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खौलते पानी का भंवर - 14 - काँच के सपने (अंतिम भाग)

काँच के सपने

बाएं हाथ में उपहार के पैकेट को बड़े ध्यान से पकड़े हुए जब वह घर से निकला तो अंधेरा पूरी तरह छा चुका था. सधे हुए कदमों से वह बस स्टॉप की ओर चल पड़ा. हर साल 21 जुलाई के दिन दीदी के धर जाना एक तयशुदा कार्यक्रम होता था. इस दिन उसकी दीदी और जीजा जी के विवाह की वर्षगांठ होती थी. इस रोज़ आमतौर पर वह दफ़्तर से सीधे ही दीदी के घर की बस पकड़कर वहाँ चला जाया करता था, मगर इस बार ऐसा करना संभव नहीं था. कारण था वह उपहार जो वह इस साल दीदी और जीजा जी को उनके विवाह की वर्षगांठ पर देना चाहता था.

वैसे तो वह हर साल 21 जुलाई के दिन सुबह दफ़्तर के लिए चलते वक़्त ही दीदी को दिया जाने वाला उपहार वह अपने ब्रीफकेस में रख लिया करता था लेकिन इस बार स्थिति अलग थी. इस महीने पहले से ही खस्ता उसकी आर्थिक स्थिति उसकी पत्नी विभा के अचानक बीमार हो जाने पर हो गए खर्च के कारण और भी खस्ता हो गई थी. महीने की 21 तारीख़ आते-आते तो उनके पास बस इतने रुपए ही रह गए थे जिनसे दफ़्तर आने-जाने का किराया, दूध और सब्ज़ी वगैरह का खर्च निकल पाए. दूध और सब्ज़ी में भी काफ़ी किफायत करने की जरूरत पड़नी थी. इसलिए विभा से कई-कई बार सलाह करने के बाद यही तय किया गया था कि इस बार दीदी को वर्षगांठ पर देने के लिए कोई उपहार ख़रीदना संभव नहीं होगा, आख़िर घर में पड़े पिछली दीवाली पर दफ़्तर के मनोरंजन क्लब द्वारा दिए गए काँच के एक शोपीस को ही दीदी को देने का फैसला किया गया. हालाँकि उसका मन मान नहीं रहा था कि मुफ़्त में मिली हुई किसी चीज़ को इस अवसर पर दिया जाए, पर मजबूरी थी. इसके अलावा और कोई चारा था भी तो नहीं उनके पास.

कायदे के हिसाब से ऐसे नाज़ुक उपहार को अपनी गाड़ी या स्कूटर में या फिर ऑटो रिक्शा या रिक्शा में ही ले जाना चाहिए था. गाड़ी तो, ख़ैर, उसके पास थी ही नहीं. अलबत्ता एक स्कूटर ज़रूर था, पर रात के समय वह स्कूटर चलाने से हमेशा गुरेज़ किया करता था. सामने से आ रहे वाहनों की तेज़ चुंधियाती रोशनी से उसे बहुत डर लगता था. उसके घर से दीदी के घर की दूरी बहुत ज़्यादा न होने के कारण ऑटो रिक्शा वाले तो वहाँ तक जाने में आनाकानी करते थे. अलबत्ता रिक्शावाले वहाँ बड़े मज़े से जाते थे. मगर घनघोर कड़की के दिनों में रिक्शा करने की बात सोचना भी उसे बेवकूफी-सी लग रहा था. सिर्फ़ बस से जाना वह गंवारा कर सकता था. यही सब सोचकर सधे हुए कदमों से चलता हुआ वह बस स्टॉप की ओर बढ़ रहा था.

बस स्टॉप पर खड़े हुए उसे काफी देर हो गई थी लेकिन किसी भी बस में वह चढ़ नहीं पा रहा था. यह नहीं कि बसें आ नहीं रही थीं, बसें तो एक के बाद एक आ रही थीं, मगर वे इतनी भीड़ भरी थी कि उनमें से किसी बस में चढ़ पाने की हिम्मत वह कर ही नहीं पा रहा था. और फिर उस वक़्त तो अपनेआप को भीड़ से बचाने से बड़ी समस्या उस उपहार को बचाने की थी. वह कोई ऐसी बस चाहता था जो इतनी खाली हो कि वह उसमें बैठ जाए और दीदी के घर के पास वाला स्टॉप आने पर आराम से उतर जाए.

लेकिन ऐसी कोई बस मिल पाना आसान बात वह लग नहीं पा रही थी. बस स्टॉप पर खड़े-खड़े उसे काफी देर हो गई थी. उसे लगने लगा कि उसके बस-स्टॉप पर आने के समय वहाँ खड़े बस का इन्तज़ार कर रहे यात्रियों में से अब कोई भी वहाँ नहीं बचा था. सब-के-सब किसी-न-किसी बस में सवार होकर जा चुके थे. यहाँ तक कि उसके बाद बस-स्टॉप पर आए कई यात्री भी बस पकड़कर जा चुके थे. अब तो उसे यह भी लगने लगा था कि बस स्टॉप के पास खड़ा पानीवाला या फल बेचनेवाला या स्टॉप के पीछे वाली दुकानों के दुकानदार इतनी देर से उसे वहाँ खड़े देखकर मन-ही-मन उस पर हँस रहे होंगे.

लगभग आधे घंटे तक बस स्टॉप पर खड़े रहने के बावजूद वह किसी बस में चढ़ नहीं पाया था. उसे अपनी स्थिति बड़ी अजीब-सी लगने लगी थी. कोई और चारा न देखकर आख़िर उसने सोचा कि रिक्शा ही कर लिया जाए. उसने इधर-उधर सिर घुमाकर देखना शुरू किया कि किस रिक्शावाले से मोलभाव किया जाए. तभी उसका हाथ अपनी कमीज़ की जेब से जा टकराया. जेब में पड़े गिनती के रुपयों की याद आते ही उसने रिक्शा करने का इरादा छोड़ दिया और बस आनेवाली दिशा की ओर फिर से ध्यानपूर्वक देखने लगा. बसें आ रही थीं, पर सब भीड़ भरी ही थीं. आखिर उसने फैसला कर लिया कि उसकी दीदी के घर की तरफ जाने वाली जो भी बस अब आएगी, वह उसमें चढ़ जाएगा. दो-तीन मिनट बाद जैसे ही उसके मतलब की बस आई, वह दौड़कर उसमें सवार हो गया. बस में उससे ज्यादा भीड़ थी जितना अनुमान उसने लगाया था. बस में ठीक तरह से खड़े होने तक की जगह भी मिल नहीं पा रही थी. उसे लगभग दस मिनट तक यात्रा करनी थी. वह मना रहा था कि उसके हाथ में पकड़ा उपहार सही-सलामत रहे. मगर हर स्टॉप के बाद बस में भीड़ बढ़ती ही जा रही थी.

जब उसका स्टॉप आने वाला हुआ तो उसने बस के अगले दरवाज़े की ओर सरकना शुरू किया. हालाँकि बेशुमार भीड़ के कारण आगे बढ़ना बड़ा मुश्किल काम था, पर फिर भी दूसरे यात्रियों को किसी तरह धकियाते हुए और हाथ में पकड़े उपहार के पैकेट को बचाते हुए वह अगले गेट तक पहुँच ही गया. अगले गेट पर बस से उतरने वाले कई यात्री पहले से ही मौजूद थे.

जैसे ही बस उसके स्टॉप पर रूकी, उसने अपने सामने खड़े यात्रियों को आगे की तरफ धकियाना शुरू किया. उसके पीछे खड़े यात्री जिन्होंने बस से उतरना था, ख़ुद उसे आगे की तरफ धकिया रहे थे. इसके अलावा कुछ यात्री अगले गेट से बस में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे.

उसे लगा जैसे वह भीड़ के भंवर में फंस गया हो. अपनी तरफ से उसने अपनेआप को और हाथ में पकड़े उपहार को संभालने की बहुत कोशिश की, पर भीड़ के रेले के आगे वह बेबस हो गया. बस से उतरते समय उसका सन्तुलन बिगड़ गया और वह धम्म से सड़क पर जा गिरा. हालाँकि सड़क पर गिरते समय भी उसने इस बात की बहुत कोशिश की कि उसका बैग, जिसमें दीदी के लिए उपहार था, जमीन से न टकराए, मगर अपनी इस कोशिश में वह कामयाब न हो पाया. उसका बैग ज़ोर से सड़क से जा टकराया.

सड़क से उठने से पहले ही उसने काँच के टूटने की आवाज़ सुन ली थी. निश्चित रूप से उपहार टुकड़े-टुकड़े हो चुका था. सड़क से उठकर जब वह खड़ा हुआ, तो उसे महसूस हुआ जैसे उपहार नहीं बल्कि उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया है.

 

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