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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 14

केशव कृत ’विज्ञान-गीता’: परम्परा-पोषण और युग चित्रण

राधारमण वैद्य

केशव की काव्य-साधना कई रूपों में प्रकट हुई। केशव के मुक्तक, जहाँ शास्त्रीय रस-रीति और भक्ति क्षेत्रीय रति-रीति में सामंजस्य उपस्थित करते हैं, वहाँ उनके प्रबन्ध काव्य भी त्रिधा विभक्त हैं- 1. चरित काव्य धारा, 2. महाकाव्य धारा, तथा 3. रूपक नाटय काव्य धारा। केशव की ’विज्ञान गीता’ इसी रूपक विधा के अन्तर्गत आती है। इसमें केशव ने शुद्ध नाटय रूपक विधाा को ग्रहण न करके, इसे संवाद-बहुल काव्य का रूप दिया है, पर नाट्य की आत्म-इसमें अक्षुण्ण मिलती है। कथा का आरम्भ नाटकीय शैली में ही हुआ, फिर भी संरचना का वाह्य रूप प्रबन्ध काव्य के समान ही माना जायगा। केशव की प्रयोग धर्मिता के कारण इसे एक नवीन नाम- ’रूपक-काव्य’ से अविहित किया गया है।१

इस ग्रन्थ के प्रमुख उपजीव्य ’प्रबोध-चन्द्रोदय’ और ’योग-वासिष्ठ’ हैं फिर भी इसमें पर्याप्त मौलिकता है।२ इस ग्रन्थ की मुख्य पीठिका- धर्म, राजनीति तथा उस युग का सामान्य वातावरण- चित्त न तजत विकार न्हात नर जद्यपि गंगा ?’’३ भीतरी समस्या ग्रन्थ के दूसरे ’’प्रभाव’’ में ही काम के कथन में प्रकट होती है- ’’या सिगरे जग जीतनकों जुवती मय अद्भुत अस्त हमारौ।४ वैसे ऊपरी तौर पर वीर सिंह देव की जिज्ञासा इस रूप में प्रकट हुई-

’’केशव हमहिँ बिबेक को महामोह कौ जुद्व।

बरनि सुनवाहु होय ज्यों जीव हमारो सुद्व।।५

इस प्रकार विवेक और महामोह का वृतान्त ही इस ग्रन्थ का प्रमुख अभिप्राय बन जाता है। महामोह सब द्वीपों में दिग् विजय करता चलता है। अन्त में दल-बल सहित काशी आता है। उसके कुछ पारिवारिक सम्बन्धी हैः काम-सहोदर, व्यभिचार-ज्येष्ठ पुत्र, कलंक पुत्र, कृतघ्र-श्वसुर। उनके कर्मचारी भी हैः पाखण्डकुल पुरोहित बन्धु विरोध-महामात्य, झूठ-प्रधान, क्रोध-दलपति, अन्य-लोभ, शोक, दारिद्रय, आलस्य, भ्रम और भेद। मिथ्यादृष्टि, जो महामोह की पत्नी है, महामोह को काशी न जाने का परामर्श देती है। उसके अनुसार उसका जीतना ढेड़ी खीर है। पर महामोह नहीं सुनता। मिथ्यादृष्टि विवेक के योद्वाओं की शक्ति का भी परिचय देती है। जब महामोह नहीं माना, तो मिथ्या दृष्टि ने समझाया-यदि श्रद्धा को पाखण्ड को सौंप देना चाहिए, यह कार्य भैरवी को सौंपा जाता है। महामोह ’असत’ को साथ लेकर सभा में पहुँचता है, वहाँ चार्वाक नास्तिक मत का उपदेश करते मिलते हैं। चार्वाक से महामोह आशीर्वाद लेता है।

इधर शांति और करूणा, श्रद्धा को पाखण्ड के चंगुल में न फँसने देने का संकल्प करके, उसकी खोज में निकलती है। इसी खोज-यात्रा में धर्म के नाम पर चलने वाले घोर पाखण्ड, श्रद्धा के शोषण और प्रवंचना-सम्बन्धी यथार्थ से परिचित होती है। उन्हें बड़ा क्षोभ होता है। उधर विष्णु-भक्ति की कृपा से श्रद्धा भैरवी से मुक्त होकर वृन्दा देवी के पास आ जाती है। शान्ति विष्णु भक्ति के पास चली जाती है और करूण एवं श्रद्धा विवेक का दर्शन करती है। महाराज विवेक का परिकर यह हैः बुद्धि, ज्ञान, शम, दम, राजधर्म, सत्संग आदि। श्रद्धा और करूणा, मोह-विजय के लिए विवेक से प्रार्थना करती है। राजधर्म भी विवेक को उत्साहित करता है। उद्यम महामोह के योद्धाओं को विजय करने की विधि बतलाता है। युद्ध की तैयारी प्रारम्भ हो जाती है। वाराणसी के उसपार महामोह के डेरे पड़ जाते हैं। महामोह की ओर से भेद और भ्रम तथा विवेक की ओर से धैर्य, दूत बनकर जाते हैं। अन्त में युद्ध होता है। विजय विवेक की होती है। मन को अपने पुत्रों (विकारों) के विनाश की सूचना मिलती है। वह विलाप करता है। सरस्वती उसे धैर्य देती है। मन को वैराग्य होता है। वह शुद्ध हो जाता है। अन्त में विवेक और जीव का संवाद आता है। विवेक जीव की जड़ता को दूर करता है। अन्त में कुछ संवाद ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी चलते हैं। प्रबोध का उदय होता है। संक्षेप में विवेक द्वारा मोह नाश और प्रबोध के उदय की कथा ही विज्ञान गीता में है।

यही प्रबोध का उदय ’प्रबोध-चन्द्रोदय’ के रूप में लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व (विवेक ग्रन्थ की रचना सेद्ध इसी बुन्देल भूमि में जैजाक भुक्ति के तत्कालीन चन्देश वंशी राजा कीर्ति वर्मा के आश्रित कवि श्री कृष्ण मिश्र द्वारा हुआ था।६ ’प्रबोध चन्द्रोदय’ ऐसा लगता है। इसी के अनुकरण पर तेरहवीं शताब्दी में यशःपाल ने ’मोह पराजय’ चौदहवीं सदी में बेंकटनाथ ने ’संकल्प सूर्योदय तथा सोलहवीं सदी में कवि कर्णपूर ने ’’चैतन्य चन्द्रोदय’’ नाटकों की रचना की। इसी शैली पर ’भृति हरि निर्वेद’ तथा सोम प्रभाचर्य कृत ’कुमार पाल-प्रति बोध’ के अन्तर्गत ’जीव मनःकरण संलाप कथा’ मिलती है। इसी प्रकार एक और रचना हरिदेव कृत ’मयण-पराजय-चरिउ’’ है। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश में इस शैली की कुछ और कृतियाँ मिलती है। समन्वय और संग्राहकता के कुश कर्मी गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अरण्य काण्ड के पंचवटी के वर्णन प्रसंग में जिस आध्यात्मिक रूपक की रचना की है, उसमें ’प्रबोध चन्द्रोदय’ के पात्रों को भी अपनाया है।८ उसी प्रबोध चन्द्रोदय का प्रमुख आधार लेकर इस विज्ञान गीता की रचना की है।

अब प्रश्न इस बात का है कि वे कौनसी बाते हैं या वे कौनसी परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण यह रचना की निरन्तरता एक ही दिशा में बनी रही। हो सकता है कि सामाजिक और धार्मिक जीवन में हमारे मूल्य-दृष्टि में एक बदलाव की निरन्तरता भी इसके साथ बनी रही हो। हो सकता है कि इन पाँच सौ वर्षो में किसी विशेष धार्मिक दृष्टि की एण्टी थीसिस ;ंदजप जीमेपेद्ध के रूप में यह प्रयत्न चलता रहा हो। यह सब खोजने के पूर्व हमें केशव कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों पर एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक सा प्रतीत होता है।

उस काल में अधिकांश राज-शक्तियाँ पराजय के तिक्त क्षणों विलासोन्मुख हो गई थी। फिर भी कुछ में जात्याभिमान बना हुआ था और वे प्रकट रूप से अथवा कूटनीति का आश्रय लेकर केन्द्र से संघर्ष कर रही थी। इसी प्रकार विलास-प्रबल होते हुए भी स्वाभिमान पूर्णतः सो नहीं गया था। विलास क्रियात्मक और कलात्मक रूपों में अभिव्यक्ति पा रहा था। वीरता, राष्ट्रीयता और जात्याभिमान के अवशिष्ठ स्फुलिगों को सुरक्षित और उत्तेजित रखने की दृष्टि और हिन्दू स्वाभिमानी की दृष्टि ’रतन वावनी’ में महत्वपूर्ण ढंग से दी गई है। मधुकर शाह के स्वाभिमानी रक्त ने वीरसिंह देव की रगों में क्रान्ति की चिनगारियों को उत्तेजित रखा। अकबर के विरूद्ध वीरसिंह देव के क्रियाकलापों की झाँकी केशवकृत ’’वीरसिंह देव चरित्र’ में देखी जा सकती है।

भक्ति के विभिन्न सम्प्रदायों एवं शाखा-प्रशाखाओं का जाल सारे देश में फैला हुआ था, हिन्दू जीवन की पुनर्व्यवस्था भक्तिगत जीवन मूल्यों के आधार पर ही हो चुकी थी और हो रही थी। केशव परम्परा से जुड़े थे, फिर भी नया भविष्य निर्माण के लिए सचेष्ट भी थे। भक्ति और दर्शन की प्रेरणाओं सेे केशव साहित्य अछूता नहीं है। कृष्णाश्रयी मधुर रस काव्य शास्त्रीय ’रस राज’ से समन्वित होकर ’’रसिक प्रिया’ का उपजीव्य बना। ’रामचन्द्रिका’ रूपतः भक्ति ग्रन्थ होने के साथ भक्ति भावनापन्न स्थलों से समन्वित है। ’’विज्ञान-गीता’’ में ज्ञानाश्रयी अद्वैत निवृत्ति मार्गी हरि-भक्ति की प्रतिस्थापना ही की गई है।

समाज में वर्ग-भेद और जाति भेद अधिक कटु हो गया था। सामान्य कृषर्क और श्रमजीवी शोषण की चक्की में पिस रहे थे।१0 राजवर्ग नैतिक दृष्टि से पतित हो गया था। विलासान्धता में विवेक खो गया था। ’’रामचंद्रिका में राजश्री की निन्दा के ब्याज से तत्कालीन राजाओं की हीन दशा और विकृत मनोवृत्ति का परिचय केशव ने दिया है। राजा उस पारलौकिक मूल्य से च्युत हो गये थे, जो उन्हें प्रजावत्सल बनाता है।11 उनकी दृष्टि लौकिक योग-विलास पर केन्द्रित हो गयी थी। मद्यपान और स्त्री-गमन उनके अभ्यास में आ गये थे।12 राजवर्ग हीं नहीं, सामान्य जनता भी सदाचार की भूमि से च्युत हो चुकी थी। ’’विज्ञान गीता’’ की मुख्य समस्या इसी कदाचार की भूमि से उद्धार कराना है। सामाजिक स्थिति के यही सब संकेत ’’विज्ञान गकीा’’ के तीसरे ’प्रभाव’ में ही लक्षित हो जाता है। कवि की दृष्टि इसके बाह्म और आन्तरिक दोनों कारणों पर है देश में केन्द्र की स्थिति के विषय में केशव कहते हैं।

जानत हौं दिल्ली पुरी, तुरूक बसत सब ठाउँ।

अतिथिनि को दीजत न जँह, आसन अर्थ सुभाउ।। 3/13

वैसे भी सामान्य सामाजिक स्थिति के विषय में कवि की स्पष्टोक्ति देखी जा सकती है।

काम कुतूहल में विलसैं निसि वार-बधू मन-मान हरै।

प्रात अन्हाय बनाय दै टीकनि उज्जल अंबर अंग धरै।

ऐसो तपौ तप ऐसो जपौ जप ऐसो पढ़ौ श्रुतिसार सरै।

ऐसौ जोग जयो ऐसो जग भयौ बहुलोगन को आदेश करै।। 3/3

तीर्थ, जो सांस्कृतिक ज्योति-स्तम्भ की तरह काय्र करने के लिए स्थापित किये गये थे, ब विलासिता के अड्डा हो गये हैं-यथा-

मथुरा वृन्दावन सबै ढूंढ़यो देवि अशेषु।

कबहु न श्रद्धा देखियै चि बिचार करि देखु।। 9/3

पावन सलिला गंगा और यमुना भी कल्मा के पंक से मलिन हो गयी है-’’कालिंदी सरिताहि को, उतरत देख्यो दंभ’’ (3/5) ढोंग और पाखंड का सर्वत्र बोलवाला था।

वेद भेद कछू न जानत घोष करत कराल।

अर्थ कौं न समर्थ पाठ पढ़ै मनो सुक बाल।

भीख काज जती भये तजि लाज मुंड मुंड।

सास्त्र को अतिकरत व्याकुल बादि पंडित कुंड।।3/8

जगह-जगह लोगों ने मठ बना लिए हैं। मृग चर्म संयुक्त मेखलाधारी मठाधिपति विशाल अक्षमालाएँ धारण किये हुए, माथे पर भस्म के त्रिपुँड खींचे13 हाथ में कुसों का मुट्ठा लिए हुए, नाना प्रकार के कुतर्क देते हुए स्थान-स्थान पर बैठे हैं। काशी की दशा भी सोचनीय हो गयी है-

जहाँ लोग मेरे रहैं वेष धारी। जटी दंड मुंडी जती ब्रह्मचारी।

पढै सास्त्र को बेद विद्या बिरोधी। महा चंड पाखंड धर्मी प्रबोधी।।5/19

मारत राह उछाहन सों पुर राहत माह अन्हात उघारैं।

बार-बिलासिनी सों मिलि पीवत मद्य, अनोदक के ब्रत पारैं।

चोरी करैं विभिचार करैं पुनि ’केसव’ बस्तु विचार बिचारै।

जो निसि बासर कासी पुरी महँ मेरेई लोग अनेक बिहारै।। 5/20

आनंद मूलक भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड ही विगलित होने लगा। आनंद और विलासिता पर्याय बन गये और यह सब धर्म-धुरीण मठाधीशों, साधु-संन्यासियों के द्वारा विहित माना जा रहा है। इस कारण कवि बेहद हैरान है। वह देख रहा है कि चार्वाक15 मतावलम्बी तो ऐन्द्रिय तृप्ति की ओर सामान्य जन को भटका ही रहे हैं, पर जैन श्रावक बौद्ध-भिक्षु16 कापालिक17 और सन्यासी18 सभी चमत्कार की चकाचौंध और नाना प्रकार के परि-रंभन के निर्भय राग अलाप रहे हैं। पान की पीक से आरक्त रंगे अधरामृत का पान करने में संलग्न हैं। ग्रंथ के आठवें ’प्रभाव’ में यह सब वर्णन फैले पड़े हैं।

पर यह सब स्थिति बिगड़ते बिगड़ते इस दशा तक आई है। अब स्वर बदल चला है। यह बदलाव की लहर कबीर जैसे सजग क्रांति दर्शी ने पैदा कर दी थी। क्रमशः खुलकर खेलने में संकोच का भाव जागने लगा है। समूचे पाँच छैः सौ वर्ष धार्मिक राजनीतिक अराजकता की वर्षे कही जाती हैं। स्मार्त व्यवस्था टूटने लगी थी। तांत्रिक प्रभाव सब ओर फैल चुका था। धीरे-धेरे प्रज्ञापारमिता और शक्ति में भेद न रहा और दोनों की बिधि-तांत्रिक हो हो गयी। तप द्वारा वासनाओं को जीतने की जगह अतिभोग से सिद्धों की परम्परा जगी। सन्यासी रसायन प्रक्रियाओं, मारण-वशीकरण और उच्चाटन आदि उपायों की सिद्धि में अपना गौरव समझने लगे। कापालिक भी अति उच्छृंखल हो उठे। समाज में भैरवी तंत्र का बोलबाला हो गया। बामाचार आम हो गया। अतः प्रबोध चन्द्रोदय उठ खड़ा हुआ। खजुराहों के आँगन से ही इस विलास मूलक, काम बहुला आचार और चर्चाओं का विरोध आरंभ हुआ।

इन सब के विरोध का मुखर और समाज-स्वीकृत साहित्यिक रूप उपरिलिखत ’प्रबोध चन्द्रोदय’ की परम्परा के रूप में सामने आया। यह बार-बार का प्रयत्न उन भैरव-भैरवियों की लम्बी-सी भीड़ के विरोध स्वरूप एक साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रयास था। ये भैरव-भैरवियाँ नग्न कुमारिका-पूजन, आचार हीन बामाचार, काम-लोलुपता और भक्षा भक्ष को विहित बनाने वाले, पर-तिय लम्पट, कपट-सयाने, सिद्ध बने डोलने वाले कल्पना के आधार पर पंथ सिरज लेने वाले साधु-सन्यासी भी थे और उनसे प्रभावित ग्रहस्थ भी। जिनका विरोध कबीर, केशव और हरिराम व्यास ने प्रकट रूप में और तुलसी ने प्रच्छन्न रूप से किया है। अभी तक इन सबको इस परिप्रेक्ष्य में देखा ही नहीं गया है। धार्मिक विकृतियों के साथ उत्पन्न साहित्यिक प्रयास, जो वैष्णव भक्तों ने इस व्यभिचार सम्पन्न जीवन को उखाड़ फेंकने में किये हैं, तथा जिसे सहृदय और सामाजिक जीवन के संवेदनशील प्राणी-उस काल के कवियों से अपने काव्य में स्पष्ट किया है20 उसे अभी पहचाना ही नहीं जा सका है। आगम के पक्षधर ’प्रवृत्त’ भैरवी तंत्र में फैला हुआ पाते थे और उसके छुड़ाने की सामर्थ्य ’विष्णुभक्ति’ में देखते थे, तभी तो नवें ’प्रभाव’ में बार-बार कहलाते हैं-

’’ग्रसी हुती हौं भैरवी लई बिस्नु भक्ति छुड़ाय।’’ 9/4 व 17 तथा भैरवी को विकरालता और शक्ति सम्पन्नता के बारे में भी कवि की उक्ति विचारणीय है--

महाभयानक भैरवी देखी-सुनो न जाति।

देखति हौं दसहूँ दिसा मेरो चित्त चबाति।। 9/6

श्रद्धा दसों दिशाओं में भैरवी की कराल दाढ़ो में फँसी अपने आपको पाती है इसलिए वह चाहती है कि-

काम के काम अकाम करौ अब बेगि अकामनि आनि अरौ जू।

मोह के मोह को लोभ के लोभ कों क्रोध कों नास करौ जू।

कीजै प्रबृत्ति, निबृत्ति के पंथ निबृत्ति के पाँव धरौजू।

आपने बापकों आपने हाथ कै जीवहि जीवन मुक्त करौ जू।।9/19

यह प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति को अपनाने की बात, और जीवित जीवन-मुक्त होने की साध केशवदास में सहसा नहीं जागी। केशवदास केवल पुराण-वृत्ति पर जीवन बिताने वाले, संस्कृत ग्रन्थों को लगा-भर लेने वाले पंडित अथवा पिंगल के सहारे कविता रचकर राजाश्रय का लाभ मात्र ले लेने वाले कवि नहीं थे, वे व्युत्पन्न तथा प्रतिभा सम्पन्न धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त वंश और जाति पर अभिमान करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें पता था कि उनके पुर्वज सनकादि ऋषि निबृत्ति मार्गी थे। महाभारत शंाति पूर्व के अध्याय 327 में 64 से 66 तक के तीन श्लोकों में स्पष्ट उल्लेख है ब्रह्मा के दूसरे मानस पुत्र सप्तर्षि निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हुए। सन, सनत्सुजात, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन और कपिल-ये सात मोक्ष शास्त्र के आचार्य और मोक्ष धर्म के प्रवर्तक थे। इन्हें योगविद और सांख्य धर्मविद् कहा गया है।’’21 - सोसा सब सोचकर ही और अपनी जातीय परम्परा से परिचित होने के कारा उस सम्पूर्ण रागबहुला और काममूलक स्थिति को रोकने के लिए निवृत्ति का ही मार्ग ठीक हो सकता है।

हो सकता है कि कवि ने अपने जात्यभिमान के पंक में फँसकर भारतीय निवृत्ति प्रवृत्ति संयुक्त जीवनधारा को क्षिप्रता पूर्ण गति भले ही न दे पाई हो, पर उसका संवेदनशील सहृदय कवि उस समय की गत्यावरोध के कारण उत्पन्न सड़ाँध को खूब अनुभव कर रहा था तथा अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति देकर इस युग-दिग्दर्शक ग्रंथ का प्रणयन करके परम्परा अनुमोदित आन्दोलन में खुलकर हिस्सा ले रहा था, इसी तरह भक्ति मार्ग को प्रशस्त भले ही न कर पाया हो, पर उसकी ओर स्पष्ट संकेत करके उस पर बढ़ने को प्रेरित अवश्य यकर सका। अतः ’’विज्ञान-गीता’’ को अपनी सम्पूर्ण परम्परा के परिप्रेश्य में देखकर इसका मूल्यांकन अपेक्षित है- यह तो उस दिशा में एक कदम उठाने का इरादा मात्र है।

संदर्भ संकेत-

(1) डॉ0 विजय पाल सिंह। केशव सुधा-भूमिका पृष्ठ 34 (1970 द्वितीय सं0)

(2) वही पू0 37 (3) संपादक विश्वनाथ प्रसाद मिश्र। केशव ग्रंथावली (खण्ड-3) विज्ञान-गीता-1/29 (4) वही विज्ञान गीता 2/10 (5) वही विज्ञान-गीता-1/36 (6) टीकाकार श्री रामचन्द्र मिश्रः प्रबोधचन्द्रोदयम्-समालोचना-पृष्ठ-3 चौखम्बा, बनारस-1955 (7) बलदेव उपाध्यायः संस्कृत साहित्य का इतिहास-1953- पृष्ठ-493 (8) पाँडेय और नानूराम व्यासः संस्कृत साहित्य की रूपरेखा (पृष्ठ संस्करण-1960) पृष्ठ-220 (9) डॉ0 विजयपाल सिंहः केशव सुधा (दूसरा संस्करण 1970) भूमिका-पृष्ठ 34 (10) तुलसी कवितावली तुसली ग्रंथावली, दूसरा खण्ड, पू0 225 खेती न किसान कौ भिखारी को न भीख बलि। बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।। (11) केशः राम चन्द्रिका, 23/18 जद्यपि है अति उज्जल दृष्टि, तदिप सृजति रागन की सृष्टि। (11) वही-23/35 पान विलास उदित आतुरी, पर दारा गमने चातुरी। (13) विज्ञान-गीता 3/6 मेखला मृग चर्म संजुत अक्षमाल विसाल।

भस्म भाल दिये त्रिपुंडक मुष्टि के कुस जाल।।

ठौर-ठौर विराजहीं मठ पाल जुक्त कुतर्क

घोष एक कही रहयो इन संग तें बहु नर्क।। 3/9

(14) सं0 विश्वनाथ प्रसाद मिश्रः केशव ग्रन्थावली (खण्ड 3) विज्ञान गीता 7/10 (15) वही-विज्ञान-गीता-8/72 (16) वही-विज्ञान-गीता-8/15 (17) वही-विज्ञान गीता-8/23 (18) वही-विज्ञान-गीता-8/27 (19) हास विलास विलासनि सों मिलि लोचन लोल विलोकन रूरे।

भाँतिनि-भाँतिनि के परिरंभन निर्भय राग विरागनि पूरे।

नाग लता दल रंग रँगे अधरामृत पान कहावत सूरे।।

केसव राय कहा ब्रत संजम सम्पत्त माँझ विपत्तिन कूरेे। 7/7 (20)लेखक के (1) केशव का युग और शाक्त मत-’’ब्रजभारती मार्गशीर्ष निबंध (2) तुलसी के ’’मानस’’ की पृष्ठ भूमि-हिन्दुस्तानी भाग 33 2028 (21) डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवालः भारत सावित्री भाग 2 (5 उद्योग पर्व) पृष्ठ 48।