढ़ाने मंदिर जा रही थी। रास्ते में अहसास हुआ कोई दो नज़रें मेरे साथ साथ चल रही हैं..
मैंने नजरें घुमाई तो देखा गोल-गोल बड़ी-बड़ी दो आंखे.. गेट के अंदर से मुझे ही देख रही थी..ओह्ह! ये तो अम्माजी हैं.. अब वो भले ही घर के बाहर ना हों पर नज़रें तो जा ही सकती है ना ..?
मैंने दूर से ही उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने हाथ हिलाकर.. खुश रहो! कहते हुए चेहरे पर एक मुस्कान दी..
मैंने गौर से देखा गेट पर ताला लगा था.. और उसके अंदर से झांकता हुआ अम्माजी का चेहरा...मैं बस उन्हें देखती ही रह गयी..
आज उन्हें देखकर थोड़ा अजीब सा लगा..मानो मुस्कान कुछ अधूरी सी थी.. इधर उधर तकती आंखे जो काफ़ी कुछ कहना चाह रही थी..फिर भी मुस्कान जो सब ठीक है कहकर भाव दबाना चाहती थी..वो गुस्से से भरा मासूम चेहरा.. वो निश्छल सी मुस्कान, जो हर बार हुआ करती थी। जो शायद पूरी ज़िंदगी के सफ़र को बयां करती थी.. आज उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था मानों कुछ बाकी रह गया था..कुछ अधूरा सा...

.........क्रमशः

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