जुगनू - the world of fireflies - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

जुगनू - the world of fireflies - 5

विद्युत होटल वापस पहुंच चुका था लेकिन कई सारे अधूरे रहस्यों और सवालों की गठरियों के साथ...
जैसे केवल उसका ही प्रियमविधा को देख - सुन पाना... उसकी कथा, जिसपर उसका दिल यकीन कर रहा था दो दिमाग कहीं न कहीं विश्वास करने से कतरा रहा था... वो साया जिसे उसने देखा था... प्रियमविधा का उसे जंगल में रहने देने से मना करना... न जाने क्यूँ!!? वह उसे जल्द से जल्द वहां से भगाने पर तुली हुई थी... अभी ऐसा क्या क्या था ; जिसकी उसे भनक नहीं थी... और एक बार उन सब बातों से अवगत हो जाने के बाद वह सारे रहस्य जानना चाहता था।
इन सब के अलावा भी ' कुछ ' था जो उसपर मानसिक तौर पर हावी था.. और वह स्वयं प्रियमविधा ही थी.. बिल्कुल वैसी ही जैसे दादी या नानी की कहानियों की परियाँ होती हैं... उसके घने सुनहरे बाल , जिनका स्पर्श भी मखमली था वरना.. ( उसे याद आया जब उसके द्वारा अटेंड की गई इकलौती पार्टी में किसी लड़की ने जबरन अपनी अदा दिखाते हुए अपने बाल झटके थे.. च्च! च्च! च्च! बेचारे के गाल... छिलते-छिलते बचे थे। )... खैर! " वह फिर प्रियमविधा को याद करने लगा- " उसके गालों के खूबसूरत गढ्ढे जिनमें वह गिर ही जाता अगर जल्द ही वह मुस्कुराना बन्द न करती..
वह एक बार फिर उसी जंगल में जाना चाहता था.. पर उस साये को याद कर उसके इरादे डगमगा जाते.. उसने निर्णय किया कि वह इस बार दिन में जाएगा, बल्कि सुबह ही.. उसे सिर्फ़ एक बात का दुख था कि सुबह जाने से वह जुगनुओं से वंचित रह जायेगा पर कोई बात नहीं! उसे इसबार 'कोई और' मिल जाएगा या फिर कहें मिल जाएगी...
लेकिन कल सुबह तक का ही इंतेज़ार कर पाना उसके लिए हवालात में रात गुजारने जैसी थी। जैसे तैसे करवटें बदलते, फ़ोन की स्क्रीन खोलते बंद करते और कुछ कुछ डरते हुए आखिरकार उसकी आंखें लग ही गई।
"..खट..खट.. " उसकी आंखें लगते ही किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दे दी।
" अरे यार! क्या घटिया होटल और स्टाफ है! कभी भी टपक पड़ते हैं.. ये भी कोई सर्विसिंग टाइम है!!स्टुपिड डफर्स.. " उसने बड़बड़ाते हुए दरवाज़ा खोला और डर से उसकी चीख निकल गयी।
दरवाज़े पर 'वही साया' खड़ा था... झाड़ियों जैसे उसके गंदे धूल से सने हुए बाल जिसने उसके आधे चेहरे को डरावने ढंग से ढँक रखा था.. केवल उसकी एक आंख नज़र आ रही थी जिनमें खून उतरा हुआ था.. गले में एक बेहद पुराना घाव जिसमें से रिसता खून उसके फटे- चिथड़े मटमैले कपड़े भिगो रहा था... वह गुर्राते हुए कमरे के भीतर घुसने लगी और खौफ के सदमें में खोया विद्युत पीछे होने लगा.. कुछ देर पहले जिन स्टाफ मेंबर्स को वह बुरा भला कह रहा था अब उन्हीं को आवाज़ लगा कर बुलाना चाहता था पर उसके गले से शब्द ही नहीं फूट रहे थे... अचानक डर से पीछे हटते हुए विद्युत का हाँथ उसी कमरे में रखी एक टेबल से जा लगा जिसपर उसकी गाड़ी की चाबी थी। उसने उस चाबी को उठाया और अपने भीतर की सारी हिम्मत जुटाते हुए जैसे सिर पर पैर रख कर भाग खड़ा हुआ। वह खतरनाक साया भी गुर्राते हुए उसके पीछे चल पड़ा। रास्ते और रिसेप्शन में विद्युत होटल के स्टाफ को ढूँढते हुए आगे बढ़ रहा था पर स्टाफ छोड़ों उसे एक भी व्यक्ति नहीं मिला...वह गेट की ओर बढ़ा और चौक पड़ा की गॉर्ड तक अपनी जगह से नरादर था.. पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत उसमें दूर-दूर तक नहीं थी... उसने पार्किंग में रखी अपनी कार निकाली और बैठ कर चल पड़ा.. इस गलतफहमी के साथ कि वह प्रेत उसके पीछे नहीं आएगा... वह बिना कुछ सोचे अपनी गाड़ी सड़क पर दौड़ाये जा रहा था की अचानक उसकी गाड़ी के शीशे में खून से लथपथ किसी के हाँथ की छाप उभर आयी... वह हद से ज्यादा डर गया था लेकिन फिरभी उसने अपनी गाड़ी रोकी और अपनी कार का शीशा नीचे किया और अपनी गर्दन बाहर निकालते हुए झांकने लगा कि एक खून से लथपथ होंठों से झांकते पीले नुकीले दांतों वाला एक साया उसके ठीक सामने भयावह तरीके से चीख़ते प्रकट हो गया.. विद्युत की भी चीख निकल गयी.. उसने गाड़ी वापस स्टार्ट की और प्रियमगढ़ के उस जंगल की ओर मोड़ दी.. अपनी पूरी ज़िंदगी में वह पहले कभी इतना नहीं डरा था जितना पिछले 15-20 मिनट में.. अब एक प्रियमविधा ही थी जो उसे बचा सकती थी.. यही सोचकर वह जंगल की ओर बढ़ चला..
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" प्रियमविधा..¶..¶..¶.....
वह अपनी पूरी ताकत से चिल्लाया.. वह जंगल में पहुंच चुका था.. पर उसे प्रियमविधा कहीं नजर नहीं आयी.. इस बीच कई बार उसे प्रेत नज़र आ चुके थे जो वास्तव में एक नहीं दो थे.. एक किसी लड़की तो दूसरा किसी लड़के का।
उसे एक बड़े से पेड़ के पीछे से कुछ हांफने जैसी आवाज़ें आई... वह इस उम्मीद से उस पेड़ की ओर लपका की वहां प्रियमविधा हो सकती है पर वहां पहुंच कर जो उसने देखा.. उसे लगा जैसे किसी ने उसके दिल को निकाल कर उसपर पर पत्थर पर पत्थर दे मारें हों...
प्रियमविधा अचेत पड़ी हुई थी... उसके पेट में बड़ी बेदर्दी से एक खंजर गोभा हुआ था... उसके पैरों की पायल बिखरी पड़ी थी और उसके साथ बिखरा हुआ था विद्युत का दिल सौ टुकड़ों में बंटा हुआ..
उसकी आँखों में पानी चमकने लगा और अगले ही पल उसके गालों पर लुढ़क आया... अभी कुछ घंटों पहले ही तो वह उसे मिली थी.. अपनी पायल छनकाते वह उसे दपट रही थी.. बात बात पर अपनी तीखी नज़रों से अंगारे बरसा रही थी और अब उन्हें खोलने का नाम ही नहीं ले रही थी..
विद्युत लाचार सा अपने घुटनों के बल गिर पड़ा..
" प्रियमविधा..$...$... " वह उठ बैठा। वह अपने होटल के कमरे में ही था। मतलब सब एक भयानक सपना था। उसने चैन की सांस ली। सुबह हो चुकी थी न जाने रात में कब उसकी आंख लग गई और.. बिस्तर से उठते हुए वह ठिठक गया.. आज उसने पांच सालों में पहली बार दूसरा सपना देखा था। यह कैसे संभव है?? अपने पिता की मौत से एक साल पहले से उसे केवल एक ही सपना हर रात परेशान करता था(भाग- 1 ) । वही जो आगे चलकर सच में बदल गया और उसकी जिंदगी उजड़ गई। जब उसकी सौतेली माँ उसे राजनीति में अपने फायदे के लिए घसीटना चाहती थीं पर विद्युत फैशन डिजाइनिंग की दुनिया में घुसना चाहता था। उसके पिता भी उसके इस निर्णय में उसके साथ थे यही बात उसकी सौतेली माँ को नागवार गुजरी और वे अपने सगे बेटे के साथ अलग हो गयीं। इसी बीच उसके पिता की तबियत खराब हो गई। विद्युत दिल्ली के एक डॉक्टर से उनका इलाज करवाना चाहता था पर उसकी सौतेली माँ को जब ये बात पता चली तो वे वापस आयीं और अपने पति का इलाज विदेश में करवाने की ज़िद की वजह से विद्युत ने अपने पिता को खो दिया और तब से लेकर अभी तक वह अकेला ही रहता आया है।
पर इस वक़्त सवाल यह था कि उसे पांच सालों में पहली बार वह सपना नहीं आया था लेकिन उस सपने से अधिक नहीं तो लगभक उतना ही खतरनाक एक और सपना... नहीं!नहीं! वह जल्द ही प्रियमविधा को देखकर आएगा कि वह ठीक तो है न?


विद्युत जब नीचे रिसेप्शन में पहुंचा तो वहां लोग उसे अजीब ढंग से घूर रहे थे वाज़िब था वे नज़रें किसी सेलिब्रिटी को देखने वाली नहीं थीं और वैसे भी विद्युत वहाँ अपनी पहचान छुपा कर ही रह रहा था.. हूडी से अपना फेस कवर कर.. गॉगल्स लगा कर.. वह मास्क पहनते हुए ही अपने रूम से बाहर निकलता था। उसे लगा कहीं उसे होटल वाले पहचान तो नहीं चूके हैं न? उसने अपने गॉगल्स और हूडी पर हाँथ फेरा हरे था कि...
" एक्सक्यूज़ मी सर!! " एक स्टाफ मेंबर ने उसे आवाज़ दी।
" यस..
" सर सॉरी टू इंटरप्ट.. पर क्या आप उस फारेस्ट में जा रहे हैं.. व..व्वो..प्रिय..म्म..
" प्रियंगढ़!" विद्युत उस स्टाफ मेंबर के नाम लेने की हिचकिचाहट से खीझ गया और रूखे तरीक़े से उसे जवाब दिया जैसे कोई उसके घर की बेज्जती कर रहा हो ।
" यस सर! वही जगह.. दैट इज़ डेंजरस.. आई थिंक आपको वहां नहीं जाना चाहिए... कई बार लोग वहां जाने के बाद लौट कर नहीं आते प्लीज! आप वहाँ मत..
" आप सब मेरे पीछे मेरी जासूसी करते हैं... " विद्युत ने रूखेपन से ही पूँछा।
" न..न्नो सर्!" वह सहम गया
" लिसेन! स्टॉप स्प्रेडिंग दीज़ रुमूर्स! और अपने काम पर फोकस कीजिये।" कहकर वह अपनी कार के पास पहुंचा और चिहुंक उठा ये देखकर की उसकी कार के शीशे में कुछ लाल रंग का एक सूख चुका धब्बा लगा हुआ था। उसे अचानक याद आया की सपने में ठीक उसी जगह पर तो वह खून से लथपथ हाथ के निशान थे जिससे खून की बूंदें टपक रही थी, और फिर उसने ये सोचकर बात टाल दी कि शायद वह कुछ ज्यादा ही सोच रहा था।
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विद्युत ज्यादा देर न करते हुए जल्द ही जंगल के लिए निकल पड़ा। वह आज तीसरी बार इस जंगल में आया था लेकिन पिछली दो बार उसने रात में ही यहां प्रवेश किया था और यह पहली बार था जब वह दिन में यहां आया था और हर वक़्त उसे कुछ फुसफुसाहट सी महसूस हो रही थी जैसे कोई बड़ी धीमी आवाज़ों में बातें कर रहा हो। पर फिलहाल वह यह सोच रहा था कि आखिर वह प्रियमविधा को कैसे पुकारे। सपने में से तो उसने उसे "प्रियमविधा" कह कर ही पुकारा था.. तो अभी भी वही बुलाए.. नहीं! अगर वो गुस्सा हो गई तो.. " तुममे इतना साहस की हमें हमारे नाम से पुकारो! " उसने प्रियमविधा की नकल उतारी और खुद ही हंस पड़ा। उसे अपनी हँसी के साथ ही सुनाई दीं और भी कई सारी हंसने की आवाज़ें। वह पलटा पर एक बार फिर अपना वहम समझ कर आगे चल पड़ा; प्रियमविधा को पुकारने की उलझन के साथ।
" राजकुमारी बुलाऊँ?? इयू!! सो चीज़ी! " वह सोचते हुए आगे बढ़ ही रहा था कि सामने उसे एक नौजवान आदमी दिख पड़ा । ऊंचा कद , अच्छी बॉडी , जीन्स शर्ट पहने वह उसी जगह पर खड़ा था जहाँ विद्युत पर गोली दागी गई थी। वह इंस्पेक्टर जीत था.. जीत वशिष्ठ। एक काबिल पुलिस अफसर... जिसने विद्युत का केस हैंडल किया हुआ था.. और शायद उसी के सिलसिले में वह इस जंगल में था।
विद्युत अपना चश्मा और मास्क कार में रख कर आ गया था , ये समझकर की कम से कम इस जंगल में तो उसे ऐसा कोई नहीं मिलेगा जो उसे पहचान पाए। उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि इंस्पेक्टर जीत यहां तक पहुँच जाएगा। वह उसकी नज़रों से बच पाता कि जीत ने उसे देख ही लिया।
" मिस्टर आहूजा.. आइये आइये। " जीत ने गर्मजोशी से कहा जैसे उसे बिल्कुल भी आश्चर्य न हुआ हो विद्युत के यहां होने पर।
" अर्.. जीत तुम यहाँ?? "
" अब ये मत कहियेगा की आपको नहीं पता कि मैं यहां क्यूँ हूँ?? आप के ही तो केस ने मुझे बंजारा बना दिया है " कहकर उसने ठहाका लगाया।
" लेकिन अकेले?? नो कॉउंस्टेबल एट ऑल?? "
" सब के सब डरपोक हैं साले! पता नहीं कैसे अपनी इतनी तोंद लेकर पुलिस की नौकरी में भर्ती हो गए??" उसने बाकायदा अपने हांथों से बढ़ी हुई तोंद का इशारा करते हुए बतलाया। उसकी बातें सुन विद्युत को हंसी आ गयी कि वह उसकी ओर पलटा- '' और वैसे भी!आपको तो पता है न?? मुझे अकेले काम करने की आदत है.. बचपन से!! यू नो.. समथिंग सुकून टाइप मिलता है अकेले काम करने में.. और आपसे बेहतर ये बात कौन जानता है?? "
" तो कुछ पता चला?? " कहकर विद्युत नज़रें चुराने लगा ।
" आप जब पता लगने दें तब न?? " जीत ने रहस्यमयी ठंग से कहा और उसके चारों ओर घूमने लगा " आप पर तीन बार हमले हो चुके हैं.. और आखिरी हमले में तो आपका टिकट ऑलमोस्ट...
" जीत...
" ओके-ओके..कूल.. तो मैं क्या कह रहा था? हाँ! मैने तीनो बार आपके मर्डरप्लेन के मास्टरमाइंड को ढूँढ़ निकाला.. तीनों बार एक ही इंसान.. और ये बात तो पूरा मुम्बई जानता है कि "जीत वशिष्ठ" ऐसे केसेज़ में सूई की नोक जितनी भी गलती नहीं करता पर आपने.. मिस्टर आहूजा आपने तीनों बार ये कह कर टाल दिया कि ' वो इंसान ' आपका मर्डर प्लानर हो ही नहीं सकता। और गवर्नमेंट मुझपे हर बार बेस्ट ऑफिसर का टैग लगा कर आपका केस मुझे ही चपका रही है। अब उनको क्या बताऊँ कि आप खुद ही नहीं चाहते कि वो इंसान पकड़ा जाए। " जीत ने दांतों को भींचते हुए कहा।
" स्टॉप इट जीत.. बार बार मुझे मिस्टर आहूजा और आप कहना बन्द करो.. ये गाली जैसा लग रहा है ! "
" मन तो सच में गाली ही देने का कर रहा है.. पता नहीं किस मनहूस घड़ी में मैने तुझ जैसे पठ्ठे से दोस्ती की थी जिसे लगता है जिंदगी भर भुगतना पड़ेगा। फटीचर कहीं का , इतना बड़ा डिज़ाइनर बन गया पर इतनी अकल नहीं आई कि गलत को गलत बोल सके.. अकेले रहकर सुकून चाहिए! अबे हट्ट!.. भूल गया पुलिसवाला हूँ, एक थप्पड़ में तेरा सुकून बढ़िया से दे दूंगा.. " जीत की पिछले 20 मिनट से दबी हुई चिढ़ फूटकर बाहर निकली। वह विद्युत का बचपन का दोस्त था । अपने परिवार से दूर होस्टल में रहकर पढ़ाई करता था और पुलिस में दिलचस्पी होने के कारण उसने पुलिस की नौकरी जॉइन कर ली थी और किस्मत से विद्युत का केस उसे ही हैंडल करने को मिल गया था। उसे विद्युत के अतीत से लेकर वर्तमान के बारे में हर बात पता थी इसी वजह से उसे केस सुलझाने में अधिक मेहनत नही लगी कि वो मर्डरप्लानर कोई और नहीं, विद्युत की ही सौतेली माँ' ' श्वेता आहूजा 'ही थीं। पर विद्युत हर बार उसे दोस्ती का वास्ता देकर चुप करा देता था क्यूँकी इसके बाद सबको पता चल जाता की वो विद्युत की सौतेली ही सही पर माँ थी, जो विद्युत बिल्कुल नहीं चाहता था।
" अरे! बस.. बस.. बस.. " कहकर विद्युत ने अपने इकलौते यार को गले लगा लिया जससे जीत का गुस्सा ठंडा हो गया।
" ऐसा कब तक चलेगा विद्युत.. क्यों नहीं एक्सेप्ट कर लेता कि वो श्वेता आहूजा ही क्रिमिनल है.. बता रहा हूँ जिस दिन उनके खिलाफ एक सॉलिड प्रूफ मिल गया न.. कसम से सारे कैदियों के लिए उनसे ही चक्की पिसवाऊंगा.. "
" क्या फायदा?? उससे मुझे मेरे पापा और मेरी खुशियां थोड़े ही मिलेंगी.. "
" पर उन्हें उनके किये की सज़ा मिलना जरूरी है!!"
" अच्छा ये सब छोड़ ! ये बता घर कब चल रहा है मेरे.. "
" अच्छा! उस जंगल में जाऊं.. जहां इंसानो से ज्यादा जुगनुओं का डेरा है! " जीत ने कनखियों से विद्युत को देखते हुए लापरवाही से कहा पर विद्युत की आंखें हैरत से फैल गई- " तुझे.. मेरा घर??... "
" हाँ! सब जानता हूँ.. भला मुझसे और भी कभी कुछ छुपा है?? "
वे दोनों ने वहीं खड़े हुए न जाने कितने झगड़े के ग्रंथ लिख डालते अगर जीत को उसके एक सीनियर का फ़ोन न आता। उसने विद्युत से उसके घर आने की बात कही और उसे इस जंगल में सावधान रहने की सलाह देकर चला गया। वह जानता था की विद्युत को ऐसी जगहों पर घूमना पसंद है, और पुलिसवाला होकर इस जंगल के प्रति डर दूर-दूर तक उसके मन में नहीं था इसलिए विद्युत के जंगल में होने पर उसने किसी प्रकार का सवाल खड़ा नहीं किया।
उसके जाने के बाद विद्युत पुनः अपने 'उसी' काम में लग गया जिसके लिए वह यहां आया था। उसने गौर नहीं किया की जब तक वह जीत के साथ था तब तक वे फुसफुसाहट भरी विचित्र आवाज़ें किसी भी प्रकार से उसके कानों में नहीं गूँजी और वापस उसके अकेले होने पर वे आवाज़ें उसका पीछा करने लगी...
न जाने कहाँ तक वे आवाज़ें उसका पीछा करने वाली थीं..

आगे जानने के लिए बने रहें...


पर्णिता द्विवेदी...