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परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 2

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज 2

param pujy swami hariom tirth ji maharaj

स्वामी मामा

डबरा

स्वामीजी अकेले कवि ही नहीं वल्कि श्रेष्ठ सटायर लेखक भी रहे हैं। उनकी कहानियाँ एवं सटायर इतने पैने कि आदमी बिषय पर सोचने को मजबूर होजाये।उनके सारे के सारे सटायर व्यवस्था की शल्य क्रिया करने में समर्थ मिलेंगे। नगर में लोग उन्हें कवि रूपमें स्वामी मामा के नाम से जानने लगे थे। मैं उन्हें स्वामीजी कहकर बुलाता रहा। किन्तु जब से मुझे उनका अनुग्रह प्राप्त हुआ है तब से मैं गुरुदेव को महाराज जी कहता हूँ।

‘‘एक बुद्धिजीवी पागल का सफर नामा’’ शीर्षक से पुस्तक के आकार रुप में आपके सटायर संकलित हैं। सम्पूर्ण कृति व्यंय का आनन्द देती है। इसमें आपको कहानी के पढ़ने जैसा आनन्द भी मिलेगा। बानगी के रुप में ये अंश देखें-

दलदल

थाने के सामने तमाशबीनों की अच्छी खासी भीड़ जमा थी। सब बहरे बने एक दूसरे का मुँह जाक रहे थे। कहीं-कहीं खुसुर-पुसुर चल री थी। हर कोई अपने-अपने ढंग से सोचने में लगा था। असलियत का शायद किसी को पता न था। जैसा जिसकी समझ में आता था, पूछने वाले को बता रहा था। एक तबका जरूर कुछ ऐसा था, जो बहुत गमगीन नजर आता था। लगता था, वहाँ के माहैेल से उन्हें बेहद तकलीफ अहसास हो रहा हो। किसी में भी तो इतना साहस न था जो आगे बढ़कर किसी पुलिस वाले से पूछ ले कि भाई माजरा क्या है?.... एक नौजवान ने जरूर कुछ साहस दिखने की गुस्ताखी की थी, मगर दीवान जी के हैवानी झपट्टे ने सारा जोश ही ठन्डा कर दिया। ऊपर से पुरखों की शान में कोरस और सुनने को मिला।

भीड़ में से कुछ संभ्रान्त से दिखने वाले लोग,जो एक ओर खढ़े थे, उनके चेहरों पर बजाय उत्सुकता के कुछ प्रश्न्नता का सा भाव नजर आता था।कीमती कपड़ों में चमकती उनकी सेहत बता रही थी कि वह जरूर किसी सरकारी महकमे से ताल्लुख रखते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता मेरे कदम भी ठीक उन्हीं के करीब पहुँच गये। वे लोग अपनी बातों में इतने खोये हुये थे कि उन्हें अपने इर्द-गिर्द के लोगों की मौजूदगी की अहसास भी शायद नहीं था।

एक अधेड़ सी उम्र का दिखने वाला आदमी जो शायद किसी अफसरी के ओहदे पर नजर आता था, अपने साथ वालों से कुछ इस तरह बतला रहा था, मानों वहाँ जो कुछ भी घट रहा है सब उसी के हुक्म से हो। करीब खड़े साथी ने अपनी मूछों पर ताव देकर कहा-‘अच्छे-अच्छे तीस मारखाँ यहाँ का लोहा मान गये हैं। यह तो था किस खेत की मूली? बच्चू को अब पता चलेगा। सारी अकल ठिकाने आजायेगी। बड़ा मसीहा बना फिरता था गरीबों का।’

वह अपनी बात खत्म भी न कर पाया था कि तीसरा साथी कह उठा-‘ हुजूर इसमें उसका कसूर भी क्या है? जब अधिकारी वर्ग उसके आते ही बराबर में कुर्सी देंगे, तो उसके भाव बढ़ना तो स्वभाविक ही है। लोगों का क्या है, वह तो इस टोह में रहते ही हैं कि गाँठ की कौड़ी भी न जाये और काम भी बन जाये। जैसे ही उन्होंने इसे बगल में बैठे देखा कि आपहुँचे। मिन्ओं में, बगैर किसी हिले हवाले के काम कराया और चलते बने। यह भी नहीं कि दस्तूरी भर तो देते जायें। बाबू की तो भली चलाई, बेचारे चपरासी तक के सलाम की भी कोई कीमत नहीं आँकता।’

तभी अगला साथी बोल उठा-‘ मालिक गुस्ताखी माफ हो तो एक बात कहूँ? आप लोग तो सरकार ठहरे, एक ही केश में बारे न्यारे कर लेते हैं,मरना तो हम बाबुओं का है। अब आप ही सोचें, अकेली तनख्वा से होता भी क्या है? अगर ऊपर की आमदानी न हो तो घर वालों को क्या जहर देदें? जिसे देखो वह सरकारी कर्मचारी के ही पीछे पड़ा है। उनसे कोई कुछ नहीं कहता जो दिन-रात गरीबों का शोषण कर, अपनी तिजोरियाँ भरने लग रहे हैं और ऊपर से समाज सेवी का लेबल लगाये हुये हैं।

उसका वाक्य अभी पूरा भी न होपाया था कि करीब खड़े साथी ने नेतागिरी टाइप लहजे में हाथों को मटकाते हुये, बड़े तरारे से कहा-‘हमसे कौन रियायत करता है? हलवाई से लेकर हज्जाम तक, सभी ने तो अपने उस्तरे पैने कर रखे हैं। अनिवार्य आवश्यकता के नाम पर हमारे बच्चों को मिलता ही क्या है? घी नदारत तो दूध में पानी।ऊपर से यह धौंस कि बाबूजी....हर माह इनसपेक्टर को महिना भर दूध देने के अलावा करारे-करारे नोट देने पड़ते हैं। वह क्या तुम दे दोगे? अगर हमारा दूध पसन्द नहीं है तो कहीं अन्त से ले लो।

इससे बुरा हाल सव्जी मंड़ी वालों का है। कोई सीधे मुँह बात करने को राजी नहीं है। अगर एक सिरे पर लौकी चार रुपये किलो किसी ने कहदी तो पूरी मण्ड़ी का चक्कर लगा आओ सभी के मुँह से चार रुपये किलो ही निकलेगी। मजाल जो कोई एक पैसा कम करदे! अब आप ही बतायें कोई पैसा लिये बगैर किसी का काम करे तो क्यूॅ करे। खुद अपने ही मकहमें के लोगों से काम पड़ जाने पर बिना लिये दिये रुख तक नहीं मिलाते, दीगर की तो कहें क्या? क्या कोरे आदर्श से कभी किसी का पेट भरा है? बगैर पैसे तो शमशान में ल्हास भी ठिकाने नहीं लगती!

तभी अन्दर से फिर शहर कोतबाल की चिघाड़ सुनाई दी-‘‘ क्यूँ एक ही रात में घवड़ा गये? बड़े बुजदिल नजर आते हो! जरा सी तिमारदारी भी पसन्द नहीं आई! असली प्रमाणपत्र तो थाने से ही प्राप्त होता है। बिना पुलिस का आशीर्वाद प्राप्त किये और दस-बीस झूठे-सच्चे मुकदमे लदे भला कौन नेता बन सका है? बीस साल की नौकरी में सैकड़ो नेता और नामी डकैत बना डाले हैं। सुना नहीं फलाँ का नाम? आजकल कितना बोल बाला है उसका। सब इन्हीं हाथों का कमाल है। पहले ,तुम्हारी तरह उसके सिर पर भी आदर्शवाद का भूत सबार था! यहाँ से निकलते ही नेता बन जावोगे, ॅिफर हमारे बीच का फर्क जाता रहेगा। दुनियाँ एकरंगी दिखाई देगी। कहीं पानीदार हुये तो सीधे बीहड़ों की हवा लोगे।फैसला तुम्हारे हाथ है। यह तो जजमान की मर्जी पर है, हम तो दोनों के साथ शुरू में एक ही सलूक करते हैं। यही तो एक मात्र वह जगह है जहाँ आने वाले हर इन्सान को एक ही नजर से देखा जाता है।’’

‘‘नहीं दरोगा साहिब, नहीं! मुझे समझने की कोशिश करो! यह आदर्शवाद नहीं, वक्त का तकाजा है। जो लोग पढ़े-लिखे और समझदार हैं,वे ही अन्जान लोगों को राह न बतलायेंगे तो आने वाली पीढ़ी को सिर्फ भटकओ के अलावा, विरासत में और मिलेगा ही क्या?.....मैं नहीं चाहता कि सियासत में धकेला जाउँ। आज की इस दलदल में मुझे मत फेंको। इसकी सडाँध मेरे अन्तर में छुपी मानवता का दम तोड़ देगी।’’

अब वो शाँत हो गया था।

पहरे पर खड़े संतरी की आँखों से टपके दो आँसू, उसका अभिनन्दनकर रहे थे। कल ही तो उसने अपना खून देकर उसके जवान बेटे की जान बचाई थी। भीड़ में खड़े लोगों की भी आँखें नम होगईं थी।

अगले दिन अखबार की सुर्खियों में लोगों ने पढ़ा-बीहड़ों का दुर्दान्त डकैत पुलिस मुट भेड में मारा गया, बाकी साथी अंधेरे का लाभ उठाकर भागने में सफल। शासन द्धारा विशिष्ट सेवा पुरस्कारों की घोषणा। नगर के गणमान्य व्यक्तियों और विभिन्न संस्थाओं द्धारा अधिकारियों का नागरिक अभिनन्दन।

स्वामी मामा

डबरा

महाराज जी कवि एवं सटायर लेखक ही नहीं वल्कि इस रचना के माध्यम से वे एक लघु कथाकार के रूपमें भी हमारे सामने आते हैं। उनके इस चिन्तन पर एक दृष्टि डाल कर तो देखें-

‘ प्रश्न चिन्ह

मनफूल के बारबार समझाने के पश्चात भी राजू ने एक ही रटन लगा रखी थी। ‘‘बापू मैं स्कूल नहीं जाऊँगा। वह विज्ञान वाले सार फिर मार लगायेंगे। रोज रोज मार खानी पड़ती है। मैं कई बार गिड़गिड़ाकर कह चुका हूँ कि मेरे वापू सरकारी मुलाजिम नहीं हैं। टयूशन का बोझ वह नहीं सह सकते। मगर मेरे कहने का उनपर कुछ भी असर नहीं होता। इनसे तो पहिले वाले सर ही अच्छे थे, जो कम से कम मजबूर तो नहीं करते थे। अब तो पूरी कक्षा के सामने वेइज्जत होना पड़ता है! मुझे जाने के लिये मत कहो,मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। मुझे मत भेजो।’’

तभी राजू का सहपाठी सूरज यह कहते हुये कमरे में घुसा ‘‘अरे ओ राजू! क्या आज भी स्कूल जाने का इरादा नहीं है? कल से तो नगर के सभी स्कूल-काँलेजों में,अनिश्चितकालीन हड़ताल रहेगी। वो गणित वाले सर थे न ,गोस्वामी जी। किसी छात्र ने उनके छुरा घोंप दिया है। वेचारे सिसक भी न सके, उसी वक्त दम तोड़ दिया। कितने भले थे गोस्वामी सर?नाराज होना तो जैसे वे जानते ही न थे। कभी कोई छात्र, कुछ पूछने के लिये उनके घर चला जाता, तो वे अपने बच्चों की तरह प्यार करते थे। कहते थे‘‘भई पढ़ाना, लिखाना तो हमारा फर्ज है।क्या स्कूल, क्या घर? विद्यार्थियों से अलग से पैसा लेना सामाजिक बुराई है। सरकार हमें वेतन देती है। हमें इसी में अपना खर्च सीमित रखना चाहिये। बच्चे पढ़ लिखकर योग्य बने और नाम रोशन करें,अध्यापक के लिये इससे बड़ा गौरव और पुरस्कार हो ही क्या सकता है? फिर अपना देश तो अभी बहुत पिछड़ा है। इसे प्रतिभायें चाहिये।’’

कुछ रुककर वह फिर कहने लगा,‘‘खुले आम नकल के युग में भी कोई कुछ न कर सके तो इसमें दोष किसका है?जब कोई अपनी काँपी में कुछ लिखेगा ही नहीं तो फेल तो होना ही है। कौन नम्बर दे देगा? इसमें शिक्षक का क्या कसूर? फिर गणित के विषय में तो वह दो नम्बर से पास था। किसी ने उसे गुमराह करके भड़का दिया था। कम से कम सर से पूछ तो लेता, मगर कौन कहे। सिर फिरे ने आव देखा न ताव,पेट फाड़कर रख दिया।’’ इतना कह कर वह फफक-फफक कर रो दिया।

सूरज की बात सुनकर मनफूल का मन भी भारी होगया था। उसने हाथ की चिलम अपने बचपन के साथी को थमाते हुये कहा,‘‘देखा दीनू? क्या बुरा वक्त आ गया है। एक अपना जमाना था न खाने की फिक्र थी न सोने की। स्कूल से आकर बस्ता फेंका और चल दिये खेल के मैदान में।खूब मस्ती की छनती थी। टयूशन मरी का तो नाम भी नहीं सुना था। रही छुरे बाजी की बात ?बाप रे बाप, भला इतनी हिम्मत किसमें थी कि जो कोई सर के सामने बोल तक जाये? स्कूल में सर और घर में पिताजी। मारे डर के वैसे ही कपड़े खराब हो जाते थे।याद है न, वह ताल वाली घटना? जब सर ने हमें छलाँग लगाते देखकर कैसी खबर ली थी? घर तक जाकर चर्चा नहीं की। करते भी कैसे? उल्टी डबल मार घलती। आजकल तो लोग,बाग बातबात पर अपने बच्चों की हिमायत लेकर पहुँच जाते हैं, बेशक सारा कसूर उनके लाड़ले का ही क्यों न हो।’’

मनफूल की बातों को सुनकर दीनू ने भी कह दिया,‘‘भैया, अब पहले जैसे मास्टर भी कहाँ रहे हैं? बच्चों के प्रति ममता नाम का तो भाव ही नहीं बचा है। हो भी कैसे? सरकार की शिक्षा नीति और किताबों की तरह मास्टर भी तो रोज रोज बदल जाते हैं। अब तो सभी को अपने अपने फायदे की पड़ी है। बला से देश का भविष्य चौपट होजाये। इक्कीसवीं सदी का नागरिक कैसा होगा? अब तुम्हीं सोच लो!

स्वामी मामा

7.11.86 डबरा

‘नारी नर की खान है ’में नारी की व्यथा कथा का वर्णन है। इस रचना में देखने की बात यह है कि वाक्य विन्यास बहुत लम्वे हैं। जब तक वाक्य पूरा नहीं होगा तब तक हम भावों में बँधे चले जाते हैं।

नारी नर की खान है।

हम में से कौन नहीं जानता कि नारी नर की खान है। नारी माँ है। नारी उत्थान के नाम पर खरबों रुपया आज तक नष्ट करने वाले समाज सुधारकों ने नारी के नाम को जितना उछाला है शायद ही किसी से छुपा हो। कहने के लिये के लिये आज का पुरुष समाज नारी के शिक्षा और विकास के बारे में वढ़ा चढ़ाकर बड़ी-बड़ी बातें करता है। हमारे देश के संविधान में भी नारी के समान अधिकार और उत्थान का बखान किया गया है किन्तु शिक्षित नारियों का प्रतिशत कितना है, फिर उन शिक्षित में से सुखी जीवन कितनों का है अथवा शिक्षित नारियों के जीवन में शिक्षा किस रूप से महत्वपूर्ण सिद्ध हुई, यदि इन बातों का हिसाब लगाकर देखा जाये तो स्थिति अधिक लज्जास्पद हो जाती है।

पुरुष कभी सहन नहीं कर सकता कि नारी कभी उसकी दासता से मुक्त हो जाये। नारी को शिक्षित करने के पीछे भी या तो पुरुष का अपना स्वार्थ रहा है या फिर कुछ असमर्थताऐं जो विवाह के लिये सभ्य कहलाने वाले समाज ने आवश्यक शर्त के रूप में लगादी है ताकी शिक्षित बन्धु चायपार्टीयों और उत्सवों में पुरुषों का साथ दे सके अथवा विवाह के पश्चात वर पक्ष को लाभाँन्वित कर सकें। समाज में कम ही ऐसे परिवार होंगे जहाँ नारी के लिये शिक्षा आदर्श के रूप में स्वीकार करके इसका महत्व आँका गया हो।

धन के अभाव में आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुये जब नारी का विवाह नहीं हो पाता अथवा विलम्व से होता है अथवा पति के दुवर््यवहार के कारण उसे नौकरी करना पड़ती है तब उसका शिक्षित होना उसे जीवित रहने का आधार तो बन जाता है किन्तु जीवित रहने के इस आधिकार के लिये उसे किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है इसका अनुमान तो केवल नारी ही लगा सकती है।

नरी तो जननी है ,आज भी घोड़ेगाड़ी के समान कार्य कर अपना जीवन बिता रही है। इसका जीता जागता उदाहरण देश के उन नगरों और मंडियों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है जहाँ सामान ढोने वाली गाडियों और ठेलों में पशु के स्थान पर महिला और पुरुष उसे खीचते हैं।

स्वाधीनता का जन्मगत अधिकार है तो सिर्फ मनुष्यत्व को ,केवल अमनुश्यत्व को नहीं। जिसमें मनुष्य की भावना नहीं है उसे तो जीने का भी अधिकार नहीं है, स्वतंत्रता तो दूर की बात है।

आज भी अधिकाँश क्षेत्रों में ग्रहस्थी का सारा कार्य, यहाँ तक कि आजीविकोपार्जन से लेकर चौके चूल्हे तक का कार्य नारी ही करती है और पुरुष वैभव भोगता है।

नारी की नारकीय स्थिति का एक और कारण भी है, वह है दहेज जो आज अपने को सभ्य समाज के ठेकेदार मानते हैं और नारी उत्थान तथा दहेज के विरोध में बड़े-बड़े भाषण झाडते हैं । उनके अपने वर्ग में नारी पुरुष के लिये उपदेशक की बस्तु से कुछ अधिक नहीं किन्तु इस व्यवसाय को सभ्य समाज द्वारा अपनाये जाने के कारण कथनी में बुरा और करनी में अनुकरणीय समझा जाता है। विवाह के लिये नारी को आर्थिक तराजू में तोला जाता है। दहेज के अभाव में कितनी ही नारी जन्मपर्यन्त मात्त्व के सुख से वंचित रह जाती हैं। कितनी ही सुन्दर-सुशिक्षित और प्रतिभावान नारी प्रतिभाये ंदहेज के भूखे भेड़ियों के कारण नष्ट- भ्रष्ट कर दी जातीं हैं। नारी की कोख से जन्मेंपुरुष का संविधान ही अलग है। जिसमें नारी के लिये सिवाय यातना-आजीवन दासता-अपमान -तिरस्कार-मानसिक घुटन और इन सब के साथ सहन शीलता का उपदेश। कैसी विडम्वना है!

जहाँ तक इतिहास में दृष्टि जाती है नारी जीवन की इस व्यथापूर्ण गाथा का प्रारम्भ कब से हुआ बस यही प्रतीत होता है कि प्रकृति की इस अनुपम कृति की यह शायद नियति ही है! अन्यथा समय -समय पर युग पुरुष अवतरित होते ही रहे हैं ,जिन्होंने इस दिशा में परिवर्तन लाने का अदम्य साहस दिखाया है किन्तु जब परिणाम की ओर ध्यान जाता है तो शिवाय शून्य के कुछ प्रतीत नहीं होता। शायद इसका कारण पुरुष में छिपी इसकी स्वार्थ पूर्ण अहम भावना ही हो सकती है जो पाश्विकता के बलपर नारी को इस स्थिति में रखकर सदैव उस पर शासन करना चाहता है। कहीं आदर्श और नैतिकता के नाम पर नारी को हंसते-हंसते प्राणोर्त्सग करने को बाध्य होना पड़ा तो कहीं किसी और रूप में। पुरुष को नारी की प्रगति सदा ही असह्म रही है।

यदि आर्थिक पद्धति न्याय और मानवीय सिद्धान्तों पर आश्रित होती तो समाज को नारी आश्चर्य जनक रुप से लाभाँन्वित कर सकती और जिस कार्य के वह योग्य है ,उसे करके स्वयं को उदात्त बनाती परन्तु वर्तमान उत्पादन और वितरण की व्यष्टिपरक व्यवस्था में हर एक आदमी का हाथ पडौसी के विरुद्ध आचरण करने में लगा है और जब तक एक दूसरे के मुँह का कौर पूरी तरह छीन नहीं लेता उसे चैन नहीं आता। एक की हानि दूसरे का लाभ सामान्य सिद्धान्त बन गया है। वह भी छल और कपट जीवन का दर्शन बना हुआ है। धन के लिये प्रतियोगिता तो लोभ-कपट और इसी जैसे अन्य जघन्य असामाजिक कृत्यों की शिक्षा देती है जिसके परिणाम स्वरूप नारी के चरित्र के बहुमूल्य लक्षणों से हाथ धोने पड़ते हैं।

यद्यपि स्त्री और पुरुष में यौन आर्कषण प्राकृतिक है इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यह मात्र दो भौतिक शरीरों का मिलन ही है अपितु यह दो आत्माओं का ही शुद्ध आध्यत्मिक धोल है जो सृष्टि का सृजन कर उसे वैभवशाली और उन्नति के शिखर तक पहुँचाते हैं।

उन सभी संस्थाओं और विचारों की सामाजिक और सार्वजनिक रूप से निन्दा की जानी चाहिये जो नारी को अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों के उच्चतम विकास में अवरोध बनता हो।नारी और पुरुष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं अतः किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह इनका प्रथक-प्रथक मूल्याँकन करे। और मान अपमान में एक को श्रेष्ठ और दूसरे को कनिष्ठ ठहराये। समाज में जैसा व्यवहार पुरुष के साथ हो बैसा ही नारी के साथ भी होना चााहिये। समान व्यवहार के सिद्धान्त को मानते हुऐ हमें यह बात अवश्य ही ध्यान में रखनी चाहिये कि नारी और पुरुष दोनों ही मानव हैं। दोनों ही सद्गुणी और पापी,चतुर और मूढ, बुद्धिमान और मूर्ख, प्रिय और निंध तथा निर्दयी और दयावान होते हैं और रहेंगे भी। अतः एक को अत्याधिक सम्मान देना अथवा अपमानित करना वह भी किसी लिंग विशेष को आधार मानकर न केवल अन्याय ही है वरन मानवीय सिद्धान्तों के विरुद्ध भी है । नारी और पुरुष दोनों ही प्रकृति की समान रूप से महत्वपूर्ण रचना हैं। इनमें समानता को आधार मानकर ही समाज का उत्थान सम्भव है। पुरुष के जन्म के पश्चात उसके विकाश की प्रथम क्रियास्थली माँ की गोद और उसका परिवारिक वतावरण भी शान्तिमय है तो शिशु भी स्वस्थ और सुसंस्कृत होगा। यदि जननी स्वस्थ होगी तो नागरिक स्वस्थ होगा। जब नागरिक स्वस्थ होगा तो समाज स्वस्थ होगा।स्वस्थ समाज सुदृढ़ राष्ट्र का दर्पण है। अतः भद्र व्यक्तियों के योग्य नारी को शिक्षित किया जाना चाहिये, जिससे कि वह अपने पति के कार्य में तथा समस्याओं में एक कुशल सहायक की भूमिका निभाने के साथ-साथ सभ्य और चरित्रवान बालकों की माँ कहलाने का भी गौरव प्राप्त कर सके। उन्हें इस उत्थान में स्वतंत्रता पूर्वक अपना स्थान बना सके।

योग्य बनाया जाये कि वह प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा को विकसित करें किन्तु यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार स्वछंद विचरण की स्वतंत्रता का कभी-कभी गलत अर्थ लगाकर पुरुष पतन के गर्त में चला जाता है, ठीक उसी प्रकार यदि नारी भी स्वयं को निरंकुश समझकर गलत अर्थ लगा बैठें तो वह भी सम्पूर्णतः नष्ट होने से नहीं बच सकती। नारी का नष्ट होना समाज के लिये अधिक घातक है क्योंकि वह जननी है। साथ ही नारी पुरुष के लिये सर्वाधिक आर्कषक की वस्तु होने के कारण वह उसे जीवन के अधोविन्दु तक ले जा सकती है।समानता का आधार और स्वतंत्रता का अधिकार सदगुण और ज्ञान वृद्धि में होना चाहिये न कि पतन में। स्वतंत्रता और समानता का अर्थ स्वयं में प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा और गुणों का विकास कर स्वयं को सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक क्षेत्रों में शिक्षा पाने योग्य बनाना है न कि स्वयं के स्वार्थ कि लिये दूसरों को हानि पहुँचाना।

योग्य और सुलक्षण नारी वह है जो स्वयं के सदगुणों को विकास कर कुशल गृहणी के रूप में सभ्य शिशुओं की माँ कहलाने का गौरव प्राप्त कर सके। किसी महान दार्शनिक ने लिखा है कि जो नारी मातृत्व को तिलाँजलि दे देती है। वह उस पुरुष के समान है जो आत्महत्या कर लेता है। पुरुष जीने के लिये जीता है जब कि नारी अपने बच्चों के लिये जीती है। नारी भोग की वस्तु नहीं है,जब तक इसे अर्थ की तराजू से तोला जायेगा तब तक राष्ट्र अंधकार मय वातावरण में रहेगा, यह ध्रुव सत्य है इस तथ्य पर पर्दा डालना अपनी प्रगति के साथ क्रूर मजाक करना है।

स्वामी मामा

महाराज जी की कलम समय-समय पर विभिन्न विषयों पर चलती रही है। चाहे नारी के जीवन पर उनकी पीड़ा हो ,चाहे अकाल की विभीषिका का चित्रण करना हो, वे हर विषय में तन्मय होकर उसकी तह तक पहुँच कर ही रहते हैं। उस विषय का कोना-कोना आपको बोलते बतियाते दिखाई देगा।

विभीषिका

अकाल। जीवन की तवाही के गर्त में ढकेल देने का कू्ररतम पैगाम। वैसे भी प्रकृति हर वर्ष गिरगिट की तरह विविध रंगों में रूप बदल-बदल कर, ताण्डव नृत्य करती रहती है लेकिन बीसवी शताव्दी का सबसे भयंकर प्राकृतिक प्रकोप सन्1979 में हुआ। जिसने अधिकाँश राज्यों में लाखों लोगों का सर्वस्व लील डाला। करोड़ों रुपये की सम्पति स्वाहा हो गई।

तारे और........ विजली। फिर वही खुला आकाश। न जाने इस वर्ष प्रकृति क्या करने वाली थी। लगता था कि...... चारो तरफ त्राहि-त्राहि मचने वाली है। देखते-देखते काले वादल आकाश में विलीन हो जाते थे, पानी का दूर-दूर तक नामो निशान न भी था। अभी तो पूरा का पूरा साल सामने पड़ा था। सारा मौसम यूँ ही बीत गया, लेकिन अम्बर में छाते काले मेघ बिना धरती की प्यास बुझाये यूँ ही गरजते रहे और खिसकते रहे। करोड़ों रुपये की फसलें देखते- देखते नष्ट होगईं। इस आकस्मिक आई प्रकृतिक विपदा में एक वार तो राष्ट्रिय प्रगति का चक्का ही जाम कर डाला।

कोई नहीं जानता था कि प्रकृति का यह रूप कँपा देने वाला, जीता जागता नाटक इस साल पूरे देश को अपने जबड़ों में दबोच लेगा। अकाल की विभीषिका से परिचित प्रबुद्ध लोग स्वयं देख सकते थे कि किस कदर मौत अपने साम्राज्य का विस्तार करने की लालसा में इन्सान और इन्सानियत को लील लेने के लिये उन्मत हो रही थी। लगता था , पता नहीं कब मानवीय व्यवस्था काल के क्रूर पंजों में कसकर चकनाचूर हो जावे।

यूँ तो हर वर्ष कहीं न कहीं अकाल के कदम पड़ते ही रहते हैं किन्तु इस भीषण अकाल ने तो आग में घी डालने जैसा काम किया है। जहाँ देखो वहीं अकाल से पीड़ित अर्धनग्न शरीर, चिथड़ों में लिपटीं अवलायें, चीखते चिल्लाते मासूम बच्चे और भूख- प्यास से तडप कर मरते पशुओं के पिंजर ही पिंजर नजर आते थे। कल तक घर के आँगन में ठुमक-ठुमक कर चलने वाली भोली-भाली बालिकाओं को आज, राह की भिखारिन बनी, दर दर की खाक छानते देखकर किसका हृदय नहीं रोयेगा? इस दृश्य को देखकर तो पत्थर की मूर्ति के भी आँसू टपक पड़ेंगे।

धरती से उठती हुई मरीचिका, आने वाले भविष्य की कठिन परिस्थितियों की ओर इंगित कर रही थी। सूखी नदी नाले, पोखर और ताल, और ठूठ से खड़े पहाड़, आज हमारी प्रगति का कच्चा चिट्ठा उजागर करने पर तुले थे। जगह-जगह से फटी हुई इन लम्वी-लम्वी दरारों से छत-विछत घरती माँ, चीख-चीख कर पूछ रही थी- क्या यही है प्रगति का वह मानचित्र, जिसमें आज तक हर वर्ष देश के गरीब मजदूरों के गाढ़े पसीने से वसूले गये करोड़ों रुपये खर्च किये गये हैं? कहाँ गये इस मुल्क के रहनुमा जो बार बार मानवाधिकार की बात कह कर मन चाही मुराद पूरी करने का देने आते थे? क्या देश का सरकारी तंत्र भी आज निकम्मा, स्वार्थी और विफल नहीं रहा? जरा नेतागण और इस देश के प्रशासक अपने स्वार्थ और अर्कण्यता की गिरफ्त से बाहर निकल कर देखें और सोचें कि इस अकाल नें भविष्य के गर्भ में कितनी भयंकर और भयावह तस्वीर अंकित की है जिसमें अगणित नर-नारियों और मासूम बच्चों के मुर्दा और जिन्दा कंकाल, जगह-जगह लूटमार, अग्नि काण्ड, भृष्टाचार, साम्प्रदायिक दंगे, बलात्कार, हिंसक बारदातें और रोटी के टुकड़े के लिये जगह-जगह अपना तन बेचती, इस देश की मातायें -बहिनें और बेटियाँ, जैसे अनेकों जधन्य कलंक छुपे हैं। क्या कोई राष्ट्रिय नेता या धर्मान्ध प्रचारक इन भटकते फिरते नर कंकालों को पहचान कर बताने का दावा कर सकता है कि यह किस राजनैतिक दल या सम्प्रदाय विशेष के हैं? लेकिन नहीं। क्यों कि उनका विषय तो कुछ और ही रहा है। जिस दिन वह इसको पहचानने का दावा कर सकेंगे उससे पहिले तो शायद उभय पक्ष ही बदल चुका होगा।

कहने के लिये आज तक , हर साल कहीं न कहीं पड़ते अकाल और वहाँ के पीड़ित इलाके वासियों की स्थिति सुधारने के नाम पर इस देश का शासन वेशुमार धन खर्च करता आ रहा है। लेकिन सिवाय सरकारी फायलों में लगी रिपोर्टों के अलावा वास्विक प्रगति के नाम पर हर ओर शून्य ही नजर आता है।

एक तरफ साक्षात चलता-फिरता, इस धरती का नारायण भूख से विलखता हुआ अर्धनग्न ,लक्ष्मी के लिये दर-दर की ठोकरें खाने लग रहा है और उधर, इस देश के धर्मान्ध मजहबी नेता धर्म- प्रसार के नाम पर नित्य नये-नये अखाड़ों को जन्म देने में होड़ लगाये हुये हैं। जब पूजा करने वाला भक्त ही भूख से तड़प-तड़प कर अपने प्राण तज देगा तो इन करोड़ों रुपये से निर्मित पूजाघरों और स्वयंसिद्ध भगवानों की अट्टालिकाओं का क्या बनेगा। एक ओर साक्षात् ईश्वर भूखा हो और दूसरी तरफ हम धर्मात्मा बनने का ढोंग करते रहें। यह कहाँ का इन्साफ है? इसे प्रशासन की अकर्मण्यता कहें या शासकों की अदूरदर्शिता या फिर उन धन्नासेठों की हठधर्मिता, जो आज भी अपनी जंग लगती हुई दौलत पर सांप की तरह फन फैलाये जिन्दा लाशों का व्यापार करने लग रहे हैं।क्या सारी मानवता पाषण हो कर रह गई है? क्या इस मुल्क में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं बचा जो उन करोड़ों रुपयों का, जो इन इन गरीबों के लिये राहत के नाम पर खर्च हुआ हैउसका , लेखा-जोखा देख कर असलियत का पर्दा फाश कर सके,साथ ही उन मुल्क के दावेदारों को यह समझने के लिये सम्भव हो पायेगा, दमन और उत्पीड़न सहने की भी एक सीमा होती है?

सम्भव है सत्ताकी मखमली गद्दी पर आसीन जनता के इन मालिकों को अभी यह अहसास नहीं कि जब विषमता का प्रतिशोध दावानल बनकर भस्मीभूत करने पर उतर जाता है तो आज, चन्द सिक्के और दाने-दाने को मोहताजी में दर-दर भटक रहे हैं, वही मूक और निर्जीव प्रतिमा दिखने वाले लोग ‘युग पुरुष ’ बन जाते हैं। भूखे लोगों की आह पर तो‘बोलशेविक क्रान्ति’ का जन्म- दाता लेनिन जारशाही को भी टूक-टूक करने में सफल होगया था।

जब-जब धरती के बेटों पर जुल्म हुआ है तब-तब यहाँ प्रलय हुई है। जिन्दा रहने के लिये , भारत माँ के दामन पर दाग लगाने की कुचेष्टा करने वाले इस माटी में पैदा नहीं होते इस देश की धरती बहुत गर्म है। इतिहास इस बात का गवाह है कि नारी की कोख से जन्मे नर ने जब-जब मदान्ध होकर उसकी लाज लूटने का दुःसाहस किया है, तब तब नारी ने अपने सम्मान की रक्षा की है। इस देश की आजादी की लड़ाई में भी नारी पुरुषों से कभी पीछे नहीं रहीं। जब-जब राष्ट्र पर विपदाओं के घोर वादल मड़राये है इसने अपनी मांग का सिन्दूर तक भारत माता के चरणों में समर्पित कर दिया है। नारी के महत्व को कम करके आंका जाना समाज की भयंकर भूल होगी। नारी फिरभी नारी है, पीढ़ी चाहे जो भी हो इसे हर परिस्थिति में लोहा लेना आता है। नारी को अवला कहने वाले लोगों ने सम्भव है, नारी के उस अदम्य साहस को भुला दिया है जब नारी ने मानव समाज को बचाने के लिये, स्वयं को सवला सिद्ध करने तमें कोई कोर कसर नहीं रहने दी। आज भी नारी के अदम्य साहस के वर्णग्न से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं।

आर्थिक विषमता प्रकृति की देन नहीं, जिसका मुकावला सब मिलकर भी न कर सके। जरूरत तो सिर्फ संगठित होकर सक्रिय और सचेत होने की है। जिस घर का प्रहरेदार सशक्त और जागरुक होता है उसमें चोर तक घुसने का साहस नहीं कर सकतें। आर्थिक विषमता और गिरते हुये मानवीय मूल्यों से किसी भी देश की सरकार के लिये अकेले निपटना सर्वथा असम्भव रहा है, और हमारा यह समझ बैठना कि शासन इन पर कावू पाने में उदासीन रहा है यह बात अधिक महत्वपूर्ण नहीं है अपितु इस सम्वन्ध में जो जटिल वाधायें होती हैं उनको भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। वास्तव में यह एक ऐसी विकराल समस्या बन चुकी है जिस पर त्वरित कोई संतोष जनक हल खोज पाना किसी भी सरकार के लिये सम्भव नहीं है। किन्तु यदि पूरे राष्ट्र की जनता इस समस्या को एक गम्भीर चुनौती के रूप में स्वीकार करके‘ जो जहाँ है, जिस स्थ्तिि में है’ इसको समूल नष्ट करने का संकल्प लेले तो निश्चय ही देश का प्रत्येक नागरिक प्रगति के पथ पर अग्रसित होता दिखाई देगा।

वक्त किसी को बख्शा नहीं करता। आज समय का तकाजा है कि देश के राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं के वरिष्ठ नेतागण, और इस देश के धनी लोग अपनी सस्ती लोकप्रियता के प्रलोभन से मुक्त होकर इस गम्भीर समस्या को मानव सभ्यता के मस्तिष्क पर लगा कलंक मानकर इसके दूरगामी परिणामों की ओर गम्भीरता पूर्वक विचार करें, अन्याथा जब कहीं आग लगती है तो उसकी लपटें, अपने और पराये में भेद नहीं किया करती। इस देश की यह परम्परा रही है कि जब भी किसी विपदा ने इस पर आक्रमण किया है, सभी देश वासियों ने अपने समस्त भेदभाव और प्रलोभनों को त्यागकर एक संगठित शक्ति से उसका सामना किया है। कौन कह सकता है कि आर्थिक विषमता एक असाधारण राष्ट्रीय प्रकोप से कम है।

स्वामी मामा

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महाराजजी का स्कूल में नियमित अध्ययन अधिक नहीं रहा। कक्षा आाठ तक ही नियमित अध्ययन चल पाया। इधर- उधर आने- जाने से पढ़ाई डिस्टर्व रही । यद्यपि बाद में मैट्रिक तथा साहित्य सुधाकर की परीक्षायें उत्तीर्ण की थी।

ग्वालियर में रहना बचपन से ही शुरू होगया था। इनके पिताश्री ने सम्वत् 2000 के आसपास डबरा में कृषि भूमि क्रय करली थी और वे डबरा में ही गोपीराम वूकोलियाजी के मकान को किराये पर लेकर रहने लग गये थे। यदाकदा अपने परिबार की देखभाल करने के लिये लश्कर के अपने निवास पर आते-जाते रहते थे।उन दिनों इनका निवास लश्कर शहर में पाटनकर साहब की कोठी में था। जहाँ परम पूज्य योगानन्दजी महाराज एवं स्वामी विष्णू तीर्थजी महाराज के अलावा हुजूर मालिक साहब तथा परम पूज्य स्वामी सदानन्द तीर्थजी महाराज आदि का भी आगमन हुआ था।

महाराजजी ने मुझे बतलाया-‘पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज जो उस समय कोठी में चातुर्मास के लिये पधारे हुये थे। यद्यपि स्वामी जी किसी को दीक्षा प्रदान नहीं करते थे। किन्तु हम तीनों भाई-बहन अर्थात् मैं,छोटी बहन कृष्णा जो उस समय बारह वर्ष की थी तथा अनुज गोविन्द जो नौं -दस वर्ष के थे, परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने हमें अनुग्रहित करने की कृपा की थी।

पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज के बारे में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है। स्वामी जी महाराज को अपने भ्रमण काल में म0 प्र0 के नैमावर के चिन्मय आश्रम से कुछ जानकारी प्राप्त हुई है। उस आश्रम के संस्थापक ब्रह्मचारीजी पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज के गुरु बन्धु विश्वनाथ प्रकाश ब्रह्मचारी जी थे। उनका सम्पूर्ण जीवन नर्मदा के तट पर कुटी बनाकर व्यतीत हुआ। उनसे मिली जानकारी के अनुसार सदानन्द तीर्थ जी का शरीर वंगाल के प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिबार का था। ब्रह्मचारी जी के साथ ही सदानन्द तीर्थ जी की ब्रह्मचारी दीक्षा सम्पन्न हुई थी।

काशी में छोटी गैवी में पं0 पू0 स्वामी पुरुषोत्तम तीर्थ जी का आश्रम है। उन्हीं के द्वारा सदानन्द तीर्थ जी की सन्यास से पूर्व ब्रह्मचारी दीक्षा भी हुई थी। इन ब्रह्मचारी का नाम क्षितीष प्रकाश था।

पं0 पू0 स्वामी विष्णू तीर्थ महाराज एवं पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी की सन्यास दीक्षा भी बनारस आश्रम मे ही हुई थी। दोनों ही दण्डी सन्यासी थे।

पं0 पू0 स्वामी शंकर पुरुषोत्तम तीर्थ महाराज ने दो आश्रमों की स्थापना की थी। एक बनारस में दूसरा शंकरमठ के नाम से उत्तर काशी में स्थापित किया था। जो पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज को प्रदान किया गया। उन दिनों उत्तर काशी के लिये कोई मार्ग सुलभ नहीं था। केवल पगडण्डियों के द्वारा ही वहाँ पहुँचा जा सकता था। अतः महाराज जी वहाँ जोशीमठ से आते-जाते रहते थे। महाराज जी का सारा जीवन एक परिब्राजक के रूप में व्यतीत हुआ था। ये कितने भाई-बहन थे अथवा इनकी शिक्षा कहाँ तक हुई थी इस विषय में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक पता चला है, वे बार -एट-लॉ थे, अपने परिवार में वे सबसे छोटे और सबके चहेते थे तथा अविवाहित थे। निकले थे गुरु की खोज में, हिमालय से लौटकर ही नहीं गये।

ग्वालियर की इसी कोठी में हरिओम स्वामी यानी वर्तमान में परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज तथा उनकी छोटी बहन कृष्णा और छोटे भाई गोविन्द स्वामी को परम पूज्य स्वामी सदानन्द तीर्थजी महाराज ने दीक्षा देकर अनुग्रहीत किया था। यह वर्ष 1946 ई0 का था।

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मन मस्तिष्क में चलने वाले विचार की प्रतिध्वनि भी कहीं होती है। यह कहकर महाराज जी एक प्रसंग कहने लगे- सन्1951 ई0 चल रहा था। बात कलकत्ते की है। उन दिनों काम की तलाश में महाराज जी विरला के किसी अधिकारी के निवास पर गये थे। उस समय कमरे में कोई नहीं था। ये जाकर कुर्सी पर बैठ गये और उनके आने की प्रतिक्षा करने लगे। उसके सामने टेविल पर खुले सिक्कों का ढेर लगा था। उस समय एक आने की भी बहुत कीमत होती थी।एक आने में आदमी का पेट भर जाता था। ये दो दिन से भूखे भी थे। इनके मन में आया क्यों न इनमें से कुछ लेलिया जाये। किन्तु मन ने इसे अस्वीकार कर दिया। कुछ क्षण बाद वह मैंनेजर बाथरुम से निकला। उसने आते ही कहा-‘‘ मैंने तुम्हें काम करने के लिये बुलाया भी था। किन्तु इस समय कोई काम नहीं है। अतः तुम जासकते हो। मुझे लौटना पड़ा। मैं समझ गया कि मन मस्तिष्क में चलने वाले विचार की प्रतिध्वनि भी कहीं होती है।

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एक दिन महाराजजी कहने लगे-जब मैं आठ वर्ष का था। हमारे नगर में महूवाला ताल था। बच्चे उसमें तैरते रहते थे। मैं तैरना नहीं जानता था। मैं भी अन्य बच्चों की तरह उसमें कूद गया। हाथ पैर फड़फड़ाने लगा। किनारा दूर था। जाने कैसे पानी में सीधा होगया। यों मुझे कुदरतने तैरना भी सिखाया।

ऐसे ही प्रभूकी मुझपर अपार कृपा रही है। मैं चितौड़ के किले में जाता रहता था। वहाँ एक गोमुख है। नीचे अथाह जल भरा है। मैंने ऊपरसे उसमें छलांग लगा दी। मैं पानी में काफी गहराई तक पहुँच गया । मेरा मुँह खुल गया। उसमें पानी भरने लगा, उसी समय मैं वेग से ऊपर आगया। यों प्रभू की कृपा से मेरी जान बची।

यह कह कर वे कुछ छणों तक चुपचाप बैठे रहे। फिर कहने लगे कि मैं डबरा में कु0कमला टांक को प्रति दिन देखने जाया करता था। उसका हार्ट सुकड़ गया था। मरणासन अवस्था हो गई थी। एक दिन उसने पूछा कि क्या गुरु बिना गति नहीं होती?’

मैंने कहा-‘‘हाँ।’’

वह बोली-‘‘ काश! म्ेारी दीक्षा होगई होती।’’

मैंने उसे समझाया -‘‘ किसी को भी गुरु मान लो। यह तो श्रद्धा की बात है। सामने भगवान शंकर का चित्र है, वह तो सभी गुरुओं के गुरु हैं।’

तभी वह बोली-‘‘ मैं आपसे दीक्षा लेना चाहती हूँ।’’

कुछ विचार करने के बाद मैंने कहा-‘‘कल तैयार रहना।’’यह कहकर महाराजजी चले आये थे।

दूसरे दिन महाराजजी जब वहाँ पहुँचे, वह नहा धोकर तैयार बैठी थी। उन्हें देखते ही बोली-‘‘ आज मैंने बहुत दिनों में स्नान किया है। मैं दीक्षा के लिये तैयार हूँ।’’ उसके बाद महाराजजी उसके पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गये और उसे दीक्षा प्रदान करदी।

कुछ दिनों पश्चात चिकित्सा के लिये उसे भिलाई ले जाया गया। उसकी हालत देख कर डाक्टर आश्चर्य करने लगे कि इस हालत में वह जीवित कैसे है और यहाँ तक आ कैसे गई! कोई चमत्कार ही है।

वह वहाँ से लौटकर आगई। कुछ दिनों बाद एक रोज जब महाराज जी उससे मिलने गये। वह बोली-‘‘ गुरुदेव ,मेरा अन्तिम समय निकट दीखता है।’’

महाराजजी बोले-‘‘अधिक जीने की इच्छा है क्या? किन्तु इस शरीर से तो जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं’’

उसका उत्तर था-‘‘आप ठीक कहते हैं। इसलिये इस शरीर के जाने में ही भलाई है।

महाराज जी बोले-‘‘ अब तुम एक क्षण भी मत गवाओ। साधना में डूब जाओ।’’ यह कहकर महाराज जी चले आये थे। दूसरे दिन ही वह जगत छोड़ गई। यों महाराज जी ने चलते- चलते एक राहगीर का उद्धार कर दिया।

वे फिर कहने लगे,ऐसा ही एक किस्सा और याद आ गया है। इस नगर के प्रसिद्ध कपड़ा व्योपारी गोपीराम कुकरेजा जी की माता जी की दीक्षा का है।

किसी की दुःख-तकलीफ के बारे में पता चला कि महाराज जी उसकी मदद करने पहुँच जाते। यह उनके स्वभाव में शामिल था। इसी क्रम में वे गोपीराम कुकरेजा जी की माँ को देखने पहुँच गये।बोले-‘माताराम कैसी हैं?’’

वे बोलीं-‘रामजी ने आपको मेरे पास भेज दिया है। अब मैं आराम से जा सकूँगी।’’

महाराज जी ने माताजी को कुछ समय पूर्व ही दीक्षा दी थी। यह भेद केवल उनकी छोटी पुत्रवधू ही जानती थी,जो सदैव उनकी सेवा में रहती थी।

महाराज जी बोले-‘‘ अब आप अपने इष्ट का जाप करतीं रहें। समझलें आप मुक्त हो गईं।’’ इसके दो तीन दिन बाद ही वे चल बसीं थीं।

मैं गुरुनिकेतन शिवकालोनी डबरा जाता रहता था। गुरुदेव जो भी काम करते वह दत्तचित्त होकर करते थे। उनके अपने सिद्धान्त को वह सर्वोपरि मानते थे। एक दिन की बात है ,रात्री के आठ बजे का समय रहा होगा। मेरी आश्रम से चलने की तैयारी थी ,उसी समय मन्दसौर से आये एक साधक ने दरवाजे पर दस्तक दी। महाराजजी ने स्वयम् दरवाजा खोला। उसे देखकर बोले-‘तुम बिना सूचना किये कैसे चले आये?’’

‘वह गिडगिड़ाने लगा तो गुरुदेव को दया आ गई । उन्होंने पूछा-

‘‘ अपना आसन साथ लाये हो या नहीं ?’’

वह डरते-डरते बोला-‘‘गुरुदेव ,चलते समय घर पर छूट गया।’’

गुरुदेव बोले-‘‘फिर यहाँ क्या लेने आये हो ? पिकनिक मनाने आये होगे। अच्छा है, आइये,रात्री का भोजन कीजिये और अभी दस बजे वापसी की ट्रेन है, उससे चले जाओ। हमारी बातें पसन्द हो तो अन्दर आ सकते हो।’’वह साधक अन्दर आगया था।

गुरुदेव , साधना के प्रति इतने सख्त हैं। उन्हें प्रमाद बिलकुल पसन्द नहीं है। उस दिन मुझे लगा-‘ गुरुदेव ने उस साधक को ही नहीं वल्कि हम सभी को साधना के प्रति सचेत रहने की हिदायत दी है।

इन दिनों वे अक्सर इन पन्तियों को गुनगुनाते रहते हैं-

इन नैनन ने, पर दोष लखे,

पर आपने दोष कबहुँ न लखे।

गुणगान किया निज तन- धन का,

औरन के गुण कबहुँ न रुचे ।।

पर निंदा सुनी, इन कानन ते,

मुँख निंदा रस का पान किया।

नीति अनीति का भान तजा ,

मन भाया तैसे भेाग किये।।

एक दिन महाराज जी अमरकन्टक यात्रा का वृतान्त सुनाने लगे-‘‘मैं ,अपनी माता जी, आपकी माताजी और राजू ड्रायवर सहित डबरा से अपनी कार से यात्रा के लिये रवाना हुये़। कार राजू ड्रायवर चला रहा था। अमरकन्टक पहुँचने से पाँच किलोमीटर पहले एक छोटी नदी मिली। उसमें बहुत ही कम पानी प्रवाहित हो रहा था। लेकिन कार बीच नदी में जाकर फस गई। राजू ने कार निकालने का बहुत प्रयास किया। किन्तु कार नहीं निकली तो हम सभी धूनीवाले दादाजी का स्मरण करने लगे। इतने में कुछ दूरी पर पदचापें सुनाई पड़ीं। कुछ ही देर में मजदूर महलाओं के साथ एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। वह व्यक्ति धोती और कमीज पहने था। उसके एक हाथ में बीड़ी थी। दीखने में पतला -दुबला बहुत ही साधरण सा दीखने वाला अधेड़ उम्र का था।

राजू ड्रायवर ने उनसे कार निकलबाने की याचना की। वह व्यक्ति बोले-‘‘स्टेरिंग पर बैठो और कार स्टार्ट करो। राजू ने कार स्टार्ट की। वे एक हाथ में बीड़ी लिये पानी के अन्दर घुसे तथा अपने दूसरे हाथ को कार से लगाया ही था कि कार झटके से बाहर निकल गई। मेरे मुँह से निकला-‘‘ दादाजी महाराज की जय। मेरे जयकारे को राजू और माताजी ने भी दोहराया- ‘‘दादाजी महाराज की जय ।’’

वे औरतें अपने रास्ते पर चलीं गई। नर्मदे हर कहते हुये वे भी उन झाड़ियों में कहीं खेा गये।

मैं समझ गया-धूनी वाले दादाजी ही हमारी मदद करने आये थे।

बात कहते- कहते महाराजजी एकाग्रचित्त हो जाते थे। बीच में डिस्टर्व किया जाना उन्हें पसन्द नहीं था।

कुछ क्षण बाद महाराजजी बोले-‘ मुम्वई में बाणगंगा नामक स्थान पर भी एक संत के दर्शनों का सौभाग्य मिला। वे अपने में ही मस्त रहते थे, न किसी का लेना न किसी का देना।

बात उन दिनों की है , जब मैं शुरू- शुरू में डबरा नगर में आया था । गौरी शंकर बाबा उन दिनों तहसील प्रगंण में तहसीलदार रायजादा के न्यायालय के बाहर वरामदे में तख्त पर बैठे रहते थे’। मैं पहली बार में ही उन्हें देखते ही पहचान गया था कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं , ये तो दिव्य महापुरुष हैं। उनके सामने से जितनी बार भी गुजरता था उतनी ही बार मेरी गर्दन खुद व खुद उनके समक्ष झुक जाती थी। वे बैठे-बैठे मस्ती में झूमते रहते थे। एक दिन मैं उनके लिये फल ले आया तो उन्होंने सहजता से ग्रहण कर लिये। जब इसका पता तहसीलदार रायजादा को लगा तो वे मुझ से बोले-‘‘बाबा तो किसी से कोई चीज ग्रहण ही नहीं करते किन्तु आश्चर्य है आपसे फल ग्रहण कर लिये। आप तो बड़े भाग्य वाले हैं। मैंने रायजादा जी से कहा-‘‘ यह उनकी कृपा है। मुझ पर तो महान संन्तों की कृपा जीवन भर होती ही रही है,वर्ना यह जीवन चलताही कैसे! मेरा तो आधार ही यही है।’’

इस प्रसंग के ध्यान में आते ही आपके मन में एक प्रश्न उभरेगा-क्या ऐसे साधक अब भी हैं?

परमश्रद्धेय गुरुदेव स्वामी हरिओम तीर्थ जी के गुरुदेव स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज की कृति ‘अन्तिम रचना’ में इस प्रश्न का उत्तर महाराज श्री ने यों दिया है-श्शक्तिपात् विद्या के साधकों की दो धारायें हैं,-एक स्थाई दूसरी अस्थाई। एकान्तप्रिय साधकों की धारा स्थाई है। इसकी लय सदैव अखन्ड बनी रहती हैं। किसी भी परिस्थिति में इसकी निरन्तरता में अन्तर नहीं आता। बाबा की तरह इसके साधक महातपस्वी,महात्यागी,जन-समाज में रहते हुये जन-समाज से दूर,साधना में रत एवं दैवी शक्तियों से सम्पन्न होते हैं।

जब संसार में अस्थाई धारा का प्रचार-प्रसार बढ़ जाता है तब भी स्थाई धारा भूमिगत प्रवाह शील बनी रहती है। स्थाई धारा के महापुरुष शक्ति सम्पन्न होते हुये भी प्रायः किसी को दीक्षा नहीं देते। वे तो शक्ति के उत्थान के लिये साधना में लगे रहते हैं।

यही प्रसंग चित्त में लिये मैं गुरु निकेतन पहुँचा। महाराज जी मेरा प्रश्न भँापते हुये बोले-‘‘क्या सोच रहे हो? मेरा जन्म ही महापुरुष की कृपा से हुआ है।’’

मैंने प्रश्न किया-‘‘ गुरुदेव , यह कथा बिस्तार से कहें।’’

प्रश्न सुनकर वे सँभलकर बैठते हुये बोले-‘‘ मेरे एक बड़े भाई थे जिनका ढाई वर्ष की उम्र में ही देहान्त हो गया था। मेरे बाबाजी बाबूजी और मेरी माँ को लेकर साईंखेड़ा गये थे। यह बात मैंने अपनी माँ से सुनी है।

उन दिनों साईंखेड़ा में अवधूत संत धूनीवाले दादाजी केशवानन्द जी महाराज की ख्याति चारो ओर फैल रही थी। वे मानव के कल्याण में लगे थे। जब ये सब उनके समक्ष बैठे थे तो एक आदमी किसी तरल पेय से भरा पात्र लेकर आया। उसने वह पात्र उनके समक्ष रख दिया। यह देखकर धूनीवाले दादा जी मेरी माँ से बोले-‘‘इसे पीजा मोड़ी।’’

उनका आदेश सुनकर मेरी माँ ने मेरे बाबूजी की ओर देखा। उन्होंने इशारा कर दिया-पीजाओ। मेरी माँ उस स्वादिष्ट द्रव्य को पी गई। उसके बाद पास बैठी औरत से मेरी माँ बोली-‘‘मुझे मेरी खेाली तक पहुँचा दो। उसने मेरी माँ को खेाली तक पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर माँ लेट गईं। उन्हें बेहोशी आगई। जब आरती के बाद बाबाजी और बाबूजी लौटकर आये तो मेरे बाबूजी ने उन्हें देखा। उन्होंने अपने बाबूजी को बतलाया कि ये तो बेहोश पड़ी हैं।

बाबाजी बोले-‘‘ इसके लिये तो दादाजी के पास ही जाना पड़ेगा।’’ उनकी आज्ञा पाकर, मेरे बाबूजी दादाजी के पास पहुँचे। दादाजी बड़बड़ा रहे थे-‘‘नीबू काहे न चुसा देत।।’’

रात के दस बज रहे थे। निब्बू कहाँ से आते! उसी समय वहाँ कोई निब्बू लेकर आया। दादाजी ने दानों निब्बू उनकी ओर फेंक दिये। वे निब्बू लेकर चले आये। मेरे बाबूजी ने सड़ासी से मेरी माँ का मुँह फाड़ा और बाबाजी ने उनके मुँह में निब्बू निचोड़ दिया।

इसके कुछ समय बाद मेरी माँ को भारी उल्टियाँ हुईं। तीसरे दिन तक माँ बेहोश ही रहीं। बेहोशी में ही दुद्धी नदी पर जाकर स्नान कर अपने कपड़े धो लाईं । सामान्य होने के पश्चात सम्भवतः चौथे दिन प्रातः दादाजी के दर्शनों के लिये गईं।

उसी समय एक महिला चार जलते हुये आटे के दीपक लेकर आई। दादाजी मेरी माँ से बोले-‘‘इन चारों को खाजा।’’

उनकी आज्ञा पाकर मेरी माँ ने हमेशा की तरह बाबूजी की ओर देखा। उन्होंने इशारा कर दिया-खा जा।.......और मेरी माँ उन चारों जलते हुये दीपकों को एक-एक करके खा गईं। जिसके परिणाम स्वरूप हम चारों भाइयों का जन्म हुआ।

अगले दिन जब मेरी माँ दादाजी के पास पहुँची तो उन्होंने उन्हें जल से आचमन कराया और मंत्र दीक्षा से अनुगृहीत कर दिया। माँ धन्य होगई।

सुना है वे किसी को दीक्षा नहीं देते थे। मेरी माँ बड़ी भाग्यश्शाली हैं कि धूनीवाले दादाजी महाराज ने उन्हें दीक्षा प्रदान कर उनके सभी मनोरथ सिद्ध कर दिये।

यह कहकर महाराजजी तनकर बैठते हुये बोले-‘‘धूनीवाले दादाजी के मुझे जीवन भर दर्शन होते रहे हैं। एक बार मैं तेरह-चौदह बर्ष का था, गौरखी के वायीं तरफ भटनागर साहब का पता पूछते हुये चला जारहा था किन्तु वह जगह नहीं मिल रही थी। उसी समय दादाजी महाराज एक गली में जाते दिखे। मैं समझ गया और उसी गली में मुड़ गया। थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि उस भटनागर साहब का मकान मिल गया। इसी तरह जीवन भर समय-समय पर मुझे विभिन्न रूपों में दादाजी के दर्शन होते रहे हैं।

सन्1986 की बात है, मैंने रहने के लिये शिवकालोनी डबरा की गली नम्बर तीन में किराये से मकान लेलिया था। मैं हरयाणा से अपनी माँ और आपकी माँजी को लेकर डबरा के लिये रवाना हुआ। मेरे साथ में सामान से भरा बड़ा बक्सा, एक बड़ी बाल्टी उसमें भी सामान भरा था एवं सिलाई की मशीन थी। इतने सामान के साथ कैसे यात्रा की जाये ?बड़ा भारी संकट पैदा होगया था। हम कैसे भी रेवाडी से ट्रेन पकड़कर पुरानी दिल्ली आगये। वहाँ से हमें निजामुद्दीन स्टेशन आना था। जब कोई उपाय नहीं दिखा तो मेरी माताजी कहने लगीं कि चिन्ता मत कर दादाजी सब व्यवस्था करेंगे।

उसी समय एक हट्टा-कट्टा युवक पास आकर बोला- चलो, मैं आपका सामान पहुँचा देता हूँ। हमारे मना करने पर भी उसने सारा सामान अपने सिर पर लाद लिया। वह स्टेशन से बाहर निकल आया और उसने निजामुद्दीन स्टेशन जाने वाली बस में हमारा सामान ठूँस दिया। और केवल दो रुपये लेकर चला गया। बस ने हमें सामान्य किराये में निजामउद्दीन स्टेशन पर उतार दिया। वहाँ से डबरा आने वाली ट्रेन से हम डबरा आगये। हमारे जीवन की यह घटना भी दादाजी महाराज के नाम अर्पित होगई है।

साईंखेड़ा में धूनीवाले दादाजी के नाम की धूम मची थी। एक औरत अपनी मरी हुई बच्ची को धूनी स्थान के पिछवाड़े डालकर मेरी माँ के समीप आकर बैठ गई। आरती के पश्चात दादाजी उससे बोले-‘‘मोड़ी भूखी है उसे दूध तो पिला।’’ जब उसने यह बात नहीं सुनी तो दादाजी ने उसे एक डन्डा मारा तव वह औरत अपनी बच्ची के पास गई तो उसने उसे रोते हुये पाया। यह आँखों देखी घटना मेरी माँ मुझे सुनाया करतीं थीं। ऐसे दादाजी ही मेरे इष्ट हैं। उन्होंने मुझे पग-पग पर सँभाला है। धीरे-धीरे यह स्थिति बनी है कि हर साधू-संत में मुझे मेरे इष्ट धूनीवाले दादाजी ही नजर आते हैं।

मैं उन दिनों मनीराम जी के मकान में रहता था। बात सन 78-79 की है। एक दिन मैं डबरा के रेल्वे स्टेशन पर टहल रहा था। बूदा-बाँदी हो रही थी फिर भी चौड़े में एक संत लेटे थे। उनके पास में ट्रँजिस्टर बज रहा था। एक टोकरी में कुछ सामान रखा था। मझे लगा-कहीं बाबाजी झपकी लग गई तो कोई उनका ट्रँजिस्टर पार कर देगा। यह सोचकर मैंने बाबाजी से कहा-‘‘बाबाजी, टीन सेड में चले जायें। पानी से बचाव हो जायेगा।’’

वह संत अटपटी भाषा में बोला-‘‘ये बरसात बहुत परेशान कर रही है। मैं इसे रोके हुये हूँ। मैं अन्दर नहीं जाऊँगा।’’

उसी समय मेरी निगाह उनकी डलिया पर पड़ गई। उसमें धूनीवाले दादाजी की फोटो रखी थी। मैंने उनसे कहा-‘‘ आपकी डलिया में धूनीवाले दादाजी की फोटो है।’’

वे बोले-‘‘ तुम इन्हें जानते हो!’

मैंने उत्तर दिया-‘‘ हाँ, ये मेरे आराध्य हैं।’ अब मैंने उनकी ओर गौर से देखा। कानों में बड़े-बड़े कुन्डल पहने छोटे दादाजी की तरह लग रहे थे।

मैंने पूछा-‘‘ कहाँ ठहरेंगे?’’

वे बोले-‘‘ भट्ट जी सी0 एम0 ओ0 के यहाँ।’’

उनकी बात सुनकर मैं चला आया था। दूसरे दिन मैं जानकारी लेने भट्ट जी सी0 एम0 ओ0 के यहाँ जा पहुँचा। वहाँ उनसे मुलाकात हो गई। वे छीपानेर के रहने वाले संत थे। इस तरह दादाजी ने उनसे अनायास पहचान करादी थी। जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया।

मेरे बाबाजी ने किसी के विश्वास में आकर नेपाल के कजलीबन में सिलीपर की लकड़ी काटने का ठेका ले लिया। जिस के कहने से ठेका लिया था उसके मन में पाप आगया । उसने बाबाजी को जहर दे दिया। बाबाजी कैसे भी बच गये! जब साईंखेड़ा में दादाजी के दर्शन करने पहुँचे तो देखा दादाजी जोर -जोर से कह रहे थे-

बजाते थे तुन-तुनी। और खाते शक्कर घी।।

आग लगे इस जंगल में।जो अबके बच गया जी।।

मेरा मोड़ा बसे कजलीवन में।।

यों धूनीवाले दादाजी ने उनके जीवन को बचाने में जो कृपा की थी उसे महसूस करा दिया।

ऐसे ही एक ठेकेदार ने बाबाजी पर झूठा मुकदमा लाद दिया। बाबाजी के पास कोर्ट से सम्मन आगया। बाबाजी अकेले ही कोर्ट पहुँच गये। जज बोला-‘‘ इसने तुम पर झूठा केस चलाया है ? इस बात का तुम्हारे पास कोई गवाह है।’’

उनकी बात सुनकर बाबाजी कोर्ट से बाहर निकले। सामने आकर एक व्यक्ति बोला-‘‘आपको गवाह की जरुरत है। चलो मैं आपकी गवाही दिये देता हूँ।’’ वह आदमी उनके पीछे-पीछे कोर्ट में पहुँच गया । जज समझ गये कि माजरा क्या है! ’’

जज ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया। ...और ठेकेदार पर झूठा मुकदमा चलाने के लिये मुकदमा चला दिया।

बाबाजी जब धूनीवाले दादाजी के दर्शन करने गये तो वे जोर-जोर से कह रहे थे-‘‘करनाल , करनाल। ऐसी थी उनकी महिमा।

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