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विविधा - Novels
by Yashvant Kothari
in
Hindi Anything
बात होली की हो और कविता, शेरो-शायरी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव हैं ? होली का अपना अंदाज है, और कवियों ने उसे अपने रंग में ढाला है। जाने माने शायर नजीर अकबराबादी कहते हैं:
जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की
कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो।
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों में
पिचकारी हो, तब देख बहारें होली की।
लेकिन बहादुरशाह जफर अपना अलग ही तराना गाते हैं, वे कहते हैंः
क्यूं मों पे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुंवरजी दूंगी गारी।
भाज सकूं मैं कैसे मोंसो भाजयों नहीं जात
थाडे़, अब देखूं मैं, कैान जो दिन रात।
सबको मुंह से देत है गारी, हरी सहाई आज
जब मैं आज निज पहलू तो किसके होती लाज।
बहुत दिनन मैं हाथ लगे हो कैसे जाने दूं
आज है भगवा तोसों कान्हा फटा पकड़ के लूं।
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से खेले कौन होरी।
और कबीर की फक्कड़ होली का ये रंग तो सबको लुभाता ही है:
यशवंत कोठारी 1-कवियों-शायरों की होली बात होली की हो और कविता, शेरो-शायरी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव हैं ? होली का अपना अंदाज है, और कवियों ने उसे अपने रंग में ढाला है। जाने माने शायर नजीर ...Read Moreकहते हैं: जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की। और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की। महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो। मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों
2-समकालीन साहित्य: सही दिशा की तलाश मूल प्रश्न है, साहित्य क्या है आजकल के साहित्य दो तरह का लेखन करते हैं। एक जो आसानी से पाठक के तक पहुंचता है और पाठक उसे पढ़ता भी है। दूसरा लेखन वह ...Read Moreकेवल अभिजात्य वर्ग के लिये लिखा जाता है। इस दूसरे साहित्य के लेखक यह मानते हैं कि अगर इनकी कोई रचना किसी सामान्य पाठक की समझ में आ गयी तो उन्होंने कुछ घटिया लिख दिया है और तत्काल वे अपना लेखन ‘सुधारने’ में लग जाते हैं। एक और प्रश्न ! क्या अखबारों का पेट भरने के लिये लिखा जाने वाला
3-व्यंग्य -दशा और दिशा हिन्दी साहित्य मे लम्बे समय से व्यंग्य लिखा जा रहा है, मगर आज भी व्यंग्य का दर्जा अछूत का ही है, इधर कुछ समय से व्यंग्य के बारे में चला आ रहा मौन टूटा है, ...Read Moreकुछ स्वस्थ किस्म की बहसों की २ाुरूआत हुई है। आज व्यंग्य मनोरंजन से उपर उठकर सार्थक और समर्थ हो गया है। आज व्यंग्य-लेखक को अपने नाम के साथ किसी अजीबोगरीब विशेशण की आवश्यकता नहीं रह गई है। मगर स्थिति अभी इतनी सुखद नहीं है, आज भी कई बार लगता है, व्यंग्यकार छुरी से पानी काट रहा है। आवश्यकता व्यंग्य को
4-व्यंग्यकार यशवन्त कोठारी से साक्षात्कार ‘व्यंग्य में बहुत रिस्क है।’ इधर जिन युवा रचनाकारों ने प्रदेश से बाहर भी अपनी कलम की पहचान कराई है, उनमें यशवन्त कोठारी अग्रणी हैं। नवभारत टाइम्स, धर्मयुग, हिन्दुस्तान आदि प्रसिद्ध पत्रों में श्री ...Read Moreकी रचनायें सम्मान के साथ छप रही हैं। 3 माई, 1950 को नाथद्वारा में जन्मे श्री कोठारी जयपुर के राश्टीय आयुर्वेद संस्थान में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक हैं। व्यंग्य में उनकी पुस्तकें, कुर्सी-सूत्र, हिन्दी की आखिरी किताब, यश का शिकंजा, राजधानी और राजनीति, अकाल और भेडिये, मास्टर का मकान, दफतर में लंच, मैं तो चला इक्कीसवीं सदी में, बाल हास्य
5-साहित्य के शत्रु हैं सत्ता, सम्पत्ति और संस्था डॉ. प्रभाकर माचवे डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने डॉ. माचवे के लिए लिखा है- ‘ श्री प्रभाकर मचवे हिन्दी के उन गिने चुने लेखकों में हैं, जिनकी सरसता ज्ञान की आंच ...Read Moreसूख नहीं गयी।’ वास्तव में डॉ. माचवे सहज-सरल हैं, गुरू गंभीर नहीं। वे एक बहुमुखी भारतीय साहित्कार हैं, केन्द्रीय साहित्य अकादमी के वे सचिव रह चुके हैं। रेडियो, भारतीय भाशा परिशद आदि से जुडे रहे हैं। संप्रति वे इंदौर से प्रकाशित हो रहे दैनिक पत्र चौथा संसार के प्रधान सम्पादक हैं उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी में लगभग 80 पुस्तकें