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व्हेल वॉच

मैंने पिछले चार महीने से कोई छुट्टी नहीं ली थी। इसलिए एक अजीब सी थकान शरीर पर चस्पां थी। ठीक वैसे ही, जैसे लंबे समय तक आप बस में बैठे रहें तो उतरने के बाद भी बस की गति का भ्रम आपके स्थिर शरीर को डोलायमान रखता है।
इसलिए जब कैलेंडर ने बताया कि दो दिन बाद दो छुट्टियां एकसाथ आ रही हैं तो जी फुलझड़ी सा चटचटाने लगा।
एक छुट्टी का तो अमूमन कोई मतलब ही नहीं होता। साप्ताहिक सौदा- सुलफ लाने, सामाजिक दायित्वों को निपटाने - टरकाने और रोजमर्रा के छेदों को रफू - पैबंद करने में ही बीत जाती है। हां, दूसरी छुट्टी भी साथ में हो तो इंसान अपने लिए भी कुछ मनचाहा समय निकालने के खयाली पुलाव बनाने लगता है।
मैं ऐसे ही आगामी छुट्टी के एक खयाली खेत में कुछ उगाने की कोशिश कर रहा था कि सहसा पाला पड़ गया।
मेरे मित्र शोभालाल जी का फ़ोन आ गया कि अब तबादलों पर से बैन हट गया है इसलिए परसों मंत्रीजी से मिलना है। उनसे डिजायर करानी है अतः आपको मेरे साथ उनसे मिलने चलना ही पड़ेगा।
शोभालाल जी की पत्नी एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं, और उनकी तैनाती पिछले साल से एक दूर के ज़िले के स्कूल में हो गई थी। शोभालाल जी उन्हीं के लिए ट्रांसफर की डिजायर मंत्रीजी से कराने की बात कर रहे थे। अपनी पत्नी को पास लाने के लिए शोभालाल जी की "डिजायर" का कोई मोल नहीं था, मंत्रीजी की डिजायर ज़रूरी थी।
- अरे, भला ये क्या बात हुई? मैं क्यों चलूं उनके साथ! आपकी पत्नी की पोस्टिंग दूर के ज़िले में है माना। मगर सरकारी नौकरी में पोस्टिंग भी तो वहां तक होगी जहां तक सरकार का शासन है। आप सरकारी नौकरी का लुत्फ तो उठाना चाहते हैं, मगर सरकारी नियमों की पालना नहीं चाहते। जब राज्य - स्तरीय सर्विस है तो राज्य- स्तरीय तबादले भी होंगे। आप वैसे तो सारे में डींग हांकते फिरते हैं कि दोनों पति- पत्नी राज्य सेवा में हैं, डबल कमाई है, पर चाहते हैं कि दोनों की पोस्टिंग ज़िंदगी भर एक ही मोहल्ले में रहे? यानी आप पर लेबल तो राज्य - स्तर का लग जाए लेकिन कष्ट आपको केवल पंचायत- स्तर के ही हों। वाह! ऐसा कैसे होगा? आपको पत्नी को पास बुलाने की डिजायर करानी है। उसके आ जाने से आपका मन बाग- बाग हो जायेगा, उसके वेतन पर आपकी सीधी पकड़ बनेगी, उसके खर्चों पर आपकी लगाम कसेगी, आपको पकी- पकाई रोटी मिलेगी, आपके पौ - बारह होंगे... मगर इसके लिए मैं आपके साथ क्यों चलूं? ये कहां का न्याय है?
मंत्रीजी के बंगले पर जाने का मतलब है कि चौबीस घंटे के दिन में से कम से कम आठ घंटे भट्टी में झौंकना। वो भी फिजूल। क्योंकि यदि उस भट्टी में जाकर मटर भुन भी गई, तो उसे चबायेंगे तो शोभालाल जी...फिर बंगले पर जाने के एक दिन पहले से बदन में खाज चलने लगेगी, और एक दिन बाद तक खलिश रहेगी कि फलाने मिनिस्टर के बंगले पर गए थे।
मैंने शोभालाल जी को टालने की गरज से कहा - भाई क्षमा कीजिए, थोड़ी व्यस्तता है, मैं आपके साथ नहीं चल पाऊंगा। शोभालाल जी बोले - आपके चलने से मुझे हिम्मत रहेगी। मुझे तो बंगलों के एटीकेट्स तक नहीं पता, कैसे जाते हैं, क्या करते हैं...आपको चलना ही पड़ेगा। फिर हमारी "ये" तो आपको अपने भाई से भी ज्यादा मानती हैं, उनके काम के लिए तो आपको आना ही पड़ेगा। बताइए, कितने बजे आऊं?
अब ऑप्शन 'हां या नहीं' का नहीं था, केवल "कितने बजे" का था। इसलिए छुट्टी को बलि चढ़ाने को सहमत होना ही पड़ा। सोमवार को जाना था। रविवार की रात से ही मन में बैराग भाव जागने लगा - जब अगले दिन भी सुबह जल्दी उठना है, समय पर नहाना है, समय पर नाश्ता करना है, समय पर धुले हुए कपड़े पहनने हैं तो काहे की छुट्टी?
सुबह- सुबह शोभालाल जी आ गए। वे इतने उत्साहित थे कि सुबह का नाश्ता भी उन्होंने मेरे साथ मेरे यहां ही लिया। उनकी पत्नी जब मुझे भाई से बढ़कर मानती थीं तो मेरे लिए यह लाज़िमी था ही कि उनसे नाश्ते की मनुहार करूं। बेतकल्लुफी उनका मौलिक गुण था।
थोड़ी ही देर में हम दोनों उनकी कार से शहर की भव्य और चौड़ी सड़कों पर थे। छुट्टी का दिन होने के कारण खाली - खाली, सांस लेती सड़कें। शोभालाल जी मौज- मस्ती से गाड़ी चला रहे थे क्योंकि वह अपनी पत्नी को अपने पास लाने की डिजायर कराने जा रहे थे। ठीक वैसे ही, जैसे कभी वे उसे ब्याह कर लाने के लिए बारात लेकर गए होंगे।
लेकिन मैं, मैं क्यों और किस बात पर खुश होता, इसलिए चुपचाप बैठा हुआ उनके साथ चला जा रहा था।
मंत्रीजी के बंगले के बाहर गाड़ी पार्क करके जब हम लोग गेट पर पहुंचे तो वर्दी धारी संतरी ने संशय, आगवानी और ऊब की मिली - जुली भावना से हमें देखा। किंतु मंत्रीजी का जन- सुनवाई का दिन होने के कारण वह हमें रोक न सका। हम भीतर चले गए।
भारी भीड़ थी। छुट्टी का दिन होने से सड़कों पर जो लोग नहीं दिख रहे थे, वे सभी शायद यहां थे। वेटिंग हॉल, बरामदा, कॉरिडोर सब लगभग ठसाठस, और भी आते हुए लोग। जो आ चुके थे वो मोबाइलों पर बाकी को बुलाते हुए दिख रहे थे। वहां मंत्री जी के निजी, सार्वजनिक, गुप्त सहायक और फिर सहायकों के सहायक घूम रहे थे। वे सभी लगातार बनती- बिगड़ती लाइनों से लोगों को पकड़ कर टेढ़े - मेढे रास्तों से जहां- तहां लगाने के काम में लगे थे। सुबह आठ बजे से जमा भीड़ पौने बारह बजे तक भी तितर- बितर नहीं हुई थी, क्योंकि भीड़ में शोभालाल जी जैसे अनुशासित लोग थे, जो पत्नी, भाई, पिता, बेटी, पुत्र, मित्र या रिश्तेदार की डिजायर कराने के पवित्र काम के लिए हो रहे यज्ञ में समिधा डालने आए थे। कोई अपने महकमे की टोपी में था, कोई जाति की, कोई पहचान की, कोई फोनी सिफ़ारिश के भरोसे था और कुछ- एक रामभरोसे भी।
मंत्रीजी अभी आए नहीं थे। मगर उनके कमरे की चिक यदि किसी मक्खी के बैठने से भी हिलती थी तो सैंकड़ों निगाहें उस तरफ़ जम जाती थीं। लोगों की निगाह में कल्पना के सैंकड़ों दीपक जलने - बुझने लगते थे। उन्हें लगता था कि मंत्रीजी की चिक पर बैठी हुई मक्खी यदि उड़कर उनके कागज़ की नाव पर बैठ जाएगी तो उनके परिजन दूर - दराज के बस्ती, पर्वत, मैदान और जंगल लांघ कर चले आयेंगे।
मेरे पास सोचने के लिए कुछ नहीं था। छुट्टी का दिन था। मैंने सोचा कि मैं वहीं उसी माहौल में अपनी छुट्टी बिताते हुए किसी पर्यटक - सैलानी की तरह घूमने का मज़ा क्यों न लूं?
पल भर में ही मुझे लगा कि मैं छुट्टी के दिन समुद्र की सैर पर आया हूं। समंदर में लोग दूरबीन और कैमरा लेकर तेज़ नौकाओं पर सवार होकर पानी के भीतरी नजारे देखने जाते हैं। मैं भी वैसा ही पर्यटक बन गया। मुझे महसूस हुआ कि जिस तरह ऑक्टोपस के आठ हाथ- पैर होते हैं मंत्रीजी के भी वैसे ही दर्जनों सहायक हैं। मंत्रीजी की राह वहां बैठे लोग ऐसे ही तक रहे थे, जैसे सागर में घूमते लोग पानी की सतह पर किसी व्हेल मछली के दिख जाने की तका करते हैं।
गहरे पानी से निकल कर विशालकाय व्हेल लहरों के ऊपर छपाक से किसी विमान की तरह कूद कर बाहर आती है। उसके आते ही चारों ओर से बीसियों बगुले फड़फड़ा कर इधर - उधर दौड़ते हैं, क्योंकि व्हेल से उड़े पानी के छीटों से सैंकड़ों छोटी - छोटी मछलियां हवा में उछलती हैं। बगुले उन्हें ही पकड़ने के लिए झपटते हैं।
इस तरह एक व्हेल की जुंबिश से सैंकड़ों मछलियों के भाग्य का निस्तारण होता है। दर्जनों बगुले पलते हैं। यह एक अद्भुत नज़ारा होता है। प्रकृति इन बगुलों का पेट भरने के लिए व्हेल की अंगड़ाई से सैंकड़ों मछुआरों का काम कराती है। बगुलों के लिए यह कुदरत का महाभोज होता है।
बंगले के बगुले शहर भर की मछलियों को तेज़ी से मोक्ष प्रदान करने को मुस्तैद थे। व्हेल दिखी नहीं थी, मगर पानी हिलना - डुलना शुरू हो गया था।
लोगों ने हाथों में डिजायर के काग़ज़ संभालने शुरू कर दिए थे। मैं तो केवल छुट्टी के दिन का सैलानी था, इसलिए मैंने व्हेल वॉच के लिए आंखों का कैमरा संभाल लिया था।
थोड़ी ही देर में गलियारे से आते मंत्रीजी दिखे। उनके साथ आठ - दस लोग इस तरह आगे - पीछे चल रहे थे, मानो वे न हों तो मंत्रीजी को ये मालूम भी न चले कि उन्हें कहां जाना है, कहां बैठना है, क्या करना है...
अपने घर में जिस व्यक्ति को बिना मदद के यह नहीं पता चल पा रहा था कि उसे कहां जाना है, उसे प्रदेश भर के सुदूर गांव - देहातों को खंगाल कर हज़ारों लोगों के लिए ये तय करना था, कि किसे कहां से कहां, क्यों जाना है।
जैसे एक कंकड़ सारे तालाब की लहरों को तितर - बितर करके पूरे तालाब को झनझना देता है वैसे ही मंत्रीजी को भी पूरा प्रदेश अपने हाथ की जुंबिश से हिला देना था। उनकी चिक से उड़ी मक्खी जिस काग़ज़ पर बैठ जाती उस काग़ज़ की नाव सड़कों और पटरियों को पार करती, नदियां जंगल पहाड़ लांघती, खेतों - बाजारों से गुज़र जाती।
लोग इस जुंबिश की आस में उनके नाम के जयकारे लगा रहे थे। मेरी तो छुट्टी थी, मैं तो केवल व्हेल वॉच का आनंद लेने वाला एक पर्यटक सैलानी था...!
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