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आखिरी प्यार

उर में माखन चोर गड़े

अब कैसेहु निकसत नहीं उधौ

तिरिछे ह्वै जो अड़े|

संकरी जगह पर कोई बड़ी चीज तिरछी होकर फंस जाए तो वह वहाँ से नहीं निकल सकती |निकालने से या तो वह चीज टूटेगी या फिर जगह |नए के आने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं |त्रिभंगी कृष्ण भी गोपी के हृदय में तिरिछे होकर फंस गए हैं और जीते-जी निकाले नहीं जा सकते |
विद्यार्थी जीवन में यह पद पढ़ते वक्त मैं प्रेम के उस मनो-जगत तक नहीं पहुंची थी,जहां आज पहुँच पा रही हूँ |आज महसूस कर पा रही हूँ कि अंधे सूरदास का प्रेमानुभव कितना गहरा था |सच ही कहते हैं बिना अनुभव के अभिव्यक्ति यथार्थ नहीं होती |
तुम भी मेरे मन में यूं फंस गए हो कि न तो कोई दूसरा आ सकता है न तुम निकल सकते हो |वर्ष पर वर्ष बीतते जा रहे हैं |यौवन प्रौढ़ हो रहा है ......दैहिक दूरियाँ बढ़ती गयी हैं फिर भी ...क्या है ये ...|तुम संसार के आखिरी पुरूष तो हो नहीं फिर क्यों आखिरी प्रेम बन बैठे हो ?
प्रेमचंद पार्क के बहुत पुराने सघन आम्रवृक्ष के नीचे आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में तुम्हें पहली बार देखा था |तुम्हारे सांवले नमकदार चेहरे और भरी देह को देखकर मुझे पीले फूलों से भरा अपना प्रिय वृक्ष अमलतास याद आ रहा था |पके-अधपके विद्वानों के भारी-भरकम क्लिष्ट संस्कृत निष्ठ हिन्दी शब्दावली व किताबी बातों के बाद तुम्हारा सीधा ,सरल ,जमीनी वक्तव्य मन को अच्छा लगा था |लगा कि किसी बाँध की शोर मचाते कर्कश आवाज के बाद किसी झरने की कल-कल आवाज सुन रही हूँ |उस वक्त मैं तुम्हें नहीं जानती थी फिर भी तुम मुझे अच्छे लगे |तुम्हारे जाने के बाद पता चला कि तुम इस शहर के बड़े अधिकारी हो |इतना बड़ा अधिकारी और इतना सहज सरल ......विश्वास ही नहीं हुआ था |
धीरे-धीरे तुम्हें और अधिक जाना...पहचाना फिर पता ही नहीं चला कि कब तुम मेरे इतने करीब हो गए कि मैं तुम्हारी दृष्टि का स्पर्श अपनी रूह तक महसूस करने लगी जबकि हमने कभी एक-दूसरे को छुआ तक नहीं था | मेरी दुनिया शब्दों की ,शब्दों की गूँजों –अनुगुंजों,ध्वनियों की प्रतिध्वनियों ,बिंबों प्रतीकों की दुनिया थी |पेड़ो-पत्तों ,पौधों ,हरियाली ,बादल ,बारिश या सूखी धूप ,मिट्टी रेत फूलों से अटी-पटी दुनिया |कविता-कहानी के बीच हमारी राह बनी पर तुम्हारी अपनी दुनिया भी थी |मेरी दुनिया से अलग ,जिसमें तुम्हें लौटना ही होता था |हम दोनों उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की तरह अलग-अलग थे ,फिर भी इतने वर्षों से साथ हैं |
फिर तुम दूसरे शहर चले गए |वर्ष पर वर्ष बीतते रहे पर हमारा रिश्ता उसी ताजगी और ऊष्मा को महसूसता रहा| तुम्हें हमेशा अपने करीब ही महसूस करती रही | कल के साथ के समय की तुलना में मुझे आज तुम्हारे प्रति कहीं अधिक धधकते और धड़कते प्यार तथा कोमल भावनाओं की अनुभूति होती है |
कोई और मन को नहीं भाता |जाने क्यों मन-भ्रमर को तुम्हारे होंठों के गुलाब ही भाते हैं |तुम्हारी आवाज सुन कर देह में ठहरी हुई नदी दौड़ पड़ती है |उम्र मुझे अपने रूप में नहीं ढाल पाई ,खुद मेरे प्रेम के रंग में ढल गयी |धड़कनों को तेरे हृदय की दरकार आज भी है |मोहब्बत के हर गीत में तुम्हारे ही बोल हैं |जहां-जहाँ प्रेम है वहाँ-वहाँ तुम हो |तुम्हारी अनुपस्थिति की यह उपस्थिति कितनी मादक है |तुम कभी मेरे साथ नहीं चले फिर भी साथ-साथ चलते हो |तुम्हारे जाने के बाद गोष्ठियों में जाना अच्छा नहीं लगता क्योंकि वहाँ तुम्हारी सम्मोहक आवाज नहीं सुनाई देती |अखबार नहीं भाते क्योंकि उसमें पहले की तरह तुम्हारा सुंदर चेहरा दिखाई नहीं देता |मन को उदास करने के लिए ये वजहें भी कम नहीं |
कई बार मन को समझाया है कि वह तुम तक जाना छोड़ दे ...तुम्हारी बुराइयाँ गिनाई हैं कि तुम भ्रमर हो,उदासीन हो ,पत्थर हो ,परिवर्तन कामी हो |तुम बस खेल सकते हो भावना से ...शरीर से ...तुममें नैतिक साहस नहीं ...बुजदिल हो ....कायर और डरपोक हो और भी जाने क्या-क्या पर मन पर इन बातों का कोई असर ही नहीं होता ...उसे तो बस तुम्हारा प्यार याद आता है ...तुम्हारी वह मुस्कान ...तुम्हारी आँखों की वह धमक जो सिर्फ मेरे लिए थी |
धमकाती हूँ खुद को कि क्यों बरबादी की तरफ जा रही हो ....पर .....|
मेरे दिल की धड़कन हमेशा यह कविता गुनगुनाती रहती है |

‘’I want to die while you love me

While yet you hold my fair

While laughter lies upon my lips

And lights are in my hair

I want to die while you love me

Oh who would care to love

Till love has nothing more to ask

And nothing more……to give?

I want to die………’’

यह जानते हुए भी कि प्रेम में देह अलग नहीं होता |देह की प्रस्तर दीवार को तोड़कर ही आत्मा तक पहुंचा जा सकता है जैसे खजूराहों के मंदिरों की बाह्य पत्थर की दीवारों को उलांघकर ही गर्भ-गृह में स्थित ईश्वर की प्रतिमा तक पहुंचा जा सकता है |नदी समुद्र से मिलकर जैसे समुद्र हो जाती है फिर दोनों अलग नहीं हो पाते |
मैंने कभी देह को महत्व नहीं दिया क्योंकि जीवन रस की बारिश से देह रूपी धरती तर-बतर हो जाती है ...तृप्त हो जाती है पर कुछ ही देर |फिर वही प्यास।जाने यह कौन –सा रहस्य है ?खाली होते ही भर जाना और खाली होने के लिए तड़पने लगना|कहीं यह असमान्यता तो नहीं |बादल भी कहाँ रूकते हैं ....वे भी तो खाली होते ही उड़ जाते हैं पर धरती फिर-फिर बादल को देखती है ...मनुहार करती है ...बुलाती है |उसका वश चले तो अपने भराव से भरी रखे बादल को ...जाने ही न दे |पर बादल को भरने के लिए समय की जरूरत पड़ती है |जल तो वह धरती से ही लेता है पर उस जल को वाष्पित होना पड़ता है ...एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है |धरती को सब्र करना ही पड़ता है |
तुम्हारे साथ के वर्ष मेरे औरत होने की यात्रा है औरत को जानने समझने की |अपनी भीतर की औरत को जानकर ही मैं सारी ओढ़ी हुई परतों और कुंठाओ से मुक्त हो पाई |
मैंने सिर्फ देह स्तर पर तुम्हें नहीं सोचा,वैसे भी औरत की पूर्ण तृप्ति संभोग काम-कर्म में नहीं होती |उसकी मन:स्थिति की अनुरूपता में और उसके व्यवहार की अनुकूलता में होती है ,जबकि पुरूष की सारी सोच अपने सुख और तृप्ति के लिए होती है ,इसलिए काम शास्त्र की सारी स्थापनाएँ पुरूष की तृप्ति और सुख के लिए बनाई गई है |स्त्री वहाँ सिर्फ उसके सुख का माध्यम है |उस सुख की भागीदार नहीं |
पर तुम्हारे साथ प्रेम की पराकाष्ठा के अनुभव से मेरा जीवन पूर्ण हुआ है |तुमने मुझे पूर्णता दी |परितृप्ति की संपूर्णता दी ,क्योंकि तुम मेरी औरत के ‘बाडी आफ माइंड’में उतर सके |पर मेरे भीतर एक दूसरी औरत भी है ,जो इस घटना से परेशान है और तुमसे अलग रहकर असामान्य -सी हो गयी है |ये सच है कि हमें अपनी-अपनी धुरियों पर ही घूमना है ,पर हमारे बीच विस्थापन या स्थानापन्न जैसा कुछ नहीं होना चाहिए |तुम अपनी पूर्णता के लिए भटक रहे हो |तुम नहीं समझ पाते कि कुछ भी पूर्ण और अंतिम नहीं होता |रिश्तों की दुनिया में भी उतनी ही भटकन है |रिश्ता कितना भी समीपी ,आत्मीय और सघन क्यों न हो ,पूर्ण नहीं होता |
तुम्हारे जीवन में अभी बहुत कुछ के लिए जगह है पर तुम मेरा आखिरी प्रेम हो और यही मेरा सच है |