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बरखा बहार आई - भाग(१)

क्यों री! आज क्या बो रही है क्यारी मे? नयनतारा की साथी लीला ने पूछा।।
थोड़ी सी भिण्डी और बैंगन,नयनतारा बोली।।
देख तो कितने बादल चढ़े हुए है,अभी बारिश आने वाली है,वैसे भी सावन का महीना है,तेरे बीज बारिश पड़ने से बिखर जाऐगें,ये टेम ना था इन्हें बोने का,नयनतारा की साथी लीला बोली।।
जीजी.... जिन्दगी तो वैसे भी बिखरी हुई है,बीजों के बिखरने से क्या फरक पडने वाला है?नयनतारा बोली।।
क्यों री हमेशा ऐसी बुझी बुझी सी बातें क्यों करती है? नयनतारा की साथी लीला बोली।।
तो जीजी! तुम ही बताओ,इस जेल की चारदिवारी में इन्सान कैसीं बातें करें?नयनतारा बोली।।
तू अपने आप को दोषी क्यों समझती है? ठीक किया तूने उसका कत्ल करके,वो इसी लायक था,मुझे देख मैने अपनी बेटी के बलात्कारी को काटकर रख दिया और इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है,कैसे माफ कर देती उसे,उसकी वजह से ही तो मेरी बेटी ने फाँसी लगा ली थी,लीला बोली।।
जीजी! तुम्हारी बात और है,मुझमें इतना दम नहीं है,नयनतारा बोली।।
दम कैसे नहीं है री?तू ये क्यों भूलती है कि सबसे पहले तू एक औरत है,तू एक औरत पर जुल्म होते कैसे देख सकती थी भला! जो तूने किया वो सही किया,लीला बोली।।
दोनों बातें ही कर रही थीं,तभी जोर की बारिश शुरू हो गई और दोनों अपनी जेल की कोठरी की ओर भागीं,बारिश को देखकर नयनतारा का मन हर्षाने लगा,वो कुछ सोच सोच कर मुस्कुरा उठी....
बड़ा मुस्कुरा रही है,क्या बात है? लीला ने नयनतारा की ओर देखते हुए कहा...
कुछ नहीं जीजी! बस ऐसे ही,नयनतारा बोली।।
ऐसे ही कैसे? कुछ तो बोल,मुझे नहीं बताएंगी,अपने मन की बात,लीला ने पूछा।।
रहने दो ना जीजी! क्या करोगी जानकर? नयनतारा बोली।
बोल ना! बता भी दे,इतना भाव क्यों खाती है? लीला बोली।।
जीजी! बस इस बारिश में भीगने का मन कर रहा है,इस मन में कितनी आग है तुम्हें क्या पता? हो सकता है बारिश में भीगकर मन की आग ठण्डी हो जाए,नयनतारा बोली।।
तो भींग लें ना सोच क्या रही है?लीला बोली।।
डर सा लगता है जीजी! इतना तिरस्कार इतना अपमान सहने के बाद अब खुश रहने से डर लगने लगा है,आखिर हम बेटियाँ जन्म ही क्यों लेते हैं? कन्या भ्रूण हत्या को खतम नहीं करना चाहिए था क्योकिं उसके खतम होने से समाज मे बेटियों का तिरस्कार थोड़े ही बंद हुआ है,बड़े होकर जो तिरस्कार मिलता था तो कम से कम उससे तो बच जातीं थीं,नयनतारा बोली।।
तू बिल्कुल सही कह रही है,लीला बोली।।
हम बेटियाँ जीते जी मरे हुए के समान होतीं हैं परिवार वालों के लिए,ससुराल में भी वही अपमान तिरस्कार,नयनतारा बोली।।
लगता है तेरा दिमाग बहुत गरम है चल आज तेरे साथ मैं भी भींगती हूँ,भींगने से तेरा गरम दिमाग ठण्डा हो जाएगा,लीला बोली।।
और दोनों बारिश में जी भर के भींगी,आज सालों बाद नयनतारा ने उसी अनुभव को जिया था जो उस दिन जिया था,जिस पल को भी आज नहीं भूली है।।
जब दोनों जीभर के भींग चुकीं तो कपड़े बदलने के बाद अपनी कोठरी में जा बैठीं,तब लीला बोली...
अब सुना अपनी रामकहानी.....
जीजी! तुम भूली नहीं,नयनतारा बोली।।
ना! वो तो मैं सुनकर रहूँगीं....लीला बोली.....
तो चलो आज तुम्हें अपनी कहानी सुना ही देती हूँ और नयनतारा ने अपनी कहानी सुनानी शुरु की......
बहुत साल पहले मोहनलाल पन्त के घर में एक बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम उन्होंने नयनतारा रखा,नयनतारा का अर्थ होता है "आँखो का तारा" जो कि मैं बिल्कुल भी नहीं थी,पहली सन्तान वो भी बेटी तो ये रिश्तेदारों और समाज को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं होता,मेरे पैदा होते ही घर में मनहूसियत सी छा गई,
वो इसलिए कि मेरी माँ बहुत ही गोरी और खूबसूरत थीं और मेरी छवि मेरी माँ के बिल्कुल विपरीत थी,मेरा रंग और नैन-नक्श पापा पर गए थे,तो लोगों को मौका मिल जाता था ये कहने कि माँ तो इतनी सुन्दर है,बेटी जाने कौन सा रूप-रंग लेकर पैदा हुई है,ना जाने क्या होगा इसका? कौन ब्याहेगा इसे?
ऐसे ताने मेरे पैदा होते ही शुरू हो गए थे और यही ताने सुन सुनकर मैं बड़ी हो रही थीं,यहाँ तक मेरा छोटा भाई जो कि मुझसे चार साल छोटा था,वो भी कहने लगा था कि दीदी सुन्दर नहीं है,माँ उसे कभी मना नहीं करती कि बड़ी बहन को ऐसा मत बोल शायद दिल ही दिल ही में वो भी यही चाहती थी।।
बेटी थी तो खाने मे घी की कमीं,बीमार होने पर इलाज में कमी,पढ़ाई में ट्यूशन की कमी,अच्छा काम करने पर तारीफ मे कमी,कमी नहीं थी तो सिर्फ तानों की जो कि बात बात पर मिलते थे,हर बात पर मिलते थे,माँ साल में दो जोड़ी कपड़े दिलवा देती थी,
कोई रिश्तेदार कपड़े दे गया तो मैं उसे आने-जाने के लिए बचा लेती थी,पापा के सामने कभी चटकीले रंग पहन लो तो वें कहते थे कि तुम काली हो,ये रंग मत पहना करो तुम पर सूट नहीं करते,केवल हवाई चप्पल होतीं थीं मेरे पास पैरों में पहनने के लिए और कभी कभी तो वो भी नहीं,ऐसा नहीं था कि पापा कमाते नहीं थे,इण्टरकाँलेज में पढ़ाते थे अच्छी खासी तनख्वाह थी उनकी,गाँव में जमीन भी थी जिसका गेहूँ-गल्ला हमारे घर आता था।।
आठवीं पास की तो मम्मी बोली अब आगें पढ़कर क्या करोगी?, घर के काम काज सीख लो,वही जिन्दगी भर काम आने वाला है,लेकिन पता नहीं पापा कैसे मान गए मुझे आगें पढ़ाने के लिए,शायद उन्हें ये डर था कि कुरूप लड़की की शादी कैसी होगी? अगर पढ़ लिख गई तो शायद कोई ब्याहकर ले जाएं।।
लड़कियों का इण्टरकाँलेज हमारे कस्बे से काफी दूर था ,तो कुछ लड़कियांँ तो रिक्शे से जातीं थीं,अपनी एक दो सहेलियों के साथ,कुछ के पिता या भाई छोड़ आते थे और कुछ साइकिल से जातीं थीं,मेरे लिए तो ये कभी नहीं हो सकता था कि मेरे पापा मुझे स्कूल छोड़े,रिक्शे का किराया वो भी मेरे लिए तो कतई नहीं,तो पापा ने एक सेकेण्ड हैण्ड साइकिल दिलवा दी,मै उसी पर स्कूल जाने लगी।।
स्कूल का रास्ता काफी सुनसान रहता था,इक्का दुक्का बस पंचर ठीक करने वालों की दुकानें हुआ करतीं थीं,कभी कभी सुनसान रास्ते पर डर भी लगता था।।
नौवीं की पढ़ाई थी तो कुछ मुश्किलें आती थीं पढ़ाई में लेकिन पापा ने कभी ट्यूशन नहीं लगवाया,तब भी मैं कक्षा में अच्छे नम्बर ले आती थी और भाई को ट्यूशन होने के बाद भी पास होना मुश्किल होता था,लेकिन मैं यह सोचकर संतोष कर लेती थी कि मैं तो लड़की हूँ वो भी बदसूरत,शायद मेरे नसीब में ना अच्छा खाना लिखा है , ना अच्छा पहनना और ना अच्छा पढ़ना।।
इन्हीं हालातों को तय करते हुए अब मैं दसवीं में पहुँच गई थीं,नौवीं मैने अच्छे नम्बरो से पास कर ली थी,स्कूल के लिए मम्मी स्टील के टिफिन में आचार-पराँठें देती थी,पैसे कभी नहीं देती थी कि ले ये दो चार रूपए रख लें।।
इसी तरह एक दिन मैं स्कूल से वापस आ रही थीं तो स्कूल से केवल आधा किलोमीटर ही निकली हूँगी कि रास्ते में साइकिल पंचर हो गई,अब क्या करती मैं उसे ऐसे ही पैदल घसीटने लगीं,पैसे भी नहीं थे पास में कि पंचर ठीक करवा लेती।।
तभी एक लड़का मेरे बगल से साइकिल पर गुजरा और आगें जाकर रूक गया,मैं उस तक जब पैदल चलते चलते पहुँची तो उसने पूछा....
तुम्हारी साइकिल खराब हो गई हैं क्या ?
मैने सिर हिलाकर हाँ में जवाब दिया और आगें बढ़ गई।।
वो फिर से बोला....
अरे! सुनो! क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूँ।।
मैने कहा....
नहीं! मुझे मदद की जरूरत नहीं है।।
वो फिर से बोला...
मैं तुम्हें रोज इसी रास्ते से आते जाते देखता हूँ,संकोच मत करो,आगें पंचर की दुकान है बस थोड़ी ही देर में पंचर ठीक हो जाएगा,मेरे साथ चलो।।
मैने कहा....
मेरे पास पैसे नहीं है।।
वो बोला....
कोई बात नहीं ,मैं दे दूँगा,उधार समझ कर ले लो,जब तुम्हारे पास आ जाएं तो वापस कर देना।।
और मैं मान गई क्योकिं इतनी दूर पैदल चलकर घर जाना वाकई मेरे वश में नहीं था,ऊपर से देर हो जाती तो माँ मेरी तकलीफ़ ना सुनती बस ऊपर से डाँटने लगती।।
सो मैं उसके साथ दुकान पर चली गई,उसने मेरी साइकिल ठीक करवाई,पैसे दिए,मैने उसे थैंक्यू बोला और फिर मैं घर वापस आ गई।।
अब वो कभी कभीकभार मुझे उस सड़क पर मिल ही जाता,दो घड़ी बात करता ,हाल-चाल पूछता और चला जाता,अब मुझे भी उससे बात करना अच्छा लगने लगा क्योंकि वो मुझे मेरी खामियाँ नहीं बताता था,वो मेरी तारीफ किया करता था।।
इसी तरह बात करते हुए हमें एक साल हो गया था,मैं अब दसवीं के बोर्ड के इम्तिहान देकर ग्यारहवीं में पहुँच गई थी और वो मेरी ही तरह ग्यारहवीं में ही था।।
सावन का महीना था,काले बादल छाए हुए थे,हमारे स्कूल खुले अभी महीने भर ही हुए थे और एक रोज वो फिर रास्ते में मिल गया,मुझे घर जाने की जल्दी थी क्योंकि बारिश आने वाली थी,भींगने का डर था....
मै आने लगी तो वो बोला....
इतनी जल्दी जा रही हो ,बिना बात किए।।
मैने कहा...
जाऊँगी नहीं तो भींग जाऊँगीं।।
उसने कहा ,
रूको ना,थोड़ी देर बातें करते हैं,
और मैं उसका आग्रह टाल ना सकी और उससे बातें करने वहाँ रूक गई,तभी थोड़ी देर में बहुत तेज की बारिश शुरु हो गई,मैने अपना दुपट्टा अपने सिर पर ओढ़ लिया तो देखादेखी उसने अपनी जेब से अपना रूमाल निकाला और सिर पर डाल लिया ,ये देखकर मुझे हँसी आ गई,मुझे हँसते हुए देखकर बोला.....
तुम हँसते हुए बहुत सुन्दर लगती हो,ऐसे ही हँसती रहा करो।।
मुझे उसकी बात सुनकर सदमा सा लगा क्योंकि मुझे पहली बार किसी ने सुन्दर कहा था।।

क्रमशः....
सरोज वर्मा...