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विविधा - 19

19-फिल्में बनाम रंगमंच 

 एम. के. रैना कहते हैं- ‘रंगमंच से फिल्मों में अपनी इच्छा से कोई नहीं आता। ओम श्विपुरी भी भीगी पलकों से फिल्मों में आये थे और कारन्त से आज भी नाटकों का मोह नहीं छूटा। पर जहां पैसा नहीं हो, सुविधाएं नहीं हों, वहां आदमी कब तक रंगकर्म में जुटा रह सकता है।’ 

 फिल्म संसार और रंगमंचीय दुनिया में आज भी यही कशमकश जारी है। एक तरफ कला, आत्मसन्तुप्टि और ज्ञान है तो दूसरी ओर पैसा, ग्लैमर, सुविधाएं और स्टार बनने के अवसर हैं। आज फिल्मी दुनिया में सर्वाधिक चर्चित वे ही नाम है जो कल तक पूर्ण रुप से रंगमंच से जुड़े थे। 

 अमाल पालेकर, ओम शिवपुरी, सविता बजाज, दिनेश ठाकुर, संजीव कुमार, ए. के. हंगल, श्रीराम लागू, ष्श्याम अराड़ा, नसीरुद्दीन ष्शाह, बी. वी. कारन्त, गिरीश कर्नाड, सुलभा देशपाण्डे, आभा धूलिया, जयदेव, बंसीकौल, ष्श्यामअराड़ा आदि ऐसे कलाकार हैं जो रंगमंच से जुडे़ हुए फिल्मों में काम कर रहे हैं। 

 इनमें से कुछ नाम तो ऐसे हैं जिनसे फिल्मी चली हैं, यथा अमोल, संजीव आदि। 

 इससे यह पता लगता है कि धीरे धीरे सिनेमा रंगमंच को दबोचता जा रहा है और प्रतिभा सम्पन्न कलाकारक रंगमंच से फिल्मों में तेजी से जा रहा है। आखिर वे कौन से कारण हैं, जो रंगमंच पर सिनेमा को हावी करते हें और रंग-आन्दोलन के भविप्य को खतरे में डालते हैं ?

 सवाक फिल्मों के निर्माण के बाद सिनेमा सबसे सस्ता और अच्छा मनोरंजन का साधन बन गया है। बड़े व्यवसाय सिनेमा ने छोटे व्यवसाय रंगमंच को चबाना शुरु कर दिया है। पारसी व्यवसायियों के हाथ में होने के कारण रंगमंच जल्दी जल्दी समाप्त होने लगा पारसी थियेटर कम्पनियों ने नाटक और मनोरंजन के नाम पर अतिशय भावुकता और झूठे आवेश का प्रदर्शन शुरु कर दिया। लोगों की रुचियों को ध्यान में रखकर नाटकों में सस्ती, हल्की प्रेम कहानियां, युद्ध कथाएं, हंसी-मजाक और ऐसे ही लटकों का इस्तेमाल होने लगा।श्वेत श्याम और मूक फिल्मों के काल में भी नाटक लोकप्रिय रहे। लेकिन 1931 में प्रथम सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ और 1937 में प्रथम रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ के प्रदर्शन से रंगमंच पिछड़ने लगा। रंग शालाएं खाली रहने लगीं और सिनेमाहाल भरने लगे। इनके बावजूद पृथ्वी थियेटर्स और उसके संचालक पृथ्वीराज कपूर ने रंगमंच को जीवित रखने का जी-तोड़ प्रयास किया। फिल्मों को राजकपूर, शम्मीकपूर, प्रेमनाथ, जयराज, सज्जन आदि पृथ्वी थियेटर्स की ही देन हैं। 

 बाद के समय में वी. शान्ताराम, विमल राय, चंतन आनन्द, राजकपूर और गुरुदत्त ने उत्तम फिल्में बनाकर इस विधा को और भी लोकप्रिय कर दिया। 

 इस अवधि में भी अच्छे नाटकों का सुजन तो जारी रहा, लेकिन रंगकर्मियों के अभाव के कारण उनका मंचन नहीं हो सका। रेडियो के आगमन से दर्शकों/श्रोताओं को एक अन्धा रंगमंच मिला, लेकिन फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ती ही गयी। 

 स्वतंत्रता के बाद फिल्मों के स्तर में निरन्तर गिरावट आयी। घ्टिया और निम्नकोटि की फिल्में बनने लगीं। 

 छटे दशक में नये रंग आन्दोलन की शुरुआत हुई। इस आन्दोलन ने अपने आपको जनसामान्य की समस्याओं को विचारों से जोड़ा। निप्ठावान, समर्पित तथा जागरुक रंगकर्मियों ने मिलकर एक सजग और प्रबुद्ध प्रक्षक वर्ग तैयार किया और परिणामस्वरुप थियेटर, यूनिट, राप्टीय नाट्य विद्यालय, दर्पण, दिशान्तर, अनामिका जैसे नाट्य दल, अलका जी, सत्यदेव दुबे, जालान, तनवीर, ओम शिवपुरी, अमोल पालेकर, मोहन महर्पि जैसे निर्देशक तथा डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, मोहन राकेश जैसे लेखक उभर कर आये। अन्धायुग, सखाराम बाइन्डर, ‘खामोश अदालत जारी है’, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे, हयबदन, द्रोपदी, चरणदास चोर, कफर्यू आदि ऐसे नाटक मंचित हुए, जिन्होंने प्रदर्शनी में कई फिल्मों को पीछे छोड़ दिया। 

 सतवें दशक में फिल्मों में भी समान्तर आन्दोलन शुरु हुआ और कलात्मक फिल्मों का निर्माण साहित्यिक कृतियों के आधार पर होने लगा। 

 ‘भुवन सोम’ की सफलता के बाद फिल्मकारों ने समसामयिक चिन्तन और आधुनिक कथा साहित्य से जुड़कर सुरुचिपूर्ण फिल्में बनाई। 

 ‘सारा आकाश’, ‘उसकी रोटी’, ‘फिर भी’, ‘दस्तक’, ‘सफर’, ‘गुड्डी’, ‘उपहार’, ‘रजनीगन्धा’, ‘कोशिश’, ‘अंकुर’, ‘आंधी’, मौसम’, ‘कादम्बरी’, ‘चानी’, ‘छोटी सी बात’, ‘स्वामी’, ‘मंथन’, ‘गोधूलि’ आदि फिल्में बनी और दर्शकों द्वारा पसन्द की गयी। पूना फिल्म संस्थान से असने वाले कलाकारों ने फिल्मों को आधुनिक साहित्यकारों, कवियों और गीतकारों से जोड़ा। 

  लेकिन आज भी फिल्मों और नाटकों की दूरी बरकरार है। रंगशालाओं को भरने के लिए सस्ते, भैंडे, मारकाट, हिंसा, बलात्कार, अश्लीलता आदि सभी लटके अजमाए गये, लेकिन रंगमंच सिनेमा से परास्त हो रहा है। 

 यही समय है, जब रंगमंच भविप्य और अस्तित्व पर विचार आवश्यक है। क्या फिल्में एक बार फिर रंगमंच को परास्त कर देगी? उत्तर है हां, क्योंकि छठेदशक में मंचित नाटकों और उनके लोकप्रिय होने के कारण लगभग वे ही है जो सातवें दशक में बनी कला फिल्मों के लोकप्रिय होने के रहे हे। क्या रंगमंच का ऐसा कोई स्वरुप संभव है जो फिल्मों से अलग रहकर व्यावसायिकता से टक्कर ले सके। आजकल मंचित होने वाले नाटकों में सेक्स, हिंसा, मारधाड़, बलात्कार आदि ठेठ बम्बईया फिल्मों की तरह ही है, जो रंगमंच को जीवित नहीं रख सकेगी। 

 आवश्यकता है रंगमंच को एक नइ्र दिशा देने की। 

 

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