Prem Gali ati Sankari - 43 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम गली अति साँकरी - 43

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‘जगन था तो एक मुसीबत थी और अब नहीं रहा तब भी मुसीबत लग रहा है’यह मेरे मन में हलचल मचा रहा था | इससे हमारे परिवार का तो काफ़ी नुकसान हुआ ही था न ! मैं यह क्यों नहीं समझ पा रही थी कि परिस्थितियों व घटनाओं पर हमारा अधिकार नहीं होता है, वे तो बस घट जाती हैं | हमें उन्हें घटते हुए देखना होता है और उनके साथ चलना होता है | मेरा उपद्रवी मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं था कि हम चाहें भी तो भी कुछ नहीं कर सकते | मैं सोचती, ईश्वर ने बुद्धि तो दी है न, फिर उसकी उपयोगिता क्यों नहीं? लेकिन होता है ऐसा, हम सभी ऐसी स्थितियों में से गुज़रते रहते हैं जहाँ कभी सकारात्मक होते हैं तो कभी नकारात्मक हो जाते हैं | 

मज़ेदार बात यह है कि इस दुनिया में शायद बहुत कम लोग होंगे जो अपनी ‘मैं’से छूट सके होंगे | जब यह ‘मैं’आ जाता है तब हरेक परिस्थिति पलट जाती है | मुझे लगता है कि यह ‘मैं’ही मुझे परेशान कर रहा था वैसे मैं कहाँ इतना कुछ करती थी जितना और लोग कर रहे थे | संस्थान का काम-काज चल रहा था किन्तु उसके प्रमुख संभालने वाले ही अनुपस्थित थे तब मुझे यह बड़ी शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि मेरा ‘मैं’तो केवल मुझ तक ही सीमित था, मेरे अलावा और सब लोग संस्थान में मुझसे कहीं अधिक काम कर रहे थे, वे डूबे हुए थे इस संस्थान के काम में और उन्हें काम अपने दिल से जुड़ा हुआ लगता जिसके बिना उन्हें अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता | मेरा भी जुड़ाव था लेकिन जैसे अम्मा का बच्चा था संस्थान ! पापा का मित्र था संस्थान और शीला दीदी के परिवार की रोज़ी-रोटी के अलावा उनका मंदिर था | मेरे लिए वह ऐसा संस्थान ही था जहाँ हमारे परिवार को धन-संपत्ति व इज़्ज़त के साथ इतनी ऊँची पहचान मिली थी | इसके अतिरिक्त संस्थान मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण था कि लोग जिसे ‘कला संस्थान’कहते थे, दादी के बाद उसका नाम ‘त्रिवेणी कला संगम’ रख दिया गया था | दादी का नाम त्रिवेणी था इसलिए उनकी स्मृति में बोर्ड पर नाम बदला जा चुका था, बड़ी जद्दोजहद के बाद रजिस्ट्रेशन भी हो सका था लेकिन लोगों को आदत पड़ चुकी थी पहले वाले नाम से पुकारने की | हम परिवार वाले उस नाम से गहरे जुड़े थे, शीला दीदी का परिवार भी और मैं तो बहुत अधिक !शायद इसीलिए मेरे दिल में उस स्थान को छोड़ने की बात सोचते हुए भी एक अजीब सी संवेदना उमड़ने लगती | 

शीला दीदी के परिवार में अचानक रिश्तेदारों की बाढ़ आ गई थी जैसे, अम्मा-पापा ने इतने सालों में कभी किसी परेशानी में उनके यहाँ किसी को आते नहीं देखा था | यानि ऐसे कि अगर कोई दिक्कत हो तो कोई उनकी सहायता करने आ जाए या उनकी बहन, बेटी के परिवार में सब कुशल तो है, ? इसकी खोज खबर लेने आ जाए, ऐसा तो हमने कभी देखा नहीं था | हमेशा अकेले ही इन सबने अपनी परेशानियों में से निकलने की कोशिश की थी या जबसे दादी मिली थीं तबसे उन्होंने अपने आँचल तले इस परिवार को जैसे ढ़क लिया था | उनको शीला दीदी की हर बात का, हर परेशानी का पता रहता और वे जहाँ तक हो, बिना किसी से पूछे या बताए उस परेशानी का समाधान निकाल ही लेतीं | 

जगन के जाने के बाद अचानक ही शीला दीदी के घर में उनके भाई, चाचा, बूआ सारे आ खड़े हुए और रतनी के भी चाचा-मामा और वो भाई जिन्होंने रतनी को जगन से ऐसे ब्याहा था जैसे किसी कचरे को उठाकर बाहर फेंक दिया हो | रतनी इस घर में कैसे रही? उसकी साँसें कितनी घुटती रहीं, उसकी इज़्ज़त के कैसे चिथड़े उड़ते रहे किसने, कब पूछा था आकर कभी? अब जैसे रोने-पीटने, दिखावा करने के लिए सारे के सारे आकर जम गए थे | उस घर में कहाँ इतनी जगह थी कि वे सब उसमें सिमट सकते | शीला दीदी और रतनी परेशान हो उठे थे | 

पापा-अम्मा केवल उस दिन ही उनके घर गए थे जिस दिन जगन के साथ दुर्घटना घटी थी लेकिन उन्होंने अपने ‘सी.आई.डी’ छोड़े हुए थे यानि महाराज और गार्ड!अब तो दो नए लड़के और भी थे जिन्हें किसी भी काम के लिए दौड़ाया जा सकता था | शीला दीदी के घर की बातें, उनकी परेशानी पता चलते ही पापा ने शीला दीदी को फ़ोन करके कह दिया था कि रतनी के सिलाई वाले स्थान में यानि उस कैंपस में उनके ठहरने की व्यवस्था हो जाएगी | वह खासी बड़ी जगह थी और कारीगर अपना काम कुछ दिनों के लिए एक बड़े हॉल में समेट सकते थे | शेष वहाँ हर प्रकार की व्यवस्था थी | पापा ने गार्ड से कहकर वहाँ गद्दे डलवाने का इंतज़ाम भी कर दिया था | 

रिश्तेदारों ने आकर ऐलान कर दिया था कि दिव्य तब तक घर से बाहर नहीं निकल सकता जब तक जगन के सारे धार्मिक संस्कार पूरे न हो जाएँ | शीला दीदी चुप रहीं लेकिन रोज़ाना सुबह-शाम अम्मा के पास उनके फ़ोन आते रहते | कोई फ़ाइल कहाँ है? कितना काम हो गया है? कितना बाकी है? उसे अब कौन कर सकेगा? शीला दीदी को ऐसी परिस्थिति में भी संस्थान की और सबकी चिंता बनी हुई थी | 

मेरी ‘सी.आई.डी’ मेरे कमरे में विराजमान खिड़की थी जो मुझे सड़क पार के सब हालात दिखाती रहती जैसे कोई मूक फ़िल्म हो क्योंकि मेरे पास तक आवाज़ें नहीं पहुँच सकती थीं केवल उधर होने वाले ‘एक्शन्स’ से मैं वहाँ होने वाली घटनाओं की कल्पना भर कर सकती थी | 

पापा ने सारी व्यवस्था करवाकर शीला दीदी को कई बार फ़ोन किया कि अपने रिश्तेदारों को उस स्थान पर भेज दें जिससे वे आराम से रह सकें | उनका खाना भी वहीं मँगवा दिया जाएगा | इससे अधिक तो वे क्या कर सकते थे? लेकिन वे रिश्तेदार वहाँ उनके दुख में शामिल होने नहीं, उनको परेशान करने आए थे | कोई भी वहाँ से हिलने के लिए तैयार नहीं था | अगर वे हमारे ‘सिलाई-कैंपस’ में आ जाते तब उन्हें हर तरह की सुविधा तो मिलती लेकिन उनके दिल को कैसे चैन मिलता जो उन्हें शीला के परिवार को परेशान करने में मिलता? 

कमाल है !ये रिश्तेदार तो कुछ ऐसा व्यवहार कर रहे थे जैसे किसी की ब्याह-शादी में आए हों और उन बेचारों को मज़ाक-मस्ती का माहौल छोड़कर कहीं ऐसी जगह पर अकेले छोड़ दिया जा रहा हो जहाँ उनका दम घुटने वाला हो !

उन्हें तो वहीं शीला दीदी और रतनी के सिर पर बैठना था और मीन-मेख निकालकर अपने बड़प्पन का रौब मारते रहना था | जगन का नाम ले-लेकर ऐसे रोते मानो जगन के कितने सगे हों और उसके न रहने से उन पर पहाड़ टूट गए हों | 

मेरी खिड़की से वे बरामदे में मस्ती करते दिखाई देते, कोई बाज़ार खरीदारी करने आता-जाता, उनके हाथों में पैकेट्स पकड़े हुए होते | वो दाँत फाड़ते हुए गली में प्रवेश करते और घर में घुसते हुए उनके मुँहों पर बारह बज जाते, न जाने कितनी पीड़ा में से गुज़र रहे हों | मेरे मन में गुस्से का लावा फूट पड़ता जैसे अभी जाकर उन्हें खरी-खोटी सुनकर आ जाऊँ !