Ansuni Yatraon ki Nayikaye - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 5

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 5

मैं भी हंसा तो वह आगे बोली, 'जो भी हो, अपने मजे के लिए उन बेचारों को परेशान करना अच्छा नहीं था. दोनों ही बहुत ही शर्मीले हैं. मुझे दूध पिलाते देख उलटे पाँव लौट गए. आदमी दो बार बोला 'क्षमा कीजिएगा, क्षमा कीजिएगा.'

बेचारे नए-नए मियां-बीवी हैं. पहली होली में बीवी को लेकर अपनी ससुराल जा रहा होगा. होई सकत है कि, हम लोगन की तरह उनकी भी ट्रेन छूट गई हो.'

उनके लिए उसकी सहानुभूति देख कर मैंने कहा, ' घबराओ नहीं, मैंने उनकी ख़ुशी का भी पूरा ध्यान रखा है. उनके लिए भी वो व्यवस्था की है कि, वो भी पूरी जर्नी में मस्ती करते जाएंगे.'

'अच्छा! दो सेकेण्ड में अईसा का कर आये हो?'

' यही कि, वह हम लोगों के मजे में कंकड़-पत्थर ना बनें और खुद भी अकेले होने का मजा लें. वह बोगी भी बिल्कुल खाली है. ऐसी जर्नी का अवसर उन्हें भी जीवन में फिर मिलने वाला नहीं. इसमें वह तुमको देख कर आए थे कि, चलो एक से दो सही. बेवकूफ ना जाने कैसे जवान हैं.

यहाँ तुम एक और मैं तीन बच्चे वाले होकर भी, अकेली बोगी ढूंढ़ रहे हैं. मिल गई तो उस पर कब्जा छोड़ने, किसी को आने देने के लिए तैयार नहीं हैं, कि जीवन में एक नए तरह का मजा ले सकें. और वह मूर्ख अकेली बोगी छोड़ कर, भीड़ ढूंढ़ रहे हैं. इसे ही कहते हैं. 'भरी जवानी में मांझा ढीला'. भरी जवानी में ऐसे ढले-बुझे से हैं तो आगे क्या करेंगे.'

वह हंसती हुई बोली,

' अरे होई सकत है वही करें, जो हम दुइनों कई रहे हैं. अबहीं नए-नए हैं, जान तो लें

दुनिया को.'

' जिनमें जोश न हो, जीवन जीने के प्रति उमंग ना हो, वो कभी कुछ नहीं कर पाते, वैसे आओ पहले गरम-गरम पूड़ी-सब्ज़ी खाते हैं, चाय पीते हैं...

'' वाह, खाने के साथ-साथ उसे जीवन-दर्शन भी समझाते रहे.''

'' मैं उसे जीवन-दर्शन क्या समझाता. पहले खुद तो समझ लूँ. मुझे इसकी समझ होती, तो जो कुछ हुआ वह न होता. खाने के बाद हमें लगा कि, जैसे शरीर में नई एनर्जी भर गई है. चाय ठंडी हो गई थी, तो हम ने उसे फेंक दिया. पहली बार उसने खाने-पीने की चीजों के लिए धन्यवाद दिया.

मैंने कहा, ' छोड़ो भी इन फॉर्मेलिटी वाली बातों को, आओ आराम करते हैं.'

यह कहते हुए मैं उसे ऐसे बाहों में लेकर लेट गया जैसे कि, वह वाकई मेरी पत्नी हो. हालांकि ट्रेन में सफर भर की बीवी वह खुद ही बोल चुकी थी. यानी यात्रा खत्म होने तक हम आपसी सहमति से पति-पत्नी थे.

हम कहीं से कानून विरुद्ध काम नहीं कर रहे थे. उसे शायद उम्मीद नहीं थी कि, मैं ऐसा करूंगा. वह बड़ा प्यार जताती हुई बोली, 'अरे रुकौ तौ, कपड़ा तो ठीक से पहिंन ले देयो.'

मैंने कहा, ' मैं ठीक किए दे रहा हूं, क्यों परेशान हो रही हो.'

मैं पूरे मूड में था तो एक झटके में उसके सारे कपड़े निकाल कर, उसके सिर की तरफ रख दिया. अपने भी एक तरफ रख दिए. उसकी इन बातों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया कि, 'अरे हम पहनने की बात कर रहे हैं, उतारने की नहीं.'

मैंने उसे बांहों में समेटे हुए, लेटे-लेटे कहा, 'अगर लबादा लादे ही रखना होता तो इतना रिस्क लेकर उन दोनों को पिछली बोगी में क्यों भेजता.'

'अच्छा! तो यही लिए उनका भगायो कि, फिर उछल-कूद कई सको. अऊर रिस्क कऊँन सा लिओ?'

'देखो हम दोनों ठहरे धुंआ-धार जोशीले आदमीं. इसलिए हमारा खेल चलते रहना चाहिए. क्योंकि हमारा जोश हमें रुकने ही नहीं देगा. इसीलिए उन्हें भगाया. बचपने की डोर पकड़े वो दोनों हमारे प्रचंड जोश से शर्मिंदगी फेस करते. और चलती गाड़ी में चढ़ने का रिस्क तो मैंने उठाया ही न.'

तब मैंने मन ही मन यह भी कहा कि, असली रिस्क तो सूटकेस तुम्हारे हवाले छोड़ कर उठाया मोहतरमा. कहीं उसे लेकर तुम इधर-उधर उतर जाती तो. तुममें जोश से कहीं ज्यादा होश और होशियारी भरी हुई है. मैं जोश के नशे में होश और होशियारी में तुम से बहुत पिछड़ गया हूँ. पता नहीं क्यों मन रह-रह कर यह कह रहा है कि, मेरा जोश कहीं मुझ पर भारी न पड़ जाए.

इसी बीच उसने कहा, 'मानेक पड़ी, अपने जोश बदे तुम बहुत बड़ा रिस्क उठाएव.' आखिरी कुछ शब्द उसने दांत हल्के से पीसते हुए कहे, और मुझे पूरी ताकत से जकड़ लिया. अब तक गाड़ी हवा से बातें कर रही थी.

बड़ी देर तक उफान मारती हमारे जोश की लहरों के ज्वार में आखिर भाटा आ गया. लेकिन ट्रेन की रफ़्तार में नहीं. हम भाटा में लहरों से बिछुड़ गई मछलिओं की तरह तट पर पड़े हिल-डुल, हांफ रहे थे. उसकी ज्यादा गहरी सांसों को सुनकर मैंने कहा, 'क्या यार, तुम तो बहुत उम्र-दराज़ औरतों की तरह हांफ रही हो. यह कैसी जवानी है.’

'अब जैइस होय जवानी, मगर तुमरे जैइस ताक़त अऊर ऊ..का कहत रहो, जोश हमरे पास नाहीं है. अऊर तुम्हरी बीवी नाहीं हाँफत का.'

उसने प्यार से एक मुक्का मेरे सीने पर मारते हुए, हंस कर कहा,

' हांफती है, मगर वह तुमसे ज्यादा बड़ी भी तो है. उसके तीन-तीन बच्चे हो चुके हैं.'

'अरे तो हमरे भी एक होइ चुका है. अऊर फिर तुम उनका खूब बढ़िया-बढ़िया खिलावत-पिलावत होइहो. मास-मछरी, काजू-बादाम, किसमिस. हिंआ तो बस पेट भर जाता है आराम से, इतनी ही गनीमत है. यहू चैन से नहीं.

मियां की नौटंकी से हमेशा खून अलग जलता रहता. तुमरे जईसा नेक आदमीं थोड़ी न मिला है कि, खाली सफर भर की बीवी बनायेव हो, वहू मजाक मा, तब भी खाना-पीना से लेकर शरीर तक का सारा सुख मूड़े (सिर) तक भरे दे रहे हो. देखते ही न सिर्फ सोचे कि, ई बच्चा का दूध पिला रही है तो इसको खाना-पीना की ज्यादा जरूरत है, बल्कि दौड़-दौड़ लायके खिला भी रहे हो.

उसने तो भैया जब पेट में था, तब से लेकर आज-तक न पूछा खाने-पीने को. बस जब मन हुआ तब चढ़ बईठे, उछले-कूदे मुंह उठाए के चल दिए. यहू कायदे से कई लें तबौ ठीक. महीना मा चार-छह बार मा ही फ़ांय-फ़ांय करे लागत हैं. मगर बेगम चाही चार ठो. बच्चा चाही चौदह ठो. सब ऊपर वाले के भरोसे. अपना खाली......

आगे बड़ी भद्दी बात कहती हुई, वह खोखली हंसी हंस दी. मुझे उसकी खोखली हँसी बहुत कुछ कहती हुई लगी. जिसमें उसकी मरती इच्छाओं, टूटते सपनों की अंतहीन पीड़ा से लेकर भीतर-भीतर सुलगती अग्नि की तपिश भी थी. बात के आखिर तक पहुँचते-पहुँचते उसकी आवाज़ में पीड़ा का पुट आ गया था.

अचानक ही फूट पड़ी उसकी पीड़ा देख कर मुझे उस पर दया आ गई. मैं कुछ देर उसे देखता रहा. आपको सच बताऊँ उस समय क्षण-भर को मेरे मन में आया कि, इसे भी घर ले चलूँ क्या? पत्नी को हाथ-पैर जोड़ कर मना लूँगा. न मानी तो इसकी अलग व्यवस्था कर दूंगा.

लेकिन वकील आदमी तुरंत नियम-कानून, संविधान सामने था. हिन्दू विवाह-अधिनियम दिमाग में चलने लगा. बड़ी गुस्सा आने लगी नेहरू पर कि, ये कैसी कुटिलतापूर्ण, भेद-भाव में आकंठ डूबी व्यवस्था, कानून.

बताते पढ़ाते चले आ रहे हैं कि, संविधान की मूल भावना है कि, किसी भी के साथ, किसी भी प्रकार से, किसी भी स्तर पर कोई भी भेद-भाव नहीं होगा, लेकिन इसके विपरीत धर्म के आधार पर एक को चार-चार विवाह की स्वतन्त्रता तो, दूसरे को एक से अधिक विवाह पर सजा.

यह हिंदुओं के साथ कठोरतम, निर्दयतापूर्ण, निर्लज्जतापूर्ण अन्याय है. प्रकृति न्याय के विरुद्ध है. इतिहास हिंदुओं के साथ इस घोर अन्याय को भी पंजीकृत करेगा. कानून का आधार धर्म ही था तो हिन्दुओं में तो बहु-पत्नी परम्परा सनातन काल से ही चली आ रही है. सच कहता हूँ आपसे यह कानून का अड़ंगा नहीं होता, वह मान जाती तो मैं उसे साथ ले आता. उसके दुःख ने मुझे द्रवित कर दिया था....

'' तो क्या आपने उसके सामने घर चलने का प्रस्ताव रख दिया था?''

'' हाँ, मैं उसके दर्द से इतना अधिक आहत हो गया था, कि घोर अन्याय-पूर्ण, निर्लज्जता भरी क़ानूनी बाधाओं को जानते हुए भी मैंने उससे साफ़-साफ़ कहा, 'तुम्हें अगर किसी तरह की आपत्ति न हो, तो मेरे साथ, मेरे घर चलो. तुम्हें इस सफर भर की ही नहीं, जीवन भर की पत्नी बना कर रखूंगा. जैसे सुख आराम से मेरी पत्नी रहती है, उसी तरह तुम भी पत्नी बन कर रहो.'

यह सुनकर वह एकदम अवाक मुझे देखती रही, तो मैंने कहा,' ऐसे क्या देख रही हो, मेरी बात पर विश्वास नहीं है क्या ?'

'अरे नहीं, विश्वास की बात नहीं है. अब..अब छोड़ो. मुकद्दर में जऊँन है झेले का, झेलबे. ऐसे तुमरे लिए भी मुसीबत हो जाएगी. सफर भर की ही बीवी बनाये के इतना सुख दे दे रहे हो कि, और कुछ की जरूरत ही नहीं रह जाएगी.'

यह कह कर वह बड़ी जोर से हंस दी. लेकिन वह हंसी भी मुझे खोखली और नकली लगी....

मैंने वकील साहब को यहीं टोकते हुए कहा, '' यदि आप अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ ?''

'' आज तक आपकी किसी बात को अन्यथा लिया है मैंने? कहिये न.''

'' आपने अब-तक उसके बारे में जितना बताया, उससे क्या मैं यह निष्कर्ष न निकालूँ कि, आप उसके लिए मन में उपजी करुणा के कारण नहीं, बल्कि उसके शरीर के आकर्षण, वासना के वशीभूत होकर उसे दूसरी पत्नी बना कर लाना चाहते थे, जिससे उससे वासना पूर्ति की स्थाई व्यवस्था हो जाए.''

''आपसे बात करते समय स्वयं के लिए ऐसी कठोर बातें सुनने के लिए मैं सदैव तैयार रहता हूँ. जब आप अपनी पत्नी, बच्चों को नहीं छोड़ते तो मुझ पर कैसे दया कर देंगे. साथ ही आप भी जानते हैं कि, मैं भी सच और खरा बोलता हूँ.

इस समय भी आप बिलकुल खरा सच सुनिए कि, मैंने वासना के वशीभूत होकर नहीं, उसके लिए ह्रदय में जो दया, करुणा फूट पड़ी थी, उसी के कारण मेरे मन में आया कि, मां बेटे को ले चलते हैं. इन्हें अच्छा जीवन देते हैं. ये भी मेरे परिवार के दो और सदस्यों की तरह इंसानों जैसा जीवन जियें. इसके अलावा मेरे मन में और कुछ नहीं था.''

'' और क़ानूनी अड़चनों के बारे में कुछ नहीं सोचा कि, वह आपको ऐसा करने भी देगा?''

'' वकील हूँ ,यह बात थी मन में, पहले ही कह चुका हूँ. पूरे विश्वास के साथ मैंने स्पष्ट सोच लिया था कि कोई रास्ता निकाल लूंगा. ''

''प्रसंशा योग्य है आपकी भावना. उसे मनाने की और कोशिश नहीं की?''

'' मुझे कोई संभावना नहीं दिखी तो मैं चुप हो गया. दूसरे मैं अब एक नींद लेने की फ़िराक़ में था. क्योंकि सूटकेस को लेकर मेरी चिंता अब पहले जैसी नहीं रह गई थी. मुझे उस पर विश्वास हो चला था. इसलिए बातों को विराम देकर जल्दी ही हम-दोनों सो गए. बहुत देर तक सोते रहे.

अचानक कुछ झटका सा लगा और मेरी नींद खुल गई. बोगी में घुप्प अंधेरा था. मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा. जैसे ही ध्यान इस तरफ गया कि, गाड़ी रुकी हुई है, मेरा दिल धक्क से हो गया, कि बस करो मोहतरमा पैसों भरा मेरा सूटकेस लेकर भाग गईं.

मेरी धड़कनें बढ़ गईं, साँस लेना मुश्किल हो गया. पसीना भी महसूस करने लगा. इतना बदहवास हो गया कि, दिमाग में यह नहीं आया कि, बगल में ही वह सटी लेटी थी, जरा हाथ हिला कर देख लूं लेटी है कि नहीं. उठने लगा कि, खिड़की खोल कर बाहर देखूं गाड़ी किस स्टेशन पर खड़ी है.

उठते समय पैर किसी इंसानी शरीर से छू गया तो, मेरे दिमाग में यह नहीं आया कि, अरे मोहतरमा तो लेटी हैं, दिमाग में बात यह आई कि, यह कौन पड़ा है, जिंदा है कि मुर्दा है. क्रिमिनल लॉयर का दिमाग सीधा जिंदा-मुर्दा पर चला गया. टटोल कर जल्दी से लाइट जलाई तो देखा मोहतरमा दूसरी तरफ करवट लिए सो रही थीं. एक हाथ बच्चे के पैर पर था.

अब जाकर मेरी जान में जान आई.

मोहतरमा को बेधड़क अपने कपड़ों पर सिर रखे सोता देखकर सोचा कि, जो भी हो यह चोर नहीं हो सकती. पति की सताई, प्यार के लिए तरसती, भूखी औरत है बस. प्यार की थोड़ी छांव चाहती है. मैं अकारण ही बेचारी पर शक करने लगता हूँ. मैं उसे जगाते-जगाते रुक गया कि, सोने दो, आराम करने दो.

पैंट पहन कर खिड़की खोली कि, देखूं कौन सा स्टेशन है. लेकिन बाहर घुप्प अंधेरे के सिवा कुछ ना दिखा. चारो तरफ एकदम सन्नाटा था. झींगुरों, कीड़ों-मकोड़ों की हल्की-फुलकी आवाज सुनाई दे रही थी. ध्यान दिया तो बहुत दूर आगे, कहीं टिमटिमाती दो-चार लाइट दिखाई दीं. मतलब गाड़ी स्टेशन पर नहीं बीच रास्ते में, बस्ती से काफी दूर खड़ी थी.

मैंने जाकर शिंक में हाथ-मुंह धोया. गेट खोल कर बाहर दोनों तरफ देखने लगा. ट्रेन की पीछे वाली बोगिओं की तरफ नजर डाली तो, कर्व लाइन पर खड़ी होने के कारण आखिरी बोगी तक नजर जा रही थी.

वहां गॉर्ड टॉर्च जला-जला कर इधर-उधर कुछ देख रहा था. इसलिए यह पता चल गया कि, गाड़ी पीछे कहां तक है. मैंने घूमकर इंजन की तरफ देखा तो दस-बारह बोगी के बाद उसकी हेड-लाइट की चमक दिखाई दी.

मैं व्याकुल हो उठा यह जानने के लिए कि, आखिर गाड़ी पहुंची कहां है? कहां खड़ी है? मगर कहां, किससे पता करूं? आस-पास न आदम, न आदम की जात. फिर क़दम नीचे उतरने के लिए फड़कने लगे. पैर आखिरी सीढ़ी पर रखे ही थे कि मोहतरमा की आवाज कान में पड़ी, 'अरे किधर हौ?'

उसकी बात पूरी होने तक मेरे क़दम जमीन पर थे. उसकी आवाज़ कान में पड़ते ही जवाब दिया, 'यहीं हूं'

वह दरवाजे पर आकर बोली, 'हद कर दिए हो, बिना बताए चले आए, अऊर हिंआ नीचे अंधेरे मा का कर रहे हो? अंदर आओ, बंद करो दरवाजा, कऊनों चोर-डकैत, कीड़ा-बिच्छु, जानवर आ जाई तो जान घाते मा पड़ि जाई.'

उसने दाएं-बाएं दोनों तरफ देखते हुए ऐसे कहा, जैसे पत्नी हो. लेकिन जो भी हो, उसकी बात शत-प्रतिशत सही लगी. ध्यान मेरा तुरंत पैसों, सूटकेस पर गया. मैं ऊपर चढ़ आया.

उसने तुरंत दरवाजा बंद करते हुए पूछा, 'गाड़ी खड़ी कहां है?'

'वही तो पता करने जा रहा था, तुमने जाने ही नहीं दिया.'

'अरे अंधेरे में कहाँ जाते, किससे पता करते? हिंआ कऊन बईठा है बतावे वाला. कऊनों आपन गांव देख के खींच दिहिस होई चैन. देख नहीं रहे दूर गांव मा बत्ती दिख रही हैं. ई गाँव के लोगन का हमेशा के यहे काम है.'

उसकी आवाज़ में नाराज़गी थी. मैंने सोचा कि, कह तो ऐसे रही है, जैसे इनका रोज का आना-जाना है. लेकिन जो भी था, बात सही कह रही थी. लाइन किनारे बसे गाँवों के लोगों की बेवजह या जहाँ चाहे वहां उतरने के लिए चेन खींचने की आदत पता नहीं कब छूटेगी. अपनी जगह बैठती हुई, उसने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, 'एक आवाज उठाए तो देते. नींद खुली तो न देख के घबरा गए कि, कहां उतर गए. सामान देखेन तो जान में जान आई कि हिंऐ कहूँ हैं.'

मैंने उसे छेड़ते हुए कहा, 'तुम्हें छोड़ कर कैसे चला जाऊंगा? मैं तो तुम्हें हमेशा के लिए साथ ले चलने के लिए तैयार हूँ.'

न जाने क्या सोचते हुए, मुझे कुछ क्षण देखने के बाद बोली, ' तुम हौ बहुत मुरहा मनई. खुद कपड़ा पहिन के बाबूजी बन गएव, हमें बताए नाहीं सकत रहौ कि, हमहू पहिर लेइत. कोई आय जात तो?'

'क्या बात करती हो, किसी को आने देता तब ना.'

अचानक ही वह पूरी तरह खड़ी बोली पर आती हुई बोली, 'अच्छा ! लेकिन खुद तो देखा होगा, घूर-घूर के, बिना देखे कुछ छोड़ा ना होगा.'

'तुम भी कमाल करती हो, सब-कुछ करने के बाद भी छुप कर देखने की बात कहां से आती है. मैंने इसलिए नहीं उठाया कि, तुम गहरी नींद में दिखी. मन में यह बात आई कि, सिर के नीचे से साड़ी निकाल कर ऊपर डाल दूं. लेकिन रुक गया कि, इससे तुम्हारी नींद खुल सकती है. इसलिए मैंने सोचा सोने दो, ऐसे ही. वैसे भी उस तरह सोती हुई तुम सच में बहुत सुंदर लग रही थी.'

फिर मैंने टाइम देखते हुए बताया कि, हम-दोनों करीब चार-पांच घंटे लगातार सोते रहे, तो वह कुछ आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली, 'अच्छा! अरे तो कल रात से थके भी तो बहुत हैं.'

'तुम्हारा बेटा भी तब से सो रहा है कि, उठा था बीच में.'

'उठा था. कपड़ा गंदा किए था तो ले जाकर साफ किया, दूध पिलाया तो फिर सो गया. तब शाम हो रही थी.'

मैंने उसे फिर छेड़ते हुए कहा, 'ओह, तो तुमने भी मुझे जगाया नहीं. मतलब कि, तुम छिप कर लगातार मुझे देख रही थी.'

यह सुनते ही वह बड़े प्यार से बोली, 'हट, कितना देखना, क्या देखना? अभी तुम ही कह चुके हो कि, कुछ बाकी है क्या?'

' कह तो मैं ठीक ही रहा था. वैसे तुम तो उस समय मुझे बहुत अच्छी लग रही थी. मैं तुम्हें उस तरह कैसा लग रहा था?'

'अरे अब जैसे हो, वैसे ही लग रहे थे.'

इस हंसी-मज़ाक के बीच मैंने सूटकेस से टाइम-टेबल निकाल कर देखा तो, उस हिसाब से हमारी जर्नी आधी से ज्यादा पूरी हो जानी चाहिए थी. गाड़ी को देवरिया के आस-पास होना चाहिए था. तभी इंजन की सीटी की आवाज सुनकर मोहतरमा बोलीं, 'लगता है अब चलेगी.'

उसकी बात सही निकली. ट्रेन जल्दी ही पूरी स्पीड में आ गई.

मैंने एक खिड़की थोड़ी सी खोल दी. और आर.ए.सी. की तरफ शीशे वाली खिड़की लगा दी कि, उस तरफ भी दिखता रहे. हवा ठंडी आ रही थी. उसके बच्चे का भी ध्यान रखना था.

पंद्रह मिनट बाद ही स्पीड कम होनी शुरू हो गई, और कुछ ही देर में जब ट्रेन 'महाराजगंज' स्टेशन पर रुकी तो मैंने अपना सिर पीट लिया. कि, अभी तो जर्नी थोड़ा बहुत नहीं, बहुत बाक़ी है.

अन्य स्टेशनों की तरह यहां भी सन्नाटा मिला. बड़ी मुश्किल से चाय-पानी मिल पाई. वहीं एक कर्मचारी से पूछा, कब-तक लखनऊ पहुंचेगी, तो वह उबासी लेकर बोला, 'क्या बताऊँ, सात घंटा लेट चल रही है.'

बीच में क्यों खड़ी थी? यह पूछने पर बताया कि,'इसका इंजन फेल हो गया था. दूसरा इंजन भेजा गया. तब आई है.'

मैंने आकर मोहतरमा से बिस्कुट-नमकीन निकालने के लिए कहते हुए सारी बात बताई तो उसने कहा,' इस हिसाब से तो यह कल शाम तक 'लखनऊ' पहुंच जाए तो, बहुत बड़ी बात है.'