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उत्सव और बाजार

पहले उत्सव समाज से जुड़ा था, परिवार से जुड़ा था और जुड़ा था धर्म से। धर्म अब शोभा यात्राओं और शोर शराबे में डूब गया है इसके पीछे एक संगठन काम करता है जो धर्म से सत्ता की फसल काटता है।

उत्सव और समाज के बीच अब बाजार आ गया है बाजार हमें यह बताता है कि किस उत्सव को कैसे मनाना चाहिए। अब दीवाली को ही ले लीजिए गिफ्ट में क्या देना है? कपड़े किस ब्रांड और फेशन के खरीदने है। विज्ञापन की दुनिया रात-दिन इस काम में लगी हुई है । धन तेरस में सोने के गहने, नयी कार, मोटर बाइक  टीवी, कंप्युटर, किचन वेयर नए डिजाइन के लीजिए फिर पर्व डिस्काउंट लीजिए पैसे नहीं हो तो इंस्टालमेंट में लीजिए फाइनैन्स कर लीजिए बाजार हर तरह कि सुविधा देने को तैयार है। परिवार में घंटों इस बारे में बातें होती है, विभिन्न ब्रांडों के बीच तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है बाजारों में भीड़ अटी पड़ी है दुकानें सजी-धजी है। ग्राहक आकर्षित होता है ललचा जाता है ये खरीद लूँ यह भी खरीद लूँ अगर किसी तरह अपने को कंट्रोल कर दिया है तो बीबी बच्चे आगे बढ़ जाते हैं बीबी नये किचन वेयर और बच्चे फलां कपड़े जूते लेने की बात करेंगे।

दीवाली का बाजार झम्म से उतरता जादू है लुटा-पिटा ग्राहक घर आता है। और दुख भरे मन से खरीदारी की खुशियाँ मनाता है।

घर में क्या मिठाइयां बननी है और कैसे बनानी है अखबार पत्रिकाएं फूड ब्लॉगर बताते है पारंपरिक मिठाइयों की जगह फ्यूज़न डिसेज ने ले ली है।

लक्ष्मीजी की पूजा कब कैसे करनी है ज्योतिषी बताता है राम के नाम की दीवाली में लक्ष्मीजी पूजी जाती है सियाराम का पूरी दीवाली में कोई नामलेवा नहीं है दशहरे में रावण आगे आ जाता है और राम पीछे छूट जाता है न कोई झांकी न कोई शोभा यात्रा जिसके नाम का पर्व वही सबसे ज्यादा उपेक्षित।

अब खेती किसानी से भी इसका लेना देना नहीं रहा न बैल रहे न उनके गले बंधी घंटिया रही, दिया जरूर जलाया जाता है लेकिन इलेक्ट्रिकल लाइट की लड़ों ने उसकी जगह ले ली है । पर्व में उपभोक्ता संस्कृति झलकती है। जितनी ज्यादा खरीदारी उतनी ज्यादा खुशियाँ, यानी आपकी खुशियाँ आपकी जेब पर निर्भर हो गई है।  

घर की बनाई मिठाइयों को पड़ोसियों से शेयर किया जाता है अब तो ठेकेदार इंजीनियर और अफसर को ड्राइ फ्रूट के पैकेट मिठाई के नाम देते है पर इंजीनीयर और अफसर वापस गिफ्ट नहीं देता। मंत्री के यहाँ ढेर पैकेट पड़े हैं कई तो मिठाई के डब्बों में नए नोटों की गड्डीया भर देते हैं। दीवाली मे मजे तो इनके हैं। इन्हें बस लेना ही लेना है , देने का नाम नहीं । 

दिवाली यानी रौनक, पकवान, मुस्कुराहट, खुशियां, साफ सफाई, रंगोली और दीये का त्योहार है। उपहार प्रेम का प्रतीक है या रिश्वत का या निकट संबंध का। उपहार के पीछे की भावना ‘खुशियाँ शेयर करने’ की लुप्त हो गई है अब तो हिसाब लगाया जाता है कि किसको क्या उपहार देना है? संबंध आर्थिक ज्यादा हो गए हैं सामाजिकता उसमें कम होती जा रही है।