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एकलव्य 13

13 कुशल प्रशासक सम्राट जरासंध से सीख

पुष्पक अपनी पत्नी को समाचार सुना रहा था कि उसने गत दिनों बड़ा अजीब घटना क्रम समीप से देखा । वह वर्णन करने लगा और उसकी पत्नी ध्यान से सुनने लगी ।

.......जब राजा पौण्ड्र (करूश) कुमायु की गद्दी पर बैठा। उसने निषादराज एकलव्य के गदा संचालन के साथ उनके अट्ठासी हजार वीर योद्धाओं के बारे में सुन रखा था। वह श्रीकृष्ण से द्वेश भावना रखने लगा। पौण्ड्र को पता चल गया कि हमारे निषादराज, अर्जुन की श्रीकृष्ण से घनिष्ठ मैत्री के कारण उनसे द्वेषभाव रखते हैं। इसलिये वह निषादराज एकलव्य से मिला। उसके स्वागत में निषादपुरम को बन्दनवारों से सजाया गया।

........जब दोनों की बैठक निषादपुरम के राजप्रासाद में हुई, पौण्ड्र अपनी वीरता की उनसे बढ़ चढ़कर बातें करने लगा, ‘‘मित्र निषादराज , तुम्हे संभवतः ज्ञात नहीं है कि मैं ही बिष्णु का अवतार हूँ । मैं ही वासुदेव हूँ जबकि द्वारका में रहकर श्रीकृष्ण झूठा वासूुदेव बना हुआ है । मैं श्री कृष्ण को कुछ ही पलों में मिट्टी में मिला दूँगा। इस कार्य में मुझे तुम्हारा साथ मिल जाये तो मैं द्वारिकापुरी को भी अपने आधीन कर लूँगा। निषादराज आप गदा युद्ध में प्रवीण हैं। द्वारिकापुरी पर आक्रमण के समय तुम्हें बलराम को गदायुद्ध में परास्त करना है। तुम्हारे अठासी हजार वीर योद्धा भी युद्ध प्रवीण हैं। आज तुम्हारे समान सम्पूर्ण आर्यावर्त में कोई योद्धा नहीं है।’’

निषादराज अपनी वीरता की बातें सुन सुनकर गद्गद् हो रहे थे। उन्होंने पौण्ड्रक को साथ देने का वचन दे दिया।

मुझ गुप्तचर पुष्पक को निषादराज एकलव्य ने यह क्या उत्तरदायित्व सौंप दिया कि द्वारिकापुरी पर आक्रमण के समय युद्ध के मैदान में मौजूद रह कर मैं उन्हें वहाँ की सूचनाओं से अवगत कराता रहॅूं। किन्तु मैं जानता हूँ कि एक दो सहयोगियों से संपूर्ण युद्धभूमि की बातें ज्ञात करना खेल नहीं है । फिर भी मेरी लम्बे समय से, निषादराज को युद्ध करते हुये देखने की इच्छा थी। इस कारण मैं सहर्ष तैयार हो गया ।

इधर निषादराज एकलव्य ने अपनी विशाल सेना लेकर द्वारिकापुरी के लिये प्रस्थान किया। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रथ के घोड़े द्वारिकापुरी की ओर दौड़ने लगे। उसे याद आने लगी यह घटना-महाराज अपरिचरवसु ने मगध पर शासन करने के लिये अपने पुत्र वृहदर्थ को राजा बनाया।यह वैदिक युग की बात है।उस समय राजा को प्रजा के हित का ध्यान रखते हुये ब्राह्मणों की रक्षा करना परम धर्म होता था। राजा पर धर्म का बहुत अधिक नियंत्रण रहता था।

वैदिक युग में रुद्र की पहचान एक देवता महादेव के रूप में की जाने लगी। धीरे-धीरे महादेव का महत्व बढ़ता चला गया। महाराज वृहदर्थ के आराध्य महादेव ही थे। महाराज वृहदर्थ की पत्नी मगधान्ति के एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुशाग्र रखगया। इसके बड़े होने पर इसका मन आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति की दिशा में मुड़ जाने से राज काज में नहीं लगता था।अतः यह हिमालय पर तप करने चला गया। महाराज वृहदर्थ का विवाह काशी नरेश की दो पुत्रियों से हुआ था। कुशाग्र के गृह त्याग से महाराज वृहदर्थ को चिन्ता बढ़ी। वे वृद्ध भी हो चुके थे। अपने इष्ट के समक्ष उन्होंने अपनी चिन्ता व्यक्त की। कहते हैं महादेवजी की कृपा से अस्सी वर्ष की उम्र में उनकेा पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।जीवन के अन्तिम पड़ाव पर जपा अवस्था में प्राप्त पुत्र का नाम जरासंध रखा गया। किन्तु लोक चर्चा में जरासंध की कहानी यों है-महाराज वृहदर्थ को महादेवजी से बरदान प्राप्त होगया था। एक दिन वे भगवान शंकर की पूजा अर्चना करके महल में लौट आये। उन्हें सूचना मिली कि उनकी राज्य सीमा में चण्ड कौशिक मुनि पधार चुके हैं। राजा ने सूचना पाते ही अगवानी की और उनकी सेवासुश्रषा में लग गये। मुनि ने प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का बरदान दिया और एक आम्रफल राजा को देते हुये कहा कि इसे अपनी रानी को खाने के लिये दे देना। रानी के जो पुत्र होगा वह यशवी औरपराक्रमी तथा तुम्हारे वंश गौरव को बढ़ाने वाला होगा।

राजा ने वह फल अपनी छोटी रानी को देदिया। काशी नरेश की दोनों पुत्रियों में अपार प्रेम था। दोनों ने उस फल को दो टुकड़ों में बाँटकर खा लिया। दोनों रानियों के गर्भ में आधा-आधा बालक पलने लगा।समय आने पर दोनों रानियों के गर्भ से आधे-आधे बालक ले जन्म लिया। जो प्रायः निर्जीव सा था।राजमहल में हर्ष के स्थान पर मातम छागया। राजा ने बालक के उन दोनेां हिस्सों को दासी के द्वारा श्मशान में फिकवा दिया।

उन दिनों वहाँ एक जरा नामकी योगिनी निवास कर रही थी। उसने उस बालक के उन हिस्सों को उठाया और योग विद्या के प्रभाव से उन्हें जोड़ दिया। इससे उसमें जीवन का संचार होगया। उसे उसने राज महल में जाकर राजा को सुपुर्दकर दिया। जरा योगिनी के द्वारा जोड़े जाने से उसका नाम जरासंध रखा गया। जिस दिन जरासंध को जीवन दान मिला वह तिथि कार्तिक माह की शुक्ल-पक्ष की एकादशी थी। इस महा पुरुष के जन्म दिन के अवसर पर मैं आज द्वारिका पुरी पर चढ़ाई कर रही हूँ। देखना इस अवसर पर ऐसे महा पुरुष का चिन्तन युद्ध विजय का संचार उत्पन्नकर रहा है।

यों राजा वृहदर्थ ने जरा योगिनी को अपने कुल में कुल देवी के रूप अधिष्ठापित कर लिया। जिस कुल की बृद्धि में जिस देवी का आर्शीवाद प्राप्त होता है,वह देवी उस कुल की कुल देवी के रूप में पूजी जाने लगती है। इसी देवी की याद में सम्मपूर्ण मगध में देवोत्थान पर्व के रूप में, गन्नेां के झाड़ का वितान बनाकर पूजा की जाने लगी। कहते हैं -जितने बड़े झाड़ की पूजा होगी उतना ही वंशवृक्ष पल्लवित हो सके।

हमारे चन्द्रवंशी सम्राट जरासंध के इस जीवन चरित्र से यह बात सामने आती है कि वे एक अवतारी पुरुष थे। मुझ एकलव्य के जीवन में यह पहला ऐसा किस्सा सुनाई पड़ा है। जिस एक माता के नहीं अपितु दो माताओं के गर्भ में पले थे। योग की क्रिया से सन्धि युक्त करके उनमें नये जीवन का संचार किया गया था।

सम्राट जरासंध ने अपने पराक्रम से काशी,कौशल,मालवा, विदेह, अंग,बंग,कलिंग, पाण्ड्य,सौबीर, मद्र, गान्धार ऐसे चौरासी राज्यों के राजाओं पर विजय प्राप्त की थी। इसीलिये इन्हें महाबली देवेन्द्र के समान कहा गया है। इनके विजय अभियान से भयभीत होकर अनेक राजाओं को दक्षिण भारत की शरण लेना पड़ी थी। श्रीकृष्ण को भी मथुरा से भागकर पश्चिमी समुद्र तट पर द्वारिकापुरी बसाकर रहनापड़ा है। रणछोड़ जैसी उपाधि क्षत्रियों के लिये अपमान की बात है।वह आज भी वहीं छिपा बैठा है। मैं वहाँ पहुँचकर उससे दो-दो हाथ करने वाला हूँ। अब वह वहाँ से भागकर कहाँ जाकर बसेगा!

सुना है युद्धिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करने श्रीकष्ण से इच्छा व्यक्त की तो श्रीकष्ण ने उन्हें समझाया-‘राजन, आपकी यह इच्छा तबतक पूरी नहीं हो सकती जबतक मगध सम्राट जरासंध जीवित है।’’

युद्धिष्ठिर ने प्रश्न किया था-‘ क्या वह अर्जुन और भीम से भी अधिक बलशाली है?’’

श्रीकष्ण ने उत्तर देते हुये कहा-‘‘महाराज,स्वयं मैं, विश्व के सभी राजाऔर देवलोक के सभी देवता उसके साथ दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के साथ युद्ध करें तो भी हम सब उसे लम्वे समय तक नहीं हरा सकते तथा उसका वध शक्ति से नहीं युक्ति से ही सम्भव है।’’ यह सुनकर उन्होंने उस समय तो राजसूय यज्ञ का विचार त्याग दिया था।

सम्राट जरासंध एक महावीर योद्धा ही नहीं वल्कि राज्य की चौमुखी उन्नति के लिये, गाँव-नगर की संरचना को अद्भुत रूप से सुव्यवस्थित कर ,अपने राज्य की चहुमुखी प्रगति करने में लगे रहे। उनके सम्पूर्ण राज्य में नागरिकों के जरूरत की प्रत्येक वस्तु उपलब्ध होतीं थीं। लोगों के रहने के लिये घर, सड़के, बगीचे, तालाब,एवं आरोग्यशालायें व्यवस्थित रूप थीं। मैं भी उनके आदर्शेा की सीख मानकर अपने राज्य की ऐसी ही व्यवस्था करने में लग गया हूँ। इसी प्रगति के कारण सम्पूर्ण आर्यावर्त में सारे समूहों के आदिवासी मेरे कन्धे से कन्धा मिलाकर मेरे साथ खड़े हैं। यही कारण है कि मैं आज श्रीकृष्ण को उसके घर में ही अपने मित्र पौण्ड्र के हित में सबक सिखाने जा रहा हूँ।

सम्राट जरासंध ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। उसके कुशल प्रशासन के लिये एक राज्यमण्डल की स्थापना भी की थी। उसमें इक्यावन मित्र राज्यों के शासकेंा को शामिल किया था। इसे लोकाभिमुख बनाने के लिये एक सलाहकार मण्डल का निर्माण भी किया था जिसमें राज्यमण्डल के राज्यों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त समाज के प्रत्येक स्तर के लोगों कोउसमें स्थान दिया गया था। इसीकारण इसे गणराज्य कहा जाता था। गणराज्य में सत्ता नरेशों के हाथ में रहती थी किन्तु प्रशासन के लिये सलाहकार मण्डल के प्रतिनिधियों के परामर्श से कार्य किया जाता था। उन प्रतिनिधियों को राजन कहा जाता था। इसी कारण महाराज जरासंध,आदर्श-प्रजापालक सम्राट बन गये थे। उनकी न्याय व्यवस्था भी जगत प्रसिद्ध है।

मेरे राज्य के लोग मुझ से पूछते हैं-‘‘ निषादराज एकलव्य आपने जो शासन व्यवस्था निश्चित की है वह किस के आदर्श का प्रतिफल है।’’

मुझे इसका उत्तर देने में संकोच नहीं है कि यह सब मेरे आदर्श सम्राट जरासंध की देन है। अन्तर इतना ही है कि मेरे राज्य में अभी तक वनवासी राज्य ही समिलित हो पाये हैं। अब मैं द्वारिकापुरी पर अधिपत्य ग्रहण करके महाराज जरासंध के सपनों को पूरा करना चाहता हूँ। बस ,अब मेरे द्वारिकापुरी पहुँचने की देर है।

सम्राट जरासंध ने अपने किले की किलेबन्दी बड़े ही विवके पूर्ण ढ़ंग से की थी।गिरिब्रज पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ था। इसी कारण किले में प्रवेश के लिये पाँच द्वार बनाये गये थे। प्रथम द्वार पर वत्रासुर के चमड़े से मढ़वाये गये दो नगाड़े थे। जो शत्रु के प्रवेश करते ही बजने लगते थे। सैनिक सचेत होजाते थे। वत्रासुर के चमड़े को इन्द्र ने इनके पितामह को भेंट किया था।

दूसरे द्वार पर पहाड़ जैसे टंगुरे बने हुये थे। जो शत्रु के पहुँचते ही सट जाते थे और शत्र उनके बीच दबकर मर जातो थे।

तीसरे द्वार पर डिम्बक और हंस नामक दो महान योद्धा रहते थे। वहाँ से शत्रु का निकलना सम्भव नहीं था।

चौथे द्वार पर शत्रु के पहुँचते ही घरती फट जाती थी।....और पंचम द्वार पर वीर योद्धाओं का दल हमेंशा मौजूद रहता था। किन्तु याचकों और ब्राह्मणेंा के प्रवेश पर किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी। इसीलिये श्रीकृष्ण,अर्जुन और भीम को इस किले में प्रवेश करने पर कोई कठिनाई नहीं आई।

जरासंध ने राजगृह की ऐसी व्यवस्था की थी कि अन्जान व्यक्ति बिना अनुमति के उसमें प्रवेश नहीं कर सकता था।

सम्राट जरासंध ने काशी के ललितेश्वर घाट पर जरासंधेश्वर तीर्थ की स्थापना की थी। इस स्थान पर स्नान करके लोग ज्वर-व्याधि से मुक्त होजाते हैं।

अधिमास की अवधि में पवित्र कार्य करने की मनाई थी। सम्राट जरासंध ने अनुष्ठानों द्वारा अधिमास में समस्त देवताओं को धरती पर बुलाकर अपने राजगृह को मुक्तिदाई स्थल बना लिया था। इनके समान कोई भी धर्मात्मा राजा इस धरती पर नहीं हुआ है

सम्राट जरासंध के दामाद कंस श्री कृष्ण के मामा थे। श्री कृष्ण ने पन्द्रह वर्ष की अवस्था में अपने मामा कंस का वध कर दिया। ...और इसके तत्काल बाद सांदीपनी आश्रम में विद्याध्ययन करने के लिये चले गये।

इस प्रकरण में सम्राट जरासंध ने अपने राज्यमण्डल की सलाहकार समिति से मंत्रणा की। विचार आया कि श्री कृष्ण का वध सांदीपनी आश्रम में जाकर कर दिया जाये। सम्राट जरासंध ने इस विचार का खण्डन किया कि जब तक श्री कृष्ण विद्याध्ययन करके नहीं लौटते तबतक उन्हें मारना वीरोचित एवं मानवोचित नहीं होगा। विद्याध्ययन करते समय किसी चिद्यार्थी को मारना उन्हें न्यायोचित नहीं लगा। इन्हीं गुणों ने वे मेरे आदर्श बन गये। मैं युद्ध भूमि में भी इन्ही गुणों का अच्छरसह पालन करता हूँ।

श्री कृष्ण जब विद्याध्ययन करके मथुरा लौटे वारह वर्ष का समय व्यतीत होगया था। जरासंध ने मथुरा का घिराव किया। श्री कृष्ण उसकी वीरता से परिचित थे। इसीकारण वे उससे छिप कर रहने लगे। जब-जब जरासंध को पता चलता कि श्री कृष्ण मथुरा में ही हैं,वह उसका घिराव शुरू कर देता। यह शिलशिला अठ्ठारह वर्षा तक चलता रहा। अन्त में श्री कृष्ण को मथुरा छोड़कर द्वारिका के लिये पलायन करना पड़ा।

यों जरासंध एक कुशल सैन्य संचालक थे। बगैर अधिक छति उठाये उन्हें विजयश्री प्राप्त होजाती थी। उनकी सेना में मौल यानी स्वजातिय, श्रेणिय यानी पराजित राजाओंके, भृत्य यानी वेतन भोगी,एवं मित्र राजाओं के अलावा वनवासियों की सेना सहित पाँच टुकडियों में बटी होती थी।

जरासंध ब्राह्मणों का भक्त था। वह वैदिक आदर्शों की कभी उपेक्षा नहीं करता था। इस बात की जानकारी श्री कृष्ण को थी। इसी बात का लाभ उठाकर श्री कृष्ण,अर्जुन,एवं भीमसेन क्षत्रिय होते हुये ब्राह्मण का रूप धारएा करके राजा जरासंध के पास गये। श्री कृष्ण ने राजा से कहा-‘‘ हम आपके महल में तीन अतिथि बहुत दूर से याचक बनकर आये हैं। हम जो याचना करेंगे आप हमें वही देंगे। आप जैसा दानी माँगने पर कुछ भी दे सकता है।’’ ऐसी बातें सुनकर जरासंध को इनपर सन्देह हुआ। उसने गैार से देखा कि इनके कन्धे सुडौल हैं। कन्धे पर धनुष टांगने के कारण निशान बने हैं। निश्चय ही ये लोग ब्राह्मण नहीं लगते। भिक्षक बनकर आने से इनकी कीर्ति नष्ट हो चुकी है। ये अब मेरी बरावरी क्या कर पायेंगे। अब ये जो मांगेंगे मैं इन्हें वह सब कुछ दे दूंगा। यह सोचकर वह बोला-‘‘ प्रिय ब्राह्मणों जो तुम्हें मांगना है वह मांग सकते हो। मैं तुम्हें देने को तैयार हूँ।’’

यह सुनकर श्री कृष्ण ने कहा-‘‘राजन हम ब्राह्मण नहीं हैं।ना ही हम धन-धान्य मांगने आये हैं। हम क्षत्रिय हैं। हम तो आपसे द्वन्द्व युद्ध करने की मांग करने आये हैं। आशा है आप हमारी याचना स्वीकार कर लेंगे।’’यह कहकर श्री कृष्ण ने उसे सबका परिचय दिया।

जरासंध जैसे महावीर की यह कथा एकलव्य के चित्तसे गुजरते ही उसकी भुजायें फड़क उठीं-निश्चय ही कृष्ण और उसके साथी धेकेबाज हैं। मुझ इन सबसे एक-एक कर बदला लेना है।

इसी समय उसे याद हो आई ,जरासंध ने जोर-जोर से हँसते हुये उत्तर दिया था-‘‘ श्री कृष्ण ,तुम तो कायर हो। मैं तुम से युद्ध करने से इन्कार करता हूँ। मैं सोचता हूँ भीमसेन,यह उपयुक्त प्रतिस्पर्धी है।’’ यह कहकर जरासंध ने एक गदा भीमसेन के हाथ में देदी और एक अपने हाथ में ले ली।यों दोनों में द्वन्द्व युद्ध होने लगा। दोनों की भुजायें चकनाचूर होगईं। इस स्थिति में दोनोंएक दूसरे पर मुक्कों से प्रहार करने लगे।

यों दोनों को युद्ध करते अठ्ठाइस दिन व्यतीत होगये।भीमसेन ने श्री कृष्ण से कहा-‘‘ मेरे प्रिय कृष्ण! मुझे स्वीकार करना पडत्र रहा है कि मैं जरासंध को पराजित नहीं कर सकता।’’

श्री कृष्ण उसके जन्म के रहस्य को जानते थे। वे भीमसेन से उसके जन्म के रहस्य को समझाते हुये बोले-‘‘इसका जन्म शरीर के दो भागों को जोड़कर हुआ है। अतः इसकी मृत्यु भी शरीर के दो भाग करने पर ही होगी।’’यो श्री कृष्ण ने उसके मारने की सारी विधि भीमसेन को समझा दी।

दूसरे दिन के युद्ध में भीमसेन ने अपना पूरा पराक्रम दिख्लाया। उसने उसे इस तरह पकड़ लिया कि एक पैर को अपने पैर से दवाया और दूसरे पैर को अपनी भुजाओं से पकड़कर उसे दो हिस्सों में चीर दिया। उसका पूरा शरीर दो हिस्सों में बटने से उसकी मृत्यु होगई। यों श्री कृष्ण ने चालाकी से जरासंध की हत्या की थी। आज मैं ऐसी ही चालों का सबक सिखाने द्वारिकापुरी जारहा हूँ। जैसे श्री कृष्ण ने जरासंध की कैद से राजाओं को छुडाया था, मैं भी आज जो कैदी श्री कृष्ण की जेल में होगे उन्हें मुक्त करके अपना लक्ष्य पूरा करूँगा। यह सोचकर तो उसकी भुजायें युद्धभूमि में शीघ्र पहुँचने के लिये फड़क उठीं थी।