Extingguished the lamp of your name books and stories free download online pdf in Hindi

बुझा आई तेरे नाम के दिए

बुझा आई तेरे नाम के दिए
***

'तुम्हें साड़ी बहुत अच्छी लगती है. जींस आदि नहीं पहना करती हो?'

'हमारे घर और गाँव में लड़कियां केवल साड़ी और सलवार-कुरता ही पहना करती हैं, जींस और शौर्ट्स नहीं.'

'लेकिन, शैली तो अक्सर जींस ही पहन कर कॉलेज आया करती है. वह भी तो तुम्हारे ही गाँव की है और तुम्हारी सहेली भी'

'तो ?' सुनीता ने उसे एक संशय से भेदभरी दृष्टि से घूरा तो शालीमार तुरन्त ही बोला,

'तुम भी जींस पहन सकती हो?'

'क्यों पहन सकती हूँ?'

'मैं देखना चाहता हूँ कि आधुनिक वस्त्रों में तुम कैसी दिखती हो?'

'तुम्हारा मतलब क्या है?'

'मतलब कुछ विशेष नहीं. देखूंगा कि जींस आदि में तुम वैसी ही सुंदर दिखती हो जैसी कि तुम्हारी सहेली शैली दिखती है.'

'तो फिर उसी के पास बैठ कर जी बहला लिया करो. मेरे पास क्यों आकर बैठते हो? लगता है कि सारे दिन लड़कियों के कपड़े ही देखते रहते हो, कि वे क्या पहन कर आई हैं और क्या नहीं?'

'अरे ! तुम तो बुरा मान गईं?'

'बुरा क्यों न मानूंगी. तुमने बात ही कुछ ऐसी कह दी है?' सुनीता ने कहकर अपना मुंह घुमा लिया.

'पिछले एक साल से हम दोनों एक ही कक्षा, एक ही कॉलेज में, एक साथ हैं. एक-दूसरे को दोनों जानते हैं, पहचानते, समझते और देखते आये हैं. और अब यह अन्तिम वर्ष भी समाप्त होने को आया है; अब क्या कुछ और कमी रह गई है, जो अभी तक, लगभग रोजाना ही, इसी तरह से लड़-झगड़ कर तुम अपना मूँड खराब कर लेती हो?'

'तुम्हें नहीं मालुम है कि, क्या कमी रह गई है?'

'सचमुच नहीं मालुम. . .?' शालीमार बोला तो सुनीता ने उसे देखा. अपनी बड़ी-बड़ी गोल आँखों से. फिर अपने स्थान से उठते हुए बोली,

'इसीलिये कहती हूँ कि, . . .'

'क्या . . ?'

'लम्बे लड़कों की अक्ल, उनकी टांगों में होती है. तुम कुछ नहीं समझोगे.'

कहते हुए सुनीता चल दी तो शालीमार भी उसके पीछे-पीछे चल दिया. मन ही मन मुस्कराता हुआ. सचमुच वह कुछ नहीं समझ सका था तब. . . '

'. . . सोचते-सोचते, शालीमार की आँखों से आंसुओं की दो बूँदें, उसके चेहरे से फिसलती ही नीचे धूल में बे-जान सी टपक कर विलीन हो गई. वह कहाँ से चला था और अब कहाँ आ चुका है? सचमुच वह वर्षों पहले सुनीता की कही हुई बात को समझ नहीं सका था. उसे बार-बार यही महसूस हो रहा था कि, वह अब भी उसी स्थान पर है जहां से उसने अपने प्यार के पग बढ़ाए थे. वह नहीं जानता था कि, इतना शीघ्र, हवा के एक झोंके के समान, इतनी तीव्रता से सब कुछ बदल जाएगा कि वह सब देखता ही रह गया था?


शालीमार अभी तक अपने स्थान पर ही बैठा हुआ था. बहुत निराश, थका-हारा सा, अपने टूटे हुए दिल के साथ, अपनी मजबूर हसरतों की अर्थी का कफन बांधे हुए. प्यार के एक ही तमाचे ने उसे मानव ज़िन्दगी उस कड़वी हकीकत से वाकिफ करा दिया था कि अब जैसे वह भूल कर भी कभी इस दिशा में अपने कदम बढ़ाने की भूल नहीं करेगा. डूबती हुई संध्या की धूल उड़ाती हुई धुंध में अब कच्ची सड़क पर हरकारों के साथ भेड़-बकरियों और ढोरों का अंतिम काफ़िला भी गुज़र गया तो अपनी ही धुन और सोचों में ग्रस्त बैठे हुए शालीमार को सहसा ही ध्यान आया कि शाम डूबकर काली होने का प्रयत्न करने लगी है. आकाश में पंछियों के टोले अपनी ही धुन में कलाबाजियां खाते हुए अपने बसेरों की तरफ भागे चले जाते थे. एक समय था कि, शहर की तरफ से आती हुई इस पक्की सड़क से कच्ची सड़क में तब्दील होकर गाँव की ओर जाती हुई, भरपूर उम्मीद से धूल उड़ाती हुई इस राह के किनारे अक्सर ही शालीमार अपने काम से अवकाश पाते ही आकर बैठ जाया करता था. अभी भी शहर में काम करने वाले दैनिक मजदूर, पैदल और कुछेक सायकिलों पर आते दिख जाते थे, और वह अपने ख्यालों में गुम उन्हें अभी भी चुपचाप देखे जा रहा था. . .'

अन्य दिनों के समान जब भी शालीमार यहाँ आकर बैठता था तो उसे यहाँ से गाँव जैसा वातावरण और खेत देख कर बहुत ही आनंद प्राप्त होता था. ऐसा मनमोहक वातावरण देखते ही उसे एक अनूठे आनंद की अनुभूति होती थी. एक प्रकार से उसको अपना घर, अपना गाँव याद आ जाया करता था. मगर आज उसे यह सब देखकर भी ना तो कोई खुशी होती थी और ना ही कोई अनुभूति ही. उसे लगता था कि आज तो जैसे सब ही कुछ बदला जा चुका है. बदल गया है, यह वातावरण- यह सड़क- यह माहौल- यह आते-जाते लोग- यह भेड़-बकरियों के चरवाहे और सारे ज़माने से बे-सुध अपने खूंटों की तरफ बढ़ते हुए मूक बने गाय-बैल और भैंस के तमाम ढोर. यह सब तो उसे तभी सुंदर और मधुर लगा करते थे जब कि वह अपने कॉलेज के दिनों में अपनी कक्षा की सहपाठिनी सुनीता के साथ बैठकर बातें किया करता था. सुनीता अपने गाँव से यहाँ शहर में हॉस्टल में रहते हुए अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर रही थी. उसका पूरा परिवार गाँव में ही रहता था और जीविका के नाम पर खेती ही पर निर्भर था. उसके पिता ज़मीदार तो नहीं थे पर हां, उनके पास खेती के नाम पर समुचित भूमि थी. खेती करने के लिए आधुनिक यंत्रों की भी कमी नहीं थी. खेती करते हुए और गाँव के परिवेश में रहते हुए भी वे आधुनिक और खुले विचारों के तो थे, मगर बहुत सी बातों में समय, चलन और रिवाजों के आधार पर अपने फैसले करने में पीछे भी नहीं हटा करते थे. यही कारण था कि उन्होंने अपनी पुत्री की इच्छा पर उसको शहर में रहते हुए पढ़ने की इजाज़त दे दी थी. तब शालीमार भी अपने गाँव से इसी कॉलेज में पढ़ने के लिए आया था. सो सुनीता और वह दोनों ही बी.कौम. के पहले वर्ष में एक साथ कक्षा में बैठे तो बातों-बातों में पता चला कि, दोनों एक ही तहसील के रहने वाले हैं, पर दोनों के गाँव अलग-अलग तो हैं मगर दो किलोमीटर के दायरे ही में आते हैं. यह जानकर ज़ाहिर ही था कि, दोनों को जहां बड़ी प्रसन्नता हुई वहीं, वे आपस में मित्रता और पड़ोसी होने के नाते और भी बे-झिझक हो गये थे. कक्षा में अक्सर ही वे आपस में बात किया करते. जब कभी कोई कक्षा नहीं होती तो वे दोनों एक साथ कालेज के गार्डन में बैठकर अपना समय बिता देते. उनकी कक्षा में एक लड़की और भी पढ़ रही थी - शैली तिर्वासन. वह भी सुनीता के गाँव की ही थी, मगर वह सुनीता से कभी-कभार ही इसलिए बात कर लेती थी क्योंकि दोनों एक ही गाँव की रहनेवाली थीं. शैली अपने गाँव में अमीर जमीदार की पुत्री थी. जैसी वह अमीर थी, स्वभाव से वैसा ही उसका रूप, बड़प्पन और आँखों की चमक भी दिखती थी. वस्त्रों के पहनने में भी वह आधुनिक थी. शालीमार ने उसे कभी भी साड़ी में नहीं देखा था. शैली जहां बातें करने में सपाट, तेज और बे-बाक थी.इस तरह कि, जो उसके मन में आता था उसे वह तुरंत और सबके सामने कह देती थी. शैली जहां एक ओर तेज, तर्रार और बे-बाक थी वहीं सुनीता बे-हद शांत, सुशील, साधारण, सामान्य सी और गम्भीर स्वभाव की थी. वह अक्सर ही कम बोलती थी मगर दायरे में रहकर. पिछले दो सालों से एक साथ, एक ही कक्षा और एक ही कालेज में साथ-साथ पढ़ते हुए सुनीता कब शालीमार को पसंद करने लगी, कब से वह उसके नाम के सपने अपनी आँखों में बंद करके रातों की नींद में सपनों की नगरी में विचरण करने लगी और कब से वह उसको अपने दिल की धड़कनों में छुपाकर उसके मधुर स्पंदनों में गुम होने लगी थी, उसे पता ही नहीं चल सका था. उसे तो अपनी इस बेबसी का एहसास तब हुआ था जब कि, कालेज में सालाना परीक्षाओं की तारीख को घोषित कर दिया गया. सालाना परीक्षाओं की तारीख सामने आ गई तो सुनीता को तुरंत ही ख्याल आया कि, अगले दो महीनों में परीक्षाएं हो जायेंगी और तब उसके बाद सबके समान उसे भी कालेज छोड़कर अपने घर जाना होगा. फिर घर जाने के बाद जैसे सब कुछ समाप्त. सोचते ही सुनीता का दिल भविष्य में आनेवाली अपने सपनों की जैसे होनेवाली नीलामी के भय से स्वत: ही काँप सा गया.

कारण था कि, वह अपने मन के बारे में तो जानती थी मगर शालीमार के दिल में क्या पक रहा है, वह केवल अनुमान लगाकर ही रह जाती थी. शालीमार ने अभी तक, अपनी तरफ से ऐसा कोई तनिक इशारा तक नहीं किया था कि जिससे उसके तमन्नाओं के ढेरों बोझ से दबे हुए मन के सपनों को साकार होने की एक झूठी तसल्ली तक मिल जाती. शालीमार रोज़ के समान आता था. उससे हंसकर बातें करता था. उसके साथ कैन्टीन में चाय पीता, उसकी पसंद के स्नैक्स और समोसे खाता, कभी-कभी उसे छेड़ता भी था, मगर एक पल को भी ऐसा कुछ ज़ाहिर नहीं करता था कि जिससे क्षण भर को यह साबित हो जाता कि वह भी सुनीता को उसी नज़र से देखता है जैसे कि वह देखती आ रही है. सुनीता को हां यह भ्रम तो था कि कहीं न कहीं शालीमार के मन में उसके प्रति कोई ऐसा स्थान तो सुरक्षित है जो उसके अरमानों को झुलसने नहीं देगा. अगर ऐसा कुछ भी नहीं होता तो वह क्यों उसमें इसकदर दिलचस्पी ले रहा होता?

जिस तरह से सुनीता के दिल-ओ-दिमाग में शालीमार अपनी बाजी मार बैठा था ठीक उसके विपरीत उसके ही गाँव की, धनी पिता की इकलौती सन्तान शैली भी ऐसा ही सब कुछ सोच बैठी थी. फिर भी शालीमार जहां सुनीता के साथ घुल-मिलकर बैठता, उससे हंस-हंसकर बातें किया करता, समय-असमय वह उसकी मदद भी कर दिया करता, शैली के साथ उसका व्यवहार बिलकुल ही विपरीत था. वह उसमें दिलचस्पी रखना तो बात अलग, उससे बात भी करना पसंद नहीं करता था. चूँकि, शालीमार सुनीता से बातें करता था, एक प्रकार से उसके ही आस-पास मंडलाता रहता था; उसकी यही आदत और रवैया शैली को काट खाने को दौड़ता था. इस प्रकार कि तब वह केवल क्रोध और प्रतिशोध की अग्नि में अपनी केवल अंगुली ही काट लेती थी.

फिर एक दिन, कालेज की पहली कक्षा अभी आरम्भ भी नहीं हुई थी कि, अपनी कक्षा की तरफ जल्दी-जल्दी से कदम बढ़ाते हुए अचानक ही शालीमार के सामने शैली आ गई. फिर जैसे ही दोनों की आँखें आपस में टकराईं, शैली उसे देखते हुए कटाक्ष के स्वर में बोली,

'अरे वाह ! इतनी तेजी से पग बढ़ा रहे हो, अभी तो क्लास में कोई आया भी नहीं है. वह भी नहीं.'

'मैं समझा नहीं?' शालीमार जैसे चोंकते हुए बोला.

'मैं समझा दूंगी. चलो पहले एक कप चाय पीते हैं. वहीं बैठ कर बातें करेंगे और फिर धीरे-धीरे मैं तुमको सब समझा दूंगी.'

'अभी?'

'हां ! अभी नहीं तो फिर कब?' शैली ने कहा तो शालीमार अपने हाथ की कलाई में समय देखते हुए बोला कि,

'जानती हो कि, एक्जाम पास आ चुके हैं. बड़ी इम्पोर्टेंटस क्लासिस चल रही हैं.?'

'कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, हम दोनों के सिवाय. फिर तुम्हें किस बात की चिंता है, तुम तो होनहार छात्र हो इस फैकल्टी के. बिना पढ़े हुए भी पास हो जाओगे.'

'देखो फिर कभी. अभी क्लास में जाने दो मुझे.' कहता हुआ शालीमार कक्षा की तरफ चला गया तो शैली अपनी नज़रें पैनी करती हुई अपने मन ही मन बुदबुदाई,

'जाओ बच्चू. देखती हूँ कि, और कितना दूर भागोगे मुझसे?'

कुछेक दिन इसी तरह से व्यतीत हो गये.

कालेज में शान्ति छा गई. सालाना परीक्षाएं और भी अधिक पास आ चुकी थीं. कालेज के खेल, स्पोर्ट्स आदि की तमाम गति-विधियां स्वत: ही समाप्त सी नज़र आने लगी थीं. सभी छात्र-छात्राएं, अपनी परीक्षाओं की तैयारियों में जुट चुके थे. समय पर कालेज खुलता. विद्द्यार्थी आते, कक्षा में चुपचाप शान्ति से पढ़ते और फिर अपने घर चले जाते. लेकिन एक दिन शैली ने शालीमार को फिर से एकांत में पकड़ लिया. उस समय शालीमार कालेज की फील्ड में पड़ी एक अकेली बेंच पर बैठा हुआ कोई पुस्तक पढ़ रहा था. सुनीता भी उस समय उसके पास नहीं थी. शालीमार को यूँ अकेला पाकर शैली उससे मुस्कराते हुए बोली,

'आखिरकार फंस ही गये'

'?'- शालीमार ने उसे आश्चर्य से देखा तो वह बोली,

'मुझसे बचकर, जाओगे भी कहाँ?'

'तुम तो ऐसे कह रही हो कि, जैसे मुझे कच्चा ही खा जाओगी?'

'गलत. ऐसा तो कभी नहीं करूंगी. पर हां, अगर हाथ आ गये तो बड़े ही संभालकर रखूंगी, सारी उम्र.'

'और, हाथ नहीं आया तो. . .?' शालीमार ने एक संशय से देखते हुए कहा.

'तो मेरा भी नाम शैली राजदान है. जमींदार राजदान की बेटी. उस इंसान की कि, जिसने जो वस्तु चाही, वह अगर नम्रता से नहीं मिली तो हाथ बढ़ाकर छीन ली.'

'कानून अपने हाथ में लेने से पहले तुम्हें इस देश का कानून मालुम कर लेना चाहिए.'

'कानून तो मालुम है. लेकिन प्यार और जंग में सब कुछ जायज़ माना जाता है. यह नियम तुम्हें भी तो मालुम होना चाहिए?'

'तुम मुझे सचमुच धमका रही हो या फिर मज़ाक कर रही हो?' शालीमार कहते हुए अपने स्थान पर खड़ा हो गया.

'सचमुच, मैं कोई भी मज़ाक नहीं कर रही हूँ तुमसे. धमका भी नहीं रही हूँ. लेकिन एक बात जरुर जान लेना चाहती हूँ मैं तुमसे?'

'वह क्या?'

'मुझसे शादी करोगे?'

'क्या मज़ाक करती हो? एक लड़की होकर तुम्हें शर्म नहीं आती इस तरह की बातें करते हुए?'

'नहीं, बिलकुल भी नहीं आती है. वह भी इस लिए कि, मैं तुम्हें पसंद करती हूँ. तुम्हें चाहती हूँ. तुम्हें अपना बनाना चाहती हूँ, हमेशा-हमेशा के लिए.'

'देखो, किसी और पर डोरे डालो. बहुत पड़े हुए हैं, चाहे किसी को भी पकड़ लो.'

शालीमार ने जाना चाहा तो शैली फिर से उसके सामने आ गई. उसके मुंह के बहुत करीब सटते हुए से बोली,

'सच में पकड़ लेती किसी दूसरे को, अगर वह ज़रा भी तुम्हारे जैसा होता.'

'?'- शालीमार तब कुछ भी नहीं बोला. उसने आगे बढ़कर जाना चाहा तो शैली ने उसे फिर से रोक लिया और बोली कि,

'तुमने जबाब नहीं दिया?'

'किस बात का?'

'मुझसे शादी करने का.'

'अभी कुछ नहीं कह सकता हूँ. और फिर यह सब इतना आसान भी नहीं है. पहले कालेज पूरा करना है. कैरियर बनाना है. नौकरी ढूंढनी होगी. उसके बाद तब कहीं घर बसाने की बात आती है.' शालीमार जैसे अपनी जान छुड़ाने के धेय्य से बोला तो शैली पीछे हटते हुए बोली,

'तो ठीक है. कर लो यह सब. मैं इंतज़ार कर लूंगी.'

'कोई फायदा नहीं होगा, इंतज़ार करने से.' शालीमार ने कहा तो शैली जैसे क्रोध में बोली,

'जानते हो कि, क्या कह रहे हो तुम?'

'यही कि, अगर मैंने कभी अपनी शादी की भी तो कम से कम तुमसे तो नहीं करूंगा.' शालीमार के शब्दों में साहस और मन में दृढ़ता देख कर शैली एक बार को चुप हो गई. बड़ी देर तक वह गम्भीरता से शालीमार की आँखों में अपनी आँखें गड़ाये रही. फिर जैसे कुछ सोचते हुए उससे बोली,

'मुझसे नहीं करोगे तो फिर किससे करने का इरादा है तुम्हारा?'

'अभी कुछ पता नहीं.'

'शायद सुनीता से . . .?'

'?'- शालीमार ने उसे एक भेदभरी दृष्टि से घूरा तो शैली ने तुरंत कहा कि,

'क्यों चौंक कैसे गये?'

'हो सकता है कि वही मेरी ज़िन्दगी में आ जाए?'

'आ जाए या आ चुकी है?'

'यह भी गारंटी से नहीं बता सकूंगा.'

'तो फिर जितना जल्दी हो सके फायनल फैसला कर लो.'

'क्यों, मेरे विवाह के फैसले से तुम्हें क्या आपत्ति है?'

'इसलिए कि, मैं तुमसे अपना विवाह करना चाहती हूँ.'

'बिना मेरी मर्जी के भी'

'हां.'

'वह क्यों?'

'क्योंकि जो चीज़ मेरी है, उसे हासिल करना मुझे अच्छी तरह से आता है.'

'तुम अपनी दादागिरी दिखा रही हो या फिर अपने पिता की जमीदारी का रौब?'

'सोच लो कि, दोनों ही.'

'तो फिर आजमा लो. देखते हैं कि, कौन जीतता है?'

'यह हुई न बात?' कहते हुए शैली मुस्कराई तो शालीमार बोला कि,

'तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान?'

'बहुत खतरनाक होती है.'

'मतलब?'

'यही कि, देखती हूँ कि, तुम मुझसे कितना दूर और भाग सकते हो?'

'अच्छा ! मगर, एक बात तो है.'

'क्या?'

'आज तक सुना और फिल्मों में देखा भी था कि, हमेशा से लड़के ही लडकी को इस विषय में धमकियां दिया करते थे. लेकिन मैं पहली बार देख रहा हूँ कि, एक लड़की जबरन शादी के लिए किसी लड़के को धमकी दे रही है?'

'यह कलयुग से भी अधिक खराब दौर है. जब लड़के अपनी मर्जी पूरी करने की धमकी किसी लड़की को दे सकते हैं तो एक लड़की क्यों नहीं?'

'अगर तुम्हारी बात समाप्त हो चुकी हो, तो मैं चलूँ?'

'जरुर जा सकते हो, मगर एक बात हमेशा याद रखना.'

'क्या?'

'मेरे दिए हुए 'प्रोपोज़ल' के बारे में एक बार सोचना जरुर.'

'जरुर. . ., अब जाऊं?'

'?' - शैली ने उसे एक बार उसे देखा और फिर मुस्कराते हुए उसके सामने से निकल कर आगे चल दी. शालीमार बड़ी देर तक उसे जाते हुए देखता रहा, इस असमंजस के साथ कि, जाते हुए शैली ने उसे एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था- जैसा कि आम तौर पर होता है कि, विदा देनेवाला व्यक्ति कम से कम एक बार तो विदा लेनेवाले को पलटकर देखता ही है.

कुछ दिनों के बाद परीक्षाएं आ गईं. गर्मी के दिन थे. सुबह-शाम और आधी रात के बाद लोगों को भीषण गर्मी से राहत मिल पाती थी. बरना सुबह आठ बजे के बाद ही गर्म हवाओं के जैसे बबंडर उठते रहते थे. इस प्रकार कि शाम के पांच बजे तक अपने पूरे प्रवाह के साथ लू चला करती थी. इन्हीं गर्म हवाओं के साथ छात्रों ने अपनी परीक्षाएं दीं. अंतिम पर्चे से एक दिन पूर्व सुनीता की शालीमार से आख़िरी मुलाक़ात हुई. अपना काफी समय सुनीता ने शालीमार के साथ बिताया. सारे समय वह एक अजीब से सशोपंज में बंधी हुई उससे उम्मीद की बाट जोहती रही. यही कि, शालीमार उससे कुछ कहे. उसके मन की बात कहकर वह उसके मन में छिपी सारी दुविधा को बाहर निकाल दे. अपने मन में छिपी अपने पिछले दो वर्ष की मेहनत का जैसे वह हिसाब ले लेना चाहती थी. वह जानना चाहती थी कि, जैसा वह शालीमार के लिए सोचने लगी है, क्या वह भी बिलकुल वैसा ही उसके बारे में सोचने लगा है? क्या उसके वे सारे सपने जो उसने शालीमार को लेकर बुने हैं, क्या वे उसकी दहलीज़ पर जाकर पूरे भी होंगें? मगर सारा समय, सारे दिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. शालीमार उससे और दुनियां-जहां की बातें तथा किस्से कहता रहा. एक बार भी उसने इतना भी ज़ाहिर नहीं किया कि यहाँ से कालेज छोड़ने के बाद वह उसको याद भी करेगा? यहाँ तक कि बातों-बातों में सुनीता ने उसकी चुप्पी से खिन्न होकर यहाँ तक कहा कि,'इंसान की निष्ठुरता की भी कोई सीमा हुआ करती है.' लेकिन फिर भी शालीमार के कानों पर एक चींटी तक न रेंगी. जब ऐसा कुछ भी न हो सका तो फिर सुनीता ने भी जैसे अपने हथियार डाल दिए. वह खामोश हो गई. खामोश ही नहीं बल्कि बेहद निराश भी. उसे समझते देर नहीं लगी कि जैसा वह शालीमार के लिए सोचने लगी थी, वैसा उसके मन में कुछ भी नहीं था. शालीमार अगर उससे घुल-मिलकर, अपनेपन से बात किया करता है तो वह उसका केवल स्वभाव है, पसंद और चाहत नहीं. बहुत अंतर होता है, पसंद और चाहत में- चाहत केवल किसी एक के साथ जुड़ी होती है और पसंदें विभिन्न हो सकती हैं. शालीमार उसे तो क्या ही, शायद अभी किसी से भी प्यार नहीं करता होगा? प्यार तो क्या वह तो प्रेम की परिभाषा तक नहीं जानता होगा? इसी तरह से अपने मन-मस्तिष्क को समझाते हुए, अपने दिल पर, अपनी ही मृत कामनाओं का कफ़न बांधकर, भारी मन से सुनीता ने शालीमार से विदा ली और परीक्षा के अंतिम पर्चे के समाप्त होने के बाद, बगैर उससे मिले ही अपने घर चली गई. यही सोचकर कि ख़्वाबों की किश्ती में उसने जितने भी सपने अपने भावी जीवन को लेकर एकत्रित किये थे, जरूरी नहीं कि वे उसके बसने वाले घरोंदे की चौखट पर आकर ठहर जाएँ. विधाता की मर्जी और उसकी हवाओं जैसी पतवार के सहारे से चलने वाली नाव में जमा किये आस के सपने इंसान की मर्जी से नहीं बल्कि, खुद ईश्वर की इच्छा से बनाये हुए जोड़ों के घरों तक पहुंचा करते हैं; इंसान न जाने क्यों अंधेरों में हाथ-पाँव मारा करता है?

कालेज समाप्त हो गये तो शालीमार, शैली और सुनीता प्रतिदिन की आम मुलाकातों से भी जाते रहे. शालीमार ने आगे पढ़ना चाहा और कालेज में स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया. मगर आरम्भ के एक-दो महीनों में उसका मन नहीं लगा. मन न लगने का कारण था कि, अब न वहां पर सुनीता थी और ना ही उस पर रौब जमाने के लिए शैली. हांलाकि, इन दोनों से उसका ऐसा ना तो कोई विशेष वास्ता था और ना ही किसी से उसने कोई वायदा ही किया था; मगर फिर भी वह इनको ना मालूम क्यों अक्सर ही कालेज के एकांत में याद किया करता था? जब भी वह अकेला होता था तो सुनीता स्वयं ही उसकी नैनों की खिड़की खोलकर उसके दिल में प्रवेश करती और उसे नाहक ही परेशान करने लगती थी. फिर इस तरह से जब उसका मन नहीं लगा तो उसने कहीं नौकरी कर लेने की सोच ली और कई एक स्थानों पर अपने आवेदन पत्र भेज दिए. इन्हीं दिनों उसे अपने पिता से फोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि पास वाले गाँव के एक अमीर काश्तकार की पुत्री का रिश्ता उसके लिए आया है. अगर वह इच्छुक है तो बात आगे बढ़ाई जाए और लड़की देखने जाने का कार्यक्रम बनाया जाए. शालीमार ने सुना तो तुरंत ही उसके कान खड़े हो गये. उसने सोचा कि जरुर यह रिश्ता शैली की तरफ से आया होगा. फिर बगैर कुछ भी सोचे-समझे उसने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया- लड़की देखने जाना तो बहुत दूर की बात थी.

तब कुछेक दिनों के बाद उसे एक प्राइवेट स्टील की कम्पनी में लेखाकार नौकरी के लिए साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. वह साक्षात्कार देने गया और फिर उसे इस नौकरी के लिए चुन लिया गया. उसे नौकरी मिली तो वह तुरंत ही अपना कालेज छोड़कर नानियाघाट (एक काल्पनिक नाम) नामक स्थान पर चला गया और अपनी नौकरी में मन लगाने की कोशिश करने लगा. नानियाघाट एक विकसित होती जगह थी. सरकार ने यहाँ पर विभिन्न प्रकार की फैक्ट्रियां लगवाकर इस क्षेत्र को व्यापारिक बना दिया था और अब यह स्थान बड़ी तीव्रता से विकसित होता जा रहा था. शालीमार यहीं एक किराए के छोटे से मकान में आकर रहने लगा. सुबह वह अपने काम पर जाता औए शाम को चुपचाप अपने कमरे पर आ जाता.

नौकरी करते हुए तब एक दिन शालीमार को सूचना मिली कि, पुराने कम्पनी के निदेशक ने अपना काम छोड़ दिया है और उसके स्थान पर किसी महिला निदेशक ने कम्पनी का कार्य-भार सम्भाला है और किसी दिन वह अचानक से कार्यालय में निरीक्षण करने को आयेंगी. सो हुआ भी ऐसा ही. निदेशक आई, निरीक्षण करके चली भी गई, मगर वह शालीमार के लेखा विभाग में झाँकने तक को नहीं आई. शालीमार को आश्चर्य तो हुआ, फिर भी उसने इसे विशेष नहीं लिया. उसने यह सोच कर टाल दिया कि ऐसा तो चलता ही रहता है. मगर इससे भी अधिक उसे आश्चर्य हुआ जबकि, उसे अचानक से अपनी पदोन्नति का एक पत्र मिला. उसे लेखा विभाग का मैनेजर बना दिया गया था. पदोन्नति पाकर शालीमार की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. उसने पदोन्नति पाई तो उसकी मासिक आय भी बढ़ गई. मासिक आय बढ़ी तो उसने अपने भावी भविष्य के लिए भी सोचना आरम्भ कर दिया. अपना घर बसाने के सपने उसने स्वत: ही देखने आरम्भ कर दिए. और जब ऐसा हुआ तो अपने आप ही उसे यादों के झुरमुट में सुनीता का मासूम चेहरा नज़र आने लगा. वह सोचने लगा कि एक दिन यह बात वह कभी सुनीता से बहुत चाह कर भी नहीं कह पाया था, पर अब समय आ चुका है, वह अपने पिता से सुनीता के रिश्ते के लिए अवश्य ही कहेगा.

इसी उहापोह में, शालीमार के दो-तीन महीने और भी बीत गए. वह कुछ दिनों के लिए छुट्टियां लेकर घर जाने के लिए सोचने लगा. और वह अभी इसी ताने-बानों में था कि एक दिन उसे फिर से अपने कार्यालय में, मुख्य कार्यालय का पत्र मिला. उसे पढ़ कर एक दम से अपार प्रसन्नता तो हुई मगर उसकी आँखों के सामने कई-एक प्रश्न-चिन्ह भी तैरने लगे. उसे अपने विभाग के साथ-साथ चार अन्य विभागों का मुख्य अधीक्षक बना कर उसकी फिर से पदोन्नति कर दी गई थी. अभी वह ऐसा सोच ही रहा था कि, उसके साथ काम करने वाले एक हेमंत नागर ने उसके पास आकर कहा कि,

'मुबारक हो बंध. बहुत जल्दी लम्बे हाथ मार लिए हैं?'

'?'- सुनकर शालीमार मुस्कराया तो हेमंत आगे बोला कि,

'मैं नहीं जानता हूँ कि, निदेशक जी को आपने कोई पट्टी पढ़ाई है अथवा . . .' पर हां, इतना अवश्य कहूंगा कि, आसमान में उड़ना कोई भी गलत बात नहीं है. मगर याद रखना कि वहां पर पंख फैलाकर बैठने की कोई भी जगह नहीं होती है.'

'वह तो आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. एक बात बतायेंगे आप मुझे?'

'?'- उस व्यक्ति ने आश्चर्य से देखा तो शालीमार बोला,

'अपनी निदेशक हैं कौन?'

'अजीब बात है. आप धड़ा-धड़ प्रमोशन ले रहे हैं, और आपको प्रमोशन देने वाली का नाम भी नहीं मालुम?'

'सचमुच नहीं जानता. कभी सोचा ही नहीं इस बारे में?'

'शैली राजदान.' कह कर. हेमंत एक कटीली हंसी के साथ अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया.

शालीमार को काटो तो खून नहीं. पल भर में ही उसके शरीर में बहता हुआ जैसे सारा रक्त ही जम गया. उसकी आँखों के सामने अन्धकार छाने लगा. जिस जाल से वह अपने को मुक्ति पाया हुआ सोच बैठा था, उसमें तो वह खुद ही आकर फंस चुका था. क्यों उस पर कोई मेहरबान था? क्यों उसके बार-बार प्रमोशन हो रहे थे? क्यों कोई उस पर अपनी समस्त रहमत की झोली खाली कर देना चाहता है? इस प्रकार के विचार मस्तिष्क में आते ही उसे अपने गले में किसी की चतुराई का शिकंजा कसते हुए सोच कर ही उसने अपने दोनों हाथ अपनी गर्दन पर रख लिए. फिर उसे समझते देर भी नहीं लगी. शैली की इस मेहरबानी और करतूत पर शालीमार को बेहद क्रोध भी आया और साथ ही दया भी. दया इसलिए कि, औरत जिसको चाहे, तो क्या वह हमेशा उसकी मनाही के बाद भी उसे चाहती रहेगी? एक समय था कि इसी शैली ने उसे अपना बनाने के लिए सैकड़ों धमकियां दे डाली थीं, मगर आज वह अपना दूसरा पैंतरा भी खेलने से नहीं चूक सकी थी? कैसी निर्बुद्धि और जिद्दी लड़की है यह? सोचते ही शालीमार मन ही मन बुदबुदा गया. सच्चे प्यार की आस्थाएं दिल की दरारों को फाड़कर बाहर निकला करती हैं. उसने ना तो पहले कभी शैली को अपने दिल में जगह दी थी और ना ही आज. जिसको यह स्थान मिलना चाहिए था, जब उसे ही वह न दे सका था तो फिर शैली . . .? सोचने ही मात्र से शालीमार का समस्त मस्तिष्क ही चकरा गया. उसने तुरंत कम्प्यूटर की स्क्रीन पर अपना 'रेजीनेशन' टायप किया और फिर उसे प्रिंट करके अपनी जेब में रख लिया. अपने साथियो से उसने शैली राजदान के कार्यालय के बारे में पता किया तो उसे मालुम हुआ कि वह अपने 'कारपोरेट' के कार्यालय में बैठा करती है और इमारत के हरेक कार्यालय तथा विभागों में लगे हुए सी. सी. टी. वी. कैमरों के द्वारा सभी का निरीक्षण किया करती है. इसके साथ ही उसे यह भी जानकारी सुनने को मिली थी कि, शैली के पिता इस स्टील कम्पनी की बोर्ड समिति के ट्रस्टी और सदस्य भी थे. शायद यही एक ऐसा कारण हो सकता था कि जिसकी बजह से उसके साथ पढ़नेवाली शैली इतनी बड़ी पोस्ट पर बैठी हुई थी. कारपोरेट का कार्यालय किसी दूसरी बिल्डिंग में था, इसलिए शालीमार ने किसी तरह खुद पर नियंत्रण किया और फिर पता करते हुए शैली के कार्यालय में जा पहुंचा.

कार्यालय के बाहर आकर उसने वहां पर खड़े हुए सुरक्षा कर्मी को अपने बारे में बताया और अपने नाम का कार्ड निकालकर उसे पकड़ा दिया. थोड़ी ही देर बाद सुरक्षा कर्मी उसके पास आया और उसे अंदर जाने की अनुमति दे दी. फिर जैसे ही वह अंदर पहुंचा तो शैली के कार्यालय की आलीशान सजावट देख कर उसकी आँखें जैसे स्थिर सी हो गईं. कार्यालय के अंदर शायद ही कोई ऐसी वस्तु होगी जो अपनी विशिष्ट विशेषता के साथ पाश्चातीय सभ्यता का बखान ना कर रही हो. संगमरमरी चमक और फिसलती-गुनगुनाती ठंडी वायु की लहरों के साथ सजे हुए फर्नीचर से लेकर दीवार पर लटके हुए भव्य पोस्टर अपनी अमीरी के उद्देश्य से लगाये गये थे, या फिर कारपोरेट की भव्यता को दिखाने के कारण? शालीमार अंदर खड़ा हुआ कोई भी निर्णय नहीं कर सका. शैली अपनी सोफेनुमा कुर्सी से नदारद थी. तभी एक चपरासी ने आकर उसे बैठने को कहा और पानी का एक गिलास और दो विदेशी नेपकिन उसके सामने ही मेज पर रख दिए. 'मेम साहब, थोड़ी ही देर में आती होंगी.' यह सूचना देकर चपरासी फिर से अंदर चला गया.

यह सब देखते हुए शालीमार को अभी दस मिनट ही हुए होंगे कि तभी शैली अचानक से आई और उसे 'हेलो' कहती हुई अपनी कुर्सी पर न बैठकर, उसके सामने की दूसरी कुर्सी पर बैठ गई. बैठते ही वह उससे हल्की मुस्कान के साथ बोली,

'कैसे हो. काफी दिनों के बाद मिले हो. मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि तुमसे फिर इस प्रकार से मुलाक़ात भी होगी. और तुमने भी कालेज छोड़ने के बाद फिर कभी मुझसे मिलने और ढूँढने की कोशिश भी नहीं की?'

'?'- शैली के इन ढेर सारे प्रश्नों के साथ उसके प्रति शिकायत भी होगी, शालीमार आश्चर्य करने के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द नहीं कह सका.

'चाय पियोगे या कॉफ़ी?'

'कुछ भी नहीं.' शालीमार का उत्तर बहुत छोटा था.

'यह कैसे हो सकता है. कालेज में रहते हुए तुमने कभी एक प्याला चाय का कप तक नहीं पिलाया मुझे, अब यह तो मेरी जगह है, बगैर कॉफ़ी पिए नहीं जाने दूंगी.?' कहते हुए उसने वहीं फोन से कॉफ़ी लाने का आर्डर दे दिया.

'कालेज में रहते हुए भी तो वहां की सारी जगह तुम्हारी ही थी'

'हां, लेकिन तुमने तो अपनी तरफ से मुझे यह अधिकार कभी दिया ही नहीं?'

'मैं आया था इसलिए कि थोड़े से समय में ही मेरे तीन प्रमोशंस? इसकी बजह जान सकता हूँ?' शालीमार ने बात बदली तो शैली भी तुरंत ही बोली,

'तुम खुद ही जानते हो कि मैंने यह सब क्यों किया? और फिर जो मैं तुम्हारे लिए कर सकती थी, वही मैंने किया भी है. यह और बात है कि, इसका कारण अब चाहे मेरी-तुम्हारी पहले की दोस्ती, एक ही कालेज में, एक सहपाठी होने का दो वर्षों का साथ या फिर मेरी वही दिल की चाहत, जिसके कारण में तुमसे लड़ा करती थी.'

'आज लड़ने का इरादा नहीं है क्या?'

'नहीं.'

'क्यों?'

'कोई फायदा नहीं. दिल के अंदर झांक कर देखा तो जा सकता है, मगर निकाला नहीं जा सकता है. फिर भी हार अभी भी नहीं मानी है.'

'तुमने कभी मेरे दिल में भी झाँकने की कोशिश की और कभी जाना भी कि, प्यार के रिश्ते दिल की गहराइयों से निकलने वाले आपस के स्पंदनों के गले मिलने से बनते हैं?'

'हां, यह भी जानती हूँ. इसीलिये अपनी मजबूर मुहब्बत पर हाथ मला करती हूँ. कभी-कभी सोचा करती हूँ कि मेरी किस्मत भी अजीब ही है. सारी दुनिया में केवल एक तुम्हीं रह गये थे, मेरे दिल में बसने के लिए.' कहते हुए शैली उदास हुई तो शालीमार उसका मुख देखने लगा.

'मैं बहुत मजबूर हूँ शैली. मैं उस रास्ते पर एक कदम भी नहीं चल सकूंगा, जिस पर तुम मेरे बदन में समाहित होकर अपना कोई बसेरा बनाना चाहती हो.'

'मैं भी तुम्हें विवश नहीं करूंगी, बल्कि, तुम्हारा इंतज़ार करती रहूंगी.'

'कब तक?'

'जब तक जीवित रहूंगी.'

'अपनी ज़िन्दगी का इतना अहम फैसला करने से पहले . . .'

'क्या'

'एक बार गम्भीरता से जरुर सोच लेना.'

तभी चपरासी एक ट्रे में सजाकर कॉफ़ी रख कर जब चला गया तो शैली ने खुद कॉफ़ी बनाई और शालीमार को देते हुए बोली,

'लो, कॉफ़ी पियो. यह लड़ना-झगड़ना तो चलता ही रहेगा.'

शालीमार चुपचाप कॉफ़ी के मग में से उड़ने वाली भाप को देखने लगा. इसी बीच उनके आपस के बहुत सारे पल कॉफ़ी में से उड़ने वाली भाप के समान हवा में विलीन हो गये. दोनों चुप थे. शायद इसलिए भी कि, दोनों ने इससे पहले बहुत कुछ कह-सुन लिया था. काफी-कुछ अभी भी कह लिया था, और जो बाक़ी था वह उसे कह भी पायेंगे या नहीं? ऐसा ही कुछ दोनों सोचते थे- सोच कर एक-दूसरे को चोर नज़रों से देखते थे और फिर नज़रें झुका लेते थे. नहीं जानते थे कि, दोनों में से कौन कितना दोषी है?

तभी शैली ने आपस के मध्य छाई खामोशी को तोड़ा. वह शालीमार को दीवार पर लगे एक पोस्टर को देखते हुए बोली,

'उस पोस्टर में क्या देख रहे हो?'

'देख नहीं, सोच रहा था.'

'क्या सोच रहे थे?'

'यही कि, बनावट के झूठे रंगों से बनाये हुए फूल सजीव तो लगते हैं, लेकिन होते तो झूठे ही.'

'हां, झूठे तो होते हैं, मगर फिर भी इन्हें मुरझाने का भय नहीं होता है.' शैली बोली तो शालीमार ने भी तुरंत ही कहा कि,

'और इन्हें तोड़ने के लिए कोई अपनी नियत भी खराब नहीं करता है?'

'तुम मुझ पर दोष लगा रहे हो?'

'दोष ! अच्छा छोड़ो अब इसे. मैं अपनी तरफ से यह पत्र तुम्हें देने आया था. अब चलता हूँ.' कहते हुए उसने अपनी नौकरी छोड़ने का लिफाफा शैली को थमाया और बोला,

'तुमने जो कुछ भी मेरे सुखद भविष्य के लिए किया उसके लिए मैं बहुत एहसानमंद हूँ. अपने ईश्वर से सदा दुआ करूंगा कि, वह तुम्हें मुझ से भी अधिक होनहार ऐसा जीवन साथी प्रदान करे, जिसके साए में तुम हमेशा सुखी रहो.'

शैली ने उस लिफ़ाफ़े को ऊपर-नीचे गौर से देखा और यह सोच कर वहीं मेज पर रख दिया कि कार्यालय के काम से सम्बन्धित होगा. तब शालीमार जाने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा तो शैली ने उसे रोका. बोली,

'सुनो !'

'?' - शालीमार अपने ही स्थान पर ठिठक गया तो वह आगे बोली,

'अपने जीवन में तुम्हें कभी भी अगर मेरी जरूरत पड़े, तो कहने से कतराना नहीं.'

'?'- शालीमार ने एक नज़र शैली को निहारा और उसके दफ्तर का दरवाज़ा खोलकर बाहर आ गया. बाहर आते ही वहां खड़े हुए गार्ड ने उसे नमस्ते किया और शालीमार अपनी राह पर आगे बढ़ गया. बगैर इस बात को सोचे हुए कि, उसका नौकरी का त्यागपत्र देख कर शैली के दिल पर क्या बीतेगी? . . .'

नानियाघाट से उसी दिन शालीमार ने अपना सामान बांधा, शाम की गाड़ी से अपने शहर के लिए रवाना हो गया. सारी रात और दूसरे दिन भी सफर के बाद उसकी ट्रेन रात के दस बजे जब उसके शहर पहुंची तो अब रात होने के कारण वह अपने गाँव भी नहीं जा सकता था. साथ में मौसम भी ऐसा खराब था कि बारिश भी खूब ही हो रही थी. यूँ भी उसके गाँव जानेवाली अंतिम बस शाम छह बजे तक जाती थी. सो अब वह कहाँ जाए और रात काटे? तुरंत ही उसके दिमाग में अपना वह किरायेदार का मकान याद आ गया जहां पर वह अपनी कालेज की पढ़ाई के दौरान दो वर्षों तक रहा था. तुरंत उसने वहाँ जाने की सोच ली. अपने मकान-मालकिन के द्वार को उसने बारिश में भीगते हुए ही खटखटाया तो काफी देर के बाद मकान की मालकिन ने दरवाज़ा खोला और उसे पहचानते ही बोली,

'अरे लाला तुम ! आओ. आओ. जल्दी से भीतर आ जाओ. तुम तो काफी भीग गये हो?'

अंदर आने के बाद मकान मालकिन ने उसे तुरंत एक चादर लाकर दी और उसे अपना शरीर पोंछने को बोला. तब तक मकान के मालिक भी आ गये. आते ही उन्होंने भी तुरंत शालीमार को अपने गले से लगा लिया. फिर थोड़ी देर के बाद मकान मालकिन ने शालीमार को गर्म-गर्म दूध लाकर दिया. शालीमार चुपचाप दूध पीने लगा तो मकान मालकिन ने बात शुरू कि. बोले,

'यूँ अचानक से आना हुआ. कोई, चिट्ठी-पत्री, खबर भी नहीं, तुम्हारी नौकरी तो ठीक-ठाक चल रही होगी?'

'मैं नौकरी छोड़ आया हूँ. हो सकता है कि अब फिर से कॉलेज ज्वाइन कर लूँ.'

'आजकल, नौकरियां तो वैसे भी मुश्किल से मिला करती हैं. तुमने छोड़ क्यों दी?'

'बस पसंद नहीं आई. वहां का माहौल भी अच्छा नहीं था.'

'कोई बात नहीं. आगे भी तुमको बहुत अच्छे अवसर मिलेंगे. अब खाना आदि खाकर आराम करो. सुबह तुम अपना कमरा देख लेना. मैं सफाई करवा दूंगा. बताना अगर फिर से रहने की कोई बात बनती है.'

यह कहकर वे आराम करने चले गये. इसी बीच उनकी पत्नि आईं और शालीमार को कुछेक लिफ़ाफ़े देते हुए बोली,

'लाला, तुम्हारे जाने बाद यह डाक तुम्हारी आई थी. तुम अपना नौकरी वाला पता भी नहीं दे गये थे. सो, मैं सोच ही रही थी कि, इन्हें तुम्हारे घर भिजवा दूँ, तब तक तुम अब आ ही गये हो.'

उसका सोने का इंतजाम किया और फिर शालीमार सारे कामों से निवृत होकर अपने सोने के कमरे में चला गया. बड़े इत्मीनान से उसने डाक में आये लिफाफों को देखा तो उनमें से एक लिफाफे में भेजनेवाले के नाम की जगह पर सुनीता का नाम देख कर आश्चर्य कर गया. उसने एक बार फिर से लिफ़ाफ़े को सब तरफ से उलट-पुलटकर देखा, फिर तुरंत ही उसे खोल भी दिया. सुनीता ने उसे पत्र अपने घर से लिखा था. वह उस पत्र को पढ़ने लगा,

'शालीमार,

ना जाने तुम कैसे इंसान हो? तुम्हारा बहुत इंतज़ार किया, हर दिन तुम्हारे आने की राह देखी, तुम्हारे लिए बहुत मिन्नतें माँगी, उपासनाएं भी कीं. मगर तुम्हारी निष्ठुरता के सामने यह सब कुछ बेकार ही रहा. मैं हार गई. शायद तुम मेरी किस्मत में थे ही नहीं? मैं सोचती थी कि, जिस तरह से मैं तुमको चाहती हूँ, तुम्हें पसंद करती आई हूँ, तुम्हारे लिए दिन-रात अपनी मुहब्बत के नाम से तुम्हारी आरती के दिए जलाती आ रही हूँ, शायद तुम भी मेरे लिए वैसा ही सोचते होगे? तुम्हारा साथ पाकर, तुम्हारे साथ-साथ एक ही कक्षा में बैठते हुए, तुम्हारे साथ बैठ कर बातों में अपना जी बहलाते हुए, मैं ही धोखा खा गई थी कि, तुम सिर्फ मेरे ही हो? यही कारण था कि मैंने अपने पिताजी से तुम्हारा ज़िक्र किया तो वे मेरी बात मान गये थे. उनकी हां कहने पर ही, बाद में उन्होंने मेरी शादी का रिश्ता तुम्हारे घर भिजवाया था, परन्तु मुझे गहरा 'शॉक' उस समय तब लगा था जबकि, केवल तुमने ही इस रिश्ते के लिए ठुकरा दिया था. भूल तो इंसान से ही होती है. मैंने तुम्हें चाहा, तुम्हें पसंद किया, तुम्हारे साथ एक ही राह पर साथ-साथ चलने की तमन्ना कि; मगर इस बारे में मैं बहुत पीछे रह गई. तुम आगे निकल गए.

मैंने जो कुछ भी किया, जैसा भी तुम्हारे बारे में सोचा, उसके लिए हो सके तो मुझे मॉफ कर देना. अब मेरी शादी तुम्हारे ही गाँव के जमीदार के लड़के से हो रही है. मैं जानती हूँ कि, यह सुनकर तुम्हें कष्ट तो होगा ही क्योंकि विवाह के बाद भी मैं तुमसे सदा को दूर होकर भी तुम्हारे ही नज़दीक, तुम्हारे ही गाँव में रह रही हूँगी. इसलिए मेरी तुमसे हाथ जोड़कर बिनती है कि, अपने गाँव में, तुम मेरे सामने तो क्या, कभी भी मेरे घर के पास के मार्ग से भी मत गुज़रना, क्योंकि वे आरती के दिए, जो तुम्हारी मुहब्बत में जलाकर, मैं तुम्हारी हर दिन पूजा किया करती थी, उन सबको मैं हमेशा के लिए बुझाकर, अपने मन-मन्दिर के आँगन से भी बाहर फेंक आई हूँ. मेरी तुमसे गुजारिश है कि, जितना भी जल्दी हो सके, जो भी तुम्हें पसंद हो, उससे अपना विवाह कर लेना और फिर मुझको कभी भी याद करके अपनी पत्नी के प्यार का अपमान मत करना.

-सुनीता.'

'. . . सोचते हुए शालीमार की आँखों में इतना पानी भर आया कि उसे सामने की सड़क भी धुंधली दिखाई देने लगी. गम और विषाद के पानी से भरी आँखों को उसने अपने नंगे हाथों से ही पोंछा. वह समझ नहीं पाया कि, उसकी आँखों में आये हुए ये आंसू अपनी किसी हार के थे अथवा नादानी में सुनीता के ठुकराए हुए प्यार और उसकी कद्र न करने के कारण?

शाम पूरी तरह से न जाने कब की डूब चुकी थी. अन्धकार की चादर के साथ अब रात भी शुरू हो चुकी थी. सड़क भी इसकदर सुनसान हो चुकी थी कि, अब भूले से भी वहां एक झूठ का साया तक नज़र नहीं आता था. बजाय इसके कि, किसी की उपस्थिति का वहां पर एहसास हो, आस-पास की घास और झाड़ियों से कीड़े-मकोड़ों का बेमकसद अलाप सुनाई देने लगा था. शालीमार जब यहाँ आया था तो शाम के पांच बज रहे थे; तब से इतनी सी देर में वह अपने जीवन में घटित ना जाने कितनी ही बातों को एक बार फिर से दोहरा गया था.

वह वहां से चुपचाप उठा और पैदल ही पीछे लौटने लगा. इस तरह कि, मन खाली था. दिल में कोई भी विचार नहीं थे. एहसासों कि दुनिया भी बहुत सूनी और रिक्त हो चुकी थी. सब कुछ तो उसका जा चुका था. अब वह किसके लिए सोचे? कौन अब बाक़ी बचा है? प्यार कोई भी जबरन छीन लेनेवाली वस्तु नहीं है. बार-बार दिल पर दस्तक भी नहीं देती है. जीवन में केवल एक बार ही सच्ची मुहब्बत की भरी टोकरी अपना दामन फैलाकर, अपने महबूब को अपने आंचल में समेट लेने के लिए आगे आती है. ज़िन्दगी का यह महत्वपूर्ण तथ्य वह अच्छी तरह से समझ चुका था, मगर फिर भी वह समझ नहीं पा रहा था कि ज़िन्दगी के रास्ते क्या अकेले तय नहीं किये जा सकते हैं? क्या यह बहुत जरूरी है कि, जीवन के सफर में कोई साथी हो? हां, जीवन का सफर अकेले कट तो जाता है लेकिन, ज़िन्दगी के बहुत से हिस्से, बहुत सी बातें केवल जीवन-साथी के साथ ही बांटी जा सकती हैं. हर किसी के साथ इन चीजों का बंटवारा नहीं किया जा सकता है? इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि, कोई तुम्हें चाहे, तुम किसी और को पसंद करो और जिसे तुम पसंद करो वह किसी अन्य की झोली में डाल दिया जाता है; यही मानव जीवन है. जीवन का कटु और बहुत कड़वा सत्य. प्यार के सच्चे जोड़े तो ऊपर से ही बनकर आते हैं. सुनीता और शैली: दोनों ही को वह अब हमेशा के लिए खो चुका था. एक के प्यार की कभी भी कद्र न करके और दूसरी के प्यार को ठुकराकर.

-समाप्त।