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जुर्रत

जुर्रत

कोठी कैम्पस का सन्नाटा बच्चों के शोरगुल से टूट गया। सारे बच्चे मजे करने के लिए कोठी की चहारदीवारी फांद के भीतर जा पहुँचे थे
बच्चों की छुट्टियों के दिन थे। परीक्षा की चिन्ता के बाद उनके चेहरों पर मुक्ति और स्वच्छन्दता की आभा बिखर रही थी। अवकाश का जो समय मिला था उसमें ऐसा लग रहा था कि वे अपने अन्दर संजोये सारे करतब दिखाकर ही रहेंगे। हालांकि बहुत गर्मी पड़ रही थी किन्तु तपती धूम में भी उन्हें खेल खेलने से फुरसत नहीं थी। घर में थोड़ी देर टिकना भी वे गुनाह समझते थे। खाना भी खाया तो ठीक , नहीं तो खेल के कारण उन लोगों को भूख भी नहीं लगती थी। ऐसे ही माहौल में पिपरई गाँव में कभी बच्चे इमली तोड़कर खाते थे तो कभी अधपके बेर। कभी पेड़ से गिरी पत्तों में लिपटी चिरौंजी खाते थे तो कभी गूलर खाते थे । वे सभी टोलियाँ बनाकर कोई न कोई खेल खेला करते थे। कभी-कभी झगड़ा होने पर 'कल देखूँगा' कहकर तितर-बितर हो जाया करते थे।

एक टोली जिसमें ऊधमी बच्चे ही अधिक थे। मजिस्ट्रेट साहब की हवेली के सामने गिल्ली-डंडा खेलने में मशगूल थे। मजिस्ट्रेट साहब कुछ दिनों पहले ही हवेली में आए थे। उनके आने के पहले वह हवेली खाली रहा करती थी क्योंकि वह हवेली जिस आदमी की थी वह उसमें न रहकर शहर में रहा करता था। हवेली खाली होने की वजह से शैतानों का घर बन चुकी थी। बच्चे मुंडेर पर चढ़कर हवेली के पेड़ों में लगने वाले फल-अमरूद, अनार, पपीता, बेर आदि तोड़-तोड़कर खाते थे । यह उनका रोज का ही काम था। इसके अलावा वे लोग उस हवेली में आइसपाइस, दौड़-भाग, गिल्ली-डंडा, सितोलिया आदि खेल मौसम के हिसाब से खेला करते थे।

लेकिन जबसे मजिस्ट्रेट साहब हवेली में आए थे। बच्चों का हवेली के कैम्पस में घुसना बन्द हो
गया था। वे क्रोधी स्वभाव के थे और उन्हें शोर बिल्कुल भी पसन्द नहीं था। इसीलिए तो उन्होंने गाँव की हवेली खरीदी थी।

एक बार फल तोड़ते हुए एक बच्चे को मजिस्ट्रेट साहब के नौकर ने पकड़ लिया था , बस फिर क्या था मजिस्ट्रेट साहब ने उसकी खुब पिटाई लगाई। साथ में चेतावनी भी दे दी कि अब कोई भी ऊधम करेगा तो मैं जेल में बन्द करवा दूंगा।"
फिर बच्चे के चेहरे को देखते हुए क्रोध में चिल्ला रहे थे-"अपने घर में जाकर क्यों नहीं खेलते हो। यहाँ परेशान करने आवाराओं की तरह आ जाते हो। इनके माँ-बाप भी कुछ नहीं
कहते। "
उन्होंने अपने नौकरों को भी सख्त हिदायत दे दी कि कोई बच्चा अन्दर नहीं आए और न ही फल तोड़े। यदि कोई बच्चा ऐसा करे तो उसे भरपूर सजा दी जाए।

वैसे बात भी किसी हद तक ठीक ही थी कि मजिस्ट्रेट साहब ने हवेली खरीदी है तो वे ही उसके फलों के अधिकारी हैं। फिर वे शहर से गाँव में शान्ति से दिन गुजारने आते हैं।

उस दिन बच्चों पर लड़के की पिटाई का बहुत बुरा असर पड़ा। वे लोग भड़क उठे। उन लोगों के क्रोध का पारावार न रहा तो उन्होंने योजना बनाई कि जिस दिन मजिस्ट्रेट साहब शहर जाया करेंगे उस दिन रात को हवेली में गुलेल से पत्थर फेंका करेंगे। और उन्हें इस बात का अधिक इन्तजार नहीं करना पड़ा। दूसरे ही दिन मजिस्ट्रेट साहब शहर चले गए तो रात्रि में उन्होंने योजना के मुताबिक पत्थर बरसाने शुरू कर दिए।
अगले दिन वही टोली मजिस्ट्रेट साहब की कोठी के सामने गिल्ली-डण्डा खेल रही थी। उनमें शिरीष नाम का एक मासूम बालक था जो चार दिन पहले ही इस गाँव में आया था ।
उसकी माँ चौका-बर्तन का काम करके घर का खर्च चलाती थी क्योंकि भाग्य ने उसके सिर से पिताजी का साया उठा लिया था । बहुत गरीबी में वे लोग अपने दिन गुजार रहे थे यहाँ गाँव में उसका ननिहाल था।
छुट्टियाँ होते ही उसकी माँ उसे गाँव में लेकर आ गई थी। गिल्ली खेलने में शिरीष का नम्बर आया। उसने डण्डा सीधा करके गिल्ली की नोंक पर वार करके जो डण्डे से चोट की तो वह गिल्ली हवेली के अमरूद के पत्तों में सरसराती हुई निकल गई।

मजिस्ट्रेट साहब उस समय घर पर नहीं थे उनकी लड़की ललिता बगीचे में पके फलों को देखने गई थी। उसके सिर पर जाकर गिल्ली लगी और खून झिलझिला उठा। उसका सिर चकराने लगा। वह अपने कमरे में आ गई। उसे पता भी न चला कि कौन-सी चीज उसके सिर से टकराई है।

गिल्ली हवेली के अन्दर जाते देखकर टोली का नेता शिरीष से बोला-"चल बे शिरीष मेरी गिल्ली लाकर दे नहीं तो खाल उधेड़ दूंगा। मैं दो दिन पहले ही बनवाकर लाया था।"
शिरीष के हाथ-पॉव फूल गए क्योंकि उसने भी सुन रखा था कि हवेली में जो कोई भी जाता है। मजिस्ट्रेट साहब उसकी पिटाई लगाते हैं। वह सोचने लगा कि अमीरों के तो वैसे भी दिल नहीं होता। यदि उन्होंने पकड़कर पिटाई लगाई तो वह माँ को क्या उत्तर देगा? कहीं ज्यादा चोट आई तो माँ इलाज कैसे करायेगी और मामा भी तो नाराज होंगे, कहेंगे-"देखो अपने बच्चे को समझाकर रखो कहीं ऐसा न हो कि वह हमारी गाँव में दुश्मनी करा जाए और फिर बाद में हमें भुगतना पड़े।"
उसे ऐसा लगने लगा कि गरीब के साथ कोई अच्छा व्यवहार नहीं करता। मीठा बोलने के बजाय सब उसे झिड़कते हैं।
अभी वह मन ही मन सोच रहा था कि नेता लड़के ने शिरीष को कोहनी मारकर सचेत किया-“अबे जाता है कि नहीं! सो गया क्या?" वह कहने लगा-"मैं किधर से जाऊँ सन्तरी फाटक नहीं खोलेगा।"
वह दादा टाइप नेता शिरीष के इस प्रश्न पर बिफर पड़ा- "अरे जाएगा कहाँ से? उधर मुंडेर पर चढ़ जा और यहीं से आ जाना।"
शिरीष डरकर कहने लगा-"नहीं वे लोग मुझे मारेंगे। तुम भी साथ चलो।"
उस लड़के ने क्रोधित नजरों से देखते हुए कहा-"खेलने के नाम पर कैसे तैयार हो गया था। गिल्ली तुझसे ही गिरी है तू ही लाकर देगा। यदि नहीं जाएगा तो मैं मारँगा " ऐसा कहते हुए उसने सभ्यता के सारे बन्धन तोड़ दिए।"

शिरीष को एक ओर कुँआ तो दूसरी तरफ खाई नजर आने लगी। वह न तो गिल्ली के पैसे चुका सकता था और न ही उसमें इतनी हिम्मत थी कि वह हवेली में जा सके।
जैसे-तैसे थोड़ी देर बाद हिम्मत बटोर कर वह मुंडेर पर चढ़ा और नीचे कूद गया।
कूदने के बाद जैसे ही उसने उठना चाहा तो उसकी चीख सन्नाटे को चीरती चली गई। क्योंकि उसकी गरदन सन्तरी ने पकड़ ली, सन्तरी बोला बोला-"क्यों बे क्या चोरी करने आया है?" वह घिधिया कर बोला-"नहीं मैं तो गिल्ली लेने आया हूँ।"
सन्तरी की गर्जना सुनाई पड़ी-"हूँ झूठ बोलता है, मक्कार कहीं का। बोल जल्दी चोरी करने आया था नया फल तोड़ने आया था।"
अभी वह कुछ सफाई देता कि फाटक के बाहर कार का होने सुनाई पड़ा। सन्तरी ने एक हाथ से शिरीष को पकड़ा और फाटक खोलने चल दिया, फाटक खुलने के बाद कार अन्दर प्रवेश कर गई।
सन्तरी शिरीष को हाथ पकडे उसे घसीटते हुए मजिस्ट्रेट साहब ने नजरों में उससे कारण पूछा ? तो वह बोला- "हुजूर ये लड़का मुंडेर से चढ़कर आया था।"
इतना सुनते ही वह दहाड़ उठे-"क्यों तूने यह जुर्रत कैसे की? तेरी इतनी हिम्मत? पता नहीं है इस बात पर हम दो-तीन लड़कों की पिटाई लगा चुके हैं।"
वह हाथ जोड़कर बोला- "नहीं साहब मैं तो गिल्ली लेने आया था।"
साहब की आँखों से क्रोध की चिंगारियाँ निकल रहीं थीं वे चीख उठे-“बन्द करो बकवास । तुम उन्हीं में से हो जो रात को पत्थर फेंकते हैं।"
वह गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा - "नहीं बाबू साहब यह झूठ है।"
उसका कहना था कि बाबू साहब ने छड़ी से पिटाई लगाना शुरू कर दिया। "बोल कौन-कौन रहता है तेरे साथ रात को? यहाँ तू क्या करने आया था? हाँ फल खाएगा? अभी खिलाते हैं हम तुझे।" यह सब कहने के साथ वे छड़ी भी उस पर बरसाते जा रहे थे। शिरीष चिल्ला रहा था-"बचाओ....! बचाओ...!"

उसकी आवाज सुनकर टोली के अन्य बच्चे भाग खड़े हुए।
चीख सुनकर ललिता को होश आया उसने किसी की आवाज सुनी वह कराहते हुए कह रहा था "नहीं बाबू साहब बस करो मैं तो गिल्ली लेने आया था।"
ललिता ने दौड़कर बाबूजी की छड़ी पकड़ ली और बोली-"बस कीजिये पापा क्या मार ही डालेंगे। उसके भी जान है।"
शिरीष ललिता के पैरों में जा गिरा

और बोला-“बहनजी मुझे बचा लो। मैं तो गिल्ली लेने आया था। मैंने कोई चोरी नहीं की न ही मैं पत्थर फेंकता हूँ।"
ललिता ने उसके चेहरे को देखा वहाँ मासूमियत छाई थी और आँखों में सच्चाई का सागर उमड़ रहा था। वह बोल उठी-"शायद यह बच्चा ठीक ही कह रहा है। "
उसने अपनी चोट व पीड़ा की बात छुपाते हुए कहा-"हाँ शायद कोई चीज अमरूद के पेड़ से टकराकर मेरे सिर से टकराई थी।"
यह सुन के बिना कुछ कहे मजिस्ट्रेट साहब तेज-तेज कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ गए।
शिरीष ने रोते-रोते ललिता को सारी बात बता दी।
ललिता को उससे बात करना अच्छा लग रहा था। वह बोली-“चलो मेरे साथ, हम गिल्ली ढूँढेंगे।"
उसने सहारा देकर उसे उठाया।

वे बाग की ओर चल पड़े। थोड़ी कोशिश के बाद उन्हें गिल्ली मिल गई। फिर ललिता ने उसे समझाया-"तुम्हें मुख्य दरवाजे से ही अन्दर आना चाहिये था।"

उसने अपने कपड़ों की ओर निगाह दौड़ाई और नजरों में ही ललिता से कहा क्या तुम्हारा सन्तरी मुझे इन कपड़ों में मुख्य दरवाजे से आने देता?
ललिता ने उसके मन की बात भाँपकर कहा-हाँ तुम ऐसे भी अन्दर आ सकते हो।
इस पर शिरीष ने नकारात्मक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा-नहीं बहन जी अमीरों के दरवाजे गरीबों के लिए हमेशा बन्द रहते हैं। यह सुनकर ललिता सोचने लगी कि समय से पहले ही ये मासूम अमीरी और गरीबी समझ गया है।
ललिता ने उसका हाथ पकड़कर गेट तक आई और सन्तरी से बोली-ये बच्चा कभी भी आए इसे मना नहीं करना।
फिर शिरीष की ओर मुड़ते हुए कहा-"अपनी दीदी से कल मिलने अवश्य आना।"
किन्तु उसने मना करते हुए कहा-नहीं बहनजी बस दूर से ही ठीक है।
उसकी बात बीच में ही काटते हुए ललिता बोली-देखो तुम आओगे तो मैं भी तुम्हारे साथ खेल लिया करूँगी। मैं अकेली रहती हूँ मेरा मन नहीं लगता। मेरे साथ खेलने वाला कोई नहीं देखो मुझसे तो तुम अमीर हो। जो गाँव के चार बच्चे तुम्हारे साथ खेलते हैं।
उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

लौटते समय वह मन ही मन सोच रहा था कि ये कितना प्रेम से बोलती है। इन्हें बिल्कुल भी घमण्ड नहीं है ये गरीबों से स्नेह करती है। लोग कहते हैं कि अमीरों के दिल नहीं होता लेकिन इनको तो अमीर होते हुए भी बहुत बड़ा दिल है। मैं अपने दोस्तों से कहूँगा कि मेरी दीदी को पत्थर फेंककर परेशान न किया करें। यदि वे नहीं मानेंगे तो मैं उनका साथ छोड़ दूँगा या उनके नाम मजिस्ट्रेट साहब को बतला दूँगा।
अगले दिन से वह न केवल खेलने आने लगा बलिक उसकी माँ को भी वहीं काम मिल गया और उसकी पढ़ाई ठीकठाक चलने लगी।
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