Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 8






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा

भाग 8


दस्युओं की गुफा से निकल कर अभिक जंगल में नंदन की प्रतीक्षा करने लगा। अपना पारितोषक लेकर नंदन खुशी खुशी लौट रहा था। अचानक ही पेड़ पर चढ़ा अभिक उसके सामने कूद गया। इस तरह अभिक को सामने देख कर नंदन डर गया। अभिक ने उसे पकड़ कर अपनी कृपाण उसकी गर्दन पर रख दी।
भय से कांपते हुए नंदन बोला,
"मेरी सारी स्वर्ण मुद्राएं ले लो किंतु मुझे छोड़ दो।"
अभिक ने उसकी गर्दन पर कृपाण का दबाव बढ़ाते हुए कहा,
"मुझे तुम्हारा धन नहीं उन दस्युओं के बारे में जानकारी चाहिए।"
"कौन से दस्यु ? मैं किन्हीं दस्युओं को नहीं जानता।"
अभिक ने कृपाण उसकी गर्दन में चुभा दी। रक्त की कुछ बूंदें भूमि पर टपक गईं। पीड़ा और भय से नंदन चिल्ला उठा,
"बताता हूँ..... पहले यह कृपाण हटाओ।"
अभिक ने कृपाण का दबाव कम करते हुए कहा,
"जो भी जानते हो सच सच बताओ। कोई भी दुस्साहस किया तो मारे जाओगे।"
नंदन वहीं भूमि पर बैठ गया और दस्युओं के विषय में बताने लगा।
"आठ दस्युओं का एक समूह है। मैं विदूषक बन कर इस क्षेत्र के नगर और गांवों में घूम घूम कर धनी लोगों की सूचना एकत्र कर दस्युओं को देता हूँ। उनके लिए अश्वों का प्रबंध करता हूँ। तय किए गए दिन वह मेरे बताए घर पर अचानक धावा बोल कर सब लूट लेते हैं। सबकी हत्या कर देते हैं ताकि उनकी पहचान बताने वाला कोई ना हो। लूट को हिस्सों में बांट कर वह अलग अलग दिशा से अपने ठिकाने पर पहुँचते हैं। ताकि यदि कोई उनका पीछा करे भी तो सब एक साथ ना पकड़े जाएं।"
अभिक ने प्रश्न किया,
"यही आठ दस्यु पश्चिमी क्षेत्र में उत्पात मचाए हैं या और भी हैं।"
"अब केवल यही आठ दस्यु हैं। पहले नौ थे।"
"वह नवां दस्यु कहाँ गया ?"
"इनके बीच में तय किया गया है कि यदि कोई पकड़ा जाए तो वह अपने गले में बंधी विष की गोली को खा कर प्राण दे देगा। एक दस्यु ने पकड़े जाने पर अपने प्राण दे दिए।"
नंदन ने दस्युओं के बारे में सारी जानकारी दे दी थी। अभिक जानता था कि यदि उसे जीवित छोड़ दिया तो यह दस्युओं को सावधान कर देगा। अभिक ने उसका वध कर उसके शव को गड्ढे में डाल दिया।
केवल आठ दस्युओं से मुकाबला करने के लिए उसने महाराज पुरुरवा से सहायता लेना उचित नहीं समझा। उसने तय कर लिया कि वह समस्या को निपटा कर ही महाराज के सम्मुख उपस्थित होगा। अपने मित्र सुबाहू की सहायता लेने के लिए वह उसके पास चल दिया।


अमावस की रात जब दस्यु अश्वों के लिए नदी के किनारे पहुँचे तो उन्हें वहाँ कोई नहीं मिला। एक दस्यु गुस्से से बोला,
"नंदन की दुष्टता देखो। पारितोषक लेकर काम नहीं किया।"
किंतु दस्युराज ने संकट को सूंघ लिया। वह चिल्लाया,
"खतरा है। सब अलग अलग बिखर जाओ।"
दस्युओं में भगदड़ मच गई। इस अफरा तफरी में सुबाहू ने अपने बाणों से दो दस्युओं को मार गिराया। अभिक ने भी तलवार से दो को मौत के घाट उतार दिया। दस्युराज सहित अन्य तीन दस्यु नदी के किनारे जंगल में छिप गए। अभिक और सुबाहू मिलकर उन्हें ढूंढ़ने लगे। अभिक सधे कदमों से सावधानी से आगे बढ़ रहा था। तभी अचानक एक दस्यु ने उसे पीछे से दबोच लिया। अभिक स्वयं को उस दस्यु के शिकंजे से छुड़ाने का प्रयास करने लगा। तभी सुबाहू ने बाण चला कर उस दस्यु को मार गिराया।
दस्युराज अपने दो साथियों के साथ अपने ठिकाने की तरफ बढ़ रहा था। अभिक और सुबाहू भी उनके पीछे थे। दस्युओं में से एक उन दोनों को रोकने के लिए उनसे मुकाबला करने लगा। लेकिन उस पर विजय पाने में अभिक को अधिक समय नहीं लगा। दस्युराज अपने साथी के साथ गुफा में घुस गया। अभिक भी उन लोगों के साथ गुफा में घुस गया। सुबाहू बाहर रुक कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
अभिक ने सबसे पहले दस्युराज के साथी को पत्थर पर पटक कर मार दिया। इस बात से क्रोधित होकर दस्युराज उस पर झपटा। दोनों के बीच मल्ल युद्ध होने लगा। अभिक मल्ल में निपुण था लेकिन दस्युराज भी उससे कम नहीं था। दोनों के बीच देर तक द्वंद होता रहा। पर अंत में अभिक ने दस्युराज पर नियंत्रण कर उसे बंदी बना लिया।
अपना काम पूरा कर सुबाहू वापस चला गया। दस्युराज को लेकर अभिक नगर में आ गया। सब जगह समाचार फैल गया कि दस्युओं को परास्त कर उनके मुखिया को बंदी बना लिया गया है। सभी लोग अभिक की जय जयकार कर रहे थे। बंधक दस्युराज को लेकर अभिक महाराजा पुरुरवा के सामने उपस्थित हुआ। महाराजा पुरुरवा ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा।
"तुम बहुत वीर हो। तुमने अपनी सूझबूझ से पश्चिमी क्षेत्र में व्याप्त दस्युओं के संकट को समाप्त कर दिया। हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हें क्या चाहिए ? कोई जनपद या कोई उच्च पद। जो मांगोगे मिलेगा।"
अभिक ने उत्तर दिया,
"महाराज पद या जनपद तो मुझे बाँध देंगे। मैं तो उन्मुक्त पंछी हूँ। बंधन में नहीं रह सकता। राज्य की सेवा करना मेरा सौभाग्य है। आगे भी जब मेरी सेवाओं की आवश्यक्ता हो मुझे संदेश भिजवा दीजिएगा। अभी मुझे इतना धन दे दीजिए जो कुछ दिनों के लिए पर्याप्त हो।"
महाराज पुरुरवा ने राजकोष से उसे पर्याप्त धन दिलवा दिया। धन लेकर वह पुनः अपनी शर्तों पर जीवन व्यतीत करने के लिए निकल गया।

महाराज पुरुरवा ने अब राज्य संचालन में मन लगाना आरंभ तो कर दिया था किंतु बहुत प्रयास करने पर भी वह उर्वशी के खयाल को एक पल के लिए भी अपने दिल से नहीं निकाल पाते थे। जब वह दरबार में होते तो जैसे तैसे अपने दिल को राज्य की समस्याओं में लगाने का प्रयास करते थे। किंतु महल में लौट कर आते तो दिल उर्वशी के लिए बेचैन हो उठता था।
अक्सर वह सोंचते थे कि क्या उर्वशी भी उनसे मिलने को इस प्रकार तड़पती होगी। या फिर वह स्वर्गलोक में जाकर उन्हें भूल गई होगी। वह अपने ह्रदय को समझाते कि वह भी अवश्य ही उन्हें याद करती होगी। फिर अगले ही क्षण शिकायत करते कि यदि वह उन्हें याद करती है तो उनसे मिलने क्यों नहीं आई। वह तो अप्सरा है चाहे तो आसानी से धरती पर आ सकती है। किंतु फिर मन को समझाते कि अवश्य ही वह अप्सरा है पर बंधन में बंधी है। देवराद इंद्र की इच्छा के बिना वह कहीं आ जा नहीं सकती है। इस तरह के तर्कों से वह अपने मन को तसल्ली देते रहते थे।
रानी औशीनरी को भी जबसे महाराज के दिल का हाल पता चला था तब से वह भी दुखी रहती थीं। एक रानी होने के नाते उन्होंने इस सत्य को स्वीकार कर लिया था कि महाराज किसी और से सच्चा प्रेम करते हैं। लेकिन पत्नी के रूप में उन्हें यह बात चुभ रही थी। उन्होंने महाराज पुरुरवा से सच्चा प्रेम किया था। अब तक वह यही समझती थीं कि महाराज पुरुरवा भी उन्हें उतना ही प्रेम करते हैं। पर यह तो उनका भ्रम था। महाराज पुरुरवा ने यह बात स्वयं स्वीकार की थी कि वह एक पति के रूप में उन्हें चाहते तो हैं किंतु उस प्रेम में वह तड़प नहीं है जिसका ज़िक्र महारानी ने उस दिन उपवन में किया था। परंतु प्रेम को समझने वाली रानी औशीनरी जानती थीं कि प्रेम याचना करके नहीं लिया जा सकता है। अतः वह चुपचाप एक पत्नी और महारानी के उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रही थीं।