Ashok vaatika ki Sita - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

अशोक वाटिका की सीता - 3


सीता मै जिसे प्रारब्ध अशोक वाटिका में लाया:-

जानकी के दृढ़ निश्चय को सुन रावण का मन भी क्रोध से डोलने लगा। पर सीता का विश्वास अनंत स्तंभ सा कठोर उसके मुख के तेज से शोभित होने लगा। क्या यही विश्वास का चरम था????

जो सीता की वाणी में उस अशोक वाटिका के कण कण में
व्याप्त हो रहा था। जिसके भीतर समाहित हो सीता को ऐसा रक्षा कवच मिल गया था जिसके आगे तीनों लोको को जीत सकने वाले लंकेश का बल भी छोटा था!!!!

वास्तव में नारी की गरिमा से ही शक्ति की गरिमा होती हो। और जहां नारी की गरिमा को शूद्र आंका जाए वहां शक्ति
या बल तो तुच्छ होने ही थे। जो हुआ भी। सीता की इच्छा के आगे रावण का बल चल ना सका। पर रावण को सीता ने एक बार चेताया फिर:-

रावण इतने भी नीचे मत हो क्योंकि असुर हो तुम जाति से बढ़कर अपने कर्मो से। जाकर पाताल में निवास क्यों नहीं कर लेते तुम। धरती मानवों की है दानवों की नहीं। साधु के तुम पुत्र हो नाम मात्र केवल!!!!

रावण:- नीच नहीं मै सीता। तुम मानोगी मेरी बात एक दिवस। मुझे उस क्षण की है प्रतीक्षा।

सीता:- इच्छा के विरुद्ध प्रतीक्षा नहीं होती दशानन।

रावण:- होगी सीता। क्योंंकि मेरी लंका में मेरे प्रत्येक शब्द
ही ब्रह्म वाक्य है

सीता:- और मेरा विश्वास अटल रावण।

रावण:- अभी तो मै राज भवन जा रहा हूं। पर शीघ्र आऊंगा सीता।

रावण चला जाता है। उसके जाते ही दृढ़ स्तंभ सी सीता मुरझाए पुष्प की भांति हो जाती है और राम का विलाप करती हुई कहती है:- आप कहां है राम। कहां है???
जानते है ना कि आपके बिना सीता निराधार है तो फिर कहां है आप????
क्या होगा आगे
जब सीता बनेगी बंदी लंका में आ के........!!!!!!!!


राम का प्रारम्भ हुआ असल वनवास!!! सीता को पुनः पाने का ढूंढेंगे प्रकाश????

राम विलाप में :- सीते कहां लुब्ध हो गई तुम??
मेरा हृदय जानता है कि तुम मेरे आस पास हो। फिर क्यों दृष्टिगोचर नहीं होती। केवल एक बार अपनी सूरत मुझे दिखा दो। मुझे तृप्ति मिल जाएगी कि तुम सकुशल हो।
अन्यथा मेरी देह अभी प्राण मुक्त हो जाएगी। मै जानता हूं कि तुम मेरी बात अवश्य समझोगी।

राम अपने धनुष से बाण निकाल प्रत्यंचा चढ़ाते है कि तभी मेघ में काले बादल छा जाते है। सीता भी चारो और काले बादल देख अचंभित हो जाती है। और द्वार के सम्मुख अा जाती है

लंका के द्वारपाल चर्चा करते हुए कहते है:- लगता है कि मेघ आज बरसेंगे। तभी उनमें से एक द्वारपाल कहता है:- ये अकस्मात प्रकृति में परिवर्तन होना विचित्र बात है।

सीता उनकी बातो को सुन कुछ पुराने विचारों में पड़ जाती है। उसे वो क्षण याद आता है जब वनवास के वर्ष श्री राम के साथ वो व्यतीत कर रही थी।

सीता:-

हे रघुवर
देख मेघो का ये आमोद
मन में मेरे आता प्रमोद

राम:-

सत्य है सीता
जगत में प्रकृति से हरियाली
बिन प्रकृति
सब रीता!!!

सीता

कहते है सब मुझे बेटी धरा की
और मै भी रूप देखकर धरा के
पाती हूं आह्लाद।
सुख मुझको असीम इससे है
ये है माता समान

राम
प्रेम तुम्हारा है निश्छल
करुणा से सम्पन्न है
सीता तुमको पाकर
मेरा हृदय हो गया
अब धन्य है

सीता
इतनी प्रशंसा सुनकर
मेरा हृदय सुखी हो जाता है
पर आगामी दुख की कल्पना
सोच कही खो जाता है

राम

खोने का प्रसंग सीते तुम
मत कहना
आजीवन मुझे तुम्हारी
संगति में रहना

सीता

अगर कहीं मै लुप्त हो गई
दूर कहीं अव्याख्येय स्थल में
तो क्या ढूंढ लाएंगे आप मुझे
कही भी सदा एक क्षण ही में....

राम

हा सीता
मै ढूंढ लाऊंगा तुमको
हर जटिल से जटिल स्थलों में
कैसे मै श्वासे लूंगा
उन अनचाहे क्षणों में

सीता

रखना मुझ पर विश्वास
अगर ऐसा क्षण कभी भी आया
संदेश देना प्रकृति का
बना कोई जटिल सी माया
विश्वास यही रखना कि
तम में भी होगा सीता के जीवन का उजियाला।
संदेश प्रकृति देगी
सुनकर हमारी मनो गाथा

राम
पर इस वनवास को व्यतीत कर
जाएंगे हम अपने राज्य
सीता अब कर्मो के द्वारा ही
सुख होगा हमको
प्राप्य!!!!

सीता
सही कहा श्री राम
देते है अब इस चर्चा को विश्राम

इन बातो को स्मरण कर सीता को लगता है कि ये अवश्य ही श्री राम का संदेश है। पर खुद को असमर्थ पाते हुए सीता कहती है कि:- कैसे मै श्री राम को अपना सकुशल बताऊं?? कैसे???

आगे की कथा अगले भाग में..........!???????