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परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 3

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज 3

महाराजजी बोले- एक दिन मैं डॉक्टर के0 के0 शर्मा के यहाँ पहुँचा ही था कि अचानक मुझे दोनों आँखों से दिखना बन्द होगया -‘‘ नैना एक पल को तूं खुल जइयो।’’...... और यह प्रसंग सोचने लगा जब राम जी अपने चारों भाइयों के साथ वशिष्टजी के यहाँ से अघ्ययन करके अयोध्या लौटकर आये उस दिन एक दृष्टिहीन व्यक्ति गारहा था-‘‘नैना एक पल को तूं खुल जइयो।’’ यह प्रसंग सोचकर जैसे ही निवृत हुआ कि मुझे दोनों आँखों से दिखाई देने लगा। यह कहकर महाराजजी गुरु की महिमा गुनगुना रहे थे-

ये तन बिष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,

शीश दिये जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।।

आजकल महाराज जी प्रतिदिन साय 5ः30 बजे से टी0वी0 पर श्रीकृष्ण एवं साईबाबा सीरियल नियमित रुप से देखते थे। कभी-कभी दृश्य देखकर रो उठते थे। मैं भी यथा समय पहुँच जाता था। यदि कभी लेट होगया तो इससे उन्हें देखने में डिस्टर्व होता था , यह बात उन्हें पसन्द नहीं थी। इसके लिये वे डॉट भी दिया करते थे।

एक दिन साईबाबा का सीरियल चल रहा था। उसी समय मेरे मोवाइल की घन्टी बजी। इससे महाराज जी को सीरियल देखने में डिस्टर्व हुआ। महाराज जी बोले-‘‘यहाँ प्रवेश करते समय अपना मोवाइल बन्द कर दिया करें। लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर था, आज भी बैसा ही हूँ।

शनिवार एवं रविवार को ये सीरियल नहीं आते थे। मेरा जाना अक्सर लगा रहता था। इन दिनों महाराजजी मस्ती में बैठकर साधकों से बातें करते रहते थे। जैसे ही मैं पहुँचा कि महाराजजी ने कहना शुरु किया-‘ मैं मेेहदीपुर बालाजी धाम में एक मन्दिर में ठहरा था। किसी ने आकर बतलाया-‘अमुक गाँव के भगत जी नहीं रहे। सभी उनके दर्शन करने के लिये जारहे हैं। आप नहीं चलोगे?’’ उसकी बात सुनकर मैं भी उनके साथ ही चल पड़ा। वहाँ बहुत भीड़ थी। कुछ नागा बाबा धूनी जमाये बैठे थे। मैं भी उस धूनी पर जा बैठा।

दूसरे दिन दो नागाबाबा तलासते हुये जहाँ ये ठहरे थे वहाँ आगये।.......और बोले-‘‘ बोलों तुम्हें क्या चाहिये? पत्नी, बच्चे या धन तुम्हें जो चाहिये सो कहो?’’

मैंने उनसे कहा-‘‘ मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं है।यदि मुझे कुछ चाहिये तो वह है भगवान की कृपा।’’

तीसरे दिन वे बाबा मुझे एक वैधजी के औषधालय पर मिल गये। वहाँ भी उनका वही प्रश्न था। ...और मेरा उत्तर भी वही था। उत्तर सुनकर वैधजी सिर ठोक कर रह गये कि ये बाबा लोग मुझ से क्यों नहीं पूछ लेते।

एक दिन मैं भेाजन बना रहा था कि ये दोनों बाबा उसी समय आगये ।मैंने उनसे भी भेजन के लिये आग्रह किया।

भेाजनोपराँन्त मैंने कहा-‘‘मुझ पर आपका यह ऋण था जो प्रभू की कृपा से आज उतर गया। उनका प्रश्न था -‘‘कैसे?’’

मैंने कहा कि याद करो, आप एक-डेढ़ वर्ष पूर्व मिले थे ,उस समय मैं पान की दुकान पर खड़ा था। आपने भोजन करने की इच्छा जाहिर की थी। मैंने कहा था-‘‘ होटल में खिला देता हूँ।’’

आप बोले-‘‘ हम घर में बैठ कर भेाजन पाते हैं।’’ आज वही उधारी चुकता कर लीजिये। यों उन्होंने भेाजन पाया और चले गये।

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महाराजजी कहते रहते हैं- किसी बात में दृढ निश्चय हो फिर हर काम के लिये समय निकल आता है। अतः समय किसी काम में अवरोधक नहीं बनता।

एक दिन मैंने महाराजजी से प्रश्न किया-‘‘ गुरुदेव , सुना है आपने किसी संत की आज्ञा से इस क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया है। वह प्रसंग सुनने की इच्छा है।’’

प्रश्न सुनकर महाराजजी बोले-‘‘रामेश्वरधाम में एक बाबाजी रहते थे। यह स्थान हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर स्थित है। सभी लेाग उन्हे रामेश्वर दास बाबा के नाम से जानते थे। उस धाम का निर्माण भी उन्होंने ही कराया था। दोनों प्रदेश की सरकारों ने अपने-अपने क्षेत्र में अलग-अलग सड़कें बनवा दी हैं वहाँ बिजली भी पहुँच गई है।

मैं वहाँ काफी समय से ही जाता रहता था। उन दिनों वहाँ एक किस्सा चर्चा में था- एक ट्रक आश्रम के लिये माल लेकर आरहा था जो नदी में फस गया। उस ट्रक बाले ने उसे निकलवाने के लिये बाबाजी को टेर लगाई। बाबाने आकर उसे निकलवा दिया। जब वह ट्रक वाला आश्रम में पहुँचा तो वे बाबाजी वहाँ पहले से ही मौजूद थे। उसने वहाँ के लोगों से पूछा-‘‘ बाबाजी अभी ही आये होगे।’’

वह बोला-‘‘ नहीं बाबाजी सुवह से यहीं हैं। वे कहीं नहीं गये।’’

भैयाजी, उनके ऐसे अनेक चमत्कार इस क्षेत्र में बिखरे हुये है। यदि कोई मन्दिर में चुपचाप कुछ चढ़ा आता है तो बाबाजी को पता लग जाता है। वे उसी वक्त उसे बुलाकर कह देते हैं कि जा अपनी चढ़ोती बापस लेआ। उसे वह पैसे बापस लेना ही पड़ते हैं। ऐसे उनके अनेक किस्से उस क्षेत्र में फैले हुये हैं।

ऐसे ही एक और संत की सकूँगी स्मृति आगई है-मेरे पिताजी गार्ड थे। जोरावर नगर में नदी पार करके एक दम वीराने में वहीं एक सूखा नाला था। उस नाले के किनारे पर दिगम्बर बेश में एक संत पड़े रहते थे। उनका नाम था- संत बाबूराव जी। लोग उन्हें दादाजी कहकर सम्बोधित करते थे। एक बार मेरे पिताजी उनके पास आम्ररस लेकर गये। वे बोले-‘‘ इसे मेरे सिर पर डाल दो।’’ मेरे पिताजी ने आज्ञा मानकर बैसा ही किया।

वे मिट्टी, आक, धतूरा आदि खाया करते थे। इसीसे उनका पेट बढ़ गया था। जोरावर नगर में उनके एक भक्त थे, वे माह में एक बार पूर्णिमा के दिन उन्हें अपने घर ले जाते थे। उन्हें नहलाते,विधिवत पूजन आदि करके उनके त्रिपुन्ड लगाते थे। नये घोती -कुरता पहनाते। लौटते समय उन बस्त्रों को चिन्दी-चिन्दी करके फाड़ते जाते थे और चलते जाते थे।

एक दिन मेरी बुआ जी कस्तूरी देवी अपनी बेटी विद्या के साथ उनके दर्शन करने गईं। विद्या जीजी अपने साथ में एक रुई का तकिया भी ले गईं थी। वह जाकर उसे उन्हें देते हुये बोलीं-‘‘इसका हमारी मामीजी के लिये भैया बनादो।’’

दूसरे दिन जब सब लोग गये तो देखा तकिये की रुई के कण वहाँ हवा में उड़ने लग रहे थे।

मैंने महाराजजी से पूछा-‘‘ उन्होंने ऐसा क्यों किया?’’

वे बोले-‘‘ मुझे लगता है, उन्होंने प्रारभ्ध को चिन्दी-चिन्दी करके बिख्ेारा होगा। ऐसा किये बिना मेरा जन्म कैसे होता!’’

जब-जब महाराजजी मौज में हो ते तो संतों के नये-नये किस्से सुनाने लगते। इसी क्रम में महाराजजी ने एक यह किस्सा भी सुनाया- गुरुदेव विष्णूतीर्थ जी के एक ब्रह्मचारी थे। वे बड़े अक्खड़ स्वभाव के थे। एक दिन उन्हें गंगा पार जाना था। उस दिन गंगाजी चढ़ीं थी। नाविक ने पार कराने की मना करदी। उससे फिर भी निवेदन किया। वह बोला-‘‘ इतनी जल्दी है तो इसमें कूद जाओ और तैर कर पार करलो।’’

यह सुनकर वे मन ही मन कहने लगे कि पुरानी कहावत है -

गंगा जी को नाहवो और विप्रन सों व्यवहार ,

डूब गये तो पार हैं, पार गये तो पार।

यह सोचकर उन्होंने गंगाजी में छलांग लगा दी। वे बीच धार में जाकर थक गये। सोचने लगे- मैया तूं तो सबको पार लगाने वाली है। अगर तेरी ही शरण में आकर कोई डूब जायेगा तो फिर अन्यत्र कोई कैसे पार होगा। फिर उन्हें होश नहीं रहा। जाने कैसे किनारे पर पहुँच गये। होश आया तो देखा शरीर दिगंवर बना हुआ था। उनकी लुंगी गंगाजी में बह गई थी। एक पशु चराने वाले से फेंटा माँग लिया। उसे कमर में लपेटा और आगे बढ़ते गये। ऐसे मस्तराम थे वे ब्रह्मचारीजी। उनका नाम था रामप्रकाश ब्रह्मचारी।

इसके बाद कुछ क्षणों तक महाराजजी चुप बने रहे फिर बोले-‘‘ ग्वालियर में फूटी कोठरी में एक नग्न संत पड़े रहते थे। वे उसी कोठरी में ही शौच आदि कर लेते थे। मेरे पिताजी मुझे उनके पास लेकर गये थे। उस समय मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह बर्ष की थी। पिताजी ने मेरे सामने उनका कमरा साफ किया था। उनके महानारायण तेल की मालिस की। मुझे याद है जब उनका देहावसान हुआ तो नगर में उनकी सवारी निकाली गई थी। यों मुझे पग-पग पर संतों की छत्रछाया मिलती रही है।

दिनांक 07-12-08 को जब में आश्रम पर पहुँचा महाराजजी चौक में बैठे धूप ले रहे थे। मैं सास्टांग प्रणाम करके उनके पास बैठ गया। महाराजजी बोले-‘‘ आज एक बड़ी बिचित्र घटना घटी। एक मोटा-ताजा व्यक्ति गेट के अन्दर आगया। एक घन्टे तक इधर-उधर की बातें करता रहा। फिर मुझ से उधार माँगने लगा। मैं उसके पिता एवं स्वयम् उसके भी आचरण से परिचित हूँ । जिससे जो उधार मिल जाये फिर उसे वह वापस नहीं करता। मैंने सोचा उधार देने वालों ने इनके आचरण बिगाड़े हैं। ये काम-धाम करते नहीं हैं। पूरे आलसी राम हैं। यह सोचकर मैंने उधार देने की मना करदी। वह बोला-‘‘ तो आप चार-पाँच सौ रुपये भी नहीं दे सकते। ’’

मैंने कह दिया-‘‘ पचास पैसे भी नहीं’’ यह सुनकर वह चला गया। मैं भी वहाँ बैठा-बैठा सोचने लगा-‘‘ क्या पता किस मजबूरी में वह यहाँ माँगने आया होगा। महाराज तो पूरे निर्दयी हैं।’’

यही सोच रहा था कि एक इन्टर मैंथ्स में पढ़

ने वाली लड़की का आना हुआ। उसे देखते ही महाराजजी बोले-‘‘ तुम्हारी तो मैं कल से ही प्रतिक्षा कर रहा हूँ। क्या टयूसन पर नहीं गई?’’

उसने उत्तर दिया-‘‘ गई थी। किन्तु मैं कल नहीं आपाई, आज आई हूँ। ’’यह सुनकर महाराजजी उठे और अपने कक्ष में चले गये। जब लौटकर आये अपने हाथ में दो सौ पचास रुपये लिये थे। आकर उन्होंने उन रुपयों को उस लड़की को दे दिये और बोले - ‘‘आज ही अपने टयूसन वाले सर की फीस दे देना।’’

वह बोली-‘‘ गुरूजी , आज तो उनके यहाँ नहीं जऊँगी। कल जाकर दे दूँगी।’’ यह कहकर वह लड़की पैसे लेकर चली गई।

महाराजजी स्वयम् ही पुनः बोले-‘‘तिवाड़ीजी, इस लड़की की फीस वाली बात किसी से नहीं कहना।’’

मैंने उत्तर दिया-‘‘ गुरूदेव क्षमा करें। एक ही समय में दो अलग-अलग घटनायें ,यह बात जीवन में लिखना ही पड़ेगी।’’

यह सुनकर वे बोले-‘‘ तुम लेखकों की यही बातें अच्छी नहीं लगती। साधना में जो बातें छिपाकर रखना चाहिये , उन्हें तुम लोग उजागर करके मानते हो।’’

शायद इस लेखकीय आदत के कारण ही गुरुदेव ने मुझे अपने साधना कक्ष में जाने से रोक दिया है। करीब दो बर्ष से गुरूदेव के साधना कक्ष में नहीं गया हूँ। याद हो आती है दो बर्ष पहले की जब में साधना कक्ष में अन्तिम बार गया था।

मेरी पीठ में दर्द रहता है। बिना टिके देर तक बैठना असहय होजाता है। साधना में बिना सहारे के बैठना चाहिये। मैं ऐसा नहीं कर पाता। उस दिन साधना करने के लिये ही उस कक्ष में गया था। जाते ही टिकने के लिये हाल के मध्य में बने पिलर का सहारा लिया। संयोग से उस पिलर के पास माँजी का आसन रखा था। मैंने उसे वहाँ से एक ओर को खिसका दिया और वहाँ अपना आसन जमाकर बैठ गया। जब साधन से उठा तो माँजी का आसन यथा स्थान सरका कर बाहर चला आया।

दूसरे दिन जब मैं साधना करने गुरुनिकेतन पहुँचा। गुरुदेव ने आदेश जारी कर दिया- ‘‘अब तुम कभी साधना कक्ष में नहीं जाओगे।’’यह सुनकर मैं प्रश्न भरी निगाह से उनके मुँह की ओर देखने लगा । गुरुदेव ही पुनः बोले-‘‘ कल तुमने माँजी के आसन का उपयोग किया था।’’ मैंने उत्तर दिया-‘‘ नहीं गुरुदेव , मेरे पास अपना आसन था। साधना में कभी किसी दूसरे के आसन का उपयोग नहीं करना चाहिये। यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। ऐसी भूल तीन काल में नहीं कर सकता।’’ यह सुनकर वे चुप रह गये थे। उस दिन से मैं कभी उस कक्ष में नहीं गया।

अब इस बारे में तरह-तरह से सोचता रहता हूँ- घर में बारह-पन्द्रह बर्ष से परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा के नाम से ध्यान का कार्यक्रम चलता आरहा है। गुरुदेव भी उन संत में सम्पूर्ण आस्था रखते हैं। दीक्षा के बाद एक दिन गुरुदेव ने कहा-‘‘ तुम्हें अन्य अदीक्षित पात्रों के साथ वहाँ साधना में नहीं बैठना चाहिये।’’ यह सुनकर मैं धर्म संकट में पड़ गया। इसका अर्थ निकाला- घर में चल रहे सत्संग को बन्द कर देना। उन साथी पात्रों के साथ यह अन्याय होगा। यह सोचकर मैंने निवेदन किया-‘‘ गुरुदेव , क्षमा करें। मैं उन साधकों से मना नहीं कर पाउँगा। यह भी सम्भव नहीं है कि वे घर में आकर साधना करें और मैं उनके साथ साधना में नहीं बैठूँ । गुरुदेव, इसके बदले आप जो दन्ड़ देंगे , मुझे स्वीकार है। सम्भव है गुरुदेव इस कारण भी मुझे साधना कक्ष में जाने की अनुमति नहीं दे रहे हों। उनकी वे जानें, जिसमें मेरा हित होगा वे वही कर रहे होंगे। माँजी का आसन अपने स्थान से हटाना भी कोई छोटा अपराध नहीं है। अज्ञानताबस भूल तो हो ही गई है । जिसका प्रयश्चित पता नहीं कितने जन्मों तक करना पड़ेगा। इसलिये ऐसे स्थलों पर बहुत सोच समझकर चलना चाहिये। दुधारी तलबार है किधर बार हो जाये, यह प्रभू की इच्छा पर ही निर्भर है। इसी सोच में मैं गुरु निकेतन पहुँचा।

एक आदर्श शिष्या

गुरुजी की परमप्रिय शिष्या, दीक्षा के बाद यहाँ बी0एड0 करने के लिये आई हुई थी। उसने गुरूजी की दिन-रात ऐसी सेवा की, कि वेा सेवा का प्रतीक बन गई। जब वह कालेज जाती गुरुजी उसे छोड़ने और लेने जाते। अन्य शिष्यों को उसकी सेबा के उदाहरण देने लगे। जब मैं भी गुरुनिकेतन पहुँचता, वह मेरा ही नहीं, वहाँ आये आगन्तुकों का आदर-सत्कार करती थी। एक सजग अटेण्डर की तरह महाराज की सेबा में खड़ी रहती। उसने लगभग ढाई बर्ष गुरूजी के पास रहकर उनकी सेवा के अतिरिक्त बी0एड0 की पढ़ाई पूरी करली। उसके जाने के बाद गुरूजी उसकी चिन्ता में रहने लगे। यह देखकर मुझे लगता ,गुरूजी कहीं जड़भरत की तरह भटक तो नहीं रहे हैं। लेकिन गुरू शिष्य रूपी पौधे को कैसे सींचते हैं यह भी मुझे प्रत्यक्ष देखने को मिलता रहा। उसके विवाह का अवसर भी आगया। इन दिनों वे बहुत व्यस्त से दिखते थे। अतः उन्हें परेशान करना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। उनकी व्यस्तता देखते ही बनती थी। जो शिष्य गुरु को जिस भाव से भजता है ,गुरु भी शिष्य का उसी भाव से चिन्तन करते हैं। यही बात मुझे उस शिष्या के सम्बन्ध में कहना पड़ रही है। उसके चित्त में गुरुदेव पूरी तरह समा गये हैं। वह अपने व्याह में गुरुदेव को पल-पल याद करती रही। जिसका परिणाम यह निकला कि व्याह कुशलता पूर्वक सम्पन्न हो गया। आज वह सुखी है।

20,1,10 बसन्त पंचमी के अवसर पर गुरुदेव ने अपने जीवन का यह प्रसंग सुनाया- मेहदीपुर श्रीवालाजीधाम से मैं और एक नागा बाबा साथ-साथ चल पड़े। दौसा के निकट सोप स्टोन की पहाड़ीयाँ हैं। उन्हें अंग्रेजी में टेलकम भी कहते हैं। अजबगढ़ में पत्थर की मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं। हम अजबगढ़ सुवह ही पहुँच गये। वहाँ नागा बाबा का परिचित उनका एक भक्त रहता था। उसके घर भेाजन किया। नागा बाबा ने अपनी रामायण की प्रति उसके यहाँ रख दी और कहा-‘‘जब लौटकर आउँगा तब ले लूँगा।’’ हम दोनों सड़क पर आगये। एक चाय वाले की दुकान पर चाय पीने बैठ गये। लोगों की बातचीत से पता चला कि पास में जो भानगढ़ के खण्डरात हैं । किसी जमाने में वहँा एक वैभवशाली नगर था। ऐसी जनश्रुति है , किसी साधू के शाप से वह उलट-पुलट होकर खण्डहर बन गया। अब वहाँ सिवाय खण्डहरों के कुछ भी नहीं है। वहीं एक साधू और बैठा था जो उस नागा बाबा से परिचित था। ऐसे ही बातों- बातों में उन दोनों में तू-तू मैं-मैं हो गई। वह इसकी बात के उत्तर में बोला-‘‘ऐसा है तो चला क्यों नहीं जाता भानगढ़ के खण्डहरों में।’’

मैं पास बैठा उनकी बातें सुन रहा था। मैंने निर्णय किया-हम आज की रात उन खण्डहरों में ही व्यतीत करेंगे। यह सुनकर उपस्थित लोग आपस में बतियाने लगे- ये दोनों सुबह जिन्दा नहीं आने वाले फिर भी लोगों के इस तरह कहने पर भी हम चल पड़े।

शाम के छह बजे हम दोनों खण्डहरों की तरफ चले जारहे थे। चारों तरफ बड़ी-बड़ी बाजरे की फसल खड़ी थी। एक आदमी पगड़ी बाँधे हुये दिखा। वह चिल्लाया-‘‘बाबाजी रास्ता भूल गये हो।’’

यह सुनकर हमने रास्ता बदल लिया। फिर उस आदमी का कहीं पता नहीं चला। हम भानगढ़ के खण्डहरों में पहुँच गये। वहाँ सबसे पहले हमारा स्वागत लगूरों ने किया। शुरु में ही दाहिने हाथ की तरफ एक खण्डहर पड़ा मन्दिर था जिसमें सात-आठ फीट ऊँची एक खड़ी प्रतिमा थी। जिस पर सिन्दूर लगा था। यह भेंरोंनाथ की प्रतिमा थी। मैंने माथा टेका और आगे बढ़ गये। चारों तरफ सूखे पत्ते बिखरे थे। वियावान जगह थी। जहाँ भी पाँव रखते सूखे पत्तों के खड़खडा ने की आवाज आती।

दिन छिपने वाला था इसलिये रुकने के लिये सुरक्षित स्थान की तलाश में आगे बढ़ते जा रहे थे। आखिर में वह रास्ता एक झील के किनारे जाकर बन्द हो गया। उसके एक किनारे पर बहुत बड़ा हरी-हरी दूब बाला मैदान था। दूसरी ओर एक भव्य मन्दिर जिसमें कोई मूर्ति नहीं थी। शेष दो तरफ पहाड़ थे। हम लोग उस दूब में जाकर बैठ गये। उसी समय सात व्यक्ति बहुत बड़ी-बड़ी पगड़ी पहने वहाँ आये। उन्होंने प्रणाम कर कहा-‘‘ महाराज ये आटा और घी लेलो।’’ येंा वे आटा और एक कटोरा घी तथा गुड देकर बोले-‘‘ ऊपर चूल्हा बना है और तवा रखा है। आप भोजन बना लें और प्रसाद पायें।’’ यह कहकर वे चले गये। मुझे स्मरण हो आया कि अजबगढ़ से चलते वक्त मैंने कहा था कि आज तो हम जिन्दों के मेहमान बनेंगे। यही सोचते हुये हम ऊपर मन्दिर में पहुँच गये और अपना डेरा जमा लिया। एक कोठरी में ईधन रखा था। मिटटी का तवा भी वहाँ चूल्हे पर रखा था। टिक्कर बने। गुड घी के साथ प्रेम से खाये। गहन अन्धकार होगया था। मन्दिर के तिबारे में आसन लगाकर लेट गये। बीच-बीच में नागा की टार्च टिमटिमा जाती। मैंने उत्सुकतावस नागा से कहा-‘‘रामजी, सुना है कि जिन्दों की नगरी में अप्सरायें नृत्य करने आती हैं। ’’

मेरा इतना कहना था कि जाने कहाँ से छम-छम की आवाज सुनाई पड़ने लगी। मेरे तो होश ही उड़ गये और मेरे मुँह से निकला-‘‘ ये सब हमें दिखना नहीं चाहिये , वह आवाजें भी आना बन्द हो गई। हम लोग सोने का प्रयास करने लगे। एक झपकी लग गई। रात में नागा बोला-‘‘ मेरे ऊपर से शंकर जी का आभूषण निकल गया।’’

मध्यरात्री के बाद ऐसे लगा जैसे कोई पशु जुवान से वावड़ी में पानी पी रहा है। हम समझ गये इस क्षेत्र में हिंसक पशुओं चीते, शेर इत्यादि का बास है।ै हम चुपचाप लेटे रहे। वह पानी पीकर चला गया। रात भर आराम से सोते रहे। नागा सुबह जल्दी उठता था। वह नहा धोकर अपने जटा सुखा रहा होगा कि साँझ वाले वही सात लोग पुनः आगये और बोले-‘‘लो और सामान लेलो।’’ वे कुछ सामान देकर चलने लगे तो नागा ने बीड़ी माचिस के लिये उनसे कहा। उन्होंने उसी समय बीड़ी माचिस का ढेर लगा दिया। उनमें से एक बोला-‘‘आप लोग यहीं रुकें। नों दुर्गा शुरु होने वाली हैं। किसी चीज की कमी नहीं रहेगी। इसके बाद वे सभी झरने के रास्ते से पहाड़ में चले गये ।हम दोनों बाबड़ी में नहा धोकर अजबगढ़ लौट आये।वहाँ के लोग आश्चर्य से हमें देख रहे थे।

वहाँ से हम सती नारायणी की ओर चल दिये। एक व्यक्ति हमारे पीछे-पीछे चलता आ रहा था। कई किलोमीटर निकल गये। जहाँ से सती नारायणी की पक्की सड़क जाती है वहीं से वह आदमी गायव हो गया। सम्भव है वह हमें ही रास्ता दिखाने आया होगा।

कुछ क्षण रुक कर महाराज जी पुनः बोले-‘‘ इस वृतांत को में आज तक नहीं भूल पाया हूँ। परमहंस संतो के अतिरिक्त ऐसी अज्ञात आत्माओं का भी जाने-अनजाने जीवनभर सहयोग मिलता रहा है।

इस समय मुझे बात याद आ रही है 17-12-08 की। मैं गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी से कुछ इधर-उधर की बातें हुई फिर वे गम्भीर होकर बैठ गये और बोले-‘‘मेरी माँ मेरी गुरु भी थी । वे महान योगी थीं। वे जो बोलतीं ,बहुत सोचकर बोलती थीं। उन्होंने अपनी स्वीकृति से अपने दोनों लड़कों यानी मुझे और गोपाल स्वामी को सन्यास दिला दिया था। जिनमें गोपाल स्वामी तो देवास जैसे आश्रम के प्रमुख रहे।

मैं हरिओम तीर्थ अपने जन्म की कथा जो मैंने अपनी माँ से सुनी है वह सुना चुका हूँ। आज मैं अपनी माँ के ब्रह्मलीन होने की कथा सुना रहा हूँ। एक दिन पहले माँ बोलीं-‘‘आज मेरा प्रारब्ध समाप्त होगया।’’

यह सुनकर मैंने कहा-‘‘माँ आपने मुझे तो सन्यास दिला कर मुक्त कर दिया। अब मेरे से मन हटाकर अपने राम में लगाओ। मैंने तुम्हें अपने से मुक्त कर दिया।’’

माँ का उत्तर था‘-‘‘ठीक है सभी कुछ ठीक होजायेगा।’’ माँ को मेरी ओर से सदैव ही चिन्ता रहती थीं। मेरे प्रति उनका कुछ विशेष लगाव था। यह मेरे ऊपर उनका विशेष अनुग्रह था।

राजू शाम तक कार ले आया। मैं माँ के पास बैठ गया। माँ, राम-राम । माँ, राम-राम । और माँ सबको हाथ जोड़कर कह रहीं थीं राम-राम। आगे चलकर गाजियाबाद से हमने राजू ड्रायवर को लौटा दिया क्योंकि उसी दिन उसके भाई की शादी थी। हम आगे बढ़ते गये और गढ़मुक्तेश्वर पहुँच गये। गढ़मुक्तेश्वर में ही हमारे परिबार के लोग गये हैं। वहीं उनकी अस्थियाँ विसर्जित की गईं हैं। यहाँ गंगा से हमारा पीढ़ियों का नाता है।

माँ का गंगा की रेती में ही अन्तिम संस्कार किया गया। किन्तु दूसरे दिन जब हम अस्थि विर्सजन के लिये वहाँ पहुँचे ,गंगा माँ ने उनकी चिता की जगह को चारो ओर से घेर लिया था। यों माँ जैसी दिव्य आत्मा गंगा में समा गर्इ्रं।

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बात मेहदीपुर श्री वालाजी धाम की हैं । मैंने पितृपक्ष में निमंत्रण करने की इच्छा से पंड़ित जी को तलासा। मेहदीपुर श्री वालाजी धाम के मन्दिर में चाचा- भतीजे दोनों जाप में लगे रहते थे। मैंने उनकी तलास की। पता चला चाचाजी कहीं चले गये हैं। मैं उनके भतीजे से मिला और निमंत्रण स्वीकार करने का निवेदन किया। उन्होंने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। मैंने उनसे पूछा-‘‘कच्चा-पक्का कैसा भोजन करेंगें?’’

वे बोले-‘‘अग्नि को समर्पित करने के वाद भोजन कच्चा कहाँ रहता है?’’ उस दिन से कच्चे-पक्के भोजन के सम्बन्ध में मेरा दृष्टि कोण पुख्ता हो गया है। मेरे पिताजी का भी यही दृष्टि कोण था।

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इस प्रसंग के अगले दिन मैंने गुरुदेव से निवेदन किया-‘‘ गुरुदेव, दिन प्रतिदिन मेरी स्मरण शक्ति क्षीण होती जारही है। मैं सब कुछ भूलता जारहा हूँ। यहाँ तक कि पाँच- पाँच हजार रुपये रखकर भूल जाता हूँ।’’

महाराज जी बोले-‘‘यह ठीक नहीं है फिर तो तुम्हें पागलखाने के डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा।’’

मैंने पुनःनिवेदन किया-‘‘एक बार मैं चलती मोटर साइकिल से गिर गया था। पाँच-छह घन्टे तक बेहोश रहा तभी से यह हालत है।’’

वे बोले-‘‘तुम्हें किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज कराना चाहिये।’’

मैंने कहा-‘‘स्मृति गायब होरही है यह तो अच्छी बात है। प्रभू की जैसी इच्छा!’’

महाराज जी ने मुझे समझाया-‘‘यह गलत है, कहीं तुम अपने में महान संत होने का भ्रम तो नहीं पाल रहे हो।’’

‘‘ नहीं गुरुदेव, मैं अपने अवगुण ही देखता हूँ। मुझे दूसरों के गुण ही दिखाई देते हैं। आपके सम्पर्क में इतना लम्बा समय निकल गया। कभी मेरे मुँह से किसी की बुराई निकली है।’’

गुरुदेव ने परामर्श दिया-‘‘तुम्हारा जो भी सोच हो, किन्तु तुम्हें अपना इलाज कराना चाहिये।’’

दूसरे दिन गुरुदेव ने डॉक्टर के0के0शर्मा के पास फोन किया-‘‘ तिवाड़ीजी को बुलाकर उनकी स्मरण-र्शिक्त का इलाज करो।’’ उस दिन से इलाज ले रहा हूँ किन्तु जैसा का तैसा हूँ। कोई फायदा नहीं हुआ है। निश्चय ही किसी बड़े डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा। लेकिन मैं समझ गया हूँ ,गुरुदेव से बड़ा कोई डॉक्टर नहीं है।

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अगले दिन जब में आश्रम पहुँचा, अन्य दिन की तुलना में गुरुदेव कुछ गम्भीर दिखे। मैं समझ गया- कहीं कुछ चिन्तन चल रहा है। मैं नमो नारायण कहकर उनके सामने बैठ गया। महाराज जी बोले-‘‘ मुझे याद है इस नगर में मैं जिस मकान में रहता था, उसके पड़ोसी ने एक लूसी नामक कुतिया पाल रखी थी। वह कुतिया मुझे इतना प्यार करती थी कि क्या कहूँ? निश्चय ही किसी जन्म में मेरा उससे कोई नाता रहा होगा।

एक दिन की बात है एक साँड द्वार पर आया। मैं उसे चने की दाल खिलाने द्वार पर गया। मैं उसे दाल खिलाकर जैसे ही खड़ा हुआ उसने मेरे टक्कर मारदी। मैं दीवाल से जा टकराया। वह कुछ और आगे बढ़कर टक्कर मारता, उससे पहले लूसी ने चिल्ला-चिल्ला कर तूफान खड़ाकर दिया। साँड पीछे हट गया। यों उस दिन उस लूसी ने मेरे प्राण बचा दिये थे। निश्चय ही किसी जन्म में उससे मेरा कोई घनिष्ट नाता रहा होगा तभी तो वह मेरी रक्षक बनी थी।

इससे अगले दिन जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा ,बात सन्तोष और त्याग की चल रही थी। किसी प्रसंग के बहाने बात गंगा स्नान पर आकर ठहर गइै थी। महाराज जी बोले-‘‘यों तो हजारो लोग रोज गंगा स्नान करते हैं। प्रश्न उठता है ,क्या वे सभी तर जाते हैं? यदि नहीं ,तो कौन सच में गंगा स्नान करता है? इस प्रश्न के उत्तर में मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ। एक दिन शंकर जी ने कोढ़ी का रूप धारण कर लिया। माँ पार्वती उनके निकट बैठ गई। कोई पूछता तो वे कहतीं-‘‘ कोई ऐसा आदमी जिसने एक लाख बार गंगा स्नान किया हो वह इनको स्पर्श करदे तो ये ठीक होजायेंगे।’’ जो बर्षेंंा से गंगा स्नान कर रहे थे वे इनको स्पर्श करके गये किन्तु ये ठीक नहीं हुये। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। एक लाख बार स्नान करने में कई जन्म लग जायेंगे। यों कोई कुछ कहता,कोई कुछ। एक दिन एक युवक गंगा स्नान करके आया। उसने पूछा-‘‘ क्या बात है माँ ?’’

वे बोलीं-‘‘ जिसने एक लाख बार गंगा स्नान किया हो वह इनको छू दे तो ये ठीक होजायेंगे। इसलिये इस स्थान पर इन्हें लाई हूँ। यह मेरे पति हैं।’’

वह बोला-‘‘ मैं इन्हें छूकर देखूं माँ ।’’

वे बोलीं-‘‘‘हाँ , छूकर देख लो।’’

उसने उन्हें छूकर देखा। ये ठीक होगये। देखने वाले बोले-‘‘ सब नाटक है। इस लड़के की उम्र तो केवल बीस -पच्चीस बर्ष ही होगी। इसने एक लाख बार गंगा स्नान कहाँ से कर लिये?’’

तभी प्रगट होकर शंकर जी बोले-‘‘ भैया, मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ। इसका घर गंगा जी से एक किलो मीटर दूर है। जब ये घर से निकलता है तो जय गंगे, हर-हर गंगे कहते हुये निकलता है। इसके प्रत्येक श्वाँस के साथ इसे गंगा स्नान का फल मिलता है। इतनी दूर सच्चे मन से आने-जाने में हर कदम पर हर-हर गंगे की जय बोलने से डुबकी लगती जाती है। इसी कारण मैं ठीक होगया हूँ। ष्

महाराज जी बोले-‘‘‘इसी प्रकार हमारी साधना हर कदम पर होती चले तो हम निश्चय ही लक्ष्य तक पहुँच जायेंगे। इसमें हमें किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिये।’’

यह कह कर महाराज जी गुनगुना ने लगे-

गंगा जी का नहायवो विप्रन सो व्यवहार।

डूव गये तो पार हैं पार गये तो पार।।

यह पन्तियाँ याद आते ही ,मुझे याद आने लगती है राम प्रकाश ब्रह्मचारी जी की ,जो विष्णू तीर्थ जी के शिष्य थे। जिनका अम्बाह का शरीर था। गंगा जी चढ़ी थी। उन्हें पल्ले पार जाना था। उन्होंने नाव वाले से कहा-‘‘ पल्ली तरफ छोड़ दो।’’

नाव वाले ने कहा -‘‘ बहाव बहुत है , अभी नहीं जायेंगे। इतनी जल्दी है तो तैर कर चले जाओ।’’ यह सुनकर तो वे भड़क उठे, फिर क्या था, वे इसी दोहे का स्मरण करते हुये गंगा में कूद पड़े। बीच धार में पहुँच कर थक गये तो सोचने लगे-‘‘ माँ,सभी तेरे नाम से तर जाते हैं। मैं तेरे बीचों बीच आकर डूब जाऊँगा ?’’ यह सोचते ही बेहोशी आगई। आँख खुली तो क्या देखते हैं कि वे किनारे पर पड़े हैं। उनके शरीर पर कोई बस्त्र नहीं हैं। वे उठे और चल दिये। रास्ते में एक गाय चराने वाला मिला उससे उन्होंने साफी माँगी और लपेट ली। आगे जाकर एक स्थान पर प्रसाद ग्रहण किया और आगे की यात्रा करते रहे।

यह कहकर महाराजजी बोले-‘‘‘उनके कहे ,इस वृतान्त को मैं भूल नहीं पा रहा हूँ। इस बहाने मैं गंगा मैया की कृपा का स्मरण भी करता रहता हूँ।

महाराज जी पुनः कहने लगे-‘‘ दिल्ली की बात है। रात्री करीव आठ बजे का समय होगा। मैंने पान की दुकान से एक पान खाने के लिये लिया। मेरे पाँवों के पास बैठी ,एक बुढ़िया, जिसके मुँह में एक भी दाँत नहीं था, मेरे मुँह की तरफ बड़ी ही आत्मियता से देख रही थी। उसके रंग रुप से पता चलता था कि कभी वह अत्यन्त सुन्दर रही होगी। इस समय उसकी आयु सत्तर वर्ष से कम नहीं दिखती थी।मैंने पूछा-‘‘पान खाओगीं।’’ स्वीकारोक्ति में उसने सिर हिला दिया

पान वाला बोला-‘‘ साहब ये तो पागल औरत है।’’

मैंने अनसुना कर दिया और कहा-‘‘इसके लिये भी पान लगाओ।’’ उसने दो पान लगायें। मैंने पान खाने से पहले एक पान उस माँ के लिये बढ़ाया। उसने अपना वह पोपला मुँह पान खाने के लिये खोल दिया। मैंने उसे बड़े प्यार से पान खिला दिया।

मैं उस पोपले मुँह को पान खिलाते समय का आनन्द आज तक नहीं भूल पाया हूँ।

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रोज की तरह जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा , गुरुदेव ‘अन्तिम रचना’ पढ़ रहे थे। मुझे देखकर जोर-जोर से पढ़ने लगे। फिर बीच में रुक कर गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज से जुड़े प्रसंग सुनाने लगे-मैंने गुरुदेव के समक्ष पूर्णतः शाँत रहना सीखा है। मैं बहुत ही कम बोलता था। गुरुदेव की बातों को ध्यान से सुनता था। वे किस तरह बात करते हैं ? कैसे दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं , उनकी एक-एक बात ध्यान से देखता रहता था। गुरुदेव कभी कुछ पूछते तो संक्षिप्त उत्तर दे देता था। वे मेरी स्थिति से पूरी तरह अवगत थे।

महाराज जी की मुझ पर अपार कृपा रही है।

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उस दिन की बातें याद आ रही हैं जब महाराजजी स्वस्थ्य नहीं दिख रहे थे। बिस्तर पर पड़े-पड़े ही यह वृतांत सुनाने लगे-‘‘महापुरुषों की कृपा से ही मेरी जीवन भर रक्षा होती रही है। मुझे याद आरहा है ,जब मैं आठ-नौ वर्ष का था रेवाड़ी में सोलाराही नाम का तालाब है। तीन-चार मन्जिल का पक्का बना है। सारी मन्जिलें पानी में डूबी रहती हैं।

एक दिन की बात है , बुआजी के लड़के यानी बड़े भाई साहिब के साथ मैं उसमें नहाने चला गया। मैंने उसमें डुबकी लगाई तो नीचे एक वराण्ड़ा बना था उसमें चला गया। उछला तो ऊपर सिर टकरा गया। मैंने मन ही मन गुरुदेव को याद किया। हे गुरुदेव यह क्या हो रहा है? यहाँ तो गये प्राण।सच मानिये यदि मैं वायीं तरफ चला जाता तो मेरी ल्हाश भी नहीं मिलती। मुझे किसी ने धक्का सा दिया और मैं जल की सतह पर आगया। इस तरह गुरुदेव के स्मरण से मेरे प्राण बच पाये थे।

इस समय ऐसी ही एक घटना और याद आरही है। सन्1963 की है जब मैं नेपाल प्रवास में था। नोतनवा रेल्वे स्टेशन पर उतरा। वहाँ से एक ट्रक में बैठकर उन्तीस किलोमीटर दूर तिनाउ नदी के तट पर जाकर ठहरा।नदी के दोनों तटों पर थेड़ी-थोड़ी बसावट थी।

उस नदी का पाट बहुत चौड़ा था।ऊपर की ओर रस्सी का पुल बना था। वहाँ से जाने पर लगभग चार- पाँच किलो मीटर का चक्कर पड़ता था। उस चक्कर से बचने के लिये मैंने नदी सीधे पार करना चाही। अपना पाजामा कन्धे पर डाल लिया। बैग व चप्पल एक हाथ में पकड़लीं और नदी के पानी में प्रवेश कर गया। आगे चलकर पानी कमर से ऊपर होगया तो पैरों के नीचे की रेत खिसकने लगी। मैं समझ गया अब गये काम से। मैंने अपने आराध्य दादाजी महाराज का स्मरण किया। नदी के उस पार से दो आदमी चिल्लाये-‘‘चिन्ता नहीं करो हम आते हैं। वे झट से मेरे पास आगये और मुझे पकड़ कर निकाल ले गये। यों महापुरुषों की कृपा से इस बार भी जल में से जीवन बच पाया। 00000

अगले दिन जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी गम्भीर से दिखे । जैसे ही मैंने नमो नारायण कहकर प्रणाम किया, महाराज जी बोले-‘‘ बात राजस्थान के दौसा नगर की है।

मैं वहाँ एक नागा बाबा के साथ गया था। वहाँ पहुँच कर पता चला कि नागा बाबा का जन्म स्थान भी यहीं है। उसके पिता ने भिक्षा के लिये अपने घर आमंत्रित किया। साँयकाल हम दोनों एक छोटे से मन्दिर के प्रांगण में पहुँच कर घूमने लगे। मैं घूमते हुये एक ओर चला गया। एकान्त पाकर मन में एक प्रश्न उठा कि क्या पूरा जीवन इसी प्रकार चढ़ते-उतरते ही चला जायेगा। तभी सुषुप्ति में पड़े किसी कौने से किसी ने बड़ी ही आत्मियता के साथ समझाना शुरू किया, देखो वत्स जब तक बालक बहुत छोटा होता है उसकी माता एक क्षण के लिये भी अपनी दृष्टि से दूर नहीं होने देती। ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता जाता है, उसकी आयु बढ़ती जाती है माँ की चिन्ता का समय भी घटता जाता है। जब वही बालक वयस्क होकर कार्यवस चार दिन की कह कर आठ दिन तक घर नहीं आता तो उसकी माता कहती है कि अरे वह समझदार होगया है। वह कोई बच्चा तो है नहीं, व्यर्थ की फिक्र करने की जरुरत नहीं है।

मैं सोचने लगा-ओ हो! तो तुम समझदार होगये हो इसलिये तुम्हारी फिक्र भगवान ने करनी छोड़ दी है। मैंने निश्चय कर लिया कि भाड़ में जाये ऐसी समझदारी। वस अपनी समझ को शिशुवत बना लो सब बखेड़ा ही मिट जायेगा। तभी से मैं निश्चिन्त और सुखी होगया।

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