Kya Tumne - Part -12 books and stories free download online pdf in Hindi

क्या तुमने - भाग १२

सखाराम के इतनी ज़िद करने पर आखिरकार माया ने उस राज़ से पर्दा हटा ही दिया जो वर्षों से उसके सीने में दफ़न था। उसने कहा, “सखा मैं ऐसे हालातों से अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ। मैंने ऐसे हालातों को ज़िया है। तुम्हें तो यही मालूम है ना कि मेरी माँ बीमारी से मर गई। नहीं सखा मेरे बाप ने मोहन की तरह दारू पी पीकर मेरी माँ को मार डाला था। मैं रोज़ अपनी माँ को पिटते हुए देखती थी सखा। मैं रोती थी, गिड़गिड़ाती थी पर मेरे बाप पर किसी बात का असर नहीं होता। वह जल्लाद बेरहमी से मेरी माँ को रोज़ मारता था। मुझे बसंती में मेरी माँ दिखाई देती थी सखा। मैं उसका दर्द नहीं देख पाती थी। मेरी माँ के समय तो मैं बच्ची थी, कुछ ना कर पाई। मैंने तड़पते हुए अपनी माँ को मरते देखा। घर वालों ने बीमारी का बहाना करके सब रफा-दफा कर दिया। मैं मेरे परिवार में एक और मौत इस तरह से नहीं देख सकती थी इसीलिए मैंने …”

सखाराम ने माया को अपने सीने से लगाते हुए कहा, “तुमने जो भी किया ठीक ही किया। मोहन हमारे हाथ से निकल चुका था। उसके ऊपर शक के कीड़े ने अपना कब्जा कर लिया था और उसी का ज़हर शराब बन कर हर रोज़ उसके शरीर को छलनी करता ही जा रहा था।”

“लेकिन सखा अब मैं अपने आपको शायद कभी भी माफ़ …”

माया के होंठों पर अपनी उंगली रखते हुए सखा ने कहा, “नहीं माया तुम्हें यह भूलना ही होगा, मेरे लिए, हमारे परिवार के लिए।”

माया आँसू बहाती सखाराम के सीने से बेल की तरह लिपट गई।

बसंती दर्द के मारे बीच-बीच में उठ जाती थी। उसे प्यास लग रही थी और वह पानी पीने जा रही थी। तभी उसे अपने सास-ससुर की आवाजें सुनाई दीं और उसके कान वहीं रुक गए। उसके कानों ने हर बात को अपने अंदर लेते हुए उसके दिल तक पहुँचा दिया। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।

माँ उसे इतना प्यार करती हैं कि उसे बचाने के लिए उन्होंने अपने बेटे को …! यह सब सुनकर बसंती ने उन सारी बातों को अपने दिल के एक कोने में दफ़न कर दिया क्योंकि वह जानती थी कि यदि बात फैली तो फिर दूर तलक जाएगी।

देखते-देखते सवा महीना बीत गया, तब एक दिन बसंती के माता-पिता उसे लेने आए। उन्होंने सखाराम से कहा, “समधी जी हम अपनी बिटिया बसंती को लेने आए हैं। वैसे भी उसका जीवन तो वीरान हो चुका है। सोचते हैं धीरे से उसकी नई दुनिया बसा देंगे।”

बसंती के ससुर कुछ कहते, उससे पहले ही बसंती ने कहा, “नहीं बाबूजी यह मेरा घर है और ये ही मेरे माता-पिता हैं। मैं इन्हें छोड़कर अब किसी और नई दुनिया में नहीं जाना चाहती। यह मेरा घर ही मेरा स्वर्ग है बाबूजी। दो-चार दिनों के लिए आपके साथ ज़रूर चलूंगी परंतु …”

माया ने बसंती की बातें सुनकर उसे सीने से लगा लिया।

बसंती के माता-पिता ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “देखो ना सखा राम बाबू कितना सुंदर मन है इसका, उसके तन की ही तरह। फिर भी मोहन उसके साथ न्याय नहीं कर पाया।”

बसंती के माता-पिता वापस अपने घर चले गए। जाते-जाते अपने साथ यह सुकून लेकर गए कि अब उनकी बच्ची को किसी से कोई ख़तरा नहीं है। सब उसे बहुत प्यार करते हैं।

सखाराम हर रोज़ अपनी पत्नी को उदास देखकर ख़ुद भी उदास रहने लगा था। माया के मन में हर समय यह प्रश्न तूफान मचाता रहता था कि आख़िर सखाराम को कैसे सच्चाई का पता चला।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः