Devo ki Ghati - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

देवों की घाटी - 5

… खण्ड-4 से आगे

रेलवे स्टेशन कोटद्वार

उनकी गाड़ी कोटद्वार रेलवे-स्टेशन के बाहर जा पहुँची थी। उधर, कोटद्वार पहुँचने वाली एक रेलगाड़ी भी धीरे-धीरे प्लेटफार्म के सहारे जा रुकी थी। आगे पता नहीं कोई गाय आ खड़ी हुई थी या कोई-अन्य रुकावट थी कि अल्ताफ टैक्सी को रोककर खड़ा हो गया। यह रेलवे स्टेशन के बाहर की जगह थी और कुछ प्राइवेट बसों के ड्राइवर व कंडक्टर आदि ने मुख्य सड़क पर ही अपनी बसें टेड़ी-तिरछी खड़ी करके रास्ते को रोका हुआ था। वह जगह रेलवे प्लेटफार्म से काफी ऊँचाई पर और काफी नज़दीक थी इसलिए प्लेटफार्म का सारा दृश्य कार के भीतर से साफ सुनाई व दिखाई दे रहा था। टैक्सी में बैठे बच्चे वहाँ से रेलवे प्लेटफॉर्म का नज़ारा देखने लगे। दादा जी की उम्र के एक आदमी ने जैसे ही कम्पार्टमेंट से निकालकर अपना सामान प्लेटफार्म पर रखा, कुली-जैसे दिखाई देने वाले तीन-चार गोरखे उसके निकट दौड़ आए। अभी उसने सामान उठाकर ले चलने के बारे में किसी से कुछ कहा नहीं था, फिर भी वे सब आपस में एक-दूसरे को पीछे धकेलने-से लगे। कुछ देर उनका तमाशा देख लेने के बाद आखिर उसने कहा, ‘‘झगड़ा क्यों करते हो भाई, एक-एक अदद तीनों-चारों लोग उठा लो।’’

‘‘किदर चलना ए शाबजी?’’ उनमें से एक ने पूछा।

‘‘बदरीनाथ जाने वाली बस में।’’ उसने कहा।

‘‘बद्रीनाथ को जाने वाली बश तो शुबह जल्दी ही निकल जाती है शाबजी!’’ उनमें से एक कुली तुरन्त बोला, ‘‘आप कहें तो आपका शामान हम श्रीनगर वाली बश में चढ़ा दें।’’

‘‘श्रीनगर!’’ उसकी बात पर बच्चे आश्चर्यपूर्वक बोल उठे।

‘‘यह उत्तराखण्ड का श्रीनगर है बच्चो, कश्मीर का नहीं।’’ दादा जी ने उन्हें बताया।

उधर, वह आदमी कुली से बोला, ‘‘ठीक है, उसी में ले चलो।’’

सामान उठाकर कुली स्टेशन से बाहर आया। बस-स्टेंड सामने ही था। टिकिट-खिड़की पर जाकर उसने श्रीनगर की बजाय पौड़ी तक की टिकिट ली और कुली को बस की छत पर सामान सुरक्षित तरह से रखने और बाँध देने का आदेश दिया। दोनों बच्चे यह सब देखकर आनन्दित होते रहे। सामान को बाँधे जाने तक वह व्यक्ति स्वयं बाहर खड़े रहकर बस की छत पर रखे सामान की देखभाल करता रहा। जैसे ही बस चलने को हुई, अन्दर जाकर सीट पर बैठ गया।

दुगड्डा

‘‘श्रीनगर यहाँ से कितनी दूर होगा दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘श्रीनगर! होगा करीब एक सौ पेंतीस किलोमीटर।’’

‘‘इसका मतलब यह कि वहाँ पहुँचने में हमें करीब तीन घंटे लगेंगे?’’

‘‘हमें तो शायद तीन ही घंटे लगें; लेकिन बस को लगेंगे चार या पाँच घंटे...’’ दादा जी ने कहा।

‘‘चार या पाँच!!’’ आश्चर्यपूर्वक उसके मुँह से निकला।

‘‘यह पहाड़ी जगह है बेटा।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘प्लेन नहीं कि गाड़ी को दौड़ाते जाओ, दौड़ाते जाओ। फिर, बस वालों को लोकल सवारियों को भी तो उतारते-चढ़ाते रहना पड़ेगा।’’

‘‘सबसे पहले कौन-सी जगह आएगी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘सबसे पहले आएगा दुगड्डा।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘यहाँ से सिर्फ पन्द्रह किलोमीटर दूर है।’’

‘‘यानी दस-बारह मिनट में हम दुगड्डा पहुँच जाएँगे!’’ निक्की बोला।

‘‘हम तो शायद दस-बारह मिनट में ही पहुँच जाएँ, लेकिन बस को वहाँ पहुँचने में लगेंगे कम से कम पच्चीस-तीस मिनट।’’ इस बार मणिका बोली।

‘‘दादा जी की नकल उतारती है चुहिया?’’ सुधाकर ने मुस्कराकर उसकी इस सकारात्मक शरारत पर हल्की-सी एक चपत उसके सिर पर लगाई।

‘‘मणिका ठीक कह रही है। ये मैदानी सड़कें नहीं हैं।’’ दादा जी बोले, ‘‘पहाड़ी रास्ते हैं। कहीं-कहीं तो इतनी चढ़ाई होती है कि पूरी ताकत लगाने पर भी बस पन्द्रह या बीस किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा की चाल पकड़ ही नहीं पाती है। ...और जहाँ ढलान है वहाँ भी ड्राइवर को कम ही स्पीड रखनी पड़ती है।’’ फिर अल्ताफ से कहा, ‘‘ठीक बोल रहा हूँ न बेटे?’’

‘‘जी बाबा जी।’’ उसने कहा ।

‘‘क्यों?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘कोटद्वार से दुगड्डा तक तो कोई खास चढ़ाई नहीं है। उससे आगे हर दूसरे-चौथे किलोमीटर पर आने वाले मोड़ों को भी देखोगे और चढ़ाइयों को भी।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘अगर ड्राइवर तेज स्पीड में गाड़ी रखे और मोड़ पर सामने से अचानक दूसरी गाड़ी आ जाए तो?...वह अगर इधर गाड़ी को बचाने की कोशिश करेगा तो गया गहरी खाई में, और अगर उधर बचाएगा तो पहाड़ से टकराएगा। इसलिए हर ड्राइवर स्पीड पर काबू रखता है। यहाँ, पहाड़ में, एक नियम और है बेटे!’’

‘‘क्या दादा जी?’’

‘‘अगर दो गाड़ियाँ किसी ढलान पर अचानक आमने-सामने पड़ जाएँ तो ढलान से उतरने वाली गाड़ी ढलान पर चढ़ने वाली गाड़ी को रास्ता देगी।’’

थोड़ी देर बाद ही उनकी टैक्सी एक नदी के पुल पर से गुजरी।

‘‘यह कौन-सी नदी है दादा जी?’’ बच्चों ने पूछा।

‘‘यह भील नदी है।’’

बच्चे तेज गति से बहने वाली उस नदी की धारा को देखते रह गए। कुछ ही देर में टैक्सी दुगड्डा में जाकर रुक गई। बाहर फल और दूसरी चीजें बेचने वालों की आवाज़ों ने बच्चों का ध्यान भंग किया।

वे मुस्कराकर दादा जी की ओर देखने लगे।

चन्द्रशेखर आज़ाद की अभ्यास स्थली

‘‘मैं अच्छी तरह से समझ रहा हूँ तुम दोनों के इस तरह मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखने का मतलब।’’ दादा जी भी उनकी ओर मुस्कराते हुए बोले, ‘‘बच्चो, दुगड्डा वो ऐतिहासिक जगह है जहाँ के जंगलों ने मौन रहकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ भारत की आज़ादी की लड़ाई में सहयोग दिया था।’’

‘‘दादा जी, यहाँ के जंगलों से मतलब उन लोगों से है न, जो यहाँ के जंगलों में रहते थे?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘अक्सर तो ऐसा बोलने का वही मतलब होता है जो तू कह रही है मणिका; लेकिन यहाँ पर जंगल का मतलब वास्तव में जंगल ही है।’’

‘‘तब तो बड़ा मजेदार किस्सा होना चाहिए।’’ उनकी बात सुनकर ममता ने कहा, ‘‘सुनाइए बाबू जी।’’

‘‘यह मज़ेदार उतना शायद न लगे ममता, ’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन हमारे इतिहास का सुनहरा पन्ना जरूर है। चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम तो तुमने सुन ही रखा होगा।’’

‘‘आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं बाबू जी!’’ उनके इस सवाल पर ममता नाराज़गीभरे स्वर में बोली, ‘‘मैं क्या मणिका जितनी बच्ची हूँ जो मैंने देश की आज़ादी के लिए मर मिटने वाले अपने शहीदों के नाम भी नहीं सुन रखे!!’’

‘‘आप मेरा नाम क्यों ले रही हो मम्मी?’’ ममता की बात से नाराज़ मणिका तुरन्त बोल उठी, ‘‘दादा जी की अलमारी में रखी किताबों से उठाकर मैंने भगतसिंह, सुखदेव, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी...और भी पता नहीं कितने ऐसे शहीदों के बारे में पढ़ रखा है जिनके आपने नाम भी नहीं सुने होंगे।’’

ममता उसके इस जवाबी हमले से हारकर चुप रह गई।

‘‘नाराज़ न हो...नाराज़ न हो बेटा, ’’ दादा जी उसके सिर पर हाथ घुमाते हुए उसे शांत करने की कोशिश करते बोले, ‘‘उसके कहने का मतलब सिर्फ यही बताना था कि उसने चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम सुन रखा है। अब गुस्सा थूको और मेरी बात सुनो—चन्द्रशेखर आज़ाद अचूक निशानेबाज़ थे, इस बात को तो उनके समय के अंग्रेज पुलिस अफसरों ने भी माना है; लेकिन निशानेबाजी में खुद को इतना पारंगत उन्होंने कैसे बनाया, इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं।’’

‘‘पारंगत माने दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘पारंगत माने परफेक्ट।’’ दादा जी के बजाय सुधाकर ने बताया। फिर बोला, ‘‘आप आगे बताइए बाबू जी।’’

‘‘पिस्तौल और गोलियाँ लेकर वे अपने साथियों के साथ इस दुगड्डा के घने जंगलों में आ रुके। खाना, पीना, सोना—सब, मनुष्यों की आबादी से कोसों दूर, जानवरों और मच्छरों से भरे इन्हीं जंगलों में। आज़ाद का मानना था कि अंग्रेज सिर्फ गोली की भाषा समझता है। महात्मा गाँधी की अहिंसा वाली नीति में उनका विश्वास नहीं था। तो यहाँ रहते हुए वे दिनभर गोली चलाने का अभ्यास किया करते थे।’’

‘‘...और रात में?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘रात में चारों ओर सन्नाटा पसरा रहता है मणि बेटे।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘आवाज़ दूर तक जाती है। इसलिए रात में वे दण्ड-बैठक लगाते थे या अपने किसी साथी के साथ कुश्ती के दावपेंचों का अभ्यास करते थे। एक बात और बता दूँ—जंगल के जिस पेड़ पर टारगेट निश्चित करके वे निशाना लगाया करते थे, उसके अवशेष पिछले कुछ वर्ष पहले तक यहाँ के जंगल में मौजूद थे और लोग उसे देखने भी आते थे; लेकिन दो बातों की वजह से वह पेड़ अब शायद समाप्त हो चुका है।’’

‘‘किन बातों की वजह से बाबू जी?’’ ममता ने पूछा।

‘‘पहली तो यह कि स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी ज्यादातर धरोहरों को संजोए रखने में किसी भी आम या खास व्यक्ति ने रुचि नहीं दिखाई। दूसरी यह कि भले ही मनुष्यों से कहीं ज्यादा होती हो, लेकिन पेड़ों की भी एक खास उम्र होती ही है। ...और फिर, बेचारे उस पेड़ ने तो हजारों गोलियाँ खाई थीं। वह अपने समय से शायद पहले ही काल के गाल में समाने लगा था। इसीलिए, उसे देखने को आने वाले लोग उसके अवशेषों को ही इस तरह प्रणाम अर्पित किया करते थे जिस तरह अपने पूजनीय बुजुर्गों के चरणों में किया जाता है।’’

‘‘वह पेड़ यहाँ से कितनी दूरी पर होगा दादा जी?’’ निक्की ने पूछा, ‘‘क्या हम उसे देखने को चल सकते हैं?’’

‘‘उस पेड़ के अब शायद अवशेष भी नहीं बचे हैं बेटे।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘जंगलों की अधाधुंध कटाई में उसके अवशेष भी काम आ गए होंगे। दूसरी बात यह है कि जंगल के बीच उस जगह तक पहुँचाने के लिए इस इलाके का कोई जानकार व्यक्ति हमारे साथ होना चाहिए; और तीसरी यह कि टैक्सी को यहीं छोड़कर पहाड़ पर पैदल चढ़ने और उतरने का मन बनाना पड़ेगा।’’

‘‘इस वक्त उतना समय हमारे पास नहीं है निक्की।’’ ममता ने कहा, ‘‘आगे भी हमें बहुत लम्बा रास्ता तय करना है।’’

निक्की ने मम्मी की बात मान ली; कहा, ‘‘ठीक है, आगे चलो।’’

उसकी इस सहमति के साथ ही टैक्सी आगे बढ़ चली।

‘‘अब एक बात सामान्य ज्ञान की और सुनो—’’ दादा जी ने कहा, ‘‘दुगड्डा साहित्य के क्षेत्र की भी एक हस्ती का निवास स्थान रहा है।’’

‘‘किनका?’’ इस बार सुधाकर ने पूछा।

‘‘डॉ. शिवप्रसाद डबराल का। यहाँ रहकर उन्होंने इतनी साहित्य साधना की कि उन्हें इन्साइक्लोपीडिया ऑफ गढ़वाल कहा जाने लगा। उन्होंने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के महान कवि व चित्रकार मौलाराम की ब्रजभाषा की कविताओं के अलावा गढ़वाल के बहुत-से प्राचीन साहित्य को खोजकर उसे प्रकाशित कराया है।’’

गुमखाल और सतपुली

‘‘दुगड्डा के बाद हम कहाँ रुकेंगे?’’ वहाँ से आगे बढ़े तो मणिका ने पूछा।

‘‘रुकते-चलते तो हम रहेंगे ही बेटी।’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन जानने की बात यह है कि हमारी गाड़ी अब किस महत्त्वपूर्ण जगह से होकर गुजरेगी?’’

‘‘किस जगह से?’’

‘‘गुमखाल से।’’

‘‘कौन-सी खाल?’’ इस बार निक्की या मणिका की बजाय ममता ने पूछा।

‘‘खाल नहीं, गुमखाल। जगह का नाम है।’’

‘‘यह जगह किस तरह से महत्त्वपूर्ण है दादा जी?’’

‘‘गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है। इसलिए यहाँ से हिमालय की पर्वत-शृंखला के दूर-दूर तक दर्शन होते हैं।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘दूसरी बात यह कि, गुमखाल के पास ही भैरोंगढ़ी नाम की जगह है जहाँ पर भगवान भैरों का बहुत पुराना मंदिर है। भैरों जी को गढ़वाल का द्वारपाल माना जाता है। भारतभर से साधु लोग यहाँ आकर साधना करते हैं और सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।’’

‘‘सिद्धियाँ क्या होती हैं दादा जी?’’

‘‘सिद्धियाँ!’’ यह सवाल सुनकर एकदम से चक्कर में पड़ गए दादा जी। क्या बताएँ? वास्तव में तो उन्होंने भी किसी सिद्ध पुरुष को अब तक नहीं देखा था। सिर्फ सुना या पढ़ा था। लेकिन बच्चों के सवाल को टाला तो नहीं जा सकता था। बहुत देर तक वे सोचते रहे कि क्या जवाब दें? फिर बोले, ‘‘साधना के द्वारा, घोर तपस्या के, गहरे अभ्यास के द्वारा, अपने अन्दर की सारी शक्तियों और क्षमताओं को...अपने आत्मविश्वास को जगा लेने को ही सिद्धि पा लेना कहते हैं।’’ यों कहकर वे चुप हो गये; फिर थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने पुन: समझाने लगे, ‘‘हालाँकि बहुत-से लोग सिद्धियों को जादुई या चमत्कार दिखानेवाली विद्या मान लेते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं।’’

इसके बाद काफी देर तक किसी के बीच कोई बात नहीं हुई। अल्ताफ ध्यानपूर्वक गाड़ी चलाता रहा और बाकी सब के सब बाहर के दृश्यों को देख-देख विभोर होते रहे।

‘‘गुमखाल से ही एक रास्ता लैंसडाउन की ओर कट जाता है और दूसरा सतपुली की ओर।’’ कुछ देर बाद दादा जी ने बताया, ‘‘उस मोड़ पर पहुँचकर कुछ देर हम रुक भी सकते हैं।’’

‘‘उस मोड़ पर हम पहुँचने ही वाले हैं सर जी।’’ यह सुनते ही अल्ताफ बोला, ‘‘गाड़ी वहाँ रोकनी है क्या?’’

‘‘हाँ।’’ दादा जी ने कहा।

अगले ही पल सड़क किनारे थोड़ी खुली-सी जगह देखकर अल्ताफ ने टैक्सी रोक दी। दादा जी खिड़की खोलकर बाहर आ खड़े हुए। उनके पीछे-पीछे ही बाकी सब भी।

खण्ड-6 में जारी………