Ansuni Yatraon ki Nayikaye - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 6

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 6

मैंने उससे कहा कि, मैंने घर मिसेज़, बच्चों से बात कर ली है. तुम्हारे पति का कोई नंबर हो तो बताओ, बात करा दूँ. इस पर वह बड़ी कड़वी हंसी हंस कर बोली, 'कैसा घर, वहां किसी को मेरी चिंता नहीं है. इसलिए बताया भी नहीं है कि, मैं आ रही हूं.'

उसकी स्थिति समझते हुए, मैंने तुरंत विषय बदल कर कहा, 'कोई बात नहीं, चाय पीजिए ठंडी हो रही है. खाना वगैरह मिलने की तो अब कोई उम्मीद नहीं है. केला, संतरा जो हैं, वह भी आगे थोड़ा-बहुत काम देंगे.'

वह चाय पीती हुई बोली, 'इतनी बार आए-गए ऐसा कभी नहीं हुआ. ये कहो मेरा भैया खाली दूध पर है. नहीं तो बड़ी मुसीबत हो जाती.'

'सही कह रही हो.'

संयोग से मैंने केला, संतरा ज्यादा ले रखा था. रात करीब बारह बजे हम-दोनों ने दो-तीन केले, संतरे खा लिए. उस समय पेट भरने का यही एक मात्र रास्ता था. 'महाराजगंज' के बाद गाड़ी कई जगह रुकी, लेकिन चाय और सन्नाटे के सिवा कुछ और नहीं मिला. हां वह आदमी तीन बार मिला, जिसे मैं पिछली बोगी में ठेल आया था.

पहली बार मिला तो बड़ी शालीनता से बोला, 'भाई-साहब आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था. मैं तो कुछ देर समझ ही नहीं पाया कि, हुआ क्या? उस हड़बड़ाहट, जल्द-बाजी में हम में से किसी को चोट भी लग सकती थी.'

मोहतरमा की बात सही थी. शादी के बाद वह पहली होली ससुराल में ही मनाने की रस्म पूरी करने ससुराल ही जा रहा था. संयोग से 'लखनऊ' ही. मैंने वही खुराफाती, मस्ती-भरी बातें बताते हुए कहा, 'इस स्पेशल जर्नी का भरपूर मजा लो मित्रवर. एकदम नई-नई तरोताज़ा पत्नी के साथ, बोगी में अकेले जर्नी करने का अवसर जीवन में फिर कभी नहीं मिलेगा. इस एक्सपीरिएंस को कभी भूल नहीं पाओगे. अब जीवन में ना तो, शादी के बाद की पहली होली आएगी, और ना ही सामने से ही होकर गुजर रही ट्रेन छोड़ोगे, और न एकदम....बात अधूरी छोड़ते हुए मैं हंस दिया. मैंने हल्के से आँख भी मारी थी.

वह हंसकर चला गया. उसकी भी ट्रेन छूट गई थी. मैंने मोहतरमा को बताया तो वह भी हंसी......

'' आप काम ही ऐसा कर रहे थे. युवा वो था, लेकिन युवागिरी आप कर रहे थे. यानी उस समय सब-कुछ पटरी से उतरा हुआ था. सवारी से लेकर गाड़ी तक.''

यह सुनकर वकील साहब हँसे. फिर ऐसे सोचने लगे, जैसे कुछ याद कर रहे हों. मैं शांत रहा. मैं नहीं चाहता था कि, उनका ध्यान भंग हो. थोड़ा समय लेने के बाद उन्होंने आगे बताना शुरू किया, '' हम-दोनों एक बार फिर आर.ए.सी. सीट को एक करके बैठे हुए थे. बाथरूम के आस-पास वाली कुछ लाइट्स छोड़ कर बाकी सब आफ कर दी थी. मैं ही नहीं, मोहतरमा भी इस अनूठी जर्नी का पूरा-पूरा ख़ास मजा ले लेना चाहती थीं. हर मजे का रेशा-रेशा लूट लेने में लगी हुई थीं.

मैं गॉर्ड वाली बोगी की तरफ चेहरा करके, दोनों पैर पूरा फैलाए हुए बैठा था. और वह मेरे पैरों के बीच, बिल्कुल पीछे तक बैठी थी. उसका सिर मेरी छाती पर टिका हुआ था. मेरी ठुड्डी उसके सिर को छू रही थी.

हम-दोनों बाहर घुप्प अंधेरे, कभी बीच-बीच में पड़ने वाली बस्तियों की लाइट देखते या फिर कभी साफ चमकते सितारों भरे आसमान की ओर. वह कभी मेरे हाथों की उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी करती तो, कभी बीच वाली अंगुली का सिरा दांतों के बीच में रख कर उन्हें जल्दी-जल्दी दबाती....

'' और आप, आप केवल अन्धेरा, बस्तिओं की लाइट और आसमान के तारे गिन रहे थे या आपके हाथ भी....

बात अधूरी छोड़ते हुए मैं हंसा तो वह भी हंस कर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले,

'' हाँ, वैसे ही मेरे हाथ भी कभी उसकी छाती, निप्पल, नाभि को छेड़ते, तो कभी गहरी घाटी में भी बंगी जम्प लगा आते. अचानक मैंने उससे पूछा,'तुम गाना वगैरह जानती हो?'

तो उसने चंचल-शोख स्कूली लड़कियों की तरह सिर हिलाते हुए कहा,' ऊंहूँह.'

'अरे कुछ तो आता होगा कुछ भी सुनाओ.'

'ऊंहूँह..तुम ही कुछ सुनाओ ना, कितनी बढ़िया हवा चल रही है, काली रात, सितारों भरा आसमान, गाड़ी में बस हम-तुम दो मेहमान. कुछ तो सुना ही सकते हो.'

मैंने बात फिर उसी की ओर मोड़ते हुए कहा, 'कुछ चुटकुला-वुटकुला तो सुना ही सकती हो. बातें तो किसी कवित्री जैसी कर रही हो, और कोई गाना नहीं याद आ रहा है, तुम्हारी यह बात समझ में नहीं आ रही है. मुझे चुटकुलों के सिवाय कुछ आता नहीं. कैसे काम चलेगा?'

'चलाना चाहोगे तो चल ही जाएगा, चुटकुले ही सुनाओ.'

उसकी बड़ी जिद पर मैंने कई चुटकुले सुनाए, तो वह बोली, 'कुछ ऐसा सुनाओ कि, मज़ा आ जाए.'

'मज़ा' शब्द पर उसके ख़ास जोर का निहतार्थ समझते हुए मैंने फिर वकीलों के बीच अक्सर चलने वाले कई बेहद खुले, नॉनवेज चुटकुले सुनाए. उन्हें सुनकर वह कभी आहें भर्ती , कभी सिसकारी निकालती, कभी मेरी उंगलियां चूमने लगती. फिर एक बार इन अश्लील चुटकुलों की तरह, एक भोजपुरी लोक-गीत पर बहुत ही ज्यादा अश्लील पैरोडी गुन-गुनाने लगी.

कुल मिलाकर उसकी आवाज अच्छी थी, वह पैरोडी वास्तव में एक बहुत पुराने भोजपुरी होली-गीत 'काहे खातिर राजा रुसे काहे खातिर रानी, काहे खातिर बकुला रूसे कईले ढबरी पानी, जोगीरा सा र र र. राज खातिर राजा रूसे, सेज खातिर रानी, मछरी खातिर बकुला रूसे कईले ढबरी पानी, जोगी जी साररर.' की पैरोडी थी. जो मेरे चुटकुलों से भी ज्यादा खुली और अश्लील थी.

वास्तव में उसकी अश्लीलता का स्तर सुन कर मेरे मन में आया कि, भोजपुरी में यह जो अश्लीलता आजकल परोसी जा रही है, यह संत गोरखनाथ, भिखारी ठाकुर ,रामजी राय ,पांडेय कपिल द्वारा स्थापित उच्च-स्तरीय भोजपुरी साहित्य की परम्परा की जड़ खोद रही है. इसको रोकने का भी कोई रास्ता है क्या? यह सोचते हुए मैंने उसे और सुनाने के लिए कहा. अब मेरा उद्देश्य उसे और गहरे समझने का था.

कहने पर उसने दो-तीन पैरोडी और सुनाईं. सभी अश्लीलता में एक-दूसरे से होड़ ले रही थीं. कहां से सीखा यह बार-बार पूछने पर भी यही कहती, 'बस ऐसे ही आ गया.'

मैंने पूछा, 'कभी अपने पति को भी सुनाया,?'

तो मुंह बनाती हुई बोली, 'पहले खूब मजे ले-लेकर सुनता भी था, सुनाता भी था. लेकिन जब झगड़ने लगा, शराब पीने लगा, तब से सब खतम. अब तो गुनगुना भी दूँ, भूले से कोई फिल्मी गाना भी जुबान पर आ जाए तो उसकी चले तो मेरा सिर ही कलम कर दे. वो तो कहो, अब मैं भी बराबर आँख में आँख डाल कर खड़ी होना जान गई हूँ, तो दांत किटकिटा कर चला जाता है.'

अश्लीलता पुराण के चलते रहने से मुझ पर फिर फगुनहट हावी हो गई. दूसरे मैं बड़ी देर से एक ही पोज में बैठे-बैठे उकता भी गया था. पैर भी सुन्न हो रहे थे, तो उसके एक अंग से छेड़-छाड़ करते हुए कहा, 'तुमने बहुत सुनाया, हमने भी खूब सुनाया. जो सुना-सुनाया अब वही करने, कराने का समय आ गया है.'

यह कहते हुए मैंने बड़े प्यार से उसे पलट दिया. उसके किसी जवाब का इंतजार नहीं किया. क्योंकि उसका जवाब क्या होगा यह मैं जानता था. वह हंसती-खिलखिलाती हुई बोली, ' बिना रंग खेले ही तुम्हरे फगुनहट सवार है.'

हम-दोनों ने ट्रेन की रफ्तार से भी, कहीं बहुत ज्यादा तेज़ी से उसकी पैरोडी को उसी सीट पर साकार कर दिया. इसके बाद उसे थोड़ी ही देर में नींद आने लगी तो मैंने उससे सो जाने के लिए कहा. वह बच्चे के पास जाकर सो गई. उसने बच्चे को एक छोटी सी शाल ओढ़ा दी, और खुद साड़ी ओढ़ ली थी.

मैंने देखा वह सोती तो कम ही थी, लेकिन बेधड़क, बेसुध सोती थी. उस समय उसे थोड़ा बहुत, बाएं-दाएं, आगे-पीछे भी खींच दो, तो भी उसकी नींद खुलने वाली नहीं थी. उसने मुझसे भी कहा सोने के लिए, लेकिन मैंने नींद ना आने का बहाना किया और बैठा रहा. उसको छेड़ते हुए इतना जरूर कहा, 'तुम सारे कपड़ों की तकिया लगा कर ही सोना. जिससे अगर बोर होऊँ तो तुम्हें देख-देख कर बोरियत दूर कर लूँ.'

इस बात पर वह हंसी और बड़े अंदाज में बोली, 'हट, मैं कपड़ा पहनकर, लपेटकर, एकदम बाँध कर ही सोऊंगी. तुम्हउ बैठ के ऊबो न, आओ साथे सोओ. छल-कबड्डी का तो पूरा मजा लई चुके हो, अब आओ सोए का मजा लेयो.'

उसकी यह बात मुझे आमंत्रित करने लगी, मन सोने के लिए विचलित होने लगा, क्योंकि नींद तो मुझे भी आ ही रही थी. लेकिन मुझे पैसों की सुरक्षा परेशान किये हुए थी. एक तो जितना मिलना था, उसका आधा ही मिला था. जूलरी भी नाम-मात्र को ही मिली थी. मैं हिसाब-किताब लगा-लगा कर यही सोचता था कि, जितनी मेहनत की, जितना रिस्क उठाया , उस हिसाब से तो कुछ मिला ही नहीं.

मैंने बच्चों के भविष्य के लिए जो सपने देखे हैं, उन्हें पूरा करने के लिए अपनी इनकम को आधा ही पाता हूँ. इसीलिए अतिरिक्त प्रयास भी करता रहता हूँ. उस समय कुछ ही देर में उसके सोते ही, मन में यही सब बातें ज्यादा चलने लगीं.

तभी मैंने पत्नी को फ़ोन किया कि, शायद जाग रही हो. मेरा अंदेशा सही निकला. वह मेरी चिंता में सोई नहीं थी. बिल तेज़ी से बढ़ रहा था, फिर भी काफी देर तक बात की. इसके बाद मैं कभी आसमान देखता, तो कभी अंधेरे को चीरती दौड़ती जा रही ट्रेन की आवाज सुनता.

बीच-बीच में नजर मोहतरमा पर भी डाल लेता.

उसको निश्चिंत सोता देखकर मन में आया कि, यह तो कोई कमाई-धमाई भी नहीं करती. मार-पीट, उपेक्षा करने वाले, नशेड़ी पति पर ही डिपेंड है, फिर भी कितनी निश्चिंत है. जीवन का पूरा मजा ले रही है. कैसे बेसुध-बेधड़क सोती है.

यह सोचते हुए मेरी नजर फिर उसी पर ठहर गई. वह करवट से अब पेट के बल सोई हुई थी. जो धोती उसने कंधे तक ओढ़ी थी, वह उसके उलटने-पलटने, या उड़ कर, जैसे भी हो उसके पैरों के पंजे तक चली गई थी.

गैलरी में जलने वाली हल्के नीले रंग की लाइट में, गेंहुए रंग का, उसका कसा हुआ बदन किसी ग्रेट आर्टिस्ट की पेंटिंग सा दिख रहा था. मज़बूत चौड़े कंधे, बालों की थोड़ी मोटी, आधी पीठ तक लम्बी, गुंथी हुई चोटी पीठ पर से एक तरफ लटकी हुई पड़ी थी.

दोनों विशाल छातियाँ दबकर अर्ध-चंद्राकार बाहर दिख रही थीं. चौड़ी पीठ से काफी पतली कमर थी. और फिर पीठ से काफी चौड़ाई लिए विशाल इग्लू की तरह उसके नितंब, उसके बाद गोल मज़बूत जांघें घुटने तक पतली होती चली गई थीं.

उसका साफ-सुथरा स्टील सा चिकना बदन कह रहा था कि, बचपन में उसकी खूब सेवा हुई है. खूब तेल-बुकवा हुआ है. मैं आपसे सच कह रहा हूँ, उस समय यदि कैमरा होता तो मैं उसकी ढेर सारी तस्वीरें उतार लेता, और पत्नी को दिखाता कि, देखो एक खूबसूरती यह भी है. मैं तरह-तरह की बातें सोचता रहा. उसको, बच्चों के भविष्य आदि को लेकर.....

यहीं पर मैंने वकील साहब को टोकते हुए कहा,'' एक मिनट, एक मिनट, ये बताइये यदि आप उसकी तस्वीर खींच पाते, तो क्या सच में इतनी हिम्मत कर पाते कि, उसे भाभी जी को दिखाते, उसकी प्रसंशा करते.''

यह सुन कर वह मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैंने कोई मूर्खता कर दी है. कुछ देर देखने के बाद बोले, ''हम-दोनों पति-पत्नी ने औरों की अपेक्षा एक स्वस्थ समझदारी वाली समझ, इतने दिनों में विकसित कर ली है. ऐसी बातों से भी हमारे बीच कोई बड़ा तूफ़ान नहीं आता. मेरी बात की सत्यता का प्रमाण यह है कि, यदि ऐसा नहीं होता तो मैं यह घटना उसे बताता ही नहीं. किसी को नहीं बताता, आपको भी नहीं.''

मुझे लगा कि, मैंने वाकई गलत संदेह किया. तो तुरंत उनसे कहा,''आप ठीक कह रहे हैं. आप दोनों ने ऐसी दुर्लभ समझ विकसित कर ली है, कि ऐसी कोई समस्या आ ही नहीं सकती. इसलिए आगे बताइये, आपकी नींद का क्या हुआ?''

'' हुआ यह कि, तीन बजते-बजते मुझे लगा कि, अब नींद और नहीं रोक पाऊंगा. मैं उठा और उसी की बगल में सट कर लेट गया. बिना प्रेस वाले कपड़े और गंदे न हों, इसलिए उन्हें सीट पर ही पड़ा रहने दिया.

उसे कमर के पास से पकड़ कर खुद से और ज्यादा सटा लिया. वह थोड़ा कुनमुना कर और सट गई. नींद में भी उसे अहसास था कि, कौन उसके साथ है.

मुझे याद नहीं कि, मैं कितनी देर तक सोया. लेकिन नींद चाय-चाय की कर्कश आवाज से टूटी. आँखें खुलीं तो चेहरे पर पड़ती धूप से चुंधियाने लगीं. गाड़ी किसी स्टेशन के प्लेट-फॉर्म पर खड़ी थी.

मैं चौंक कर उठ बैठा, देखा मेरी पैंट-शर्ट, मेरे ही ऊपर पड़ी हुई थीं. आधी से भी कम खुली खिड़की से मोहतरमा चाय और आलू कटलेट ले रही थीं. उसने नाश्ते को मेरी ही तरह, मेरे सामने रखते हुए, बड़ी ही दिखावटी शैली में कहा, 'लीजिये चाय पीजिए. अब तो नींद पूरी हो गई होगी.'

वह बिल्कुल नहाई-धोई फ्रेश लग रही थी. चमक रही थी. हाव-भाव, बोल-चाल भी बदले-बदले से लग रहे थे. मैंने कहा, 'आपने क्यों कष्ट किया? जगा देती तो मैं ले आता.'

'बार-बार ला रहे थे, तो मैंने सोचा एक बार मैं भी देख लूं.'

मैंने जल्दी से पैंट पहननी शुरू की तो वह हंसने लगी. मैंने कहा, 'जगाया नहीं, चाय वाला ऐसे देखकर क्या सोच रहा होगा.'

मेरी इस बात पर हंसती हुई बोली, 'यही कि, बड़ी बेदर्द मेहरिया है. सफर में भी मर्द को नहीं छोड़ा. रात-भर इतनी मेहनत कराई कि, बेचारा बेदम पड़ा है. अब फिर चैन नहीं पड़ रहा तो, सवेरे-सवेरे चाय पिलाकर जगा रही है.' बात पूरी करते-करते वह खिलखिला कर हंस पड़ी.

फिर बोली, 'घबराओ नहीं, सामने खड़ी होकर ही खिड़की खोली. कोई तुम्हें देख नहीं पाया.'

हाथ-मुंह धोकर उसके साथ नाश्ता किया.

शिंक के पास उसके और बच्चे के कपड़े सूख रहे थे. मैंने उससे पूछा, ' तुमने यह नहाना-धोना कब कर लिया.'

तो वह बोली, 'एकदम सवेरे उठने की आदत है. पांच बजे नींद खुली तो देखा तुम गहरी नींद में सो रहे हो, तभी हमने सोचा चलो नहा धो लेते हैं. गिलास से पानी भर-भर के जितना हो पाया उतना नहाया.'

तभी मुझे मज़ाक सूझा. मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'जगा देती तो अच्छा था. तुम को नहाते हुए भी देखते और साथ में नहाते भी.'

'अच्छा! तो अभी भी कोई दोपहर तो हुई नहीं है. चलो मन का ये भी कर लो. हम भी देखें साथ नहाने का मज़ा कैसा होता.'

'जैसा भी हो, मज़ा तो निश्चित ही देगा.'

'अब बस भी करो. अब-तक इतना मज़ा दे दियो हो कि, वही नहीं संभाल पा रहे. कभी सोचे भी नहीं थे. और फिर कुछ बीवी के साथ भी करने के लिए छोड़ दो, सारा कुछ मेरे ही साथ करोगे, सारा मज़ा मुझ पर ही लुटा दोगे तो उनको क्या दोगे.'

' मज़ा बाँटने से कम नहीं, बढ़ता ही है. और अभी सारा कुछ किया ही कहाँ? अभी तो शुरुआत ही की है.'

'कमाल है, शुरुआत ऐसी है तो, सारा कुछ में क्या-क्या होगा?'

' बहुत कुछ ऐसा, जो तुमने सोचा भी नहीं होगा.'

' तुम्हारे इतना कहाँ सोच पाएंगे. निकाह से पहले मिल जाते तो हम भी सोचना सीख जाते. अभी तो जितना कुछ हुआ उसके बाद कुछ सोचने लायक ही नहीं रह गई. उसी में बार-बार डुबकी लगा रही हूँ.

जब उठी तो एक बार मन में आया कि, तुम्हें भी जगा दूं. लेकिन फिर तुम्हारी खुराफात याद कर सोचा कि रहने दो. तुम ठीक से नहाए भी ना दोगे. जब नींद पूरी हो जाएगी तो अपने आप जाग जाओगे.'

वह जब हल्की मुस्कुराहट के साथ यह बोल रही थी तब मेरी दृष्टि बराबर उसके चेहरे थी. मैंने पहली बार ऐसा महसूस किया कि जैसे वह जो बातें कह रही है, उनका कोई सम्बन्ध उसके मन में चल रही बातों, भावों से नहीं है.

मन में उसके कुछ और है, जिव्ह्या पर कुछ और. बड़े प्रयास के बाद भी उसके मन में क्या चल रहा है, उसका मैं कोई अनुमान नहीं लगा सका, उल्टा उसके नहाए-धोए चेहरे, बदन के आकर्षण में खोते हुए पूछा, ' ट्रेन तो अब-तक कई स्टेशनों पर रुकी होगी. किसी ने दरवाजा खोलने के लिए खटखटाया नहीं.'

'खटखटाया, लेकिन हमने ध्यान ही नहीं दिया. एक कोई कमीना टाइप का था. जो गाली देते हुए गया.'

तभी गाड़ी चल दी. मैंने सोचा देखूं कौन सा स्टेशन छोड़ रही है. सामने शेड पर 'देवरिया' लिखा देखकर सिर पीटते हुए कहा, 'धत्त तेरे की. अभी 'देवरिया' ही पहुंचे हैं. आज भी पूरा दिन बीतेगा इस डिब्बे में. गाड़ी रात-भर चली थी या खड़ी रही कहीं.'

'पता नहीं. जब उठे तो किसी स्टेशन से पहले ही खड़ी रही बड़ी देर तक. कुछ लोगों की बात सुनकर मालूम हुआ कि, इंजन से दो-तीन जानवर कट गए हैं.'

'हद हो गई है. सब-कुछ इसी गाड़ी के साथ होना है. इससे अच्छा तो बस से चले होते तो अब-तक पहुंच गए होते.'

अब मैं बहुत ज्यादा परेशान हो गया. मन बहुत खिन्न हो गया.

अगले स्टेशन पर पेपर लेने उतरा तो याद आया कि, होली की छुट्टी के कारण आज तो पेपर भी नहीं आया होगा. खाने की कुछ चीजें लेकर मोहतरमा के पास वापस आ गया. सारी चीजें उसके सामने रखते हुए कहा, 'लीजिए खाइए.' खिन्नता के कारण, अब उसका साथ भी मुझे उबाने लगा था.

अब हर स्टेशन पर मैं गाड़ी से नीचे उतर जाता और गेट के सामने ही टहलता रहता. जब इंजन चलने की सीटी देता, तब मैं चढ़ता. ध्यान मेरा पैसे पर बराबर बना हुआ था. बीच-बीच में मोहतरमा के पास भी जाता. थोड़ा-बहुत हंसी-मज़ाक करता रहता.

इसी बीच मेरा ध्यान इस तरफ गया कि, मैं जहाँ खिन्न हो रहा था, वहीँ वह एकदम निश्चिन्त थी. ऐसे व्यवहार कर रही थी जैसे कि वो ट्रेन, बोगी ही उसका घर है.

ट्रेन की तरह हम-दोनों की शारीरिक छेड़-छाड़ भी चल रही थी. क्योंकि मैं सोचता कि, इस थकाऊ यात्रा से वह भी तो बोर हो रही होगी. खोखली हंसी-मज़ाक के बाद वापस फिर आकर गेट पर खड़ा हो जाता या उसकी किनारे वाली सीट पर बैठ कर बाहर की तरफ देखता रहता.

तमाम उलझन देती, उबाती आखिर गाड़ी रेंगते-रेंगते 'बभनान' स्टेशन पहुंची. छोटे से इस स्टेशन पर भी मैं उतरा और टहलने के बजाय चाय-नाश्ता लिया और सीधे मोहतरमा के पास पहुंचा. वह बच्चे को दूध पिला रही थी. एकदम पहले ही की तरह. जैसे शुरू में देखा था.