Ansuni Yatraon ki Nayikaye - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 7

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 7

मैंने सोचा कि, इससे पूछ ही लूँ ऐसे फूहड़ तरीके से दूध पिलाने के बारे में. चाय देते हुए कहा, 'पिछले दो स्टेशन पर कुछ ले ही नहीं पाया, खाने का टाइम हो रहा है, आगे किसी स्टेशन पर मिलेगा तो ले आऊंगा.'

मोहतरमा ने चाय लेते हुए कहा, ' इतना परेशान ना हो, केला, संतरा, सेब, सब ले चुके हो. इसी से काम चल जाएगा.'

उसने बिलकुल पत्नी के से अंदाज़ में कहा, तो मैं उसे गौर से देखने लगा. इस पर वह बोली, 'ऐसे क्या देख रहे हो?'

अब-तक मेरी नजर बच्चे, दूसरे स्तन पर घूमने लगी थी. उससे यह छिपा नहीं रहा. बड़ा इठलाती हुई बोली, 'भैया का दूध फिर ललचवाये रहा है का? बहुत देर भी हो गई है. चाय बार-बार पी रहे हो. नाश्ता भी कर रहे हो, लेकिन दूध....बात यहीं अधूरी छोड़ते हुए वह जोर से हंस पड़ी.

लेकिन मैं उसकी बात का कोई जवाब दिए बिना, चाय पीते हुए उसे देखता रहा. वह बोलती ही चली जा रही थी और मेरी नजर उसके स्तन से हट नहीं रही थी. मैंने महसूस किया कि, इससे मैं ऊबती दुनिया से बाहर निकलता आ रहा हूँ. गाड़ी की स्पीड भी तेज़ होती जा रही थी.

बच्चा भर-पेट दूध पी चुका तो, हाथ-पैर चला कर खेलने लगा. मैं जो बात पूछने वाला था, वो हाशिये पर चली गई. मेरे भी हाथ खेलने लगे. मैंने कहा, सही कह रही हो. टेस्ट थोड़ा चेंज होना ही चाहिए. कई बार चाय पी चुका हूं. दूध ही सही, इसी से टेस्ट चेंज करते हैं.

बच्चा सीट के नीचे लेटा खूब खेल रहा था, और हम-दोनों अपना-अपना टेस्ट चेंज कर रहे थे. बड़ी देर तक टेस्ट चेंज करने के बाद, एक-दूसरे के टेस्ट, जानकारी की तारीफ भी की गई. इस बीच गाड़ी फिर किसी स्टेशन के करीब पहुंच कर धीमीं होने लगी.

वह बोली, ' चलिए उठिए, दिन का टाइम है, स्टेशन आ गया है.'

जो पूछना था, वह तो हाशिये पर ही रहा, लेकिन बीच पृष्ट पर अब यह आ गया कि, इस मोहतरमा में कौन सी ऐसी ताकत है, जो मुझे बारम्बार अपने पास खींच ले रही है. या फिर मेरा स्वभाव ही ऐसा है, मैं बहुत ही अतृप्त आत्मा हूं.

क्या मेरी पत्नी ऐसा कुछ नहीं करती कि, मेरी आत्मा संतुष्ट रहती, या मैं ऐसा हूं कि, अपनी पत्नी से संतुष्ट हो ही नहीं पाता, और जहां कहीं स्त्री देखी , वहीं पर भटक गया. लेकिन पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ.

यदि मेरा यही स्वाभाव है तो क्या वो आज तक मुझे समझ ही नहीं पाई. मुझसे उसने एक बार भी ऐसी कोई बात की ही नहीं. किसी मित्र ने भी कभी कुछ नहीं कहा. चलो घर पहुँच कर जानने की कोशिश जरूर करूंगा.

लेकिन यह बात तो पूरी तरह सच है कि, यदि यह अन्य महिलाओं की तरह स्तन ढक कर बच्चे को दूध पिला रही होती, तो इस समय मैं सिर्फ चाय ही पीता.

पूछता हूँ इससे कि, ये बच्चे को अन्य औरतों की तरह ढक कर दूध क्यों नहीं पिलाती. पूछा तो वह हंस कर बोली,'अब ईमा का छिपाना. जो है,सो है, किसी के देखे से छोटे थोड़ी हो जाएंगे.' ऐसा अटपटा जवाब सुनने के बाद इस बिंदु पर मैं कुछ नहीं बोला.

लेकिन अगले स्टेशन 'मसकनवा' से जब गाड़ी चली तो वापस बैठते हुए भी मैं यही सोचता रहा, जो भी हो, यह अच्छा तो किसी भी दृष्टि से नहीं है. यह मेरे कमजोर चरित्र की निशानी है. मुझमें इतनी कमजोरी तो पहले कभी नहीं रही.

किसी स्त्री की तरफ मैं जल्दी गलत निगाह तक नहीं डालता, फिर इसके सामने कैसे इस तरह से बिलकुल पागल हो गया हूँ. ऐसा लगता है, जैसे इसके सामने मैं, मैं ही नहीं रह जाता, खुद पर मेरा कोई कंट्रोल ही नहीं रह जाता. ऐसा भी नहीं है कि, यह कोई बहुत खूबसूरत परी है.

पत्नी इससे बहुत बड़ी है. फिर भी इससे हज़ार गुना ज्यादा सुन्दर है. उसके गोरे रंग, देहयष्टि, बात-चीत, शिष्टाचार, पढ़ाई-लिखाई, किसी भी मामले पत्नी के सामने एक क्षण नहीं ठहरती, तो फिर इसमें क्या बात है, जो मुझे, मुझ सा नहीं रहने देती. कारण को जाने बिना छोड़ा नहीं जा सकता. निश्चित ही यह गंभीर बात है.

'लखपत नगर' स्टेशन क्रॉस करके जब गाड़ी 'मनकापुर' जंक्शन पहुंची तो, मैं अपनी बेचैनी के जाल से निकलने के लिए फिर नीचे उतर गया. मैंने सोचा कि, युवावस्था में भी मेरी इस तरह की विचार-धारा कभी नहीं रही. तरह-तरह की महिला क्लाइंट भी आती हैं, लेकिन हमेशा काम से काम रखता हूं. अन्य बहुत से वकीलों की तरह फीस के साथ-साथ उनके तन के शोषण की बात सोचता तक नहीं.

इस ट्रेन में इस मोहतरमा के साथ ऐसा क्या हो गया है कि, मैं हद से भी ज्यादा अपने स्तर से नीचे गिर गया हूं. कितनी निर्लज्जतापूर्ण बात है कि जमीन पर उसी की तरह बैठ रहा हूँ ,सो रहा हूँ. खा-पी रहा हूँ. अश्लीलतम बातें कह-सुन रहा हूँ. इसे स्वयं के नीचे गिरने की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या कहूँ. मेरा इससे ज्यादा चारित्रिक पतन और क्या हो सकता है.

यह सच है कि, उसने खुला आमंत्रण दिया था, लेकिन सच यह भी तो है कि, मैं उससे बहुत बड़ा हूं. उससे बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा हूं. सीनियर वकील हूं. कानून का विशेषज्ञ हूँ. कानून भले ही परस्पर सहमति से ऐसे संबंधों को गैर-कानूनी न कहे, लेकिन नैतिकता को तो मैं शुरू से ही कानून से ऊपर मानता आया हूँ. इस सिद्धांत के चलते ही कैसे एक मुकदमा हारते-हारते बचा था.

अपने इस सिद्धांत के मद्देनज़र भी मुझे उसके आमंत्रण को ठुकरा देना चाहिए था. यही मेरा कर्तव्य था न कि, उसकी बहाई धारा में उस जैसा ही हो कर बह जाना.

ट्रेन सीटी देकर सरकने लगी तो, मैं फिर दरवाजे की ठीक किनारे वाली सीट पर बैठ गया. बहुत आत्म-ग्लानि सा महसूस करता हुआ. सोचता रहा कि, चलो इसकी तो बात समझ में आती है कि, यह अपने पति की हरकतों से बहुत गुस्से में है, विक्षोभ में है. लेकिन मैं? मेरा तो पत्नी के साथ मधुरतम संबंध है.

जिस किसी भी कोण से मैं विश्लेषण करता, हर कोण से मुझे सारी ऊँगलियाँ अपनी ही तरफ घूमी हुई मिलतीं. मुझे हथेलियाँ नम सी महसूस हुईं. जब यह सोचा कि, भूल से भी अगर पत्नी को यह पता चल गया तो? वह पता नहीं इतनी उदारमना होकर भी माफ कर पाएगी या नहीं.

वाकई बहुत बड़ी गलती कर डाली है. ऐसी गलती जिसे जीवन-भर भुला नहीं पाऊंगा. जीवन-भर पत्नी के सामने पड़ते ही एक चोर मन में बैठा रहेगा. मैं निश्चिंत होकर पूरे आत्म-विश्वास के साथ उससे नजरें भी नहीं मिला पाऊंगा. मन में बैठा चोर अपमान की अनुभूति कराता रहेगा.

पंद्रह-बीस मिनट के बाद मैं वहीं बगल वाले बाथरूम में गया. हाथ-मुंह धोया. अपने मन की उलझन को शांत करने का प्रयास किया. काफी राहत महसूस भी की. मगर मेरा दुर्भाग्य देखिये कि, कुछ ही क्षण में, मन फिर आवारा हो गया, बदचलन हो गया, धोखा दे गया. एकदम लंपटई पर उतर आया. छिछोरापन फिर उछल-कूद करने लगा कि, देखें मोहतरमा अब क्या कर रही हैं?

मैं रुकना चाहता था, लेकिन क़दम उसी की ओर बढ़ते चले गए. पैर जैसे मेरे ना होकर किसी और के हों. मेरे कंट्रोल में ही नहीं थे. वहां पहुंचा तो देखा मोहतरमा अपनी जगह पर नहीं थीं. सामान पड़ा हुआ था. बच्चा भी नहीं था.

मैंने सोचा बच्चे ने गंदगी करी होगी. उसे साफ करने गई होगी. लेकिन मेरे मन की लंपटई ने इतना भी टाइम नहीं दिया कि, मैं वहां बैठकर उसकी प्रतीक्षा करता.

मैं बाथरूम की तरफ चल दिया. मगर वहां मुझे वह झटका लगा कि, मैं चेतना-शून्य हो गया. मेरे होश फाख्ता हो गए. वह कहीं नहीं दिखी. मैंने भड़ाक-भड़ाक दोनों बाथरूम के दरवाजे खोले, लेकिन सन्नाटा. बाहर निकलने वाला दरवाजा खुला मिला.

मेरा दिल जैसे विस्फोट कर उठा, मैं पसीना, घबराहट लिए, इधर-उधर लड़खड़ाता, सीटों से टकराता, आँखों में सूटकेस की तस्वीर लिए उसी तरफ भागा. वहां पहुंचा तो मोहतरमा, बच्चे की तरह मेरा सूटकेस भी गायब था.

मुझे लगा कि, जैसे मेरी छाती फट जाएगी. मैं दौड़ता-भागता हुआ दरवाजे के पास पहुंचा, उसे झटके से अपनी तरफ खींच कर पूरा खोला. मैं हड़बड़ाहट में पूरी स्पीड में चलती ट्रेन से नीचे उतर ही जाता, अगर ऐन टाइम पर खुद पर काबू न किया होता. फिर भी धड़धड़ाती फर्राटा भर रही ट्रेन के दरवाज़े पर लगी हैंडिल को पकड़ कर, मूर्खों की तरह दोनों तरफ ऐसे देखा कि, गोया वह सामने से जाती हुई दिख जाएगी, और मैं उसे सूटकेस सहित ऊपर खींच लूंगा.

तेज़ हवा के कारण आँखें भी नहीं खोल पा रहा था. मैं पूरी आवाज़ में उसे दुनिया की गन्दी से गन्दी गालियां देता, फिर वापस उसके सामान के पास पहुंचा. उसकी डोलची. बैग को उठा-उठा कर पटक दिया.

सारा सामान इधर-उधर बिखर गया. उसे पैरों से कुचलता, मैं चीखते हुए भद्दी से भद्दी बातें लगातार कहे जा रहा था. मानों वह वहीं है, सुन रही है. जबकि मेरी आवाज़, मेरी तड़फड़ाहट की ही तरह, बोगी में ही घुट कर दम तोड़ रही थी.

इसी हड़बड़ाहट में मैंने गाड़ी की चेन खींच दी. गाड़ी के पहिये चीं..चीं..की तीखी आवाज के साथ थम गए. मैं दौड़कर गेट पर पहुंचा. देखा गाड़ी वीरान एरिया में खड़ी थी. झाड़-झंखाड़ उबड़-खाबड़ जमीन थी. गाड़ी 'मनकापुर' जंक्शन से कम से कम बीस-पचीस किलोमीटर आगे निकल चुकी थी.

अब-तक मैं खुद पर काबू कर चुका था. सोचा यहाँ उतर गया तो जाऊंगा कहां? जो औरत इतनी शातिर है, वह अब-तक तो न जाने कहां से कहां निकल गई होगी. अपना सारा सामान भी इसी लिए छोड़ गई कि, बच्चा और सूटकेस के साथ बैग और डोलची को संभालना मुश्किल था.

तभी मैंने देखा गार्ड जी.आर.पी. के लोगों के साथ चला आ रहा है. मैंने शिकायत करने की सोची, लेकिन तुरंत ही यह सोचकर ठहर गया कि, बात खुलेगी तो यह पूछा जाएगा कि, पैसे कैसे थे, कहां से आए? क्या बताऊंगा कि, दो माफियाओं के बीच लेन-देन को मैनेज कराने का कमीशन था.

गहनों के बारे में क्या जवाब दूंगा. मैं चुप-चाप खड़ा, उन लोगों को आगे निकलता देखता रहा. पता नहीं चला कि, चेन किसने खींची थी. अंततः गाड़ी चल दी.

मैं थके-हारे, घायल सिपाही की तरह आकर सीट पर लेट गया. सामने उसका सामान बिखरा पड़ा था. नफरत से मैंने उस पर थूक दिया. उसने मुझे 'गोंडा' उतरने के लिए बताया था. इसलिए मैं 'गोंडा' तक के लिए बिल्कुल निश्चिंत था कि, वहां तक तो साथ रहेगी ही. उसका टिकट भी 'गोंडा' तक देखा था.

टिकट की बात आते ही मेरा ध्यान उसके बटुवे की तरफ गया. मैंने फिर उसका सामान उल्टा-पुल्टा लेकिन वह नहीं मिला. मतलब साफ था कि, वह एक-एक मिनट की प्लानिंग बनाती रही. उस पर क़दम दर क़दम, क़दम बढ़ाती रही. और मुझे अपने गेंहुए बदन में उलझाए रही, भरमाए रही.

पति के अत्याचारों से आक्रोशित एक तरह से परित्यक्ता ही थी. पति सुख की भूख, बरसों की भूख, जीवन-भर की भूख पूरी निर्लजता के साथ मुझसे मिटाती रही. और आखिर में एक गेंहुअन (कोबरा सांप) की ही तरह डस कर चली गई....

इतना कहते-कहते वकील साहब का चेहरा एकदम तमतमा उठा. मैंने उन्हें वहीँ टोकते हुए कहा, '' निःसंदेह उसने आपको लूटने की न सिर्फ अचूक योजना बनाई, बल्कि उसे पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ सफलता-पूर्वक क्रियान्वित भी किया.

वास्तव में वह स्वभावतः एक लुटेरी औरत थी. उसने आपको देखते ही लूटने का निश्चय कर लिया था. उसका गणित यह रहा होगा कि, आदमी बड़े त्यौहार पर घर जा रहा है, पैसा वगैरह खूब होगा. उसका अनुमान दस-बीस हज़ार का रहा होगा.

लेकिन आपकी चूक से उसने यह जान लिया कि, यहाँ तो लाखों हैं. अविश्वसनीय रूप से कल्पना से भी बहुत ज्यादा. बस यहीं उसने अपनी योजना को संशोधित करके आपको और ज्यादा अपने प्रभाव में लेना शुरू कर दिया.

उसने अपने शरीर को अपना अमोघ हथियार बना लिया. वह आपका धन ही नहीं, आपसे शारीरिक सुख भी भरपूर लूट लेने की योजना क्रियान्वित कर रही थी. और आप उसे एक अबला समझ कर उसके जाल में उलझते ही जा रहे थे. एक तेज़-तर्रार वकील होते हुए भी ''

'' आप सही कह रहे हैं. मुझे उसकी बातों से चौकन्ना होना चाहिए था. अश्लील गानों को जिस तरह उसने सुनाया, उसी समय मेरा ध्यान उसके चरित्र की तरफ, उसके काम-धाम की तरफ जाना चाहिए था. सोचना चाहिए था कि, वह किस तरह की है. उस समय उसके सामान को देख-देख कर मैं इतना परेशान हुआ कि, उठ कर दरवाजे की तरफ वाली सीट पर चला गया.

मगर वकील दिमाग में यह बात आई कि, अगर इसका सामान ऐसे ही बिखरा पड़ा रहा, और कहीं जी.आर.पी. वाले आ गए तो वह मुझे गिरफ्तार कर सकते हैं कि, महिला यात्री को अकेली पाकर, मैंने उसका रेप किया और उसे मार कर नीचे फेंक दिया.

मैंने वापस जाकर उसके सामान को बैग, डोलची में भरकर ऊपर बर्थ पर एक कोने में खिसका दिया कि, जिसका सामान है, हो सकता है भूल कर नीचे उतर गया हो.

और मैं तो इधर बैठा हूँ, उधर कौन चढ़ा, कौन उतरा, यह सब मैं क्या जानू. मैं यह सोचता रहा कि, आखिर मुझसे कहाँ चूक हो गई, कैसे मैं गफलत में आ गया कि, जिस सूटकेस पर 'दरभंगा' से लेकर आगे बराबर ध्यान बना रहा, वह आखिर में आकर भटक कैसे गया, मुझसे गलती किस जगह हुई.

आखिर निष्कर्ष यही निकला कि, 'मनकापुर' में जब मैं नीचे था, तब वह गेट पर सूटकेस लिए खड़ी रही होगी. मुझे अंदर आते देखकर, नीचे उतर गई होगी. ऐसा हुआ होगा. वैसा हुआ होगा. यही सोचते-सोचते मेरी खोपड़ी-भंजन होने लगी.

जब शाम को ट्रेन 'लखनऊ' में 'बादशाह नगर', रेलवे स्टेशन पर रुकी तो मैं नीचे उतरा. लेकिन खोपड़ी-भंजन तब भी चालू थी. प्लेट-फॉर्म पर मैं ऐसे चल रहा था, मानो अपने ही हाथों, अपना ही घर फूँक कर चला आ रहा हूं, लुटा-पिटा.

अचानक मेरे सामने वो दंपत्ति आ खड़ा हुआ, जिसे उस बदमाश औरत के चक्कर में पगलाया हुआ, मैं पीछे वाली बोगी में धकेल आया था. बहुत ही बदतमीजी के साथ. इस चक्कर में उसकी पत्नी प्लेट-फॉर्म पर गिरते-गिरते बची थी. उसने बड़े चहकते हुए पूछा, 'कैसी रही आपकी यात्रा? कहां है आपका परिवार, सामान.'

व्यंग्य के अंदाज में उसने जब पूछा तो, मुझे गुस्सा आ गई. खोपड़ी-भंजन चालू ही थी. फिर भी मैंने गुस्से को पीते हुए कहा, 'भाई, बहुत ही खूबसूरत, अविस्मरणीय रही मेरी यात्रा. मेरा अहो-भाग्य कि, आप जैसे सहयात्री मिले.

मुझे खुशी इस बात की भी है कि, आपकी इस विशेष यात्रा, कि आप शादी के बाद पहली बार ससुराल जा रहे हैं होली मनाने, उसके लिए मैं एक पूरी बोगी आपके लिए अरेंज कर सका. और आपने सम्पूर्ण यात्रा भरपूर मजा लेते हुए पूरी की. आपके चेहरे पर बिखरी खुशी इस बात को प्रमाणित कर रही है.'

यह कहते हुए मैंने उसकी पत्नी के चेहरे पर भी एक नजर डाली. वहां आए भाव, हल्की सी सुर्खी भी, मुझे साफ़-साफ़ बता रही थीं कि, दोनों ने भरपूर आनंद उठाया है. बिना रुके मैंने आगे कहा कि, 'जहां तक रही मेरी बात, तो ना मेरा कोई परिवार था, ना ही कोई सामान. ससुराल में आपकी पहली होली, आपको बहुत-बहुत शुभ हो, ढेर सारी शुभ-कामनाएं, आशीर्वाद. और आपको विवाहोपरांत मायके की पहली होली की बधाई.'

मैंने अभी भी संकुचाती उसकी पत्नी को देखते हुए कहा और आगे चल दिया. उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा भी नहीं की. दोनों ने कुछ कहा, शायद धन्यवाद कहा होगा.…

मैंने देखा इतना कह कर वकील साहब के चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे बरसों से सिर पर लिए घूम रहे किसी बोझ को, अवसर मिलते ही फेंक कर, बरसों से ठहरी विश्राम की सांस ली हो. उन्हें ऐसे देखते ही मैंने पूछा,

'' ऐसे अविश्वसनीय यात्रा अनुभव के साथ घर पहुँच कर भाभी जी को कैसे फेस किया ?''

'' दरअसल जब मैं स्टेशन से बाहर निकल कर ऑटो से घर कि ओर चला तो अजीब सी मनोदशा हो रही थी. जैसे मष्तिष्क हर तरह की बातों से शून्य हो गया हो. उसमें कोई बात हो ही न.

मैं एकदम भावहीन, संज्ञा शून्य सा इतनी लंबी प्रतीक्षा के बाद घर पहुंचा तो सब ने राहत की सांस ली. पत्नी को देख कर मैं चैतन्य अवस्था में लौटा तो बड़ी कोशिश की, लेकिन अपने लुटे-पिटे होने के भाव छुपा नहीं पाया.

मेरी अस्त-व्यस्त हालत, खाली हाथ देखकर पत्नी ने कुछ पूछने के बजाय, पहले चाय-नाश्ता कराया. बच्चों को टीवी देखने के बहाने दूसरे कमरे में भेज दिया. किसी अनिष्ट होने की आशंका से वह परेशान हो रही थी. उसे मालूम था कि, मैं किस काम के लिए गया था. यह भी जानती थी कि, काम बहुत ही ज्यादा रिस्की है.

उसने मुझे कई बार मना भी किया था कि, इस तरह के कामों में हाथ ना डाला करें. चाय-नाश्ते के बाद उसने कुछ संकोच के साथ बात करनी चाही, तो मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दे दिया कि, ‘सूटकेस चोरी हो गया.’ तो उस ने कहा, 'आप सही-सलामत आ गए, यही हमारे लिए बहुत है.'

लेकिन क्योंकि मैं उससे कोई बात छुपा नहीं पाता, इसलिए मैंने चौबीस घंटे के अंदर ही उसको सच बता दिया, बिना किसी संशोधन के. क्योंकि उस गेंहुअन ने जो विष दिया था, उसके प्रभाव से मैं पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाया था. मैं ठीक से यह भी नहीं सोच सका, कि पत्नी को क्या बताना है, क्या नहीं.

वह बहुत गुस्सा हुई. हाथ में लिया हुआ सामान गुस्से से ज़मीन पर पटकती हुई बोली, ' मैं गलत थी, मूर्खों की तरह अब-तक भ्रम में जीती चली आ रही थी कि, सारे मर्द औरतों के मामले में एक जैसे नहीं होते. मेरा पति तो बिलकुल भी नहीं. लेकिन नहीं, सच यही है कि, औरतों के मामले में तुम, सारे मर्द, सिर्फ और सिर्फ भेड़िये ही होते हैं. भेड़िये, और कुछ नहीं.'

उसके रौद्र रूप को देख कर उस समय मैं उससे यह नहीं कह सका, कि एकतरफा एक ही पक्ष को गलत कहना ठीक नहीं है. उस गेंहुअन को कुछ क्यों नहीं कहती. क्या उसकी कोई गलती नहीं?

वह पैर पटकती हुई, दूसरे कमरे में चली गई. जाते-जाते किचकिचाती हुई यह भी कह गई कि 'उस बदचलन, घिनौनी, आवारा को छूने के बाद, अब मुझे कभी न छूना.'

उसकी किसी बात पर मुझे गुस्सा नहीं आई. बल्कि आराम की सांस ली, क्योंकि मैं सोच रहा था कि, सच सुनते ही वह घर में बवंडर खड़ा कर देगी. लेकिन उसने ऐसी सदाशयता, बड़प्पन दिखाई कि, हवा कुछ तेज़ होकर, फिर अपनी सामान्य गति पर लौटती दिखी.